СКИТ

Георгий Андреевский
               
Георгий   Андреевский

   
С К И Т













Москва     2012







В  книге нет  никаких намёков и параллелей.  Это  не  хроника  прошедших  событий,  хотя в ней и запечатлены реальные факты, а  «фантазия на тему»  Много  лет  тому  назад  я  впервые  услышал  о  ските  Валаамского  монастыря,  в  котором  в  послевоенные  годы  доживали  свою  жизнь  безногие и безрукие  инвалиды,  и  не мог  забыть  об  этом. Человек  так  устроен,  что  видя   чужие  страдания  (человека  или  животного  безразлично)  он  воспринимает  их,  хоть  чуть-чуть,  но  как  свои собственные.   И  такому  восприятию их   не  помеха   ни  собственное  счастье,  ни   эмоциональная  тупость.  Прочитаем  ли мы рассказ  Кафки «Превращение», увидим  ли на улице  безмерно  изуродованное  и  униженное  существо, мы   не  можем  оставаться  к  нему  равнодушны    и  не    видеть   себя  на  его  месте.    Если  Вам  скажут,  что  написав  книгу  или  картину   об  этих  страданиях,     можно   от   них   избавиться, - не  верьте.  Они  умрут   вместе  с  нами.











Скит -  пустынь, общая обитель отшельников, братское, уединенное сожительство в глуши…. .  - Толковый  словарь  В.И.Даля


В то утро  на  башне  бывшего  монастыря  зазвонил колокол.  Зазвонил, отупев  от  многолетнего  молчания,  сам, тревожно и тоскливо,   как  воет собака  по  умершему хозяину.   Никто  его,  кроме  ветра, не трогал  и  не  раскачивал.  Проснувшись, Мария  Ивановна  подумала: уж не пожар ли?  Встала,  подошла к окошку,  посмотрела  и,  убедившись,  что  во дворе всё  спокойно,  снова  легла.  От испуга и холода  в  комнате,  бывшей  келье,   её  пробрала  дрожь.   Она  забралась  под  одеяло,  сжалась под  ним,  грея   руки  о  собственное  тело.  Здесь,  под  грудью, им  было  тепло  и  тесно.  Согревшись,  размякла,  раскинула ноги  и,  проведя  рукой  по  круглому,  как  глобус,  животу своему,   стала  вспоминать  каким  был  этот самый  живот  у неё  в  молодости.   Тогда  рука  её  от  груди  съезжала  по нему вниз,  как  на санках,  под  горку, и только спустившись  до самого низа, следуя  дальше, въезжала на  бугорок. И  ем  вроде  не  много  и  в  работе  всё   время,  а  толку  нет,  видать живот  растёт не  от котлет,  а  от  лет, - не  зря  люди так  говорят, - думала  она,   и  была  права.  Вся  жизнь -  впроголодь,  уж и  не  помнила,  когда  жила в  достатке,  и жила ли вообще.  Теперь,  когда  с  голоду  живот  подводило, шла  на  пищеблок,  к  шеф-повару  Татьяне.  Та  пекла  шикарные  блинчики  из  картофельных  очисток,  а  ещё,  после  обеда,  сваливала  все  недоеденные  остатки  в  кастрюлю и  разогревала.  Это  «горяченькое», если  не  задумываться  о том, что  это  объедки,  вполне  сходило за  обед,  которым  «набивала  пузо»  не  только  она  и  постоянно  околачивавшийся  у  пищеблока  в  поисках  собачьей  радости  пёс  Дружок,  но  и  сама Татьяна,  судомойка,  татарка Соня Хабибуллина  и  их  дочери:  Лена и Венера десяти и семи  лет. Мария Ивановна  вспомнила  тут,  как  Соня, обычно  обращаясь  к  своей  маленькой  дочери,  говорит:  «Ах, ты,  маленький  проститутка…» Девчонки - девчонки,  кем  они  вырастут  в  этой  богадельне?  Кругом  мужики,  да  ещё  чокнутые,  от  них,  что  хочешь,  можно  ожидать.  И  она вспомнила,  как  Ленка  с  хитрой  рожей,  думая, что  она  не  слышит,  сказала  Венере на  ухо:  «Пойдём,  посмотрим,  как  слепые  писают»  Она  рассказала  об  этом  Татьяне,  но  та  махнула  рукой  и  сказала: «Разве  за  ней  углядишь?  А  чему  быть – того  не  миновать.  Рано  или  поздно всё равно  бабой  станет»    Спорить  с  Татьяной  она  не  стала – возразить  было  нечего.           - Эх,  молодость,  молодость!  – вслух  сказала  Мария  Ивановна  и  решила,  что  пора  вставать.  Встав,  накинула на плечи  ватник и присела над ведром.  Струя  со  звоном  ударила в  железо  и  разрезала  тишину  её скромного  жилища  звуком напоминающим  звук  циркулярной  пилы.  Проведя  рукой  между  ног  и  вытерев  руку  о  висевшую на  верёвке  у печки  тряпку,     Мария  Ивановна    оделась,  причесалась,  съела кусок  чёрного  хлеба,  запила  его  водой,  зачерпнув  её  железной  кружкой  из  ведра, стоявшего на столе,  и  отправилась на работу.  В  пути  её,  как  всегда  сопровождал  «Дружок»,  тот  самый,  что  обычно  околачивался около  кухни.   До работы было не  далеко:  перейти  двор   с  пищеблоком,  свернуть направо,  пройти  лабораторию,  морг, повернуть ещё  раз  направо  и  пройти метров  сто  до  небольшой  монастырской  постройки,  из  красного  кирпича,  именуемой  скитом,  а  теперь  общежитием  палатой №3 дома  инвалидов  №17,  или «самоварней»   Название  такое  это  общежитие  получило  потому,  что  в  нём  доживали  свою  жизнь  инвалиды  Великой отечественной войны,   лишённые  всех  четырёх конечностей. Их  тут и прозвали «самоварами»,  поскольку  из  всех  выступающих  деталей  у  них  торчал,  как у самовара,  лишь  крантик  спереди. 
Когда  Мария Ивановна открыла дверь  подъезда, то чуть не задохнулась от сильного  порыва  ветра, ударившего ей  в  лицо.   Такого ещё не  было, - подумала  она,  -  чтобы  в  этих  местах  ветер с  ног  валил.  И  откуда он только  такой  взялся,  кругом  ведь лес  стеной  стоит,  защищает.  Опустив  голову  и   подхватив  концы  платка под  подбородком, чтобы  ветер не сорвал  его  с  головы,   она  двинулась   привычной  дорогой  к  скиту,  хрустя  валенками  по  мёрзлому снегу.   Было ещё  темно.  В  марте  в  этих  краях  светало  позже,  чем  в  её  пензенской  деревне – Север  всё-таки.  Теперь  ей  казалось,  что  и  деревня, и  мать,  и  старый дом  их  существовали в какой-то  другой,   потусторонней  жизни,  в  которой  были игры,  смех,  беготня,  страшные  истории, мальчишки,  тисканья.  Была  там  её  свадьба,  и  она  в  белом  подвенечном  платье, и муж  в  разорванной  и  окровавленной  после  драки  рубашке,  был и  первый  сын  их,  умерший  на  третий  день  после  рождения,  и  второй  сын – голубоглазый и  розовый,  как  пятачок  поросёнка.   Годы  первых  пятилеток  и  ежегодные  «битвы  за  урожай»  внесли  изменения  в  её  стройную,  тонкую  фигуру.  У  неё  стали шире плечи, талия  и  бёдра,  тяжелее  грудь.  Ладони  рук  стали  грубые  и  шершавые,  как  асфальт.   В  двадцать  девятом им  повезло:  из  своей  покосившейся  хибары  они  переехали в  просторную  кулацкую  избу.  В  избе  этой  жила её  подруга – озорная  девчонка. Всё  частушки сочиняла  и  пела  их  тонким  звонким  голосом:  «Хорошо  живётся, братцы,  лебеда  есть  и  навоз.  Оторвите  руки, ноги – не пойду я у колхоз!»  Где  она  теперь?  Небось в Сибири.  Повезло ей.  Её  выслали, а нас,  бедных, – оставили на погибель.  Началась война - мужа призвали,  а  сын  сам  пошёл,  сколько не уговаривала  остаться. Когда немцы  стали подходить,  многие  из их деревни  бросили свои дома и  пошли на восток.   Она  тоже  пошла.  Шла неделю  и  гнала корову   под  бомбёжками и обстрелами.   В  сорок втором  вернулась на пепелище.  Жила в  землянке.  Молилась  только  за  то, чтобы  корова не пала. Возила  в город  молоко  по  квартирам  в  двух  бидонах  по двенадцать литров.  Приходилось  на  четвёртый,  и  на  пятый  этаж  забираться.  Надорвала  себе  живот  и  спину  потянула.  Всё  болело.  Бывало  утром  встать – целая  пытка.  Муж  вернулся  контуженый.  Сильно  пил  и  матерился.  Матерился и пил, да  ещё  бил  её,  молча  и   зло.   В  сорок  пятом он,  всё-таки, закончил   строить  дом,  а  вскоре  в  его  подвале-то и повесился.  Ждала она сына  - не дождалась.  Пришла лишь бумажка о том,  что  он  пропал  без  вести. Сколько не пыталась она узнать  подробности – ничего не вышло.  Все только  руками разводили,  а  ничего  ответить не могли.   Когда пала корова  и  начался  голод  ей  ничего не оставалось  как  завербоваться  куда-нибудь.  Было  это в  сорок  пятом  году.   Вот  так   и  попала  она  сюда,  в  Дом  инвалидов  № 17.   Вербовщики  обещали  ей  должность  сестры-хозяйки,  а когда  она приехала  сюда,  должность эта оказалась  занята.  Уговорили  остаться  уборщицей.  Согласилась.  Деваться-то всё равно было не куда, да и   на  обратную  дорогу  денег  у  неё  не  осталось.  Вот  так   и  стала она   уборщицей  в  этом  самом  «самоварнике»  Сначала  бежать хотела, хоть на край  света,  к  зверям, в дремучий  лес, только  бы  не  видеть  всего того, что ей  довелось  увидеть  здесь,  но  постепенно  стала привыкать  и  к  виду  этих  несчастных,  и  к  их  характерам,  и к  тем  физиологическим  проявлениям,  которыми  человек не отличается от  животных  и  при  этом  самых,  что  ни  на  есть,  вонючих.  Запах,  который  постоянно  царил в ските,  был  далёк  от  сельского аромата  коровников и конюшен,  он  скорее  напоминал  зловоние  свинарника.  Первое  время  это  угнетало  Марию  Ивановну.  Она  вставляла в ноздри  вату,  стала  даже курить.  Постепенно   стала привыкать. Однажды, прибирая  в ските,  она  забыла  забить нос ватой и  поймала себя на  том,  что  не  обратила  внимания  на  запах.      К  тому  же  её  не  покидала  мысль о сыне.  Ей  представлялось,  что,  возможно, он  тоже  вот  так,  как  эти  несчастные,  где-нибудь  страдает.  Уцепившись  за  эту  мысль, она стала  внушать  себе  материнское  чувство  к этим  чужим  для  неё  людям.    И  в  чём-то  ей  это  удалось.  По  крайней  мере,  она  стала  ходить на  работу  не как на  Голгофу,  как это было в начале.    
Подойдя в  это  утро к двери  скита,  Мария  Ивановна  достала  ключ  из-за  пазухи и открыла им большой  амбарный замок,  висевший на двери.  Железная  дверь  открылась  с  трудом,  скрипя  и  цепляясь  за  выступавший  под  собой  лёд.  В  ските  было  темно  и   тихо,  если не считать  храпа.   Спят -   подумала  она  и  занялась  своими  обычными  приготовлениями к работе,  наводя  порядок в  тряпках, вёдрах  и  прочих  технических  приспособлениях.  Закончив  приготовление,  она  вошла в палату,  когда  уже  начало  светать.  Палата – бывшая трапезная,  была не большой,  примерно  15 квадратных  метров.  На  деревянных  настилах,  прижавшись к стенам,   стояли  большие плетёные  корзины,  из  которых  торчали  человеческие  головы.  Из  одних корзин  торчала одна  голова,  из  других – две.  Протирая  пол мокрой  тряпкой,  Мария  Ивановна  обратила  внимание  на  то,  что  постоялец палаты  Саша  Мамин  как-то  странно  откинул  голову  назад.  Как-то уж  очень  сильно. А, главное,  глаза у него  открыты и не просто открыты,  а  даже  как-то выпучены.  Она  подошла  ближе  и  обмерла.  В  корзине,  рядом со  спокойно спящим  в  ней   Кузнецовым,   находился  покойник  с  разорванным  горлом.   Она  выронила из  рук  швабру,  перекрестилась  и  попятилась к двери…

