Чурка

Ирина Спивак
      Сквозь темноту  стекол   аэропорта   почти  ничего нельзя  было   разглядеть, кроме собственных искорёженных отражений. Только слышно, как  ноябрьский  ветрище пытается  cогнуть, сломать  и  повалить  на  землю корявые и  голые    деревья.  А  те  только  ветки  роняют  под  его  порывами,   но потом  упрямо   снова  и  снова  выпрямляют  их  вверх.  И дождь хлещет, меняя направление по ветру.  Любимая  ноябрьская  погода  -1  - +3   по  какому-то  загадочному  Цельсию…

           -  Ты  туда  надолго?
           -  Не  знаю  еще,  навсегда,  наверное.
           -  Ну  и  че  ты  там  будешь  делать?
           - Че-че…  бананы  буду   жрать,  апельсины,   персики … там  все  растет.  Все  даром…
           -   Но  там  ведь  одни  эти  …
           -   Ну  и  что?  Думаешь,  они   хуже   наших?
           -   Не  знаю,  говорят,  они - умные,  я  их  боюсь.   
           -   А,  ты  не  верь, Верка, всему, что  говорят.  Еще  посмотрим,  кто  умный  будет…
         
      В  такие  промозглые   вечера даже  Типанна  не  гнала  их  на  двор.   А  чтобы  они  не рвались  безобразничать  в  нарядном    кукольном  уголке,  существовавшем   для     какой-то,  никому  неизвестной,  комиссии,  загоняла  их  в  спальню,  укладывала  в  кроватки  и  рассказывала   сказки. Чаще  всего  это  были страшные  сказки.  Больше  всего  она  одну  запомнила – про  немцев.  Как  пришли  они  в  город  и  стали  всех,  кого  ни  попадя,   убивать.  А  больше  всех этих… – явреев.  Тех  просто  ловили,  как  зайцев,  а  кого  поймают – гнали   целой  толпой  на  северный   край  города  к  яру,  и  там  их  стреляли.  А    потом – приходили  в их    дома  и  забирали  то,  что  им,  немцам  и  полицаям   ихним,   покажется.  А  что  не  показалось – оставляли.  И  тогда  можно уже  было  в  эти  квартиры  заходить  и  брать,  чего  понравится:  одежу,  картинки,   мебель,    всякую  всячину   кухонную. Эти  явреи    богато  жили…  А  однажды  мать Типанны   принесла  домой маленькую  скрипочку:  нарядную  такую,  желтенькую,  вся  блестит,  и  в  кожаном  футлярчике.  Мать  была  тогда  очень  довольна:  на  базаре такую  штуку  хоть  на  что  выменять  можно  было,  хоть  даже  на  два  кило  мыла  или  сала,  а  в  те  времена,  мыло и сало дороже  всего  было…  Только  Типанне  продавать  ее  не  хотелось,  ей  хотелось  тогда  самой  на  этой  скрипочке  играть  выучиться…  Да  где  там…  Не  те  времена…  Потом  и  Типаннина  мать   померла  отчего-то,  а сама  Типанна  в  детский  дом  попала.

   После  Типанниных  сказок  Лерке  меньше  всего  хотелось   засыпать.  Она  лежала почти  поперек  кровати,  прижавшись  макушкой к стене,  откидывала  одну  руку  вверх,  а  другую - прижимала  к  груди и  закатывала  глаза,  как  будто  это  ее  саму  сейчас  расстреляли.  Никто   в  спальне не плакал – только  она.  Да  еще  попискивал  из  клетки злющий  галчонок  с  поломанным  крылом,  которого  Типанна  подобрала  во  дворе:  голодный,  черный,  перепуганный,  клюется  тонким  клювиком,  никого  к  себе  не  подпускает,  кроме  Типанны.    В  такие  минуты  Лерке  казалось,  что  и  у  нее  в  груди  прячется  такая  же  маленькая  черная  раненная  птица.  Она  там  колотится,  клюется,  рвется  наружу,  но  никого  к  себе  близко  не  подпускает.    А  никто  не  понимал,  почему  ей  больно,  почему  она  плачет.
     Типанна,  если  замечала,    пересаживалась  на  Леркину   угловую   кроватку    и   начинала сызнова  сокрушаться,  что  не  родилась  она,  Лерка, мальчишкой.  И  снова  начинала  рассказывать  еще  одну   давно   известную    историю,  про  то,  что,  будь  она  пацаном,   были  бы  у  нее  теперь  и  папка,  и  мамка,  и    две  сестренки.

