Меня не убьют в этой жизни - 34

Евгений Дряхлов
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   Карабкаюсь  по  отвесной  стене  скалы  к  ее  вершине.  Тяжело,  сил  почти  уже  нет,  но  осталось  совсем  немного,  вот  она,  вершина.  Подтягиваюсь  и  кладу  обе  руки  на  почти  плоскую  площадку  два  на  два  метра,  еще  один  рывок - и  смогу  встать  на  ноги.  Уже  захватывает  дух  от  открывшейся  красоты,  бесконечной,  здесь  даже  нет  горизонта,  горы,  покрытые  мягким  влажно-зеленым  лесом.  Сейчас  этот  мир  будет  принадлежать  мне,  а  потом  я  позову  Ольгу  и  разделю  его  с  ней.  Слышу,  как  раздается  свист  падающего  тела,  поднимаю  голову  вверх,  вижу  большого  черного  орла,  с  больными  безумной  злобой  глазами.  Клюв  остро  прошивает  сначала  левую  ладонь,  и  через  мгновение  правую,  я  отдергиваю  руки.  Падение  долгое,  жуткое.  Леденящий  страх.
   Прихожу  в  себя  в  пустом  вагоне  электрички.  За  окнами  мелькают  станции  и  разъезды,  но  поезд  не  останавливается,  он  куда-то  очень  спешит,  не  знаю  куда,  спросить  не  у  кого,  пусто.  Показался  город,  чужой,  незнакомый,  сплошь  покрытый  почерневшими  от  времени  деревянными  одноэтажными  домами,  и  только  на  дальней  горе  их  два.  Поезд  замедляет  ход,  решаю,  что  выйду  здесь,  пересяду  и  поеду  туда,  куда  мне  надо. Подъезжаем  к  вокзалу,  но  поезд  не  останавливается,  а  наоборот,  начинает  ускоряться.  Прыгаю  на  ходу.  На  старом,  с  обвалившейся  штукатуркой  здании  вокзала  вывески  нет,  внутри  его  пусто.  Ветер  шевелит  на  грязном  полу  обрывки  бумаги,  так  в  кино  показывают  войну.  Пожилая  женщина  в  железнодорожном  жилете,  со  старой  метлой  в  руках,  делает  вид,  что подметает  пыль.  Спрашиваю:
   - Скажите,  как  называется  этот  город?
   У  нее  лицо  цвета  той  же  пыли,  на  которой  она  стоит,  и  глаза  такие  же  серые,  в  них  тупая  усталость.
   - Не  знаю.
   Выхожу  на  привокзальную  площадь,  когда-то  на  ней  был  асфальт,  его  остатки  разбросаны  по  площади  случайными  островками. Справа, под  дырявым  навесом,  на  длинном  деревянном  столе  три  бабушки  в  клетчатых  платках  и  плюшевых  зипунах,  что-то  продают.  Подхожу,  смотрю,  вижу  мелкие  черные  семечки,  перед  каждой  кулек.
   - Скажите,  как  называете  этот  город?
   - Не  знаем.
   - Так,  где  вы  живете?
   - Мы  живем?  Здесь.
   - Бабушки,  плохие  у  вас  семечки.  Я  бы  не  купил.
   - Никто  и  не  покупает.
   - Тогда  зачем  сидите?
   - Ждем.
   - Чего?
   - Время.
   От  старого,  чугунного  фонарного  столба,  со  следами  черной  краски,  ко  мне  приближается  всклоченный,  небритый  мужик.  Ему  лет  сорок  пять,  он  в  неизвестного  мне  цвета  рубашке,  застегнутой  на  одну  пуговицу,  из  широких  сатиновых  трусов,  он,  видимо,  принимает  их  за  шорты,  торчат  бледные  худые  ноги  в  сандалиях.  В  авоське  три  пустые  бутылки  с  этикеткой  «Агдам».  Он  идет  не  ко  мне,  идет  мимо,  просто  идет,  как  мне  кажется,  не  зная,  куда.  Встаю  перед  ним:
   - Мужик,  скажи,  как  уехать  отсюда?
   - Никак,  здесь  не  останавливаются  поезда.
   - Тогда  автобус?
   - Здесь  нет  ни  автобусов,  ни  дорог.
   -  И  что  делать?
   - Жить.
   - Жить?
   - У  нас  много  пустых  домов.