В  кабинете  директора  Дома инвалидов   Гырымова («человека с двумя  ы»,  как  его  ещё  называли)  помимо Самого,  находились:  главный врач  Михаил Ефимович  Кошкер,  заместитель  директора по хозяйственной  части  Абдулов,  сестра-хозяйка  Ляжкина,  а  также  заведующие   общим  и  психиатрическим отделениями:  Мордовин  и  Крайний.  Марию  Ивановну,  сообщившую  директору  о  страшном происшествии,  тоже  попросили  остаться,  и  она  уселась на белый деревянный  диван,  стоявший  у двери.  Вопрос  был  один:  - Что  делать?   Лучше всего  было  бы,  как  говориться,   предать факт забвению,  чтобы весь  год  о  нём  не  твердили на каждом совещании,  чтобы  не  нагрянула  комиссия  из  Минздрава  и,  наконец,   чтобы  не  лишиться  премии,  если  таковую  всё-таки  выделят  в  текущем  году.  Но  сделать  это  было  нельзя,  т.к.  Мария  Ивановна,  пока  дошла  до  директора,  каждому  встречному-поперечному,  и  даже  микроцефалу Мите,  рассказала  о  страшном  событии.  «Труп в корзине» -  где-то  я  уже  слышал  такое  название  детектива, - подумал Гырымов, - не  хватало  только  нам  ещё  попасть в его  продолжение!  Потерев   лоб  рукой  и  поморщившись, он  всё-таки  снял  трубку  и  позвонил  прокурору. Теперь,  до  приезда  следователя  нужно  было  выработать  позицию  Дома по  этому  прискорбному  факту.  Все  понимали,  что  у  следствия,  естественно,  возникнет  вопрос  о  том,  почему   Кузнецова и  Мамин  посадили в одну  корзину,   и  тогда может  вскрыться то,  что  по  указанию  администрации специально   подсаживали  в  чужие  корзины тех  постояльцев,  которые  мочились,  не  дожидаясь  утренней  оправки: авось  постесняются,  или  побоятся.   Поэтому  директор и спросил  главного  врача:  - А  что,  Михал Ефимыч,  в  истории  болезни  Мамина  имеются  какие-нибудь  замечания  по  этому  поводу?  Главный  врач не  ответил,  а  положил  перед  ним  историю  болезни, ткнув  пальцем  в  место,  где  стояло  красивое,  но  непонятное  слово.  Директор прочитал его по логам: ин-кон-ти-нен-ци-я и  вопросительно посмотрел  на  главного  врача,  мол,  что  это? - Недержание мочи,  - скромно  заметил  доктор. Услышав  это,   директор стал  стучать  себя  кулаком  по  лбу,  приговаривая:  - Так  тебе и надо,  так  тебе и надо…   При  этом он имел  в  виду  не  кого-нибудь,  а  самого  себя.  Ну, зачем  он  послушал этого  солдафона Абдулова,  привыкшего  всё  решать  казарменным  способом.  А  как  это  допустил  главный  врач? И  директор  обрушился  с  этим  вопросом на главного  врача.  Тот  категорически заявил,  что такого  указания  не  давал, а  наоборот, незадолго до случившегося  предупредил  санитара,  чтобы  он  ни к кому  Мамина  не подсаживал.  Директор  попросил  Марию Ивановну найти санитара.  Когда  она  его привела,  то  оказалось,  что  никто  ему  никаких  указаний  не  подсаживать  Мамина,   не  давал.  На  этом он  продолжал  настаивать и после  того  как  главный  врач  во  всех  подробностях  описал  обстоятельства  при  которых  ему  было  сказано  это  предупреждение. Он  тупо повторял одно и то же, говоря «Корзины засрали, а их  велели беречь»   - Сохранность  корзин,  конечно,  важна,  но  люди-то, важнее! – не выдержал директор.   Да,  люди,  люди…., - и в мозгу директора мелькнула спасительная  мысль, -  А,  может  быть,  Кузнецов просто с ума сошёл?  Если  представить дело  так,  всё,  может  быть,  обойдётся? Он  предложил  её главному врачу  и  заведующему психиатрическим  отделением,  но  те   ничего  вразумительного  о  психических отклонениях  Кузнецова  сказать  не  могли. Поступил он не так давно,   ни чем  себя  особенно  не проявил.  В  общем,  человек,  как  человек. После  некоторого  молчания  главный врач  сообщил  о  том,   что  от  Ивана  Ивановича  он  как-то  слышал  о  том,  что  Кузнецов  во  сне  не  раз  повторял   какое-то  женское  имя,   кажется  Тоня,  но  с  чем  это  связано, не известно.  Все присутствующие знали,  что  Иван  Иванович один из  «самоваров»,  с  которым  доктор  ведёт  беседы  в  своём  кабинете   на  разные  философские  темы,  что  он  большой  эрудит и  фантазёр,  а  поэтому  не  придали  этому значения.  Тут  ведь многие во сне говорят  и  даже  кричат.   И  всё же,  на  всякий  случай,  решили  обследовать убийцу,  поручив  это сделать  заведующему психиатрическим отделением. 
В  это время  дверь   кабинета  скрипнула  и  в  проёме  её   появилось  узкое и носатое  лицо  оперуполномоченного  МГБ  Савина.  Директор встал,  а  остальные  стали  покидать  его  кабинет,  стараясь  быстрее  прошмыгнуть в дверь мимо   него.
- Чем  обязаны  Вашему визиту,  Валерий   Петрович? Как я понимаю,  к контингенту  нашему  по  Вашей  части  вопросов  быть не должно.  Героический  контингент.  Ему по всей  стране и по  Европе  памятники  стоят,  он  свою преданность  Сталину и Советской  власти кровью  доказал.
- Контингент Ваш  героический,  Пётр  Валерьевич,  спору  нет,  только  ведь и на  Солнце  пятна  есть,  да   и    среди  Вашего  контингента  тоже  кое-какие  пятнышки имеются,  сами  знаете. Так  что   найдётся  и  для  него  ряд  вопросиков.
- Каких,  позвольте спросить.
- Важных,  Пётр  Валерьевич,  важных,  мы  ведь  пустяками  не  занимаемся.   
- Может  быть,  чаю? – вкрадчиво спросил  директор,  желая  отвлечь  уполномоченного  от  неприятного  для  него  разговора.  Он  знал,  что  уполномоченный  прав,  что  при  всём  героизме  не  все  его  подопечные  чисты  перед  органами,  что  в «тёмной»  сидит у  него  под  замком  слепой,  засаженный  туда по указанию  его  гостя  за контрреволюционную  пропаганду. 
- Не беспокойтесь,  Пётр  Валерьевич,  не  стоит, - строго  ответил  уполномоченный. - Чай  это  мы  как-нибудь в другой  раз  попьём,  а  сейчас  лучше  поговорим  о деле. Вот  Вам  не так давно  выделили радиоприёмник   для  коллективного  прослушивания  передач  центрального  радио.
- Совершенно  верно,  Валерий  Петрович,  он  у  нас   в Ленинской  комнате  стоит  и   коллектив  регулярно  его  слушает. 
- Слушает-то слушает,  да не то,  что  кушает. 
- Как  это?  - и по позвоночнику  директора  пробежал  небольшой  электрический  разряд.
-  А  так,    уважаемый  Пётр  Валерьевич,  дошло  до  нас,  что  люди  Ваши  не  Москву,  а  Лондон да  Вашингтон  слушают,  а  точнее  Би-би-си и  Голос Америки. 
- Да что Вы,  ах  мерзавцы,  ну  мы  им  покажем!- вскипел директор и машинально схватил  телефонную  трубку,  но  одумался и  оставил  её.  -  Кто же  это?  А  может  быть  сплетни  всё,  враньё.  Кого-нибудь не пустили  в  ленинскую  комнату вот он и наврал. 
- Мы,  Пётр Валерьевич,  сплетнями не занимаемся,  а   вот  ротозеями,  потерявшими политическое  чутьё  и  бдительность,   занимаемся,  нас  к  этому  долг  наш,  чекистский,  обязывает. 
После  этих  слов  директор  совсем  погрустнел    и поклялся уполномоченному  перенести радиоприёмник в свой  кабинет и при  прослушивании  каждой  передачи  присутствовать  лично  и  всё-таки уговорил  уполномоченного  попить  чай  с  печеньем,  которое  хранилось  для  особо важных  гостей.  Организовала  чай и угощенье  секретарша Зина,  кинувшая на  гостя  гостеприимный  взгляд.  Макая   засохшее  печенье в чай,  уполномоченный  начал  разговор  по  второму  вопросу  издалека. 
- Вот, Пётр  Валерьевич,  на  фронте у меня  такой  случай  был.  Поручил как-то  командир  одному  автоматчику  польку  расстрелять.  Она,  как  медсестра, у  нас  по медсанбату числилась. Красивая  была  девка,  фигуристая. Только  вот поведение её    подозрительным  кое-кому  показалось:  с  парнями  не  гуляет,  романы не  крутит, а  вот  нос,  куда не надо,  суёт и, вообще,  не  тем,  чем  надо,  интересуется.  Особенно  же   личность  её    подозрительна  стала  после  того как немцы  обстреляли нас,  да  так  точно,  что  от  командирского  блиндажа  ничего  не  осталось,  одна яма. Пять  человек  в  нём  погибло.  Командира   в    тот  момент  в  блиндаже не  было,  он  по нужде  ходил.  А  когда  вернулся,  увидел  всю  картину,  то  весь  аж  затрясся. - Я, -  говорит, - знаю кто   навёл  немцев на  нас.  Найдите  мне  эту  курву,  я  её в  расход  пущу.  Ну, а когда  её  привели, он  приказал  одному  автоматчику  отвести  её  в  сторонку и расстрелять.  Тот  повёл  её  к  лесу.  Слышим выстрелы,  ещё и ещё,  а  его  всё  нет и нет.  Потом  возвращается  и  говорит,  что автомат  заело, а  полячка, мол,  сбежала.  Командир   достаёт  наган,  ствол  к  его  лбу приставляет   и  говорит:  «Я  тебя в трибунал не пошлю,  я  тебя,  сукин  сын,  сам  расстреляю»  Только  вот не  расстрелял,  пожалел,  да и  солдаты  стали  его уговаривать  пощадить  парня – боец, мол,  хороший,  а  польку они  ему  найдут.  Только вот искали, искали  её, а не нашли.  Закончив  рассказ,  уполномоченный  смахнул  со  стола крошки  печенья,  кинул  их себе в рот и спросил  директора: - А  что бы  ты,  Пётр  Валерьевич  сделал  с  этим  автоматчиком?
Директор  хотел  сказать, что   не  знает,  но  посчитав  такой  ответ  не  совсем  политически  грамотным,  развёл  руками и выдохнул:   - Расстрелял  бы.
- Да,  суров  ты,  Пётр Валерьевич.  Командир-то   тот подобрее  тебя  был.  Но рассказал  я  тебе  эту  историю  не для  того, чтобы  твою  беспощадность к врагам проверить,  а  для  того,  чтобы  сказать  тебе,  что  вот  этот  самый  автоматчик  в  твоём  Доме  свою  жизнь  доживает,  а  командиром,  его  пожалевшим,  был….  Тут  уполномоченный   замолчал,  не  закрыв  рта,  и  директор  с  сомнением  в  голосе,  вымолвил: - Ты,  что ли?   - Я  самый, - ответил  чекист.
- А  кто же он? 
- Кузнецов  Сергей  Иванович,  22-ого  года  рождения,  уроженец  села  Хомуты  Ильинского  района  Тамбовской  области.  Знаешь  такого?
- Как  же  не  знать. Он  же  вчера  насмерть  загрыз  Мамина.
- Как?  -  вытаращил  глаза  уполномоченный. 
 - Да  так  и  загрыз,  как  волк  овцу…  и  директор  рассказал  уполномоченному  о  произошедшей  в  эту  ночь  в  Доме  инвалидов   неприятной  истории.   
- А где  он  сейчас? – помолчав,  спросил  Савин.
- В  изоляторе.  Человека к нему приставил  на  всякий  случай.  А  труп  в  морге.  Следователя  ждём.  В  это  время зашла  Зина и сказала, что  приехал  следователь и что  он  скоро  придёт.  Уполномоченный  засобирался,  сказав,  что  ему  надо  поговорить с Кузнецовым,  и  ушёл. 

Следователь  прокуратуры  был  молод,  невысок  ростом  и  рыж.   Когда  солнечные  лучи  падали  ему на  лицо,  то тени  от  больших  рыжих  ресниц  пробегали по веснушкам  и,  казалось,  подпрыгивали.  Он представился,  назвав  себя  Валентином  Кузьмичом  Ореховым,  и  сразу  стал  рассуждать  о  причинах,  способных  побудить  одного  человека  загрызть  другого.    Вспомнил  Маяковского  «Я  волком бы  выгрыз  бюрократизм»,  людоедов  с  Соломоновых  островов,  сожравших Кука,  и  даже  людоедов из  детских сказок,  а  закончил рассуждениями  о  влиянии  прошедшей  войны  на  человеческую  психику. Всё  это  время  он  с  тоской  поглядывал на  недоеденное  печение  и  глотал  слюну.  Под  конец  он  попросил  директора  представить ему  штатное  расписание  Дома  инвалидов,   книгу  приказов с положением о  распределении  должностных  обязанностей  его  сотрудников  и  ещё  кое-какие  документы.  Забрав  их,  следователь    велел  отвести  его  в  морг  для  осмотра  трупа.         
Морг  был  небольшой,  состоял  из  двух  отделений:  покойницкого и прозекторского.  Поскольку  все  покойники  в  покойницком  отделении  не  помещались,  в  прозекторском  отделении,  на  лавках  у  стен  лежали:  высохшая  старуха,  умершая  в  деревне  от  голода,  младенец и  два  одноногих  инвалида  мужского  пола.  Посередине  помещения  стоял  большой  стол,  обитый  нержавейкой,  на  котором  лежал  загрызенный  человеческий  обрубок,  на  груди  которого  чернильным  карандашом  было выведено:  «А.В.Мамкин 1927г»  Глаза  трупа  были  открыты  и  выражали  полное  равнодушие к происходящему.   Около  него   находился  санитар  морга  Кузьмич  и  хирург  районной  больницы,  проводивший  вскрытие.   Взяв  скальпель,  он  провёл  уверенной  рукой  разрез  вдоль груди,  сверху  вниз,  а   затем  раскрыл,  как двустворчатый  шкаф,  грудную  клетку  покойника.  При  этом  он  диктовал  приехавшему с ним практиканту  об  увиденном.  Закончив  с  туловищем,  он  приступил  к  голове. Разрезал  на  ней  скальпелем  кожу  поверх  лба.  Раздвинул  её.  При  этом физиономия  Мамина  изобразила  сначала  сосредоточенность,  потом  брезгливость и,  наконец,  зажмурилась,  как  будто она  ожидает  удара. – Бедный  Йорик! – подумал  Орехов. Хирург  же  взял  пилу  и  стал  пилить  череп.   Отпилив  купол,  снял  его  и  обнажил  мозг.  Величайшее  достижение  эволюции  предстало  перед  глазами  присутствующих  в  виде  продукта  ни  чем  не  отличающегося  от  того,  который   можно  было  увидеть  на  прилавках  мясных  лавок.  Единственное,  что  смутило,  так  это  то,  что  мозг, как  ему  показалось,  имел  какой-то  сиреневый  оттенок.  Но  он  объяснил  это  влиянием  солнечного  света,  проходящего  через  стёкла  окна,  которые  тоже,  как  ему  показалось,  были  сиреневатыми.  – Хорошо  бы  сравнить  этот  мозг  с  мозгами  других    обитателей  скита и,  прежде  всего, с  мозгом убийцы, Кузнецова -  подумал  Орехов,  но  оставил  эту  мысль  в  связи  с  невозможностью  приведения  её  в  исполнение. 
А  вообще, вскрытие  настроило  следователя  на  философский  лад и он,  получив  от  хирурга  заключение о причине  смерти,  состоящей  в  кровопотере,  вызванной  повреждением  сосудов  шеи  в  результате  воздействия  на  них  тупых  твёрдых  предметов (возможно зубов человека),  спросил:  -  А  как  Вы  думаете,  причинил  ли  убийца  своей  жертве  особые  не  только  физические,  но и моральные  страдания  своими  действиями?  Хирург  задумался.  Что бы я не сказал, - подумал  он, - всё  может  оказаться  правдой и всё  неправдой.  Нет  приборов,  измеряющих  страдания.   Вместо  ответа  он  пожал  плечами  и  сказал,  что  ему  трудно  ответить  на этот  вопрос,  поскольку  сила  страданий  величина  довольно  относительная  и  зависит  не  только  от  телесных  повреждений,  но  и  от  личности  того,  кому  они  были  причинены.    Но  следователь не унимался.  – А  разве,  говорил  он,   величина  разрывов  тканей,  повреждений  нервов,  время,  прошедшее  между  нанесением  повреждения  и  потерей  сознания,  недостаточны  для  того,  чтобы  сделать  вывод?   
- Как  Вам  сказать, - и доктор  почесал  лоб,  -  то,  что  Вы  говорите,  конечно, справедливо,  но  нельзя  не  учитывать  при  определении  моральных  страданий  то,  в  каком  состоянии  и  жизненной  ситуации  находился  в  этот  момент  человек.  Представьте  человека  на  взлёте  своей  карьеры,  обогащения,  наконец,  любви.  Потеря  жизни  для  него  в  такой  момент  особенно  ужасна.  Другое  дело  здесь, в  этом  склепе,  без  всяких  надежд на  будущее.  Они  тут  все,  в  глубине  души,  думают  о  смерти. 
- Вы,  наверное,  правы  в  этом,  - задумчиво  возразил  следователь, - но  мне  кажется,  что  в  последние  секунды  жизни  человек  всё-таки  хватается  за  жизнь,  как за  то  единственное,  что  позволяет  ему  осознавать  себя,  как  самое  дорогое  и ни чем  невозместимое.  Мы  просто  не  хотим  думать  об  этих  секундах.  - Возможно,  возможно, - пробормотал  хирург.

Оперуполномоченный  Савин  велел  перевести на время слепого в другое помещение  и,  когда  Кузнецов  остался  один,  вошёл  к нему.  Тот  находился в углу,  прижатый в своей  корзине к  стене.  Мария  Ивановна  давно  смыла  с  его  лица  кровь,  причесала,  одела  чистый  ватник.  Поставив  посередине  помещения  принесённую  с  собой  табуретку,  Савин  сел  и  внимательно  посмотрел  на  Кузнецова.  Да  он ли это? -  мелькнула  мысль.  Неужели  перепутал,  ведь  этих  Кузнецовых у нас как собак нерезаных. Да нет, вроде он, - подумал, приглядевшись.   Да, ну,  конечно он.  Постарел  да  отощал, конечно. Ну, от такой  жизни  любой постареет.
- Здравствуй,  Сергей, - по  возможности  дружелюбно  сказал  Савин.  Кузнецов  открыл  глаза  и  посмотрел на  Савина.   - Не  узнаёшь?  - Взводный?  - Он самый.  А  теперь,  чтоб ты  знал,  оперуполномоченный  МГБ  по  вашему  району. - Удивлён?  - Мир  тесен, и не такое  бывает.  А  ко  мне-то  какой  вопрос.  Я,  вроде,  по  вашей  части  чист.  Может  быть,  мой  старый  грех  вспомнил? 
- Да,  повезло тебе  тогда.  Девка-то  эта  действительно  шпионкой  оказалась,  сама  призналась. 
- У  вас  признаешься… -  мрачно  сказал  Кузнецов и закрыл  глаза.  -  Ты  ведь  знаешь,  почему я  здесь.  Только  это  вас не касается. Это  по  прокурорской  части. 
- Тут  всё  по  нашей  части. – прищурясь  сказал  Савин, и  как-то  задушевно  и  участливо обратился к Кузнецову: -  А  ты  озверел  здесь  без  дела-то.  Так  я  тебе  кое-что  хочу  предложить.  Думаю,  что  не  откажешь,  как  старый  боевой  товарищ. 
- Сбегать,  чтоль,  куда,  или  дров  нарубить?  Так  я  мигом. 
- Шутишь?  Это  хорошо.  Значит  душа  жива.  Значит  интерес к  жизни  имеешь.  Так  что  мы  с  тобой, думаю,  поймём  друг  друга.  А  предложение  у  меня  к  тебе  боевое.  Ты  ведь в разведку  ходил – ходил.  Значит  наш  ты  человек  и  мы  с  тобой  общий  язык  найдём.   
- Говори,  что  надо,  а  то  крутишь  всё,  да  крутишь.
- Надо  помочь  нам.  Тут  у вас  человечек   один  есть,  довольно  вредный,  от  него  нити  в  Москву  тянутся.  Так  вот  размотать  нам  эти  ниточки  треба,  понял.  Если  бы  ты  мог….
Кузнецов  сплюнул  и зло,  не  без  издёвки, отрезал: - Я,  Ваше  благородие,  людоед,  мелочами не занимаюсь.
- Зря  Вы  так,  Сергей  Иванович, - не  менее  зло  ответил  уполномоченный.  Мы  умеем  быть  благодарными,  но  умеем  и   бо-бо  делать. 
-  Стукачом   не  был  и  не  буду, а  в  разведку  ходил  и  ещё  бы  пошёл,  ели б  руки-ноги  были.  Ты  меня  знаешь.
 - Да,  я  тебя  знаю.  Знаю,  например,  как  ты  в  сорок  пятом,  когда   у  тебя  ещё  одна  рука  и   одна  нога  были,  сел  пьяный  в  трамвай,  а  милиционер  тебя  вывел, так  ты  упал  в  лужу  и  крикнул «Да  здравствует  Сталин!»
 - Всё-то  вы  знаете.  А  как  я  жил  это  время,  знаете?
- Мы  всё  знаем,  всё.
- Знайте, что хотите,  а мне  терять  нечего,  меня  стенка  ждёт.
- Не  скажи.  Обещаю  тебе,  что  сам  пойду  к  судьям,  упрошу  тебе  жизнь сохранить.  В  лагерь  тебя  отправим  и  поместим   к  педикам. Они  тебя  каждый  день  на  хор  будут  ставить,  задницу  надерут  моё  почтение!  Ну  что,  будешь  работать,  или  хочешь  петухом  кричать?
- Нет -  тихо  сказал  Кузнецов  и  отвернулся  к  стенке.