     Но  что  ж  тут  поделаешь – видно,  счастье  ее  такое.   Лерке   было  непонятно,  почему это  она, выглядывая  из-под   синего  казенного   одеяльца, не  перебивает  няньку, а  в  сотый  раз  выслушивает  горестный  рассказ,  о  том,  как  нашли  ее  добрые  люди   плачущую  под  дверью  во  время  поминок  в  доме.
      Умер  тогда  дедушка,  хозяйкин  отец  Валерий  Васильевич.   Вернее,  даже  не  умер,  а  в  шахте  погиб.  Последний  день  перед  пенсией  на  смену  вышел,  а  его  в  забое  взрывом присыпало,  а  с  ним  и  еще  15  человек  из  той  бригады.  Так  что  похороны  тогда  на поселковом  кладбище   вышли  коллективные,  а  на  поминки – по  хатам  разошлись – в  каждую  семью  родственники  понаехали.  Плач  аж  до  неба  стоял  такой,  что  непонятно,  как  ее  детский  писк  в  этом  общем  вопле  различить  смогли.
      Однако  ж  услыхали,  подняли,  оглядели.  Понравилась  она  им.  И  тут  хозяйке  хорошая  идея  в  голову  пришла – назвать  подкидыша  в  честь  погибшего  папаши  Валерием  и,  если  это,  конечно,  мальчик  окажется,  взять  его  на  усыновление.  Девки-то  им  без  надобности  были – у  них  и  своих  двое  росло.  Развернули – ну    и  матерком,  конечно, -  никакой  там  не  пацан.  Так  что  назавтра   снесли  ее  в  милицию.  А  имя  в  честь  дедушки  попросили  оставить,  если  уж  Валерка  не  получился – пусть  будет  Валерия,  такое  имя  тоже  где-то  слыхали.  Знакомая  эта  история,  как  обычно,  пересыпалась  причитаниями  и  всякими  выражениями,  но  Лерку   они  не  задевали – главное,  Типанна  рядом  с  нею  сидит  и  только  с  нею  одной   разговаривает,   по  коленке,  обтянутой  байкой,  ее  похлопывает, и, исполненная  блаженства  от  собственной  значительности, почти  счастливая,  она  потихоньку  засыпала.



     - Лер,  пойдем  пожрать  чего-нибудь  в  буфете.
     -  Щас,  Веруня!  Здесь,  наверное,  все  за  баксы,  и  цены зубодробительные...
     - Так у  меня  в  животе    кишки  уже похоронный  марш  играют.  Я  утром  последний  раз  ела.
     -  Ну  и  что,  сейчас  я  поем, допустим,  а  в  самолете   будут  бесплатный  самолетный   обед    давать,   так  я  в  себя  и  запихнуть  ничего  не  смогу?
    -  Так  это  ж  тебе-е  будут  чего-то  там  давать.  А  мне  что,  до  Горловки  теперь  голодной  переть?   Надо  будет  в  следующий  раз  с  собою  хлеба  с  салом  взять…  яички  отварить…
    - Ты,  Верка,  совсем  уже  не  врубаешься.  Чего  несешь!  Какой  тебе  «следующий  раз»?
   - Ну,  ты  ж  когда-нибудь  приедешь  еще.  Ну,  хоть  в  гости…
   - Ага,  в  твой  вагончик  завалюсь:   Здоровеньки  булы!  Я  ваша  тетя!  Очень  смешно! Ладно,  хрен  с  тобой,  пойдем  пиццу  жрать.  А  то   с  голодухи  ты  и   последних  извилин  лишишься… 
   

       Лерка  часто  и  долго   вспоминала  свою  Типанну   в школьном   детдоме, уже  в  другом  городе,  особенно,  когда  ее  стали  Чуркой  звать.  Началось  с  того,  что     какой-то рыжий большой  пацан,  заметил  вдруг,  что  глаза  у  нее  раскосые,  нерусские  какие-то,  и  сообщил    в  школьной   столовой,  чтоб  все  слыхали:  Лерка-первоклашка -  Чурка настоящая.  А   потом  это  прозвище  неожиданно  поддержала  Галина  Александровна,  первая,  блин,  учительница.  У  нее,  видите  ли,  не  получалось почему-то  научить  Лерку  читать.  Ну  не  клеились    эти  буквы  в  слова,  хоть  плачь!  Весь  класс  уже как-то  читает:  кто – гладко,  кто – по слогам,  кто – через   пень-колоду,   а  она,  Лерка,   на  уроках  только  плачет.  И  слушает,  как  колотится  у  нее  под  школьным  платьем  обиженная  на  весь  мир  раненная  птица.  Так    Галина  Александровна  и  сказала    прямо  в  классе – тебе,  Лера,  наверное, твое   прозвище    нравится,   оно  тебе  очень  подходит.  Во  всяком  случае,  читаешь  ты  точно  как  чурка,  вернее,  как  дубина  стоеросовая...  Слово-то  какое  нашла,  где  она  только  его  выискала…  Но  запомнилось…  лучше  всякого  английского. 