   -  Но  я не  хочу  здесь  жить!
   -  Тогда  уходи.
   -  Куда?  Ты  ведь  сказал,  нет  дорог.
   - Тот,  кто  уходит,  строит  сам  себе  дорогу.
   - Пустые  дома,  из  них  ушли?
   - Нет,  я  уже  и  не  помню,  когда  последний  ушел.
   - А  ты  почему  не  уходишь?
   - Зачем?  Куда?  Привык.
   - А я  пойду.
   - Это  как  получится.  Может,  уйдешь,  если  получится.
   - Получится.  Прощай.
   Надо  вставать,  не  хотелось,  полежать бы,  перебирая  виденные  картины,  постепенно  вытеснить  тягостный,  непонятный  осадок, который  они  оставили  в  душе.   Надо  вставать,   я  раб  и  вместе  с  другими  рабами  должен  приходить  на    работу  вовремя,  иначе  не  получишь  еды.  Встал,  побрился,  умылся,  завтракать  не  хотелось,  я  и  не  стал.  Вместо  завтрака  вышел  на  балкон,  закурил,  вроде  уж  бросил,  но  вот  захотелось  и  все,  утро  такое.  Знаю,  что  вредно  натощак,  всегда  верю  тому,  что  говорят  по телевизору.  Это,  кажется,  Лев  Николаевич  говорил,  что  только  идиоты  верят,  всему  тому,  о  чем  пишут  в  газетах,  мы  скоро  забудем  как  выглядела  газета,  поэтому  верим  телевизору,  ну  а  самые  умные  верят  компьютеру.  Поразмышлял,  лучше  не  стало.  Все-таки  надо  на  работу,  пошел  к  выходу.  Взял  ручку  двери,  зазвонил  телефон. 
   Хриплый,  сдавленный,  потерянный  голос:
   - Это  отец  Ольги.  Сегодня  ночью  по  дороге  из  аэропорта  Ольга разбилась.  Насмерть
   Мороз  ужаса  прошел  по  телу  так,  что  оно  зазвенело  от  сковавшего  кровь  льда.  Кожа  лица  скомкалась,  невозможно  разжать  губы.  Но  тоска,  неизбывная,  звериная  доисторическая  тоска  все  равно  смогла  вырваться  из  этого  звенящего  тела  нечеловеческим  криком-стоном:
   - Господи-и-и!  За  что-о-о?
   Некоторое  время  стоял,  прислонившись  спиной  к  стене,  ничего  не  понимая,  в  голове -  ни  мысли,  ни  полумысли,  но  вдруг  просветлел  и  ясно  осознал,  что  должен  сделать.  Я  повесился.  Взял  ремень,  сделал  петлю,  привязал  конец  к турнику  в  проеме  двери.  Потом  просунул  голову  в петлю  и  подогнул  ноги,  ремень  резко  врезался  в  шею,  было  больно,  но  я  вытерпел  и  не  встал.  Сознание  быстро  помутнело,  мозг  стал  крошиться,  как  крошится  пенопласт,  казалось,  что  вся  голова  заполнилась  крошевом  пенопласта,  а  потом  не  стало  ничего.
   Когда  открыл  глаза,  понял,  что  лежу  на  полу,  а  надо  мной  стоит  брат  и  что-то  кричит.  Крик  слышу,  а  о  чем  он  кричит,  не  понимаю,  у  меня  не  получается  сделать  вдох.  Не  знаю,  почему,  видимо,  сработал  какой-то  рефлекс,  пополз  к  балкону,  к  свежему  воздуху.  Перевалил  через  порог,  лег  на  спину  и  наконец-то  смог  вздохнуть.  Воздух  ворвался  в  легкие,  и  они  закричали,  застонали  от  боли.  Меня  ломало  и  выгибало,  а  я  жадно  и  больно  вдыхал  и  выдыхал  из  себя  воздух.  Через  какое-то  время,  не  знаю,  может  минут  через  пять-десять  дыхание  выровнялось,  пульс  пришел  в  норму,  но  тело  еще  болело,  пока  воздух  иглами  возвращался  в  мышцы.
   Брат  стоял  молча,  растерянно  смотрел  на   мою  ломку,  не  зная,  чем  помочь.  Я  встал,  прошел  в  комнату,  сел  на  диван.  Комната  молча,  сурово  осуждала  меня.  А  мне  все  равно,  пусть  хоть  весь  мир  осуждает.  Ему  нет  до  меня  дела,  а  мне  до  него.  Брат  сел  в  кресло  напротив.