Когда  к  нему  пришёл  следователь  прокуратуры,  Кузнецов  говорить с  ним  вообще  отказался. Не  отвечал  он  и  на  вопросы  психиатров.  Им  овладела  одна  единственная  мысль,  мысль  о  самоубийстве.   Уход  из  жизни  избавит  его  от  всего:  от  долгого  и  нудного  ожидания смерти  в  вонючей  корзине,  от  мук  совести  за  загубленную  им  жизнь, от того  кошмара, который  пообещал  ему  взводный.  В  общем,  никаких  противопоказаний,  как  говорят  врачи, у  него  против  смерти  не  было.   Оставался  вопрос: как. Он   когда-то  слышал,  что  один  заставил  себя  не  дышать  и  задохнулся.  Несколько  раз  пытался  это  сделать,  но  когда  каждый  раз,  когда  терял  контроль  над  собой,  начинал  непроизвольно  и  судорожно  вдыхать  воздух.  Бился  головой  о  стену.  Текла  кровь,  голова  болела.  Ему  замотали  голову  одеялом.  Попав  в  мед. изолятор,  хотел  перекусить  электрический  провод,  но  это  заметила  медсестра  и  его  вернули  обратно в скит,  к  слепому. 

Савин  был  зол,  как  лагерный  пёс. – Вот  гад, - думал  он  про  Кузнецова. – Зря я его  тогда не шлёпнул.  Вражина,  конечно.  И дело  не  в том, что  он шпионку  отпустил. (Тут  он вспомнил,  что  доказательств  этого  тогда  так и не нашли)  Пусть  она  и не шпионка,  какая  разница,  могла  же  ей  быть – могла.  Должен  он  был  об  этом  думать – должен.…  Чистоплюй  несчастный…  Ну,  ничего,  пожалеешь  ещё,  попросишься,  да  поздно  думать.  «Мне  терять  нечего»  - передразнил  он  своего  бывшего  фронтового  товарища.  – Посмотрим,  как  ты  запоёшь,  когда  тебя  пидеры  драть  будут.  Тут,   словно  холодок  побежал  по  его  спине, он  вспомнил,  что никого  не предупредил  о  том,  чтобы  Кузнецова  не  оставляли  наедине со слепым.  Он  развернулся и пошёл  обратно.

Когда  Кузнецова  принесли в скит,  Яков,  так  слепой  назвал  себя,  был  уже  там.   Он  рассказал  слепому о  своём  разговоре с  уполномоченным МГБ.  Тут  слепой  протянул к нему  руки,  чтобы  ощупать.  Нервно  помахал  руками  в  тех  местах,  где  у  него  должны  были  быть  руки  и  ноги,  и,  не  найдя  их,  задумался, а потом спросил – Ты  что,  «самовар»?  И  услышал  в  ответ «Он  самый.  Не  видал  таких?»  И  тут  Сергей  стал  умолять  слепого  помочь  ему,  спасти  его.  Слепой  сначала  не  мог  понять,  что  он  от  него  хочет,  а  когда  догадался,  что  Сергей  просит  его   помочь  совершить  самоубийство,  то  у  него  даже  что-то   изменилось  в  глазах.    Он  замахал  руками  и  заплакал.  -  Нет,  нет,  я  не  такой,  мне  нельзя, ты   подумай,   что  потом скажут  обо  мне.  Сергей  не  понял,  что  он  имеет  в  виду  и  стал  говорить,  что  он  всё  придумал,  что  на  него  даже  не  подумают,  так  что  опасаться за  своё  будущее  и  за  свою  репутацию  ему  не  надо,  но  слепой  твердил  своё.
Наконец,  он  перестал  плакать,  вытер  кулаками  глаза  и  спросил  Сергея:  -  Ты  знаешь,  кто  я? Сергей  не  ответил.  Тогда  слепой,   всхлипнув,  прошептал: - Я  сын  вождя.  – Какого  вождя? – не понял  Сергей. – Нашего,  советского.  – Ладно  разыгрывать-то, - отмахнулся  Сергей. – Не  веришь? Мне  никто  не  верит, -  упавшим  голосом  продолжал  слепой.  Меня  специально  упрятали  в  этот  каземат.  Ты  разве  не  понимаешь,  что  я  укор  своему отцу.  Помнишь  его слова:  «У  нас  нет  пленных,  а  есть  предатели»  Так  вот  я  и  есть тот  самый,  что  был  пленным, то  есть  предателем.  Зачем  ему  такой.  Он  и  до  войны  меня  не  любил,  а  уж  теперь  подавно.  В  сорок  третьем  в  плен попал.  Контузило  меня,  потерял  сознание,  а  очнулся  уже  в  бараке.  А  как  очнулся,  не  поверишь,  всё  до  мельчайших  деталей  вспомнил:  и  квартиру,  и  обстановку,  и  книги  в  шкафу.  Вспомнил  даже  его  пометки  красным  карандашом  в  книге  «Переписка  Энгельса с  Каутским»
В  конце  войны  один  бендеровец  подговорил  меня  бежать  из  лагеря.  Теперь-то я  понимаю, что  это  провокатор  был,  а тогда  поверил,  уж  больно  он  заботливым  был,  всё  опекал  меня.  Ну,  побег  удался,  правда,   стреляли  нам  вслед.   Потеряли  мы друг  дуга  из  вида.  Так  я  его  и  не  нашёл.  А  вскоре  к  нашим  попал  в  лагерь.  Назвал  себя,  а меня  на  смех  подняли.  Потом  в «Смерш»  отправили.  Там  майор  один  говорит  мне:  «Яков  убит,  а  самозванцев  нам  не  надо» Один  раз  так  избили,  что  зренье  потерял.  Всё  допытывались,    не  потому  ли  я  назвался его   сыном,  чтобы  добраться до  него  и  убить. А  мне  такое  и  в  голову  не  приходило. Как  же  я  мог  родного  отца… 
Слепой  не  знал  тогда,  что  бендеровец  этот,  находясь  в  тюрьме  на  Лубянке,  обратился  с  письмом  к  Сталину,  в  котором  просил  принять  его  и  выслушать, ему,  мол,  надо  что-то  очень  важное  рассказать  о  гибели его  сына.  Письмо  это  попало  И.о. Генерального  прокурора  СССР  Сафонову.  Григорий  Николаевич   не  то  что  передать,  а  даже  доложить  адресату  об  этом  письме  побоялся.  Посоветовался с министром  внутренних  дел.  Тот  тоже  не  знал  что  делать.  Тогда  решил  действовать  через  Берию.  Зашёл  к  нему  в  кабинет  после  того  как  «особое  совещание» закончилось.  Берия  сидел  за  большим  письменным   столом и  перебирал  бумаги.  Увидев  прокурора,  предложил  ему  сесть.  Тот  сел.  В  это  время  к  Берии  подошёл  его  адъютант,  наклонился  и что-то  тихо  сказал.  Берия  испугался,  стал  как-то  меньше,  но  тут  же  встал  и  быстро  пошёл  в  комнату,  находившуюся  за  его  спиной.  Через  некоторое  время  вернулся и сказал,  что  звонил  Иосиф  Виссарионович.  Сафонов  подумал  тогда:  - Ну, если его сам  Берия  так  боится,  то  что  же  мне,  простому  смертному,  стесняться  своего  страха.  От  этой  мысли у  него  на  душе  стало  немного  легче.
Да,  слепой  всего  этого  не  знал,  однако  не  раз  повторил  слова о том,  что  бендеровец  этот  нарочно  распространял  ложь  о  его  смерти,   чтобы  насолить  ему. 