       -  Лер,  ну  что  ты  молчишь?  Боишься,  наверное,  самолетом-то?
       -  Ничего  я  не  боюсь,  хуже  мне  уже  точно  не  будет.
       -  Ты  хоть  кого-нибудь  там  знаешь?
       - Познакомлюсь.  Там  многие  по-нашему  разговаривают.  Я  еще  там,  может, нашего   Аркадия  Моисеича  разыщу.
      -  Не  разыщешь.
      -  Почему?  Он  еще  в  том  году  туда   уехал!
      -  Не  уехал  он  никуда.  Семья  его  уехала,  а  он  здесь  остался.
      -  Это  почему?
      -  По  кочану – помер  он.  За  четыре  дня  до  отъезда.
      -  Чего  врешь!   Откуда  ты  это  взяла ?!
      -  Знаю, я  сама  на  похоронах  была. Говорили,  сердце у  него  остановилось. «Не  выдержало  расставания  с  родиной».  Нежный,  блин,  оказался… Там  многие  из  школы  были.
      -  А  я  почему  не  знала?
      -  Так…  Забыли  тебе  сказать,  наверно,  или  не  успели.     Да  ничего  ты  не  потеряла – похороны  обычные  были,  с  венками,  но  без  попа  и  без  оркестра.  И  на  поминки  не  позвали,  жиды  такие,  я  потом  сама   жалела,  что  пошла.   

       
      После  Нового  Года  стали   тягать  ее  по   комиссиям:  одни  говорят – перевести,  нечего  ей   делать  в  нормальной  школе,   тем  более – детдомовская,  никто  частных  учителей    нанимать  для  нее  не  станет.  Они  смотрели  на  нее  через  свои  умные  очки,  говорили  много  умных  слов.  Одно  из  них  повторялось  несколько  раз, Лерка  его  даже  запомнила: «дислексия».  А  другие  возражали  им – жалко,  умная  ведь  девчонка  и  память  хорошая,  ну,   может,  как-нибудь  выровняется…  потом.  Но  прекрасного  «потом»  ожидать  не  стали,  тем  более,  что  в  это  время  в  интернате  «для  дураков»    места  свободные   оказались.

    И  хорошо,  что  ее    перевели.  Там    ее  хоть Чуркой  никто  не  называл, там  она  сразу  превратилась  в  Лерочку-умницу.  В  классе  их  всего  восемь  человек    было,  и  читать  она  все-таки     научилась, хоть  и  не  сразу,  а  на  уроках    все  лучше  других  понимала. И  подружку она  там  себе  завела  закадычную:  и  в  класс  вместе,  и  в  спальню,  и  в  столовку,  и  в   душевую,  и,  даже  в  туалет. Так  оно  до  сих  пор  и  оставалось  – всегда  вместе. Только  когда  Лерка  сама    хотела  остаться  одна,  она   уходила  и  пряталась,  а  когда  хотела – приходила  назад.  Но  главный  урок  она   прочно  для  себя  усвоила:    с  дураками  в  жизни  проще:  они и  обманывать  будут,  а  не  смогут,    и  захотят  обидеть,  а  не  сумеют.    