   - Что  же  ты  делаешь?  Тебя  не  станет,  что  будет  со  мной?
   Я  не  отвечал.  Отвратительное  пустое  безразличие  заполнило  меня  от  края  до  края.  В  который  уже  раз  осознание  ненужности,  никчемности  жизни  жестким  камнем  остановилось  в  груди.  Он  поселяется  во  мне  всегда,  когда  меня  предают  и  потом  долгие  месяцы  растет  и  растет,  и  только  через  годы  начинает  понемногу  рассыпаться,  но  никогда  до  конца.  А  в  этот  раз  меня  предала  сама  судьба,  поманила,  побежал,  из-за  угла  обухом  по  голове,  значит,  теперь  навсегда. Чтобы  хотя  бы  словами  приглушить  этот  гудящий,  выжигающий  вал  горя,  спросил:
   - Ты  как  здесь?
   - Ехал  на  работу,  вижу,  твоя  машина  на  месте,  значит  дома.  Дай,  думаю,  зайду.  Дверь  толкнул,  она  открыта.  Сразу  увидел.  Прыгнул  на  кухню,  схватил  нож,  перерезал.  Как  так,  Колька?
- Ольга  погибла.
Перехватило  горло,  побежали  слезы,  положил  голову  на  подлокотник  и  отпустил.  Не  хотел   перед  братом,  не  смог. Передо  мной  лицо  Ольги,  там,  на  ромашковой  поляне,  доверчивый  взгляд,  и  уже  тогда  показалось,  что  там,  в  глубине,  затаенная  печаль. Показалось?  Может,  я  сейчас  начинаю  придумывать?  Нет.  Видел  тогда.  Сказала,  что  будет  любить  даже  тогда,  когда  ее  не  станет.  Она  знала?  Предчувствовала?  Поникшая,  ссутулившаяся  фигура  в  тот  последний  день,  когда  она  уходила,  шла  к  своей  машине. Знала,  что  уходит  навсегда?  Нет,  конечно,  не  знала,  судьба  не  раскрывает  свои  карты  до  самого  конца,  хотя  знаки  и  подает.
- Какая  Ольга?
- Моя  Ольга.  Не  знаешь  ты  ее. Мы  были  вместе  четыре  дня.
- Четыре  дня!?  И  ты  повесился  из-за  четырех  дней!?
- Дон  Кихот  ни  разу  не  видел  свою  Дульсинею,  а  готов  был  отдать  за  нее  жизнь.
- Да  он  же  был  полным  идиотом,  твой  Дон  Кихот.  У  тебя  все  нормально  с  головой?
- Согласен, «Идиот»,  князь  Мышкин,  только  в  другом  времени.  Фразу  о  моей  голове  я  уже  слышал,  было.  Так  вот  я  живу,  какой  есть,  другим  не  стану.  Годы  ждал  этих  четырех  дней.  Даже,  если  бы  это  была  только  минута,  мне  все  равно.  Ты  скажешь,  как  мне  жить  дальше?
- Как  жить?  Просто  вспомни,  что  ты  не  один,  что  ты  сейчас  старший  в  нашем  роду,  что  для  всех  нас  ты  всегда  сильный,  стойкий,  всегда  с  идеями,  всегда  вперед,  всегда  опора  для  всей  родни.  На  кого  надеемся,  когда  нам  трудно?  Ты  знаешь,  на  кого.  А  мы  никогда  не  знаем,  что  у  тебя  на  душе,  внешне  открытый,  веселый,  а  на  самом  деле  вот.  Ты  все  время  горишь,  все  время  сжигаешь  себя.  Остановись,  сгоришь.
Я  слушал  его,  он  не  знал,  не  понимал,  не  мог  понять,  как  хочется  сойти   с  ума,  вот  сейчас,  в  эту  минуту. Как  хочется  вскочить,  орать,  визжать,  пробежать  по  стене,  биться  об  нее  головой  пока  она  не  рухнет  и  вместе  с  ней  рухнут  перекрытия  и  раздавят  меня  и  больше  не  будет этого  дня,  не  будет  и  ночи,  не  будет  ничего. Во  мне  стонала  неистовая  безысходность.  Сказал:
- Давай  выпьем.