Пока  слепой и Сергей  делились  своими  переживаниями,  оперуполномоченный  Савин  метался по территории  монастыря  разыскивая  ключ  от  скита   или   кого-нибудь, кто  мог  бы  развести  их по  разным  помещениям.  Матерясь и проклиная  нерадивость и тупость  работников  этого  клистирного  заведения,  Савин  не  мог  избавиться  от  мысли  о  слепом.  Он  проклинал  тот  день   и  того  начальника  по  чьей  воле  оказался  этот  негодяй  в  курируемом им  учреждении.  Противнее  всего  было  то,  что  органам  до  сих  пор  не  удалось  установить  его  настоящее  имя,  а  без  этого  нельзя  было  передать дело не  то что в трибунал,  а  даже в тройку.  Его  угнетало  ещё  воспоминание о глупости,  которую  он как-то  сказал  при  начальнике.  Они  тогда  обсуждали  этого  «Слепого»  и  он  сказал:  -  Ну,  откуда  он  всё  знает?  Знает  обстановку,  знает, что  курит  Сталин,  знает  даже  какие  книги  стоят  у  него  в    шкафу.  Начальник  посмотрел  на  него  и  так  снисходительно  говорит:  - А Вы,  Валерий  Петрович,   в  Третьяковской  галерее  были?  -  Никак  нет,  отвечаю.  – А следовало  бы  посетить.  Непременно  поезжайте в отпуск в Москву. Увидите  там,  на  картинах,  обстановку,  о  которой  рассказывает Ваш  «Слепой».  – А  книги? – спрашиваю.  – Книги? - отвечает  начальник,-  А   Вы  знаете  какие  книги  стоят  в  шкафу  у  Иосифа  Виссарионовича?  - Но  он  же  их  перечислил, - пытаюсь  я  схватиться  хоть  за  какую-нибудь соломинку,  понимая  всю  нелепость  и  глупость  этой  попытки.  Начальник  спорить  со  мной  больше  не  стал,  а   посмотрел  на  меня  внимательно и говорит:  - Устали  Вы,  Валерий  Петрович,  отдохнуть  бы  Вам,  собраться  с  мыслями.  … Собраться  с  мыслями… С  вами  соберёшься!  Последних не останется.  Да и сами вы  ни черта не  понимаете.  До сих  пор  не  знаете,  что  с  этим  чёртовым  «Слепым»  делать:  то ли   пристрелить,  то ли  отпустить.  Ругая  начальство,  он  сам  не  находил  ответа  на  вопрос  что  делать.  Одно  было  ясно:  «Слепого»  этого  надо  скрывать,  содержать  в  строгой  изоляции.  В  тюрьме,  лагере,   психиатрической  больнице  он  может  чёрте что  наболтать,  нафантазировать про  нашего  вождя.  Хорошо  бы,  конечно,  расстрелять,  убить  его…  А  вдруг  окажется,  что  он  действительно..…   Страшно  даже  подумать.   
В  этот  момент  Савин  поскользнулся  и  упал.  Жёсткий  мёрзлый  снег  ободрал  ему  ладони, коленкой он   больно  ударился  о  лёд. В  этот  момент  кто-то  подошёл  к  нему   сзади  и  помог   подняться.  Это  был  Лёха. От  него  пахло  водкой.  Савину  не  хотелось  с  ним  говорить,  но  Лёха  не  отходил  от  него  и  всё  пытался   заговорить,  и он, согласно  одной  из  чекистских  заповедей,  слушал  его,  делая  вид,  что  ему  это  интересно.  Из  всего  бессвязного  набора  слов  он  понял,  что  Лёха  хотел  бы  сотрудничать с органами,  что  ему  есть  что  сказать  кое про  кого.  Савин  ничего  ему  по  этому  поводу не сказал,  а  предложил  поговорить в другой  раз,  когда  он  будет  трезв.  Лёха  обиделся,  но  промолчал.  Узнав  от  Лёхи  о  том,  что  медперсонал  собрался  у  главного  врача,  Савин  отправился к нему.   
Пройдя  по  длинному  коридору,  Савин подошёл  к  двери  с  табличкой  «Главный  врач  М.Е.Кошкер»  Войдя в кабинет, извинился  и,  подойдя  к  его  хозяину,  тихо    спросил  его: «Где  «Слепой?»,  а  узнав,  что  он  водворён  на  своё  обычное  место,  т.е.  в  скит, к  Кузнецову,  очень  расстроился,  но  вида не подал.  Да и что  толку  от  этого  вида,  когда  дело  уже  сделано.  Теперь  Кузнецов, конечно,  рассказал  слепому  о  том, как он его  вербовал,  а  поэтому  задушевного  разговора  со  слепым  у  него  уже  не  получится.  А  ведь  до  сегодняшнего  дня всё  складывалось  нормально: слепой  соблюдал  установленную  между  ними договорённость  о  том,  что  он  не  будет  болтать  о  своём  происхождении.    Ну, да  ладно,  может  быть,  всё  ещё  обойдётся.  Во  всяком  случае,  он  теперь   знает  что  это  за  гусь  Кузнецов.  Теперь  никакого  сочувствия  у  него  этот  паразит   не  вызывает  и  пусть  его   хоть  к  стенке  прислоняют. Ему  на  это  плевать. С  такими  мыслями  он  и  покинул  совещание у главного  врача. 
Михаил  же Ефимович,  после  его  ухода Савина  предложил  коллективу  свой  проект  переустройства скита  №  17.   Нельзя, - сказал  он,  -  держать  долее больных  в  корзинах.  Это  неудобно  и  тяжело  для  обслуживающего  персонала,  поскольку  для  оправки  их  каждый  раз  приходится  из  корзин  вынимать,  а  потом возвращать  на  место.  К  тому  же  содержание  в  корзинах  непрактично.  Корзины  быстро  ветшают,  портятся,  ломаются,  а  новых  у  нас  нет.   Приходится содержать  в  одной  корзине  по  два  человека,  что  вообще  недопустимо.     И,  наконец, это  не  гигиенично  и  не эстетично.  Корзины  дырявые  и провоняли  экскрементами и мочой.   В  таких  условиях  нормальный  человек  озвереть  может, не то, что  инвалид!  Сказав  эти  слова,  главный  врач  ударил  ладонью  о  свой  письменный  стол,  а,  опомнившись,  спросил  заведующих  общим и психиатрическим  отделениями: -  А что  говорит Кузнецов о  своём  поступке?  - Ничего,  он  молчит, - ответили наперебой заведующие и  покосились  на  уполномоченного МГБ.  Тот  в  этот  момент  сосредоточенно  рассматривал  следы  протечки  на  потолке.  Главный  врач  не  стал  допытываться  у  заведующих,  почему  они  молчат,  а  лишь  печально  суммировал:   - Значит,    мы  теперь  не  узнаем,  когда  обмочился  Мамин:  перед  тем,  как  Кузнецов  его  загрыз,  или  во  время этого,  а,  следовательно,  лишены  возможности  с  большей  или  меньшей  вероятностью  предположить  причину случившегося.    – Какое  это  теперь  имеет  значение,  - вздохнула  Мария  Ивановна.  -  Большое,  Мария Ивановна,  большое.  - Ну,  да  ладно,  пусть  следствие    разбирается.  А  как  отнеслись  в   палате  к  этой  истории? – обратился  он  к  Марии  Ивановне.  -  Расстроены  люди, - вздохнула  Мария  Ивановна, -   Иван  Иванович так  тот даже  заплакал.  Один только  Федька  рассмеялся,  ну, что с   него  возьмёшь.  Шалопай – известное дело.   Михаил  Ефимович развёл  руками  и  спросил  присутствующих:  - Так  что  будем  делать  с   третьей  палатой?    А,  не  получив  вразумительного  ответа,  сказал:  -  Будем  подвешивать.  Все  оживились: -Кого?  Как  подвешивать?  За  что?  На  чём?  -  Обыкновенно, - ответил  главный  врач. - Я  всё  продумал.   Сделаем  железные рамы,  к  ним  подвесим  наших  инвалидов  на  парашютных  стропах.  У  нас ведь  есть  несколько  парашютов.   -Людмила  Васильевна, - обратился  он  к  сестре-хозяйке  Ляжкиной, - на  чердаке,  если не ошибаюсь.  Та  кивнула.   Подмышники  сделаем  из  ваты.  Пол  под  ними  зацементируем  и  склон  сделаем,  а  в  конце  его  жёлоб.  Больные  смогут  оправляться  в  любое  время  суток.  Надо  будет  только    кран  водопроводный  установить и шланг,  чтобы  смывать экскременты  в  жёлоб.  А  потом,  по  жёлобу,  они  будут  стекать  в  трубу  за  стеной  скита.  Летом  инвалидов    можно  будет  за  эти  парашюты  на  яблоню  подвешивать.  И  гигиенично,  и  персоналу  легче. -  закончил  свою  речь  главный  врач и покосился  на  Марию  Ивановну.  Та  сидела  спокойно и  только  плечами  пожимала. - Эта  героическая  женщина  готова  на  всё, - подумал  главный  врач.  Он  помнил,  как  однажды  она  вызвалась  обслуживать  изуродованных.  Есть  в  их  «кефирном  заведении»,  как  называет  их Дом   уполномоченный  Савин, и такой  скит,  называемый  «Друг слепого»  Его,  кстати,  слепые  обычно  и  обслуживали.  Тем,  кто  там  находится,  пищу  подают  через  маленькое  окошко,  а  когда  надо  к  ним  зайти  какой-нибудь  заезжей  комиссии,  приказывают  им  одеть  мешки на  головы:  не  каждому  хватает  сил    смотреть  на  то,  что  война  может  сделать с  человеком.  Но  Мария  Ивановна  три  месяца  назад заявила,  что  человек,  какой  бы  он  не  был,  всё  равно  человек  и  его  бояться нечего,  и  целый  день  обслуживала  этих  несчастных.  Держалась,  держалась, а  вечером  упала  в  обморок.  Больше  её  туда не посылали. 
  Сейчас  Марии  Ивановне  было не до изуродованных. Она  думала о  разговоре  «слепого» с  Кузнецовым,  который  невольно  подслушала,  остановившись  в  сенях  скита.  Рассказать  доктору  об  услышанном, или  нет – вот  какая  мысль  терзала  её  и не  давала  покоя  всё  это  время.  После  совещания  она  вернулась  в  кабинет  главного  врача и выложила  ему  всё, «как на духу»   Михаил  Ефимович  вспомнил  тут о  том, что  «слепого»  держали в строгой  изоляции,  как  он  понял  из  намёков  директора,  по  указанию  МГБ.  Тогда  он  не  придал  этому  значения.  К  тому  же,  как  человек  осторожный и наученный  горьким  опытом,  поскольку  сам  в  своё  время  был  выслан  из  Ленинграда,  понимал,  что  лучше  всего  не  лезть в дела,  которыми  занимается  это  ведомство.  Поэтому  он  посоветовал  Марии Ивановне  забыть  об  услышанном  ею  разговоре  и  никому  о нём  не  рассказывать.  У  Марии  Ивановне  при  этом  ёкнуло в груди,  но  она  поклялась  молчать,  как  рыба.  На  том  они  и  расстались.  А  ёкнуло  у  Марии  Ивановны в груди не случайно:  ведь  это  именно  она,   подслушав разговор  «Слепого» с Кузнецовым,  побежала не к директору  Дома  инвалидов и не к его  Главному  врачу,  а  к  своей  деревенской  подруге, Аграфене  Грушиной  и  рассказала  ей  об  услышанном.  Сейчас  она  ругала себя  за  это,  но  ничего  не  могла  поделать,  и  поэтому  какие-то недобрые  предчувствия  не  покидали  её  до  самого  вечера.
 На  следующий  день  её  предчувствия  оправдались. Ранним  утром  на  колокольне  монастыря  опять  зазвонил  колокол. Проснувшись,  Мария  Ивановна  не  стала  гладить  свой  живот,  а  перекрестилась,  накинула  на  себя  ватник  и  выскочила  во  двор.  По  дороге,  ведущей  из  деревни,  в  сторону  скита,  в  котором  находился   «Слепой»,  шла  толпа.   В толпе  она  увидела  Аграфену  и  бросилась  к  ней.  – Куда  идёте,  зачем?  Но  та  отмахнулась,  мол,  не знает,  все  идут  и  она  пошла.  Мария  Ивановна  поняла,  что  возглавляет  толпу  старик,  ссыльный  священник,  отец  Илларион, в  полном церковном  облачении. Его  седые  пряди,  вылезавшие  из-под  камилавки,  развевались  на  ветру.   В  руках паства  его несла  иконы,  портреты  Сталина и бумажные  цветы. Головы  старушек  были  покрыты  белыми  платками,  а  дети  умыты  и опрятны.  Шли,  как  говорится,  и старые, и малые.  Все  они  что-то  пели  монотонно  и  скучно.  Подойдя к скиту,  стали  кланяться и креститься.  Здесь   отец  Илларион,  встав на  возвышение, простёр  руки  к небу   и   громовым  голосом,  наличие  которого  невозможно  было  предположить в  его  давно  не молодом  теле,  затянул что-то  про  отца, сына  и  святого  духа.   Народ  поддержал  его  пением  молитвы. Закончив  молитву,  он  сказал: - Бедных сталкивают с дороги и лишённые земли  вынуждены  скитаться,  жнут  они  на  поле  не  своём  и  собирают  хлеб  у  нечестивца,  нагие  ночуют  они  без  крова и  одеяния,  а те  отторгают  от  сосцов   сироту  и  с  нищего  берут налог.  Кое-кто  из  женщин  заплакал.  Это  вдохновило  проповедника  и  он, вернувшись  к  сыну  божьему, уподобил  его  сыну  вождя  народов, а    отношения  между  отцом  и  сыном  небесными  приравнял  к  отношениям  между  отцом  и  сыном  земными.  – Воззри  же  отец  на  страдания  сына  твоего,  томящегося  без  вины  в  каземате,  как  когда-то  воззрил  отец  небесный  на  страдания  сына  своего  в  Иерусалиме. Сын  твой, как  и  сын  божий  терпит  поругание от жидов-антихристов, окруживших  тебя  и  замутивших  взор  твой! Взгляни,  отец  наш  кремлёвский, на  Голгофу  страданий  сына  твоего!   После  этого  он  стал  умолять  слепого  сжалиться  над  ними,  простить  грехи  и  заступиться  за  них  перед  отцом  своим и небесным.  -  он  воздевал  руки к небу  и  утирал  слёзы.   - Доколе  будут  мучить  нас?! - возглашал  он, -  Разве  мы  бусурмане  какие,  разве  не  нашей  кровью - потом  полита  земля  русская?!  За что  нас  притесняют,  не  дают  в  храме  молиться?!  За  что  нас  мучают  налогами,  обирают  заёмами?!  Разве  тунеядцы  мы,   разве  не  нашими  трудами  живёт  и  кормится  страна  наша!  Услышь  нас,  агнец  святой,  сын  великого отца,  донеси  до  него, хоть в молитве  своей  наши  мольбы  и  чаяния,  Христом-богом  тебя  молим,  смилуйся  над  нами!  Век  за  тебя  молиться  будем, отречёмся  от  всех  радостей  земных, жизней  своих  не  пожалеем,  служа  тебе  и отцу  твоему!   Дай  нам  надежды  соломинку,  утри  слезы  наши,  оставь  хоть  зёрнышко  с  колосьев поля  твоего! Нет  больше  сил  терпеть  притеснения  местной  власти  и  скудности  жизни  нашей!   После  этих  слов  две  женщины  стали  биться  на  земле в падучей, а у одной  даже  пена  изо рта  пошла. Митинг  грозил  перерасти  в  шабаш. 
 В это  время  в  комнате  для  приезжих  административного  корпуса  проснулся  уполномоченный  Савин.  Посмотрев  в  окно, он  с  удивлением  заметил,  что  в   сторону  скита,  в  котором  сидели    «Слепой»  и  Кузнецов,  один  за  другим  идут  инвалиды.  Идут  довольно  деловито,  о  чём-то  оживлённо  переговариваясь.   Он  быстро  оделся, нацепил  кобуру   и  вышел   из  дома.  У  скита  он  увидел  толпу.  Когда  он  понял,  что  люди   пришли   искать  заступничества   у  «Слепого»,  как  у  сына  Сталина,  ему  стало не по  себе. – Не  хватало  мне  ещё  тут  массового  сопротивления советской  власти! Подумал  он.  Медлить  было  нельзя.  Он  подошёл  к  старику  в  облачении,  взял  под локоть,  стараясь  отвести  в  сторону.  Старик  идти не  хотел,  а  окружавшие  его деревенские  стали  ворчать.  Их  поддержали  инвалиды.  Кто-то  крикнул: - Оставьте  старика,  что  он  вам  сделал?  Савин  в  ответ  крикнул: - Этот  старик  враг  Советской  власти!  И  услышал  в  ответ: - Сам  ты  враг  Советской власти!   Положение  становилось  тревожным.  Савин  искал  в  толпе  знакомые  лица,  ища  поддержки,  но,  как  назло,  никого  из  тех,  кто  его  мог  бы  поддержать,  не  видел.  Наоборот,  он  заметил в толпе Евдокию Морозову,  ссыльную  подкулачницу,   и  решил   пойти в наступление.  - Среди  вас, - крикнул  он,  пытаясь  перекричать  толпу, - находятся  агенты  мирового  империализма.  Старик,  за  которого  вы  заступаетесь,  выслан сюда за  контрреволюционную  пропаганду  и  укрывательство  награбленных  у  народа  ценностей,  а  эта  женщина  (и он указал  пальцем  на  Евдокию  Морозову) – подкулачница  Евдокия  Морозова,  дочь  кулака-мироеда.  Они  нарочно  привели  вас  сюда  для  того  чтобы  скомпрометировать  имя  нашего  великого  вождя  товарища  Сталина.  Они  прекрасно  знают,  что  в  нашем  Доме  инвалидов  никакого  сына  Сталина  нет,  что  сын  Сталина  умер  геройской  смертью.  А  привели  они  вас  сюда  для  того,  чтобы  воспользовавшись  трудностями  послевоенного  времени  и  вашей  доверчивостью,  сбить  вас  с  толку,   настроить  против  партии  и  советской власти.  Не   успел  он  сказать  эти  слова,  как  заголосила  эта  самая  Евдокия.  Устремив  куда-то  вдаль безумные  глаза  свои,  она  исторгала  из  иссохшей  груди  своей   слова,  казавшиеся  не  только  отчаянно  смелыми,  но и безумными.  – Вы  и  Сталин  Ваш  ведут  страну  к   гибели,  Вы  навязали  народу  колхозы,  а  с  ними  голод  и  нищету,  Вы  замучили  народ  налогами,  позакрывали  церкви,  пересажали в тюрьмы верующих.  Бог  он  всё  видит,  он  нас  не  оставит, а  вас  накажет.  Он  пошлёт  на  Вас  и  Вашу  власть  Америку.  Она  разобьёт  Ваш  Советский Союз  и  тогда  откроют  монастыри  и  церкви,  колхозов  не  останется  и  кончатся  наши  муки,  а   коммунисты  Ваши  будут  в аду  гореть!   Кто-то  из  инвалидов,  услыхав  её  слова,  крикнул: - Закрой  рот,  дура,  мы  за  эту  власть,  да  за  Сталина  кровь  проливали!               
- Вот  он  Вас  и  отблагодарил,  безбожники!  - крикнула  Евдокия. Она  хотела  крикнуть  что-то  ещё,  но  деревенские  мужики  оттащили  её  в  сторону.  Савин  потребовал,  чтобы  все  немедленно  разошлись,  иначе  он  будет  стрелять,  и  достал  револьвер.  Толпа  стала  расходиться.  Хотел   уйти и старик-священник,  но  Савин  его  остановил и  предложил    пройти  с  ним  до  конторы,  чтобы  побеседовать. 
Ему было о  чём  с  ним  поговорить  и  что  ему  напомнить.  Он  знал,  что  этот   старик,  по  фамилии  Красовский,  распространял  среди  прихожан  слухи  о  том,  что  жёны  у  колхозников  будут  общие, что  своего  имущества  ни  у  кого  не  будет  и  все  будут  спать  под  одним  одеялом  на  одних  нарах.  Говорил, что  колхоз  это  Антихристова  затея,    что  всех  сделают  рабами,  как  при  крепостном  праве.  Однажды  написал  письмо  от  имени  Иисуса Христа,  в  котором  призывал  к  борьбе  с  Советской властью,  а  в  другой  раз - листовку  о  кончине  мира  через  девять  дней. И  всё  это  для того,  чтобы  сорвать  работу  в  колхозе.  А  ещё   он   болтал  о  том,  что скоро  придёт   избавитель -  Папа  Римский,  и тогда  жизнь   в  стране  станет  нормальной,  такой,  как  была  при  царе. - Его  только  за  одно  за  это  надо  было  расстрелять, - думал  Савин. Но не только  этот  полоумный  старик и эта визгливая  баба  возмущали  его.  Его  возмущало и московское  начальство.    Им, -  думал он, -  конечно  просто:  сбыли  этого  козла  бородатого  с  рук - и  порядок,  а  мне  вот  теперь  расхлёбывать.  А  если  бы  он  тут бунт  устроил,  кровь  пролилась,  что  бы  со  мной  сделали,  самого  бы  в  этот  скит  заперли?
Когда  зашли в помещение,  Савин предложил  старику  сесть  на  табурет, а  сам  устроился  на  детской  игрушке лошадке-качалке  -  другой  мебели  в  комнате  не  было.  Гражданин  Красовский, - начал  Савин, - я  вижу, что  Вы  не  собираетесь  становиться  на путь  исправления.  Вы,  как  я вижу,  тоже -  мрачно  заметил  старик и вздохнул.   Не  обратив  внимания  на  эти  слова,  Савин  продолжал:  - Следовательно,  никаких  выводов  Вы  для себя  не  сделали.  Я Вас  последний  раз  предупреждаю:  если  Вы  не  прекратите  свою  преступную  деятельность,  я  буду  вынужден  привлечь  Вас  к  ответственности. Чем  это  для  Вас  может  кончиться, Вы  сами  знаете.  Старик  молчал,  опустив  голову.  Он прекрасно понимал  чем  это  может  закончиться.  Знал  это  по  судьбам  своих  товарищей,  сгинувших  «на  просторах  нашей  необъятной родины»  Он вспомнил,  как  ещё  в  1935-ом, когда  ему  запретили  служить,  он  по  ночам  обходил   своих  прихожан,  собирая  куски,  чтобы  не умереть  с  голода.   Савин  же,  решив напомнить  ему  о  его  прегрешениях  перед  Советской  властью,  резко и зло  стал  перечислять  их.    -  В  1929 году,  если  не  забыли, Вы,  гражданин  Красовский, распускали  слух  о  том,  что  скоро  будет  война,  что  Япония  и  Германия  выступят  против  СССР и  Советская  власть  будет  свергнута, в 1937 году  Вы  говорили,  что  Советская власть  расстреливает  невинных  людей,  убеждали  родителей  надевать  на  шеи  своих  детей  крестики,  а  в  прошлом  году,  уже  здесь,  Вы  распространяли  среди  жителей деревни  и  инвалидов  «святое  письмо»  Вам   напомнить  его  содержание? Сказав  это,  Савин  соскочил с лошади  и  зашагал  по  комнате.  Старик  слабо  махнул  рукой  и  ничего  не  сказал.  – Так  вот, - продолжал  Савин, - в  этом  письме  Вы  призывали  их  веровать  в  бога,  а  тех,  кто в  него  не  верит и верить не  хочет, - запугивали,  угрожая  тем, что  их  перебьют  на  войне.  Перед  войной  Вы,  чтобы  озлобить  людей,   утверждали,  что  наша  страна  все  товары  отправляет  за  границу, а народ  голодом  морит.  Вы  говорили,  что  мы  таким  способом  откупаемся  от  новой  войны,  но  всё  это  нам  всё равно  не  поможет  и   Америка с Европой  выступят  против  нас  войной. Тем  самым Вы  сеяли  среди  людей  ложь,  сомнения  и  страх. Откуда,  святой  отец,  Вы всё  это  взяли,  может  быть  из  передач   «Голоса  Америки»?   -  Мы  Вашего  бесовского  радио  не  слушаем, -  буркнул  старик, - ни к чему  нам  это,  мы  божий  голос  слышим.  – Божий, - передразнил  его  Савин  и  продолжал: -  А   до  войны,  со своим  другом,   монахом-бродягой    Дианошевым,  Вы  призывали  колхозников  в  пасху  не  выходить на  работу!  Это Вам  тоже  божий  голос  подсказал?
Тут  старик  заёрзал  на  табурете и сказал:  -  Праздник – день  божий.  Ему  его  и  отдай. 
- Вы  призывали не  только  к  тому,  чтобы люди не выходили  в  дни  религиозного  праздника  на  работу.  Вы  призывали  людей  вообще  не  работать  в  советских  учреждениях  и  не  вступать  в  общественные  организации,  призывали  крестьян  не  сеять  озимые,  не  голосовать,  а  в  день  выборов  прятаться  в  землянках,  которые  они  должны  были для  этого  заранее  вырыть в лесу. Ну,  что, не так?
- Так-то  оно  так, -  угрюмо  сказал  старик, - только,  господин  хороший,  Вы  государству  служите,  а  я  Богу.
- Да,  я  служу  государству.  Государство  существует  и  я  знаю,  что  оно  от  меня   хочет,  а  где  Ваш  бог?  Вчера  у  царя за  печкой,  а  сегодня – в Америке.  – Ничего  не  скажешь - выгодное дело:  и в армии  служить  не  надо и  главный  начальник на кресте,  молчит,  как  рыба.
-  Эх, Ваше  благородие,  Ваше  благородие. Бога  Вы не боитесь! - покачав головой, сказал старик, -  А  про  то,  что священнослужители  в  армии  не  служат,  скажу:  не  все  в  ней  служат. Сами  знаете  скольким  людям  бронь  была  дана,  а  у священника  на это  свой  резон,  должен  же  кто-то и во  время  войны совершать  подвиг  духовный.  Сколько  веков  люди на  Земле  воюют,  а  что  толку,  только  злее  становятся, грешат  и  других в грех  вводят.  А  кто  же  все  эти  грехи  пред   Богом  отмаливает?   Священствующие и монашествующие  обязаны не  в  драку  лезть,  а исполнять  свои  прямые  обеты. А  что  их  орденами не  награждают  и  в  газетах  о них  не  пишут,  так  что ж.   В  том- то ведь и  состоит  суть  иноческого  подвига,  чтобы  никто  не  видел  и  не  знал  его.  Для  этого  ещё  древние  иноки  бежали  в  пустыни  и  там  умирали,  безвестные  миру.  Вот  и теперь мы,  страдающие  за  веру  свою,  должны внести  покой  и  утешение  в  души  обитателей  этого  скорбного  Дома  и  вымолить  у  Бога  умаление  страданий  малых  сих.
- Ну,  какой  покой  вы  вносите  в  жизнь  этого  скорбного  Дома  я  сегодня  видел.  Если  бы  стрелять  не  начал,  Вы  бы  тут  погром  устроили.    Может  быть,  ещё  для  пущего  покоя  бог  Ваш  на  нашу  землю  и  фашистов  послал?
- Фашистов  Бог  послал нам  за  грехи  наши. 
- А победу  за  что?
- За  страдания. 
- А ты слышал, что  Евдокия Морозова  кричала  про  Америку?  Ты  знаешь,  что  Америка на нас атомную  бомбу  бросить  хочет?  А?
- Про  атомную  бомбу  не  знаю, не  скажу, а  только  знаю,   если бы  в  двадцать  девятом  кто-нибудь,  пусть  даже Америка,  взяла  нашу  власть  за  руку  да  сказала:  нельзя  деревню  разорять,  людей с земли  сгонять,  гнать  их  в  Сибирь,  морить  голодом,  то  сколько  бы  душ  православных  спасено  было  бы, эх.  И,  не  смотря  ни  на  что,  скажу  тебе,  Валерий,  что  православие  всё равно  победит.  И  помогут  ему  наши  братья-верующие  из  Америки,  Англии,  Франции, Греции,  Голландии,  Дании и других  стран. Слышал я, что в  католических  храмах  Италии организуется  поход  против  коммунистов.  Они  придут  и  освободят  нас.  Сказав  это,  бывший  священник  даже  встал  и  понёс  такое,  за  что  Орехов  мог  бы  поставить  его  к  стенке  и  ему  бы за  это  ничего  не  было. – Скоро  будет  война  с  Америкой, - сверкая  глазами  заговорил  старик, -  Если  Америка  и  Турция  поднимутся  войной  на  Советский  союз,  то  Советская  власть  больше  существовать  не  будет.  В  священном  писании  сказано,  что  перед  концом  света  будет  три  войны,  после  чего  будет  один  царь  по  всему  земному  шару.  А  война  будет  обязательно  согласно  писанию  Библии! – и старик,  сказав  это,  поднял  вверх  указательный  палец  и  погрозил  им.  Савин  же  напомнил  ему,  что  церковь  наоборот,  благословляла  советских  солдат  на  борьбу  с  фашистами и  ни  о  какой  победе  над нами  Америки  не  молится,  на  что  старик  зло  ответил: - Церкви,  которые  сейчас  открыты,  это  бесовские  церкви,  как  и  всё  теперь  у  нас,  а  священники  их -  советские  агитаторы, поставленные  партией,   у каждого них  под  рясой  советские  медали  за  верную  службу,   поэтому  они и  говорят то,  что  им   прикажут.   Только  службу-то они  ведут   неправильно,  сокращённо,  не  так,  как  раньше,  а  потому  и  молитвы  их  до  Бога  не  доходят.  – А  твои  доходят? – разозлившись,  спросил  Савин.  -  Дойдут,  уверенно  ответил  старик.   В  Евангелии вот сказано,  что  перед  концом  света  на  Земле  появятся  антихристы,  они  будут  ставить  печати  на  людей, а  тех,  кто  не  захочет  ставить  печать,  они  убивать  будут.  – Что же  делать? – с издёвкой  спросил  Савин.  -  Молиться  надо  усердно,  молиться,    Савин  заметил, что  старик  даже  покраснел  от  злости  и  подумал,  что  он,  наверное,  не  совсем  нормальный.    Ему  была  неприятна  эта  полная  уверенность  старика  в  себе  и  своих,  мягко  говоря, ненормальных   взглядах.  Он  не  мог  понять,  откуда  взялась  эта  уверенность,  на чём  она  основана?  Может  быть,  это  и  есть  тот  картонный  меч,  с  которым  прижатый  к  стене  изгой,  выходит  на  последний  бой?  Может  быть,  сила  их  веры  и  кроется  в  силе  их  ненависти? Разговор  со  стариком  ожесточил  Савина.  Возмутили  его  и  слова старика о том,  что  жиды  ему  голову  заморочили.   Он  сам,  не  меньше  старика,   ненавидел  евреев  (и  не  потому,  что  они  ему  сделали  что-то  плохое,  а  потому  что  так  был  воспитан) но  он  знал,  что  его  родной  отец погиб   в  гражданскую,  сражаясь  с  бандами Колчака,  что  сам  он  за  Советскую  власть  воевал в  Великую   отечественную  и  что  предан  он этой власти   всей  душой и готов  отдать  за  неё  жизнь,  и  евреи  тут  совершенно не при чём.  Озлобившись на старика,  он   не  сдержался  и  разоткровенничался,  о  чём  потом,  как  это  и  должно  было  быть,  пожалел,  ибо,  как  чекист,   знал:  каким бы  откровенным  не  был   разговор,  никогда  ничего  не  следует говорить о себе  лишнее,  но  он  завёлся и  выпалил:
-   Подвиг,  говоришь.  Так  вот  я  тоже  свой  подвиг  до  войны  совершал,  только  не  в  церкви  кадилом  махал,  а на станке  вкалывал.  Так  меня  в  армию  забрили,  как  миленького.  А сегодня,  ты  думаешь,  мне  сладко?  Да  мне  не  всегда  есть  на  что  пожрать,  сын  мой  в  рваных  ботинках  в  школу  ходит, а жена  шапочки вяжет,  чтобы  хоть  как-то  подработать,   однако я  дебошей  с  иконами  не  устраиваю, а  служу  нашей  стране  верой  и  правдой,  потому  что  знаю,  что  время  сейчас  тяжёлое,  что  оно  от  нас   всех  сил  требует, что  время  это  пройдёт  и  народ  станет  жить  лучше,  что  народу  нашему  сейчас  трудиться  надо  и  чтобы  ему  никто,  в  том  числе  и  такие,  как  вы, не  мешали.  И  для  этого  я  вас,  гадов, как  сорную  траву  в  поле  вырву  с  корешками,   чтобы  не  сбивали вы народ  с  толка, не мутили  воду. Старик  вздохнул  и,  внимательно  посмотрев  на уполномоченного,  сказал: - Наше  дело  христово, а Ваше – антихристово и  ни на  чём  нам  с  тобой  не  сойтись. Над  нами  свет  божий, а над  вами тьма. Вы  за  свой  кусок  готовы  любого  замучить,  а  потому и  жизнь ваша  вам не в радость.   Савин  мотнул  головой  и  решил,  что  разговор  пора  прекратить.    Настроение  у  него было  паршивое.  Хоть  и  считал  он  этого  старика и  эту  проклятую  бабу,  Морозову,  прохвостами и врагами  Советской  власти,  однако  ему,   как  представителю  этой  власти,  было  не по  себе,  ему  хотелось   иметь  других  врагов,  таких,  как на фронте.  А  то ведь  это  всё нищета  какая-то, голь перекатная.  Ему  не  раз  приходилось  делать  у  таких  вот,  как  Морозова,  обыск,  имущество  описывать.  А  что  было  описывать?  Он  помнил,  как  входил  в  эти  убогие  избы  с  земляными  полами  и  соломенными  крышами,  садился на что придётся,  писал  протокол,  состоящий  из  трёх  строчек: «Коза  серая,  картошки  500 килограммов,  койка  железная,  матрац  ватный  и  подушка»  Вот и всё  их  богатство!  Вспомнив  это,  Савин  сплюнул  и  сказал  старику:  - Счастье  твоё,  старый  чёрт,  что  государство  сейчас  церкви  послабление  сделало,  а  то  бы  я  тебя  заслал  туда,  куда  Макар  телят  не  гонял. Иди  с  глаз  моих  и  не  вздумай  народ  мутить, а  то  посажу.  Когда  старик  ушёл,  Савин  задумался:  почему  Сталин  дал  церкви это  самое  послабление. Он   знал,  что  в  народе  на  эту  тему  ходят  разные  разговоры. Одни  считали,  что  сделано  это  потому,  что   церковь  во  время  войны  призывала  народ бороться с фашизмом,  говоря  при  этом, что Красная Армия и начала-то побеждать  с тех  пор как  большевики  стали  поддерживать  церковь, что  сам  Сталин  признал,  что  без  церкви  нельзя  победить  врага  и пр.,  другие, -  что  нынешнее  отношение  государства к духовенству  диктуется требованиями  западных  стран  и  что  Америка и Европа  поворотят  нас  на  старый  лад.  Говорили,   правда, и то,  что  церкви  открыли  лишь  из-за  того,  что  они  приносят  большой  доход  государству.  Савин все  эти  предположения  отмёл,  как  досужие  выдумки,  не  имеющие  отношения  к  делу. Сам же  решил,  что   послабление  церкви  в  конце  войны  находится  в  одном  ряду  с  широкой  продажей  дешёвой  водки,  иностранными  приключенческими   фильмами,  идущим   в  кинотеатрах,   и  весёлой  музыкой,  гремящей  в  ресторанах.  Всё  это  было  надо,  чтобы  облегчить  жизнь  людей,  настрадавшихся в годы  войны, и не более  того.  Придя  к  такому  выводу,  оперуполномоченный  вышел  на двор  покурить и долго  стоял  там,  глядя  в верх.  Над  монастырём  нависло  чёрное,  как  чёрный  занавес,  небо,  усеянное   мелкими  дырочками, сквозь  которые, как  ему  тогда  показалось,  пробивался  тот  самый  свет  божий,  о  котором  болтал  старик. 