     -  Верка,  а  тетя  Клава  живая  теперь?
     - Живая,  че  ей  сделается?   На  пенсии.  На базаре «Кока-колу» и  «Фанту»   продает,  в  киоске. Важная  такая!   Я  к  ней  подхожу,  здороваюсь,  а   она  не  отвечает…  Не  узнает,  наверное…  Я  ведь   такая  толстая  стала, и  волосы в  белый  покрасила…
     - Прям-таки  не  узнает  она!  Она  себя  сильно  умной  считает,  гнушается  нами – дураками.  Она  всегда  такая  была.  Только,   никакая  она  не  умная…
   


    В   самый  первый   день в  интернате  «для  умственно-отсталых»   могучая и  совсем   еще  не  старая  тетя  Клава,  обладательница  кирпичных  щек  и  слоновьих  колен,   указала Лерке  на   кровать   в  центральном  ряду,  прямо  напротив  двери:
     - Вот  тут  спать  будешь.  А  в  тумбочку  вещи  свои  поклади,  что  там  у  тебя… 
    Но  Лерка   вдруг  заартачилась:   не  буду  там  спать,   хочу  в  углу,  у  стеночки...  Пришлось тогда ей  почувствовать  на  себе  всю  силу  тети-клавиных  объятий,  и  даже  тяжесть  ее  кулака – методы  убеждения  довольно  обычные  для  этого  учебного  заведения.  Но  ничего  не  помогало,  свое святое   право – спать    у  стены  Лерка  доказывала  с  мужеством  взбесившегося  зверька.  И   после  долгой  борьбы,  с  побоями, уговорами,  сидением  в  продуктовом  погребе   с  крысами,  приводами  к  директрисе,  она  все-таки  победила.  Правда,  вначале    попала  в  изолятор    с  температурой  40  и  с  воспалением  легких.  Все,  что  там  происходило,  вспоминается  в  какой-то  сизой  дымке:  то  ли  наяву,   то  ли  во  сне,  то  ли  в  бреду…
     Пришла   кудрявая  тетенька  в  белом   халате  и    смешных  круглых  очках ,  в  руке она  держала  блестящую  палочку   с  шариком  на  конце (как  у  феи  из  «Золушки»).  И  стала она  ей  всякие  вопросы  задавать:  как    зовут,  откуда  она  приехала,  что  она  о  себе  знает  и  помнит. И  хотя  от  жара  язык  ворочался  с  трудом, Лерка  ей  тогда ,  много  всего  про  себя   рассказала:  и  про  Типанну,  и  про  поминки,  во  время  которых  ее  нашли,  и  про Галину  Александровну,  и  про  «Чурку»,  и  про  дубину  эту,  стоеросовую…   Все  ей  рассказала,  даже  про  то,  как  во  время  какой-то  войны,  когда  Типанна  маленькой  девочкой  была,   немцы  на  явреев  охотились…  А  тетенька  ничего  не  говорила,  только  что-то  в  блокнот  себе  записывала.  А  потом  спросила:  ну  и  чего  тебе  не  здесь  не  хватает,  Валерия,   почему  ты  стала   безобразничать?  Лерка  ей  объяснила,  что  страшно  ей  спать,  если  за  спиной  нет  стенки,  не  может  она  спать  в  серединке  спальни,  ей  тогда   очень   ужасный  сон  снится.  Тетенька  улыбнулась,  погладила  ее  по  голове  и  сказала:  ну  вот  и  умница,  видишь,  как  ты  мне  все  хорошо  растолковала!  И  ушла,  и  Лерка  больше  никогда  в  жизни  ее  не  видела. 

    А  когда  она  из  изолятора  вышла,   ей    разрешили занять  кровать    у  стены.  И  девочку,  которая  раньше  там  спала  и  писалась,  вместе  с  ее вонючим  матрасом    на  другое  место  перевели.    Больше  на  это  Леркино  право    никто  в  интернате   не  покушался,  до  самого  выпуска.   И  она  упиралась  в  эту  самую  стенку  и  ногами,  и  руками,  и  лбом,  сколько  хотела! И  радостно  билась  под  пижамной  курточкой  птица,  казалось,  совсем   забывшая  про  свою  боль.  И   эта пружинная  казенная  кровать  была  ее  первой  победой  над   безжалостным  миром,  в  котором  заправляют  те,  которые  считают  себя  умными.  И  тети  Клавы  она  больше  не  боялась,  потому  что поняла – как  раз   она-то  никакая  не  умная,  только делает  вид,  чтобы  другие  не  догадались.



       - Ну  и  кому  ты  там  нужна  будешь?
       - А  кому  здесь я нужна?
       - Будешь  там  за  них  вкалывать.  Петрович  говорит,  они  сами  совсем работать   не  умеют и  не  хотят…
      -  Зато  они  кое-что  другое  и  хотят,  и  умеют.
      - Что же  это,  например?
      - Да  так…  разное…   и  фантазии  у  них  побольше…  и  подход… и  вообще…  мне,  если  честно,  посмотреть  охота,  кто  кем  на  самом  деле  окажется … 

      
   За  два  месяца  до   выпуска,  у  директрисы  Натальи  Петровны  много  умных    в  ее  зеленом  кабинете  собралось – судьбу  их  решать.    И  Аркадий  Моисеевич  тоже  там  сидел.  А  на  стене – портрет Горбачева,  только  без  пятна  на  голове,  почему-то. Так  она  все  время  взгляд  и  переводила  с  Горбачева   на  Аркадия  Моисеевича,  а  потом  на  Наталью  Петровну,  а  других,   остальных  она  там  никого  не  знала,  что  ж  ей  на  них  зря  пялиться.
И  возможностей  у  нее  не много  было:  либо  санитаркой  ее  брали  в  дом  престарелых,  либо  в  дворничихи,  либо  в  строительное.  В  строительном  лучше  всего:  там  общежитие,  и  кормят,  и  зарплату  платят,  и  профессия   малярши,  например,     такая,  что  потом  на  ремонтах  миллионы    подхалтурить  можно.  Ну,  они  с  Веркой  и  решили – туда.  Поначалу  ее  в  училище   брать  не  захотели,  сказали:  сердце  у  нее  с  пороком.  Так  Верке пришлось медкомиссию  два  раза  проходить:  сначала  за  себя,  потом – за  нее.  И  все  получилось,  как  надо.  Никто  ничего  не  заметил.  А  сами  себя,  конечно,  умными  считают… 



- Петрович  говорит, им  бы  только  бумажки  писать и  на  пианинах  бренчать. 
-  А  кто  же  у  них,  по-твоему,  строит,  пашет,  шьет  и  обеды  варит?
- Не  знаю,  может,  за  них  негры  все  делают…
- Не,  негры  это  не  там,  это  в Америке.
- А  это,  что  ли, -   Африка?
- Аркадий  Моисеевич  говорил:  « вполне  европейская  страна». Значит, наверно,  Европа.
      

     Когда  по  метрике  Лерке  исполнилось  16  лет, тетя  Клава  тогда  уже  на  кухне  работала,  ее  позвала  к  себе  Тамара  Вячеславна,  их  новая  воспитательница, хорошенькая  такая,  добренькая.   Жалко,  она  у  них  только  полгода  и  пробыла:  то  ли  замуж  пошла,  то  ли  от  начальства  сбежала,  то  ли  от  них,  дураков. 
   -  Лерочка, - говорит,  -  тебе  скоро  паспорт  должны  выписать.  Так  вот,   раньше,  таким  как  ты,  отчества  вообще давали,  никакого  им   не  полагались,  прочерк в  паспорте   ставили  вместо отчества.  А  теперь  вам  привилегия  вышла – можешь  сама  себе,  какое  захочешь,  выбрать.   Только  ты  не  торопись,  имя  у  тебя  редкое,  с  претензией,  надо  к  нему  такое  отчество  подобрать,  чтобы  и  звучало  красиво,  и  смешно  чтобы  не  было.
    И  стала  тогда  Лерка  думать,  и  представлять  себе  какое  отчество,    да  и  какого  отца  ей  бы  иметь:
    Валерия  Ивановна -  звучит,  вроде,  неплохо.  Но  тут  же  представился  ей  их  интернатский  дворник  Иван  Трофимович.    На  одной  руке  у  него  машиной  отрубило  когда-то  на  заводе  два  пальца.   Вечно  небритое  лицо  его  было  то  синим,  то  красным,  в  зависимости  от  погоды  и  того,  что   и  сколько  он  сегодня  выпил.  Из  редкозубого   рта противно  воняло   перегаром  и  луком,  и  никто  от  него  никогда  слова  доброго  не  слыхал.    Нет,  такого  отца  Лерка  для  себя  не  хотела.
  Валерия  Петровна – смешно,  как  и  Валерия  Степановна.
  Валерия  Александровна – коряво.  Валерия  Вячеславовна – слишком  длинно…
  Вот  Валерия  Аркадьевна – звучит  красиво.  А   Аркадий  Моисеевич…  Он  такой…  Лере  вспомнились   его  лукавая улыбочка,  прищур  карих  глаз  и     их  вечерние   уроки на  третьем  этаже   в  закрытом    кабинете   с  чучелом  совы   и коричневым  скелетом.  Что-то  давно  он  ее  туда  не  звал.  Может,  он  теперь  с  кем-то  другим  анатомией  там занимается?..   И  в  первый  раз  проснулось  в  Лерке  ревнивое  чувство,  и  захотелось  ей  связать  себя     с  этим  человеком  надолго,  навсегда.  Если  бы  хоть  карточку  его  при  себе,  иметь,  так  ведь  нет  у  нее,  у  детдомовки  даже  фотоаппарата.  А  вот  паспорт  у  нее  будет.  Паспорт  у  нее  никто  не   сможет   отобрать.  И  будет  в  этом  паспорте   значиться:  Артемовская  Валерия  Аркадьевна.  Очень  даже  красиво!   И  никуда  он  от  нее  теперь  не  денется.    