  – Любуешься? – услышал  он  вдруг за  спиной и,  обернувшись,  увидел  дворника.
 – Да,  вспоминаю.
– Чего?
–  Не  чего,  а  кого - Ломоносова.
– Какого  Ломоносова? 
- Такого,  который  сказал: «Разверзлась  бездна  звезд полна. Звездам числа нет,  бездне – дна» 
- Красиво  сказано, - заметил  дворник.
– А  скажи,  дед,  - спросил  Савин,  не  отрываясь  от  неба,  бог  есть?  -  Как  не  быть.  Знамо,   что  есть,  как  же  без  Бога  можно? – А ты  его  видел? – спросил Савин. – Нет, не  видел  Его  нельзя  увидеть. От  него  такой  яркий  свет  исходит, что  ослепнешь.   А  вот,  что  он  есть  уже наукой  установлено.  Вот  наука  распознала   электричество,  атомную   энергию, правильно, так  ведь всё  это  было  задолго  до  неё Богом создано.  А  учёные  во  всём  мире,  сколько не бьются,  не  могут даже  живую  муху  создать.  Разве  это  не  доказывает  того,  что  мир  сотворён  Богом? А  вот  возьми ты  те же атомы,  учёные  открыли  в  них силу  энергии. Так  откуда  же  она в  них  взялась,  если  бы  Бог  её  в  них  не  вложил?   Услышав это,  Савин  решил  в  научный  спор  с  дворником  не  вступать  и    подойти  к  этой  проблеме  с другой стороны.    -  Ну,  а  если   бог  такой  всемогущий,   то   почему же  это  он  не  остановил  руку  того,  кто  калечил и убивал  наших  солдат,  как  руку  того Абрама, который  хотел  родного  сына  убить?  На  это  дворник  как-то  презрительно   заметил: - Может  быть,  Богу  вам  ещё  носы  утирать?  Бог  людям  не  нянька,  у  них  на то свои мозги  есть.  Бог  сказал «Не убий!»,  а  они  его  не  послушались – вот и получили.  – Кто  это  они? – возразил  Савин, -  Люди-то  разные.  Есть  коммунисты, а есть фашисты.  Как  же  можно  о  них  о  всех  говорить вообще?   - А я не  обо  всех  вообще, - ответил дворник, -   Я о  жидах,  которые  тебе  голову  заморочили.  Им Россия  для  наживы  нужна,  а   нам,  чтобы  образ  божий  сохранить.   - А что же это  бог  твой  тогда на  еврейке  женился,  другой  бабы,  что  ли,    не  мог  себе  подобрать? – спросил  Савин и услышал в ответ:  - Наш  бог  русский.  Все  апостолы  на  русском  языке  говорили.  Бог  он,  что  хочет  то и делает,  он всё  может. Захочет  - будет русским,  захочет  ещё  кем. Да и сам он с бабами  дела не имел.  Это  Святой  дух  напутал.  У  самого  Бога  члена-то  нет.  Он  ему  ни к чему. 
-  А у человека  есть.
- Есть. 
-Так  почему же у человека  есть,  если  он  по  образу  и  подобию  божьему  сделан?
- Так он и женщину  сделал  не  такую,  как сам. Бог  сказал  людям: «Плодитесь,  размножайтесь»,   а  как  бы  они  могли  размножаться,  если  бы  Бог  не  создал  женщину.
- Интересно,  с  одно  стороны  «плодитесь,  размножайтесь»,  а  с  другой – как  только  они  этим  занялись,  так  он  их  из  рая-то и турнул.
- Он  их не  за  это  изгнал из  рая,  а  за  то,  что  змея  послушались,  а змей  это  соблазн,  а  соблазн – дьявол.    
- Ну, а  зачем было  богу  твоему с  бабой  связываться,  когда  он  людей  из  глины  мог  делать? 
- Так  то  людей,  а  то  собственного  сына.  Сравнил.  Да  из  глины  он  всех   сделал, а  русских  - из собственного  тела.
– А  зачем  богу  твоему  сын  понадобился,  для  какой  цели?
- А  для  такой,  что  самому  богу   на  весь  мир  плевать. Он  его  создал,  он   бы  его  и  уничтожил.  Ему  людей  стало  жалко.  Вот  он и создал  Иисуса Христа,  чтобы  он  людей  к  совести  призвал,  чтобы душу  их  спас.
- Так  за   что же  он  тогда  своего  сына  на  смерть  послал,  а Абраму  своего  сына  убить не  дал? 
- Бог  его  на  смерть  не  посылал,  это  его  жиды-антихристы  убили.  Ты  думаешь  для  чего  жиды  кожу  с конца  члена  срезают,  так,  что  ли?  У  них  на  этой  коже  знак  антихристов  стоит  - вот  они  его  у  младенцев  своих  и  обрезают,  чтобы  никто  не  увидел.   
Желая  поддеть  дворника,  Савин  сказал: -  Иисуса Христа  твоего  не  евреи,  а римский  кесарь  на смерть  послал.  У  римлян  распятие на кресте  было  самым  позорным  наказанием,  а   евреи  своих  приговорённых  к  смерти  камнями  побивали,  так  что   ты  бы  сейчас, если  бы  евреи  Христа  казнили,    на  шее  не  крест  носил, а  камень.  Дворник  раскрыл  рот,  чтобы  ответить,  но  Савин  не  дал  ему  этого  сделать  и  чтобы окончательно     утереть  ему   нос,  добавил: - А  если  бог  твой  всё  может,  то  пусть  он  сделает  так,  что  дважды  два  было не четыре, а пять.  Дворник  помолчал  немного  и  сказал,  не  менее  презрительно,  чем  раньше:  - Бог  сделанного  не  переделывает.  Попробуй,  переделай  ты  со  всей  своей  наукой. Сказав  это,  дворник,  довольный  своей  победой  над  нечестивцем,  махнул  рукой  и  отвернувшись  от  Савина  стал  скалывать  лопаткой  лёд с крыльца  конторы.  Савин  с  неприятным  осадком  в  душе  от  проведённой  беседы,  пошёл  спать. Засыпая,  он  думал  о  том,  как  трудно  говорить  с  людьми,  как  невозможно  объяснить  им  простые  вещи.   Вот  дворник  этот  несёт  какую-то   чушь,  а  он  ничего  опровергнуть  не  может.  Почему?  А  потому,  что  он  живёт  в  мире  сказок.  Для  него  слова – реальность.  А  против  слов  любая  наука  бессильна.   
 