       -  Ты  слышишь,   рейс  уже  объявили.  Ведь  это  твой?
       -  Мой. Давай  присядем.  Что-то    коленки подгибаются.  А  надо  идти.
       - А  может,  ну  его.  На  кой  черт  тебе  все  это?  Оставайся! – в   Веркиных   наполненных голубой   влагой   глазах  на  мгновение  мелькнула  надежда.
       - Не  плачь,  подружка.   Теперь  это  не  так,  как  раньше,  теперь  все  летают… И  дураки,  и  умные… И  ты  ко  мне  прилетишь  вот  только  я  немножко  устроюсь.  Прощай,  родная,  я  тебе  сразу  оттуда   напишу…
       Пройдя  металлоискатель,  она посмотрела  назад,    будто  ее  кто-то  позвал,  но    Веркиных  глаз  уже  не увидела.  Та,  закрыв  лицо  руками,  прямо  посреди  толпы  в  голос  выла  и  выкликала,  как,  наверное,  это  делали  ее  бабки,  бабки  ее  бабок  и  все  их  прародительницы,  когда  стояли  у  пыльных  разъездов  и  у   разрытых  могил. Этот  крик   разрывал  общий  гул  аэропорта.  Он  вносил  разлад  в  суету  в  привычное  движение  масс.  Но  никто  не  слышал,  как  в  унисон  с  Веркиным  воем, под  кожаной  курточкой   кричит  и  выкликает  ее собственная   раненая  птица.            
   Лерка  с  раздражением  схватила  с   прилавка  сумку  с  ручной  кладью и,  запретив  себе  оглядываться,  решительно  рванулась  к  эскалатору.   
   