Ночью,  на  окраине  деревни  «Мама  родная»,    в  избе  Морозовых,  тех  самых,  из  которых   была  Евдокия,  что  кричала  днём  на  Савина,  горели  свечи.  Занавески  на  окнах  были  задёрнуты и  было  слышно,  как  в  избе  люди  тихо  и  заунывно  поют. Можно было  подумать,  что  там  отпевают  покойника. На  самом  деле  это было  моление  скопцов.  Дело в том,  что  дед  Морозовой, Морозов Григорий  Тихонович, исчез  из  села Берёзово  Кулешовской  волости  Лихвинского  уезда  Калужской  губернии  накануне  своей  свадьбы, сбежал от  невесты,  которая после  помолвки  сошлась с  ним  и забеременела.  Дед  там  же, в  селе  Берёзове,  был  оскоплён, а  по  оскоплении  сестра  его  Анна  увезла  его в Самарскую  губернию,  где по приговору  окружного  суда он в 1893 году был  сослан  на  поселение  в  Восточную  Сибирь за принадлежность  к  скопической  секте.  После  революции он  вернулся в  своё  родное Калужское село  и   узнал,  что  невеста  родила  ему  сына  Алексея,  а  через  семь лет  умерла.  Он  взял  сына  к  себе.  В двадцать  девятом  он,  вместе с  семьёй  сына,  был  выслан  сюда, на Север,  как  раскулаченный.  Алексей  ещё в  тринадцатом    женился  на  девице  из  скопической  семьи. Но  это  ему  не  помогло.  Тётка Анна  ругала  его  за  женитьбу,  говорила,  что за  неё  он  достоин  по  их  закону  смерти,    Жена хоть и родила  ему  двоих  детей:  Евдокию  и  Дмитрия,  однако,  постоянно склоняла  его  к  переходу  в  их  веру,  а  через  год  разошлась  с  ним  под  влиянием  Анны  и  деда. Алексей  же  в  семнадцатом  подался к красным и пропал.   Брата  же Евдокии,  Дмитрия, с  юных лет  тянуло к женщинам.   Когда,  несмотря  на  сопротивление  своих  родных,  он  женился, Евдокия стала уговаривать  его  разойтись  с  женой,  говорила ему,  что  расставшись  с  женой  и  сделавшись  скопцом,  он  удостоится  царствия  небесного,  что  все, кто  женятся – пропащие  люди.  Говорила,  что  наплодив  «щенят»  он  не  сможет  прокормить  их.   Дед   поддерживал  её,  называя  внука «гузнопоклонником»  Они  тыкали  Дмитрия  носом  в  девятнадцатую  главу  Евангелия  от Матфея, где  говорилось  о  том, что  тот,  кто  оскопит  себя,  тот  попадёт  в  царствие  небесное,  толковали  ему сказанное  в  ней    и  порицали  православную  церковь,  которая,  отступя  от учения  господа,  прокляла  самооскопление. Дед,  тётка и внучка принадлежали  к  скопцам  того  толка, который   назывался  «новоскопичеством»  или  «духовным  скопичеством»,  при  котором  вступавшим  в  братство  не  нужно  сразу оскопляться, а достаточно было дать  обещание  рано  или  поздно  это  сделать  и  соблюдают  заповедь: «Неженатые  не  женятся,  а  женатые  разжениваются»  Оскопленные не  пили  водку,  не  ели  мяса  и не  общались с  православными: не садились с  ними  за  один  стол,  не  ели  и  не  пили  из  одной  посуды.  Впрочем, было  среди  них не мало и таких, которые  дома   отказывались  от  мяса  и  водки,  а  на  стороне  далеко  не  всегда  могли  устоять  от  этого  соблазна. Дмитрий  был  именно  из  таких.  Плотские  соблазны  иссушали его  душу  и  он  был не в силах  совладать  с  ними. Кончилось  тем,  что  незадолго  до  войны  он  сел.  Сколь  не  любила  Евдокия  родного брата,  а   в   глубине  души  радовалась, что  бог  его  наказал  за  то,  что  он  её  совета не послушался.   Жена  Дмитрия, оставшись  соломенной  вдовой,  много  болела  и  дед с тёткой  Анной  не  захотели  держать  ее  дома,  как  не  способную  по  болезни  к  работе. Она  ушла  от  них  неизвестно  куда  и они о  ней  больше  не  слышали. 
Теперь,  когда  дед  стал  совсем  старым  и  не  мог  руководить   сектой,  ночные  бдения  скопцов  стал  вести  Матвей  Шкилёв, их  давний  знакомый  по  Самарской  деревне.  Ещё  до  революции он  привлекался к   уголовной  ответственности  за  скопичество,  но  был  оправдан,  как  уличивший  своего  оскопителя.   Шкилёв поддерживал  связь  со  скопцами  из  Ленинграда  и  вовлекал  в  секту  молодых  девушек.  Поле  войны сделать  это  было  проще.  Уж  больно  много   неприкаянных  и  несчастных  было  кругом. 
Когда   бдения кончились и девицы  вповалку  улеглись на полу,  старик Морозов  очнулся от  дремоты,  в  которой  прибывал  в  течение  молитв,  и подозвал  к  себе  Шкилёва.  Произошедший  между  ними  разговор  мог  бы  очень  удивить  постороннего,  не  сведущего  в  делах  этих  людей  человека.  Но  что  поделаешь,  если  старику  давно  шёл  девятый  десяток  и  последние  годы  он  только  и  думал  о  том  в  каком  виде,  т.е. с  каким  багажом  богоугодных  дел  предстанет  он  перед  создателем.   События  вчерашнего  дня  натолкнули  его  на  мысль,  которой  он  решил  поделиться  со  Шкилёвым.    
- Ты, Матвей,  знаешь  ведь  что  у  нас  тут  вчера  по утру  произошло.   Поп  наш,  тутошний,  из  ссыльных,  Илларион,  затеял  крестный  ход  к  скиту,  где  один  слепой  сидит,  который   за  сына  Сталина  вроде  бы  себя  выдаёт.  А  народ  к  нему  потянулся, как  к  сыну  божьему. Соображаешь,  Матвей, к  чему  я  тебе  это  говорю?  Матвей  опустил  голову, давая  понять,  что  понял,  хотя  на  самом  деле  ничего  не  понял,  а  старик  продолжал:  -  Так  вот  что  я  подумал:  не  создать  ли  нам  для  людей  такого  сына  божьего,  принявшего  страдания  за  людей  и  очистившегося  от  скверны  земной  удоотсечением  и  ставшим   белым  и  кротким,  яко голубь.  Человечка  такого  я  думаю  подобрать  тут,  в  ските  одном,  будет  несложно.  Мария  Ивановна  поможет.  Заодно  и  этого  Иллариона  посрамим  со  всем  его   сонмищем  бесовским. 
Матвей  почесал  загривок  и  одобрил  предложение  старика. – Не  плохо  бы,  добавил  он,  на  стене  подвала  монастырского   такого  безрукого  и  безногого  бога  нацарапать,  да  и   показать  кое-кому.  – Дело  говоришь – согласился  дед.   После  утренней  трапезы  он  отправился  в  Ленинград.

Ну,  а  что  с  оставшимися  в  ските  «самоварами»,  как  они  проводят  своё  свободное  время,  кроме  которого  у  них,  честно  говоря, никакого  другого-то и   нет.  Прошла  неделя  и  они,  вылезши из  своих  корзин,  стали  парить  в  своём   ските  примерно в метре от пола  на  «парашютах»  Они  качались,  кружились,  сталкивались  друг с другом,  смеялись,  шутили.  В  общем,  произошедшей  в  их  жизни  переменой  были  довольны.  Правда,  была в их  новом  положении  и  своя  ложка  дёгтя.  Теперь,  чтобы им  ничего  не  мешало  опорожняться,  возникла  необходимость  держать  нижнюю часть  их  туловищ  обнажённой.  Когда главный   врач,  заведующий  общим  отделением и  Мария Ивановна  взглянули  на  эту  картину,  то  им  стало  не по  себе.  Только  присутствующий  при  сём  Лёха  заржал  похабным  смехом.  Вид у  «самоваров»  был,  действительно,  не  подходящий.  Они  теперь  походили  не  на  самовары,  а    колокольчики. Тогда  решили  обрядить их  в фартучки, чтобы не было видно «язычков»  Сделали их  из  дермантина,  которым  были  обиты  сломанные  стулья,  хранившиеся на чердаке  главного  корпуса. Теперь «контингент»  стал  выглядеть,  скромнее, хотя и несколько смешно.  Одно  было  плохо:  от  холода,  который  постоянно  царил в ските,  инвалиды  наши  стали  болеть  всякими  мочеиспускательными  болезнями.   К  тому же,  фартучки  эти  не  способны  были  скрыть,  наступавшее время  от  времени,   возбуждение  плоти,  а то  и  саму  плоть,   у  этих  совсем  ещё  не  старых  мужчин.
У  Мари  Ивановны  появилась  новая,  вдохновляющая,  дежурная   шутка.  Если  раньше,  когда  инвалиды  находились  в  корзинах,  она,  войдя  к  ним,  спрашивала «Ну,  много  яиц  снесли  за  ночь?»,  то  теперь,  войдя  к  ним,  стала  спрашивать: «Ну, висячие, стоячие, как  дела?»  или, заметив  особое  утреннее  возбуждение контингента,  спрашивала:  «Ну,  колокольчики  мои,  цветики  степные,  что  стоите  на  меня  словно  часовые?»          
Шутки  эти  всем,  кроме,  пожалуй,  Ивана  Ивановича, очень  нравились  и  вдохновляли,  а  сама  Мария  Ивановна  стала  первой  любовью и мечтой «самоварного» скита. Несмотря  на  её  далеко  не  молодой  возраст  и  поблекшую  красоту,  она  своими  формами,  которые  не  мог  скрыть  даже  старый  чёрный  халат,  будоражила мужское  воображение.  Появления её ждали.
Первым же  к  ним  по утрам теперь  стал   приходить  Лёха. Он  смывал  водой  из  шланга  продукты  их  жизнедеятельности,  матерился  и  уходил.  Мария  Ивановна,  придя,  протирала  пол  мокрой  тряпкой,  наброшенной  на  швабру, и  кормила  всех  одой  ложкой.  Она  же  и  брила  их.  При  этом  бедный  мужик,  скося  глаза  старался не  упускать  из  вида  складку  между  её  грудей,  высовывающуюся  из-под  халата,  а при  случае упирался  ей  в  живот  или  в бедро  восставшей  плотью.  Она  делала  вид,  что  не  замечает этого.  Когда  же  действия  «колокольчика»  принимали  слишком явный и агрессивный  характер,  тихо  говорила  нахалу:  «Не толкайтесь, а то я  Вас  порежу»
Всё  это  небольшое  похотливое  стадо  стало  теперь  её  семьёй.  Она  знала  характеры и привычки  каждого,  читала  им  пришедшие  письма  и  писала  под их  диктовку  ответы.  Она  читала  им  газеты и журнал «Кроколил»  Их  было  десять.  Теперь  осталось  восемь.  Ей явно не хватало  Кузнецова и  Мамина.  Она  не  могла   забыть  чёрные и всегда  печальные  глаза  Мамина,  часто  наполненные  слезами.  Она  знала,  что  над  ним  издевается   Федька,  не  раз просила  его  оставить   Мамина в покое,  но  тот  не  унимался  и  говорил,  что  пока  этого  жида  со  света не сживёт – не успокоится.  Сегодня  Федька  был  грустен  и  не  знал  на кого  теперь  распространить  ему  ту  «любовь»,  которую  он  уделял   Мамину.  Марии  Ивановне  показалось,  что  он  хочет  распространить её   на  Ивана  Ивановича.  Она  не  питала  к  последнему  особой  любви,  даже  наоборот,  он  раздражал  её  тем,  что  был  слишком  хорошо  воспитан,  а  это  мешало  ей  чувствовать  себя  спокойно и уверенно,  как  тройное  зеркало в примерочной,  в  одну  из частей   которого  ты  видишь  себя  с невыгодной  стороны.  Кроме  того,  у  Ивана  Ивановича  часто  расстраивался  желудок,  а  это  доставляло  ей  лишние и отнюдь  не приятные  хлопоты.  И,  тем  не  менее,  больше  всех  ей  было  жалко  именно  его,  поскольку  она   не  столько  умом,  сколько  чувством,  понимала,  что  положение   своё  ему  переносить  гораздо  мучительнее,  чем  остальным. Теперь  он  висел  слева, во  втором  ряду.  Перед  ним  висел  Николай Петров – мужчина  лет  тридцати  с  геройской  звездой  на  гимнастёрке,  справа  от  Ивана  Ивановича  висел  Федька-гармонист,  а  за  ним   партизан  Вася.  У   него  не  было не только  рук  и  ног, но и языка, ушей и носа.  Их  ему их отрезали в гестапо  за лишнее  любопытство и антигерманскую агитацию.  Вася  очень  любил   Ивана  Ивановича  и  обожал  слушать  его  рассказы,  а  поэтому не редко  обращался к нему  с  помощью  одних гласных. Произносить согласные  ему было очень трудно.  Так,  например,  вместо  того,  чтоб  сказать  «Иван  Иванович,  расскажите  что-нибудь»,  он  произносил: «И-а-и-а-о-и, а-а-ы-е  о-и-у» и Иван  Иванович  начинал  рассказывать,  потому  что  отказать «Партизану»  он не мог.  Перед  Федькой, в первом  ряду,  висел  немолодой  уже  мужчина  по  фамилии Чиж,  торговавший  когда-то на  Сухаревском рынке  в  Москве  старыми  книгами  и  галошами.  Справа  от него  - Гуськов, бывший  артист и  черноморский  моряк, а справа  от  «Партизана», в углу,  был  подвешен  Слава, совсем  молодой  человек,  которому и  двадцати  лет  не  было.  Перед ним же,  в  первом  ряду, висел  украинец  Моисеенко,  тридцатилетний  шутник. Ему,  кстати,  все  завидовали.  Культя  его  левой  руки  была  такой  длинной,  что  он  мог  дотянуться   ею  до  лица,  а  это  значит,  что  он  мог  почесаться,  высморкаться,  отогнать  мух. Остальным для  этого  нужно  было  трясти  головой  и  дуть.  Помогало  это мало,  к  тому  же,  когда  они  набирали  воздух,  чтобы  дунуть,  то  не  редко  заглатывали  муху.  Их  сюда  слетался   целый  рой.    Так  вот  этот  самый Моисеенко  стал  шутками-прибаутками  подбивать  Марию  Ивановну  на  то,  чтобы  она  показала  им  то,  что  они  так  давно  не  видели  и  по чему  так  соскучились.  Сначала  бедная  женщина  решила не обращать  на  это  внимания,  но  когда  подобные  намёки  стали  делать  другие,  она  возмутилась.  Однако  мысль эта,  повторенная  не  раз,  запала  ей  в  голову  и она стала  сама  себя  спрашивать: - А  что  если?..  На  третий  день  она  решила  поделиться  своими  сомнениями  с  одной  знакомой  из  деревни Аграфеной Грушиной.  Та  подняла  её  на смех.  – Ты  что, - запыхтела  она,  -  на  старости  лет  совсем  из  ума  выжила?  А  если  они  тебя  ещё  о  чём  попросят,  ты  тоже  им  всё  будешь  делать?   Ты  что,    полковая  шлюха?  А  если  тебе  самой  скучно -  заведи  кавалера.   Вон  их  полно  в  общем  отделении,  каждый  будет  рад.  Эта  последняя  фраза  произвела  на  уборщицу  диаметрально  противоположное  впечатление.  Мария  Ивановна  со  свойственной  ей   душевностью,  поняла  её  так:  однорукого  да  одноногого  каждая  полюбить  может,  а  вот  такого, «колокольчика» - то  кто  полюбит?  После  этого  разговора  она  долго не  могла  уснуть  и  всё думала,  как  бы  ей  всё  это  сделать  так,  чтобы  выглядело  невзначай  и  как бы  нечаянно. 
Утром  она  отправилась  на  работу  с  решением,  которое  ей  подсказал   сон. А сон был такой: В белой берёзовой роще она, вся  тоже в белом,  собирала в зелёной траве красные и синие цветы. И вдруг слышит она стон. Осмотрелась – никого, а стоны продолжаются и её как-будто кто-то зовёт.  И так ей стало жалко того, кто стонет, что из глаз её  упали слезинки и так звонко-звонко, будто хрусталь на камень. Она посмотрела вниз и увидела под корнями берёзы Славино лицо. Он, вроде бы, хочет вылезти  из-под берёзы, но не может. Она его, конечно, вытащила, а он взмахнул крыльями, из рук её выпорхнул и улетел. Тут в роще темно стало, поднялся ветер, и деревья застонали, заплакали и стали тянуться к ней, умоляя о чём-то. Испугавшись, она проснулась и снова заснуть не смогла. В груди её что-то сжималось и томило её тревожным ожиданием.  Надо было на что-то решаться. 
На  этот  раз  Мария Ивановна  взяла  на  завтрак  не  одну  ложку,  а  восемь,  чего  раньше  никогда  не делала.  Зато забыла  захватить  газету,  которую  обещала  почитать  своим  подопечным.  Этот  факт,  конечно,  не  остался  без  внимания  и  на  неё  посыпались  упрёки,  так  что  она  даже решила не совершать  для  любителей  чтения  задуманное  ею  доброе  дело.  А   те,  с  подачи  Ивана  Ивановича, за неимением конкретной газеты,  стали  обсуждать  газету, как таковую, как явление общественной и частной жизни.  Иван  Иванович  вообще  любил  провоцировать  своих  соседей  на  всякие  фантастические  разговоры. Бывало, спросит: - А что лучше,  быть без ног,  или  без  рук?  Что лучше, иметь правую руку и левую  ногу,  или  левую руку и правую  ногу, или правую  руку и ногу, или левую руку и ногу? А то задавались таким вопросом: - Что лучше, быть без  рук,  или  без  мужского достоинства?  Кто-нибудь на это, бывало,  скажет:  - Меняю  своё  «достоинство»  на  руку  или палец,  и  услышит в ответ: - Оставь его себе,  нам  самим  его  девать  некуда. В  другой  раз  обсуждали,  как  им назвать свой  скит  и  что  он  за  страна  такая.  Один сказал, что скит – страна воспоминаний  и пустых  мечтаний,  другой,  что  он  страна  нерастраченных  страстей,  а  третий – что  он  страна  без  будущего,  будущего  без  надежды  и  существования  без  жизни.  Федька  добавил,  что  скит  их - страна  неброшенных палок и нерозданных  оплеух, а  партизан тихо  сказал:  «И а – а – ий» (и страданий)
На  сей  раз  Иван  Иванович  спросил:  «На  что  способна  газета  и  как  её  можно  использовать»  Её иногда можно  читать, - сказал  Слава. - Вы  правы,  молодой  человек, -  сказал  Гуськов, - бывает, что газету и читать противно, столько в ней глупости и вранья! – Я  никогда  не  бываю  прав, - скромно заметил Слава, - но  если я  прав,  то  прав,  как никогда.  Иван  Иванович же заметил:  -  Верное замечание, - и  добавил: -  Не  забудем  ещё,  что  Владимир Ильич Ленин  назвал газету не только  коллективным  пропагандистом и агитатором,  но  и  организатором.  -  Это  точно, - заметил  Чиж, -  вот  «Вечёрка»   объявления  о  разводе  печатает, разводы  организует.   Слава,  обратившись  к  Ивану  Ивановичу,  тихо  произнёс:  - Иван  Иванович,  а  ещё  газету  можно  поджечь и использовать как  факел. Тут  посыпались разные  предложения: газету можно  постилать, как  скатерть, ею можно  разжечь  костёр,  из неё можно  шапочку  сделать  от  солнца  или  для   работы,  ею можно  обмахиваться,  когда  жарко,  или  обкладываться, когда  холодно,  подложить в  калошу  или  ботинок, если  они  велики и сваливаются,  можно  её сложить и бить  ею  мух.  А  можно, - сказал  Федька, -  по лысине  треснуть.  – Или женщину по попке  шлёпнуть, - добавил  Иван  Иванович и покраснел.  Все  засмеялись, а  когда  замолчали,  Чиж  сказал – Можно ж… подтирать  и все  снова  засмеялись,  но потом всем стало грустно 
Мария  Ивановна  не  находила  себе  места.  Решиться  или  нет на то, что  так  ждут от неё  эти несчастные, - думала  она.   Не  засмеют  ли  её,  не  станут  ли  оскорблять  и  презирать  за  это? Вспомнила  слова  Аграфены и  уж совсем  было  отговорила  себя  от  этой  глупой  затеи, но   тут   вспомнила  слова  инструктора  Обкома  профсоюза  из  областного  центра,  приезжавшего  к   ним  осенью.  Узнав  о  том,  что  она   обслуживает  «самоварный»  скит,  взял  её  под  руку,  отвёл  в   сторону,  и   как бы  смущаясь,  стал  говорить  ей  о том,  что  эти  люди  нуждаются  в  особом  отношении,  что  им  надо  прощать  то,  что  нельзя  прощать  другим, и  что, вообще,  не  грех  помнить  то,  что  и им  хочется  сладенького.  Теперь  она  поняла,  что  имел  в  виду  инструктор,  а  тогда подумала,  что  он  имеет  в  виду  конфеты. - Где я их  им  возьму! – возмутилась  она тогда  про себя. Теперь  слова  инструктора  стали  для  неё  отпущением  грехов, словно  в  церкви.       
 В  обед  она  снова  захватила  все  ложки  и,  получив на кухне   пол  буханки  чёрного хлеба,  два  бидона: один со  щами,  другой  с манной  кашей и  повезла их на санках в скит.  Пока  кормила,  пока  утирала  рты,  пока всё складывала  и  убирала, прошло  время и  день  завечерел,  солнце  прижалось  к  горизонту   и  свет,  проникающий    в  небольшое   окно  скита,  стал    сиреневым.  Когда же  Мария  Ивановна  совсем  собралась  уходить,  Моисеенко,   облизнувшись  и  повеселев,  сказал:  - Эх,  сей час бы  матушку погладить. А  Федька  добавил мечтательно:  - Что там погладить -  хоть  бы  поглядеть.  У  Марии  Ивановны  сжалось в груди и она  почувствовала  себя  парашютистом  перед  прыжком.  – Не  удержался  всё-таки,  паразит! – подумала  она о Моисеено и,  собрав  ложки,   повернулась  ко  всем  спиной,  сделала  три  шага…   И  вот  тут  произошло  то,  что она  видела  во  сне  к  чему  себя  готовила  и  на  что так  долго   не  могла   решиться:  она  уронила  ложки. Да-да,  уронила,  но не нарочно,  как  планировала, а  совершенно  нечаянно.  - Значит  судьба, - решила  женщина и  стала  медленно  склоняться  к  полу.  Поскольку  в  этот  день  она  не  одела  свои  розовые  трико и  шаровары,  а  одела  платье,  подвязав  его  поясом достаточно  высоко,  чтобы,  наклонившись,  смогла  показать  несчастным  то,  что  они  так  хотели  увидеть.    И  когда  она нагнулась, чуть  ли  не до  самого  пола,  то  услышала  за  своей  спиной  какие-то  странные,   нечленораздельные  звуки,  а  после  них   наступила   тишина,   Тишина  была  такая,  какой   не  бывает и в пустой комнате.  Добрая  женщина  не  торопилась  подбирать  ложки.  Несколько  раз  роняла  их  и  снова  поднимала, а уж  когда  стала  кружиться   голова,  она  с  трудом и болью  распрямила  спину.  Красная  от  волнения  и  напряжения  она  старалась  не  смотреть  на  мужиков.  Те  же,  пережив  большое  душевное и эстетическое  волнение  тоже  не  знали,  что  сказать,  да и вообще,  говорить  ли  что,  поскольку  боялись  спугнуть  женщину,  заронить  в  её  душе  стыд  перед  ними  и  раскаяние  за  содеянное. 
Они  не  сомневались в том,  что  она  сделала  это  нарочно,  пожалев  их,  и  были ей  за  это  благодарны.  Когда  Мария  Ивановна  ушла  Гуськов  с  сожалением  сказал:  - Эх,  жаль  ладоней  нет,  а  то  бы  отбил  их  аплодисментами.  Какая  женщина!  Какая  режиссёрская  находка!   Много в  театры  ходил,  сам  играл,  но  такого   не  видел.  -  Нашёл  тоже  театр,  мы  тут  сами  каждый  день  такой  театр  устраиваем! - возмутился  Чиж.  – Эх,  ничего-то  ты не  понял,  босяк! А  неожиданность,  а  свет,  а  мизансцена,  да  за   это  сталинскую  премию  надо дать!  -  Ну,  уж  так  прямо  и  сталинскую? – проворчал  Иван  Иванович.  -  Не  хотите  сталинскую – дайте нобелевскую!  А  то,  что  мы  тут  играем,  то  это  правда,  ведь  весь  мир  театр,  а  люди в нём  актёры.  Это  ещё  Шекспир  сказал.  – Актёры  мы,  брат,  плохие,  а  роли  наши  дрянь, - заключил  Чиж. С  этого  дня  Мария  Ивановна  не раз  радовала  своих  подопечных  красивыми   видами, и не  роняя  при  этом  ложки. 

Лишённые  радостей  жизни и постоянных  занятий, они  проводили  время  в  воспоминаниях и снах,    обрывки  которых,  пришедшие  из  детства  и   юности  уносили  их  к  далёким  берегам  прошлого.  Чиж,  видел  свой  Сухаревский  рынок,  груды  товара,  заполнявшего  его  прилавки и киоски:    коньёвые  и   байковые одеяла,   бортовые сорочки,  кустарные платки по  2 рубля  за  штуку,  полотенца суровые,  огуречницы фарфоровые, лафетники, полоскательницы,  ручки для  тазов, рубели, толкушки, детские  шарабаны,  конские гвозди, большие  и   средние  решота, баульчики тровяные, сиденья для унитазов, галстуки, бантики,  штанки и  цепки  для воротников,  прихватки  для  галстуков,   гребенки  и  заколки дамские, подпильнички,   шпильки   и  массу  других,  нужных  в   хозяйстве  вещей  и  вещиц.  Он  слышал   голоса  торговцев и покупателей,  речи  начальников  и  как  в 1927-ом  году,  один  из  них,  по  фамилии Боязных  (ему  ещё  запомнилась  его  фамилия), в  конце  своей  речи  предложил  присутствующим  почтить  память  товарища  Ленина, давшего свободную  торговлю,  создавшего  красное купечество и тем  самым  даровавшего  нам  - торговцам  кусок   хлеба.  Тогда    все  под  гром аплодисментов  и  крики   «Ура!»  встали  со своих  мест. А  вскоре  появились  новые  лозунги: «Все  покупай  в  кооперативе»,  «У  частного  торговца  не  покупай  ничего»  Он  вспоминал и  о  том, как   его  «прорабатывали»  на  собрании,  как  обвиняли  в   том,  что  он  обменял  свою  комнату с  «нетрудовым  элементом»,  т.е. нэпманом,  и  тем  самым  позволил  ему  укрыться  от  выселения.  Вспоминал,  как уличали  его  «товарищи»  в  том,  что  он   предлагал  «интимную  связь»  уборщице  Денисовой, а  когда  она  ему отказала,  то  он,  мстя  ей за  это,  стал  распространять  на  рынке  слух о том,  что  она  является  женщиной  лёгкого  поведения.  Вспоминал,  как  обвиняли  его  и  в  том,  что  он приглашал   в  Сокольники уборщицу  Гречишкину,  обещая на  ней  жениться. Приглашение  это  расценивалось  тогда,  как  предложение  вступить  в  связь,  и  не  случайно:  под  многими  кустами  в  этом  парке  культуры  и  отдыха трава  была  помята,  а  гуляющие  не  редко  натыкались  на  окровавленную  вату  и  использованные  презервативы.    Вспоминать  об  этом  ему  теперь  было  весело,  а  тогда  на  душе  у  него  было  очень  противно,  и не  от  того,  что  уборщицы  ему  отказали   (баб  у  него  и  без  них  хватало)  а  от  того,  что  критики  его  по  существу  были  правы.   Правота  других - унижает.  Гордость - рождает   правота  собственная.  Вот  эту  собственную  правоту  он  ощущал  на  собрании  коллектива  в  29-ом  году, когда  обсуждалось  дело  одного  еврея,  которого  обвиняли  в  хулиганстве,  антисемитизме и правом  уклоне. Об  этом  так  прямо тогда  и  было  сказано:  «У  нас, на  Сухаревском  рынке,   появилась  вылазка  классового  врага»  А  «вылазка»  эта  рассказывала  анекдоты  с  еврейским  акцентом  и болтала  о  том,  что  в партии  много  подхалимов,  что  коммунисты  берут  взятки  и  что    в  деревне  коммунист  царь  и  бог. Так  вот,  заодно с этим евреем,  осудили  и  его  за  то,  что  он  сказал   торговцу  Хейфицу  «Ты  что,  жидовская морда,  наехали  сюда  из  Бердичева. Вас  гнать  отсюда  нужно»  А  сказал  он  это  после  того,  как  Хейфиц  назвал  его  «Кумом пожарным»,  что на «сухаревском  наречии»  означало «проститутка»  Один из  тогдашних  начальников,  Зейгерман,  договорился  до  того,  что  заявил:  «Если  человек  выступает  как антисемит,  значит  он  выступает  против  советской  власти»,   а  палаточник  Гусев  сказал,  что  слово  жид,  если  его перевести  на  русский  язык, означает   «предатель»  Где  они  теперь,  небось  всю  войну   в  тылу  отсиживались.   И  всё-таки,  несмотря   на  критику,  на  все  эти  дурацкие  обвинения, он  вспоминал  то  время с  удовольствием  и  представлял,  как  он  пришёл  бы теперь  на свой  рынок с  орденами  на  груди   и  как  бы  эти  сучки,  Денисова  и  Гречишкина,  пожалели  о  том,  что  тогда  ему  отказали.
Ивану  Ивановичу  виделась  его  школа и  как он  водил  своих  учеников  на Пречистенку,  как  предлагал  им  выяснять,  кем  и  чем   заняты  её  особняки и  доходные  дома,  как  однажды  предложил  им  написать  сочинение «Жизнь  в  особняке  прежде»,  и  предложил  им  зарисовывать  эти  особняки.  Ему  тогда  хотелось  приобщить  этих  голодных  и  заорганизованных  детей  к  тихому  счастью  общения  с  красотой  и  уютом.   Тогда,  в  начале  20-ых,  в   их  школе  шла  тяжба  между  учителями  старой  и  новой  школы.  Один  из  них,  «старый»,  утверждал,  что  «новый»  ведёт  уроки  обществоведения  слишком  книжным  языком,  непонятным  многим  учащимся,  с  использованием  большого  количества  иностранных  слов.  «Новый»  же  утверждал,  что  «старый»  не  марксист,  что  у  него  неправильный  подход  к  ученикам  и  что  те  знают  у  него  даже  такие  понятия,   как  «Вторая  империя»,  что  он  много  времени  уделяет  таким  мелочам,  как  жизнь  царей и,  в  частности,  Николая II-ого.  И  всё-таки  детей  тянуло  к  «старому»  учителю  и  ему  это  было  приятно.  А  вот,  что  ему  было  совсем  неприятно,  так  это  то,  что  в  23-ем  году  один  чиновник  из  Наробраза   устроил  руководству  школы  нагоняй  за  то,  что  в  их  школе  среди  учащихся  и  учителей  ещё  ходит  старорежимное  обращение   «господа» и «господин»  Иван  Иванович  припоминал  как  однажды  пятнадцать  учеников  их  школы  написали  письмо  в  Районный  совет  с  жалобой  на  то,  что  учитель  физкультуры  часть  урока  занимает  танцами.  Педагогический  коллектив  школы  тогда  разделился.  Одни  утверждали,  что  танцы  полезны,  они  учат  культуре  движения,  чувству  ритма и  развивают  музыкальность.  Другие  же  утверждали,  что  поскольку  трудовых  и  революционных  танцев  ещё нет,    учить детей   салонным  танцам  это преступление,  что   танцы  оказывают  развращающее  влияние  на  учащихся  и,  наконец, что некоторые   учащиеся  не  могут  танцевать  в силу  подчинения  комсомольской  дисциплине,  воспрещающей  танцы.  Большинством  в  один  голос  педсовет  школы  принял  решение  танцы  запретить.  Взгляды  учителей  резко  различались не  только  на  танцы.  Учителя   старой  школы,  естественно,  считали,  что  ученики  имеют  право  не  посещать  школы в  дни  основных  церковных  праздников.  Родители  многих  учеников  были  в  этом  с   ними  абсолютно  согласны.   А  однажды,  когда  умер  завхоз  школы,  человек  верующий,  в  школе   возник   спор  о  том  следует  ли   коллективу  провожать  покойного  для  отпевания  в  церковь.  Было  принято  решение  принять  участие  в  гражданских  похоронах,  а в церковных – нет.
Вспоминал Иван  Иванович, кроме школы, и свою  маму. Вспоминая  эту  добрую,  безмерно  любившую  его  женщину,  называвшую  его  ангелом,  он  с  ужасом  думал  о  том,  что  бы  с  ней  стало,  если  бы  она  увидела  его  теперь,  висящем  без  рук  и  без  ног  в  этом  мрачном склепе.
Гуськов  вспоминал  море,  свою подводную  лодку,  а  Петров  -  авиабой   у  Белгорода,  в котором он  был  сбит.  Тогда  с  неба   падало  так   много  сбитых  самолётов,  что  это  напоминало  звёздный  дождь.  Моисеенко  вспоминал  свою  «ридну  Украину» и  молодой  месяц  над   селом,    «партизан»  - леса  под   Брянском, а Федька свой двор в провинциальном городке, где под его гармошку вечерами танцевали парни и девчонки.   