    Вот  так  же  решительно  она  подошла полтора  года  назад  к  обитой  коричневым  дерматином  двери  с  номером  квартиры.  Три  дня она  поджидала  на  детской  карусельке  у  подъезда,  одетая для  маскировки   в  замызганную  краской  малярскую  спецовку  и   с   ведром  из-под  белил.  В  таком  виде  она  ни  у  кого  подозрений  не  вызывала. ( Мало  ли,  в  какой  квартире    сегодня  ремонт  затеяли…)
    Наконец,  из  дому    вышли  двое –   дамочка  в  фирменном  прикиде  с  пышной  стрижкой,  и  девица лет  шестнадцати, с  карими,  как  у  Аркадия  Моисеевича,  глазами  и    толстой  попкой,  обтянутой  кожаными  штанами.  Выглядели  они обе  просто  шикарно.      Лерка  даже  подумала, что  сейчас    они  откроют   ключом  дверцы  припаркованной  у  подъезда  серебристой  иномарки.     Но   дамы   гордо  прошагали  мимо  нее  и,  дойдя   до  конца своей  кирпичной  коробки,   свернули  за  угол.  Лерка  не  поленилась  проследить,  как  дождались  они  своего  трамвая  и  только  после  того,  как за  ними  закрылись  складные  двери,  вернулась  к  подъезду  и  поднялась  на  третий  этаж. 
     Аркадий  Моисеевич  ее  вначале  не  узнал.  А  когда  узнал,  очень  удивился. 
    -  Лерочка!  Какими  судьбами?!
    -  Разговор  у  меня  к  вам,  Аркадий  Моисеевич.
    -  Проходи,  проходи,  моя  радость.   Присаживайся  на  диванчик. Как  я  по  тебе  скучал!
    -  Только  не  распускайте  рук  и  не  раскатывайте  губ,  Аркадий  Моисеевич.  Мне  в  моем  строительном  вагончике  подолгу  скучать  не  дают.  Так  что  поберегитесь  и  отвалите.
    Лерка  подняла  глаза  на несуразную   в  небольшой  гостиной    люстру,  похожую  на  перевернутую  и  подвешенную  к  потолку хрустальную   новогоднюю  елку. 
    -  Красиво  тут  у  вас.  Кому  все  это  оставите,  когда  уезжать  будете?
    -  Ах,  вот  что  тебя  волнует?  Не  беспокойся,  квартира  приватизирована,  мы  ее  уже  продали  вместе  с  обстановкой,  -  Аркадий   нервничал   и  все  ходил  кругами  возле  журнального  столика. – Чаю  хочешь? 
    -  Нет,  Аркадий  Моисеевич,  меня  не  квартира  волнует,   и  не  чаи  я  пришла распивать – я     улететь  хочу, туда  же,  куда  Вы  едете.
    - Чем  же  я  могу  тебе  помочь?  Я  ведь  женат,  ты  знаешь.  У  меня  дочь.
    -  А  я  вам  разве  чужая?   И  меня  себе  в  дочки  запишите.  У  меня  даже  и  отчество  подходящее.
     -  Лерочка,  миленькая  моя,  да  как  же  я  могу!  Давай,  лучше  я  тебе  на  память  что-нибудь…
     - Да на  хрена  мне  сдалась  ваша  память,  родной  мой?  Я  вырваться  отсюда  хочу!  Не  хочу  всю  жизнь  бетонные  стены  штукатурить  и  с  потресканными  руками  ходить.  Не  хочу  еще  полжизни  в  вагончиках    со  всяким  дерьмом  за  бутылку  трахаться.  Я  хочу  другой  жизни!  Это  Вы  в  состоянии  понять?  Я  ведь  Вас  всегда  за  умного  держала!  В  общем, завтра мы  с  Вами    идем  в  загс,  и  Вы  подтвердите  там  свое  отцовство.  Никто  ничего  и  не  узнает. Я  уже  с  кем  надо  договорилась,  и  все  расходы – мои,  не  волнуйтесь.
     -  Я  бы  с  удовольствием,  миленькая.  Но  я  сейчас  действительно  не  могу.  Это  может  помешать  нашему  отъезду…    
    -  Ничему  это  не  помешает.  Но   если  Вы  откажетесь,  то  пойду  я  сама,  и  совсем  в  другое  отделение. Представляете,  сколько  я  могу  им  порассказать!  И вот   тогда…  Тогда  Вы  уже  действительно   никуда  не  поедете. Если Вы,  в  самом  деле,  умный, сами  поймете,  что  для  Вас  выгоднее…
      
           В  самолете  оказались    круглые,  мутные,    завешенные серыми  занавесками  окна  и  очень  прикольные  кресла  со  всякими  прибамбасами:  откидным  столиком,  наушниками,  вложенными  в  поручень  и  разной  музыкальной  настройкой.  Но  вся  эта  музыка  казалась  чужой,   ни  от  чего  ее  не  тащило,  как  от  русского  рока или  от  русской  попсы,  которых  там  как  раз  и  не  оказалось.  Лерка  после  взлета   долго  и  напрасно перескакивала   с  канала  на  канал,  пока  не  уснула  под  какую-то  восточную,  горячую,  как  приморский  песок,  мелодию.    

     А  начиналось  все  так  интересно:  еще  Аркадий  Моисеевич  их  тогда   зоологии  учил,  про  зверей  всяких.  Однажды  вечером  он   их  в  коридоре  встретил,   они  с  Веркой  из спальни  своей  выходили.    Внимательно  их   обеих   оглядел   – с  головы  до  ног:  Верка  маленькая,  квадратная,  как  тумбочка  с   круглой стриженой   головой-капустой  и  наивным,  умственно-отсталым  взглядом.  А  Лерка - высокая,   на  нее  и   школьное  платье  тогда  коротким  стало. И,  хотя  его  уже  до  предела  отпустили,  из-под  юбки  резинки  от  чулок все  равно   выглядывали.  Ей  тогда   тетя  Клава   приказала,  пока  нового  платья   не  справят,  носить  вместо  чулок  синие  спортивные  штаны.   Так  вот,  он  внимательно  посмотрел  на  них  и  потом  сказал:  мне  необходимо  сегодня  с   Лерой  дополнительно  по  своему  предмету  позаниматься.  Ты,  Вера,  нас  извини.  Мы  недолго.
      Верка  извинила,  она  никогда  обидчивой  не  была,  всегда  всем  улыбалась.  Она  и  сейчас  такая.
   Привел  ее  тогда  Аркадий  Моисеевич  в  зоологический  кабинет,  там  у  них  красиво  было:  чучело  совы,  картинки  разные,  и  даже коричневый  скелет – в  углу,  только  они  по  скелету этому еще  не  занимались.    И  говорит:
     -  Я  хочу  с  тобой  начать  заниматься  новым  предметом,  называется  он  «анатомия  и  физиология»,  его  только  в  старших  классах  проходят.  Но  ты  у  нас  девочка  умная,  развитая,  в  индивидуальном  порядке  все,  что  надо,  сможешь  понять, -  а  глаза  у  него  карие,  хитрые,  с  прищуром.
      Лерке  очень  захотелось  эту  анатомию  изучать  и  потому  что  в  индивидуальном,  и  потому  что  с  ним.  А  он  продолжает:  предмет  этот,  говорит,  особенный,  его  можно  изучать  разными  способами:  можно – по  картинкам  или  по  скелету,  а  можно – осязательным  путем  и  даже – завязанными  глазами.  Лерка  очень тогда  удивилась,  как  это  - «с  завязанными…», -  а  Аркадий  Моисеевич  говорит:
   -  Ну,  если  ты  не  боишься,  мы  можем  прямо  сейчас  попробовать, - и  достал  из  кармана  синий  бархатный  платочек.  В  таких  старушки  по  праздникам   в  церковь  ходят.
  Завязал  он  ей  глаза   и  обещание  взял – самой  повязки  не  снимать,  а  если  вдруг  что-то  не  понравится  или  страшно  будет – ему  сказать.  Ей  страшно  не  стало – он  ведь  ласково  ее  трогал, не больно,   ее  никто  никогда  так  раньше  не  трогал.  И  когда  он  ее  раздевать  стал – ей стыдно  не  было:  она-то  ведь  ничего  не  видела.  А  на  ощупь  это  было  приятно… так  приятно,  как  никогда  раньше  не  было.  Приятнее  чем  пить  компот  из  консервированных  вишен,  который им  только  в  праздники  наливали,  приятней,  чем  по миллиметрику   слизывать и  размазывать  по  губам   шоколадку,  когда  Дед  Мороз на  Новый  год   гостинцы  раздавал...  Вначале  он  ей  действительно  все  называл  и  по-простому,  и  по-иностранному,  а  потом  она  уже  не  слушала  и  не  слышала  ничего.  Слушалось, и  плавилось  как  пластилин  на  батарее,   только  ее  тело,  и  не  слов  оно  слушалось,  а  теплых   прикосновений,  ласковых,  но  властных   касаний  его  рук.  Настолько  слушалось,  что,  казалось,  еще  немножко,  и  все  оно,  как  платье  сможет  вывернуться  наизнанку.  И  даже  боль,  которую  он  ей  причинил потом,  казалась    приятной,  и  хотелось  снова  повторить  ее…  А  запомнила  она  из  этого  урока только   самые  смешные  названия  и  то  по-обыкновенному:  лопатка,  ключица,   ребра- ребрышки, кобчик,  ягодица…    и  еще,  кажется,  грудная  железа …  Про  все  эти  места  у  себя  она,  конечно,  и  раньше  знала,  только  не  знала,  что  они  так  называются. Жаль,  что  так  и  не  спросила  она  тогда,  как  по-научному  называется  та  замирающая  от  испуга  и  наслаждения    больная  птица,  спрятанная  у  нее  под  ребрами.   А  сам  он ничего  про  нее   не  сказал,  скорее  всего,  он  ее  просто  не  заметил.      

        - Пассажиры, можете  отстегнуть  посадочные  ремни.  Наш  самолет  совершил  своевременную  посадку  в  аэропорту  Бен  Гурион.  Израильское  время  4 часа 15минут    Температура  за  бортом  26  градусов  Цельсия.  Спасибо  за  сотрудничество  во  время  полета.  Israel - hot.  You are welcome!
 - Что  они  говорят? – спросила  Лерка  у  дядьки из  соседнего  кресла.
-  Та  кажуть,  жарко  тута,  та  ще  «Ласкаво  просимо!»
-  А, тоды  все  ясно, - обрадовалась  Лерка  и  стала  стягивать  через  голову  толстый  шерстяной  свитер.  Здесь  он  ей  вряд  ли  понадобится.   
    

*дислексия