Командировка  следователя прокуратуры  Орехова  подходила  к  концу.   Вина  Кузнецова  в  убийстве  Мамина  сомнений у  него  не  вызывала.  Кузнецов  вину  свою  не  отрицал. Оправдывался  лишь  тем,   что  не  помнит,  как  это  сделал.   Так  обычно отговариваются убийцы, не потерявшие  человеческий  образ,  кому  приятно  рассказывать  о  себе  такие  вещи?  Да и  как  может он отрицать  свою  вину?  Кто,  кроме  него,  мог  загрызть  находившегося с ним  в  одной  корзине  человека?    Не  мог  же  кто-нибудь  из  этих   безруких  и  безногих  доползти  до  этой  корзины  и  совершить  убийство.  А  как  мог  это  сделать  посторонний  человек,  чтобы  ни  он, и  никто  другой   этого  не  заметил. Да  и  дежурила  в  этот  день  Мария  Ивановна,  у  неё  были  ключи  от  скита. Ну, не  она  же  загрызла  Мамина.  Лёху  же  в  то  утро  около  скита,  да  и  в  самом  ските  не  видел.  Где-то,  в глубине  его души,  а,  вернее,   мозга,   затерялась  в   извилинах  мыслишка  о  том,  что  надо  бы  кусочек  маминского  мозга  послать  на  исследование,  однако  сделать это было  довольно  сложно.  Экспертизу  надо  было  проводить  в  областном  центре,  а  то  и в Москве  или  Питере,  что на  долго  бы  затянуло  следствие  и,  к  тому  же,  по  его  глубокому  убеждению,  ничего  не  дало.  Портило  ему  настроение  ещё  и  то,  что,  несмотря  на  всю  кажущуюся  простоту  данного  дела,   в  нём,  если  вдуматься,  были  какие-то  несуразности: ну, во-первых,  как  мог Кузнецов  загрызть  Мамина  так  тихо,  чтобы  никто  не  слышал. Неужели  все  так  крепко  спали?  А,  может  быть,  Мамин  лишился  голоса  от  испуга,  такое  тоже  может  случиться  с  человеком  в  такой  ситуации,  – успокаивал  он  себя.  Когда  он  проводил  освидетельствование  Кузнецова,  то  долго  и  внимательно  осматривал  его  рот,   который  ему  так  хотелось  назвать  в  протоколе  пастью,  но  ничего  особенного  в  нём  не  нашёл.  Наоборот,  во  рту  этом  не  хватало  нескольких  зубов,  да  и те,  что  были,  совсем  не  были  похожи  на волчьи  клыки.  И  всё-таки  именно  этот  рот  был  испачкан  кровью.  Тут  Орехов  испытал  какое-то  неловкое  чувство,  какое  возникает  у  человека,  допустившего  какую-нибудь  промашку.  -  Надо  было,  на  всякий  случай,  осмотреть  Лёху и вообще  всех  здешних  мужиков.    А  вдруг?  -  мелькнуло  у него  в  мозгу,  но  он  тут  же  отказался  от  такого  фантастического,  как  ему  показалось,  предположения.  Так  ведь  можно  весь  Дом  инвалидов освидетельствовать,  ведь  мог  же   кто-то  из  его  обитателей  достать  ключ от  скита  и  войти  в  него  ночью.  Тогда,  вернее  всего, все,   находившиеся  в  нём,  должны  были  знать,  кто  приходил.  Так  почему  они   молчат? – Боятся  расправы?  А  мне  что  делать,  бить  их,  что  ли?  Да  и  зачем  вообще  кому-то  могло  понадобиться  убивать  Мамина,  что  он  мог   сделать   без   рук  и  ног  такое,  за  что  убивают?    Что ж теперь  их  всех  снова  допрашивать,  задавая всем  один и тот  же  дурацкий  вопрос: «Какие  отношения  были  у  Вас  с  потерпевшим?»  Ну,  скажут  они «Нормальные»,  или  «Никаких» и что  дальше?  Опровергнуть-то  мне  их  будет  нечем,  ведь   нет  ни  одной  улики  против  этого,  никто  из  окружения  Мамина и Кузнецова  не  сказал  о  враждебных  отношениях  Мамина с кем-нибудь.  Да  и  сколько  это  займёт  времени – страшно  подумать,   а  начальство  и  так  торопит:  работать некому.  У   него  самого   ещё  десять  дел  в сейфе  ждут,  надо  над  ними  работать.  Взять что  ли  этого Кузнецова  с  собой,  потом,  не торопясь,  с  ним  по  душам  поговорить  А  только  кто  его  там  примет?  Кому  он  там  нужен?  «У  нас  нянек  нет  за  Вашими  «самоварами»  ухаживать» скажут.  И  будут  правы.  Надо  не  голову  самому  себе  морочить,  а  определиться   с   квалификацией,  получить заключение  экспертов и  ставить  точку.    Если  квалифицировать как  убийство  в  состоянии   психологического аффекта, тогда  суду  легче  будет   ограничиться  содержанием  его  в  ските,  как  в  строгой  изоляции,  и  всё.  В  стремлении  Орехова  скорее  закончить  командировку  и  вернуться  домой  была  ещё  одна  причина  совсем  не  юридическая. О  ней  следователь  сам  себе  ничего  не  говорил,   он  её  чувствовал,  поскольку  какая-то  непреодолимая сила,  которой  он  не  мог и не  хотел  сопротивляться,  постоянно тянула  его  домой  и  рождала  в  его  сердце   щемящее,    томительное  чувство  из-за  которого  он  не  находил  себе   места. Причина  эта  была  проста:  его  мучили  сомнения,  рождённые  ревнивым  чувством  к любимой  женщине,  своей  жене, оставшейся  в  городе.   Мысли  о  ней не  выходили  у  него  из  головы.  В воображении  своём   он  видел её  улыбающейся  другому,  целующейся    с  другим.  Он  тряс головой  и  моргал глазами,  когда  воображение  начинало  рисовать  перед  ним  картины ещё  более  откровенные. Теперь  он  боялся  одного:  вдруг  откроется ещё какой-нибудь  факт,  который  придётся   расследовать.  К  счастью,  ничего  подобного  до  сего  момента  не  произошло,  всё  было  спокойно. Орехов  шёл  монастырской  берёзовой  рощей,  утопавшей  в  синеющем  снегу,   и  думал  о  своей  любимой.  Вдруг,  какое-то  непонятное  чувство,  неизвестно откуда  появившееся,   заставило его  замедлить  шаг.  Он  осмотрелся  и  увидел  вдали, за  деревьями,  то  самое,  что  заставило  его  испугаться.  – Горилла, - мелькнула  мысль,  и  тут же  Орехов  прогнал  её,   устыдившись  собственной  глупости.  Но  кто  это?  Это,  конечно,  человек. Да,  это  был  человек,  но  такой,  каких  нет  ни в  городах,  ни  посёлках, таких,  каких  не  рисуют,  не  показывают  в  кино. И,  тем  не  менее,  на  просторах  нашей  великой  родины  нет-нет,  да  и  появится  в  какой-нибудь  глубинке, в  каком-нибудь  «медвежьем углу»  нечто  подобное.        Про  таких  рассказывают  в  сказках,  но  и то  редко.  Орехов,  во  всяком  случае,   о  таких и в сказках  не   слыхал и теперь,  находясь  в  одиночестве, в  белой,  как  саван,  роще,  он  почувствовал  страх, а, вернее,  какое-то  неприятное  чувство,  которое  заставило  его  остановиться  и,  постояв  немного,  повернуть  назад.  Он  не  оборачивался,  он  боялся   снова  увидеть  глаза  этого  существа,  глаза гориллы:  маленькие,  внимательные,  смотревшие  из  глубины  глазниц  и  нависших  над  ними  надбровных  дуг.  Только  выйдя  из  рощи  и  подойдя  к  главному  корпусу,  Орехов  успокоился.  Тут  ему  стало  стыдно  за  самого  себя.  _ - Псих, - подумал  он, -  Чего  испугался?  Стоит  человек,  никого  не  трогает.  Прошёл  бы  мимо,  он  бы  и  слова  не  сказал.  Если,  конечно,  он  говорить  умеет.  Пытаясь  самому  себе  объяснить  причину  своего  страха,  Орехов  пришёл  к  выводу  о  том,  что  человек  его  профессии,  да  ещё  начитавшийся  всяких  детективов,   способен  вообразить   себе   чёрт  знает  что!  Если  бы  люди  видели  столько  трупов,  сколько  видит  следователь, или  судебно-медицинский  эксперт,  они  бы  бережнее  относились  хотя бы  к  своей  жизни.  А  насколько  бы  осторожнее  стали  водители  и  пешеходы,  если  бы  их  водили в морги и показывали  бы  им  жертвы  автоаварий!  Не  имея  причин  не  согласиться  в  данном  вопросе  с  Валентином  Кузьмичом,  заметим  здесь,  что    он  был,  действительно,  впечатлительным  человеком.  Началось  это  у  него ещё  в  детстве.   Однажды  ему  попался  на  глаза   «Курс  судебной   медицины»  с  фотографией  трупа,  изъеденного  крысами  и  он  стал  бояться  темноты,  а  вечером,  ложась  спать,  стал  заглядывать  под  кровати  с  тем,  чтобы  проверить,  не  затаился  ли  под  ними  какой-нибудь  злоумышленник,  чтобы  ночью  вылезти  из  своего  укрытия  и  наброситься  на  спящих.  Теперь  Орехову  хотелось  скорее  увидеть  директора,  чтобы  выяснить  у  него  личность  субъекта,  встреченного  им  в  берёзовой  роще.  Директор  был  у  себя     кабинете.  Он   читал  газету.  Когда  следователь описал  ему  незнакомца,  директор  улыбнулся  и  сказал:  -  Это  наш  Митя,  микроцефал.  Да-да,  у  него  объём  мозга  слишком  мал  для  того,  чтобы  называть  его  homo sapiens.  В  деревне,  у  его  матери,  ещё  четыре  таких  сына  было,  но  те  все  умерли,  а  этот  вот   жив.  Вы  его  не  бойтесь,  он  смирный.  А,  вообще,  мы  без  него, как  без  рук.  Сами  понимаете,  кто у нас  тут  есть:  инвалиды,  да  женщины,  а  он  силищей  неимоверной  обладает,  так  что  он  тут  у нас  не только  за   мужика,  но и  грузоподъёмник.  От  всех  этих  слов  Орехову  стало  ещё стыднее  за  самого  себя.  – Как  плохо  мы  думаем  о  людях,  однако,  -  подумал  он,  а  директор,  всё  говорил  про  Митю,  видя  в  нём  одну  из  главных  достопримечательностей   своего  учреждения.  – Он, т.е. Митя,  почти  не  говорит,  но  всё  понимает,  правда  по-своему.  Вот,  например,  дают  ему  мальчишки  куриный  помёт  и  говорят: - Вот, Митя,  поешь,  очень  вкусно.  Тот  ест,  а  эти  стервецы  хохочут,  да  похваливают.  А  как-то  увидели,  что  он  хлеб  ест,  так  стали  кричать  ему:  - Фу,  какая  гадость,  не  ешь,  отравишься.  Ну, Митя  хлеб,  конечно,  бросил,  а  они  его  подняли и съели.    Тут  Орехов  задумался  и   невпопад  спросил  директора:  - Пётр  Валерьевич,  а  Вам  не  кажется,  что  такой  сильный  и  такой  внушаемый  человек  может  быть  опасен?  Директор  вздохнул, внимательно  посмотрел  на  свои  растопыренные  пальцы,  и  сказал: - Не  думаю,  да  и  внушать ему  что-либо  плохое  некому.  К  тому  же  за  ним  наш  психиатр  присматривает.   Да  и  Митя,  к  счастью,  не  злой,  а  тем  более  не  злопамятный,  а  вот  симпатии  имеет.  Он,  в  частности,  очень  Славу  любит,  того,  что в  ските,  где  всё  это  произошло.  Да  Вы  его  знаете,  молоденький  такой,  симпатичный.
Поделившись с директором  своими  мыслями  по  поводу  перспективы   расследования  дела, Орехов  откланялся  и  собрался уходить,  отказавшись  от  чая  и    водки, которые  ему   были  предложены.   – Выходя  из  кабинета, он  попросил  его  не  провожать,  а  перед  тем  как  закрыть  за  собой  дверь,  сказал – Пусть  всё-таки  присматривают  за  Кузнецовым,  мало  ли  что.       -  Вы  наше   богоугодное  заведение  постепенно  в  тюрьму  превращаете,  надо  будет  поставить  вопрос  о  выделении  нам  штата  конвоиров, - пошутил   директор  и сам  засмеялся  свое  шутке. 
Выйдя  на  улицу,  Орехов  снова   увидел   человека-гориллу.  На  этот  раз  ему  не  стало  страшно.  Он  даже  разглядел  его.  На  огромном  туловище,  почти  без  шеи,  сидела  маленькая  лысая  головка  со  скошенным  маленьким лбом.    Плоский  нос,  заметно  расширяясь к низу,  почти  доходил  до  большого  губастого  рта, под  которым  почти  не  было  подбородка.  Орехов  не знал,  как  поступить,  как  отнестись к  нему:  как  к  человеку,  или  как к животному:  кивнуть  ему,  или  нет. На  всякий  случай  кивнул,  и  Митя  заулыбался и также  стал  кивать.  Это  развеселило и обрадовало  Орехова. – Плохо  мы  думаем  о  людях, - снова  подумал  он.  В  тот  день  он   обнаружил  у  себя  пропажу  перочинного  ножа.  – Вернее  всего, - подумал  он, -  я  потерял  его  в  берёзовой  роще,  где  встретил  этого  динозавра.  Однако,  снова  идти  в  рощу  для  того, чтобы  искать нож,  он  не  решился.  Мешало  этому  неприятное  чувство,  которое  он  испытал  в  ней.  Это  был  не  только  страх,  но  и  недовольство  собой,   стыдом,  вызванным   за   собственной  трусостью.
На  следующий  утро,  когда  он  стоял  со  своим  чемоданчиком  около  конторы  Дома  инвалидов, ожидая  шофёра    «Вилиса»,  который  должен  был  отвезти  его   в  местный   аэропорт,  в  морозной  тишине,  нарушаемой   лишь  хрустом  его  собственных   валенок,  раздался,  хоть  и  отдалённый,  но  какой-то  страшный,  нечеловеческий   вопль,  от  которого  у  Орехова  пробежал мороз  по  коже.   -  Что  это  могло  быть? – спросил  он  себя  и подошедшего  к  нему  в  этот  момент  шофёра. Шофёр  стряхнул  варежкой  снег  со  своих  сапог  и,  прищурившись,  сказал,  глядя  в  сторону: «Говорят,  что  так  кричит  Митя,  когда  кончает»

Кузнецов и  «Слепой»  - узники  монастырского  каземата  были  лишены  единственной  радости  заключённых -  мысли   о  побеге.  Нормальным  людям  эта  мечта  хоть  как-то  освещает  будущее.    Для  них же  и  это  единственное  чудо  было  заказано.  Возможно,  поэтому  они  мало  разговаривали,  а  больше  молчали.  Роскошь  обсуждения  плана  побега  им  была  незнакома.  Так,   в  молчании,  они  проводили  часы.  Но  однажды «Слепой»  оживился  и  приник  ухом  к  полу.  -  Я  слышу  голоса, - сказал  он  Кузнецову.  – Там  люди.  -  Откуда? – удивился  его  сокамерник.  – Не  знаю,  но  я  ясно  слышал  их  голоса  и  не  первый  раз. Думал  ещё,  что  почудилось. «Слепой»  стал  стучать  по  каменной  плите  пола,  но  никто  не  отзывался.  Они  долго обсуждали,  что  это  могло  быть  и  решили,  что  надо  вынуть  хоть  одну  плитку  из  пола  и  заглянуть  вниз.  Но  чем  можно  было  расковырять  пол,  чтобы  выцарапать  цемент и  отвалить  плитку? – Нечем. Помог  случай.  Мария  Ивановна  вскоре  забыла  у  них  железную ложку.  Они  её  спрятали  и,  несмотря  на  все  старания  своей  кормилицы,  найти  её,  не  отдали.      

Этап  готовили  три  дня.   Шутка  ли,  почти  двести  человек  отправить  на  «Большую  землю».  Надо  было  подготовить  судно,  конвой,  запас продовольствия,  документы  на  этапируемых,   провести  их  медицинский осмотр   для  того  чтобы  отбраковать  нетрудоспособных и больных. В  общем,  начальник  лагпункта Кочетов  от  всех  этих  дел  устал,  как  собака,  и проклинал  тех,  кто  затеял  это  срочное  этапирование.   И  подавай  им  не  только  УБЭ  (уголовно-бандитствующий  элемент)   но  и  врагов  народа,  «контрреволюционеров»! А  кто  не  знает,  что  с  этими  самыми  «контрреволюционерами»  больше  всего  хлопот.  То  их  бык   обсерит,  то  плетнём  придавит, как  говорили  у  него  в  деревне,   то  они  болеют,  то подыхают,  то  объявляют  голодовки.  Да и кому  они  нужны?  Они  ведь  больше  болтать  умеют,  чем  работать.  Вот  какой-нибудь  Петров  или  Рабинович  сидел  у  себя  в  конторе,  валял  дурака и анекдоты  рассказывал.  Нашёлся  добрый  человек,  сообщил  куда  следует  и  вот  этот  любитель  анекдотов,  став «контрреволюционером»,  прибыл  в его  лагпункт,  в  котором  надо  не  штаны  протирать  и  нарукавники,  а  брать в  руки  пилу  или  топор  и  идти  лес  валить,  или  мыть  золото.  Да,  наприсылали   сачков,  а  ведь  ты  с  ними  ещё   план  давай.  А  какой  с  ними  можно  план  дать?    Нет, с  уголовниками  проще.  Сейчас бы, не глядя,  набил  ими  трюм и все дела. Одно  хорошо:  избавлюсь  от  этого  балласта.  Подбодренный   этой   мыслью,  Кочетов  вышел  на  высокий берег,  с  которого  по  широкой  тропе  спускался  к  пристани  контингент  его  лагпункта.  Впереди,  перед  ним,  куда  только  хватало  глаз,  простиралось,  покрытое белой  простынью  тумана,  холодное  серое  море.  У деревянной  пристани,  увешанной  старыми  автомобильными  покрышками  тихо  покачивался  ржавый  буксир.    Конвоир,  стоявший     недалеко  от  пристани,  повернул  к  зэкам  обветренное  злое  лицо  и  хриплым  простуженным  голосом протяжно крикнул:  - Подтянись!  В  берег  ударила  последняя волна  прибоя  и   колонна  заключённых  всколыхнулась,   как-будто  по  ней  пробежала  дрожь. -Пошёл! – крикнул  начальник конвоя  и  по  качающемуся  трапу,  под  остервенелый собачий  лай    застучали   зэковские  коты.   Капитан  бросил за борт  окурок  «Беломора»,  плюнул  в  тяжёлую  свинцовую  воду и ушёл в  рубку.   Погрузка  контингента  началась.   
Кочетов  вместе со своим помощником по режиму и фельдшером  наблюдал за погрузкой.  - Скорее  бы, - думал  он. - Может  быть  всё  обойдётся.  Хорошо бы.  В  конце концов,  если  что,   можно   будет  сослаться  на  недостаток  времени  и  большой  объём  работы  при  отправке  этой  партии.  Проглядели, мол, человечка  одного,   прощенья просим.  А  если в пути  кто  богу  душу  отдаст и его  за борт выбросят,  то  совсем  хорошо  будет:  по  количеству  всё  сойдётся.  Так  успокаивал  себя  начальник лагпункта,  хотя  душа  его   трепетала,  как  пойманная  птица  за  пазухой.   Он,  конечно,  многим  рисковал.  Выпустить политзаключённого  из  лагеря  без  всякого  оформления,  пусть  даже   под  конвоем,   дело  серьёзное  и  схлопотать  за  него  можно  от  души.  Кочетов  это понимал.  Однако  алчность,  которая  помогала  ему  бороться  с   чувством   страха,  в  минуты  сомнений   нашёптывала  ему:  - Не  волнуйся,  всё  обойдётся,  всё  будет  хорошо,  и  он  верил  ей,  как  верит  неизлечимо  больной  неграмотной  знахарке.  Да  и  как  не  обойтись,  если все  обстоятельства  складывались  так  удачно.  Во-первых,  к  нему  в  лагпункт  попался  племянник  его  жены  Морковкин С.В., а во-вторых,  в  том  же  лагпункте находился  другой  Морковкин   В. В. того же года рождения,  только  звали  его  не  Север, как племянника,  а  Владимир.  Мало  того,  он в  этот  день  подлежал  освобождению   и его вместе с тремя  такими  же  освобождёнными  погружали  теперь  на  эту  ржавую  посудину,  чтобы  отправить на большую  землю.  Так  вот с  этим  племянником,  освобождаемом по заранее  спланированной  им  ошибке,  отправлял  Кочетов  своей  жене,  в  Москву,  золотой  самородок,  который  весом  своим мог  обеспечить  ему  безбедную  старость.    В  минуты  сомнений  он  ругал  себя  за  это,  упрекал  в  трусости,  в  перестраховке. Ведь  спокойно  мог  бы  вывести  этот  самородок  сам, - говорил  он  себе.   Кто  меня  обыскивать  будет?  А  теперь  надейся  на этого племянника.  А  вдруг  он  сам  попадётся,  или  сбежит  с  этим  самородком.  Парень  он,  конечно,  отчаянный,  не  пропадёт,  и  доверять ему  вроде бы  можно – надёжный,  но  ведь  в  душу то его не влезешь,  и  что  у  него  на  уме  только  один  бог  знает.   И  всё-таки,  не  смотря   ни на что,  он,  как  ему  казалось,  поступил  правильно.  Какая гарантия,  что  на  него  не  донесут  или  не  похитят  самородок.  Самородок  этот  ведь не  с  неба  упал. Ему  его  человек передал  и  хоть  человек  этот   вскоре  умер,  но  мог  же  он  кому-нибудь  о  нём  протрепаться.  Его   пом  по режиму,  например,  мог  об  этом   пронюхать  - тот  ещё  гусь.  В  это  время к ним  подошёл  начальник  конвоя  и  сказал,  что  партия   уйдёт,  как  только  рассеется  туман.   Кочетов  приказал  ему  находиться  на  пристани  до  самой  отправки  и  пошёл в  контору  своего  лагпункта.
В  трюме   буксира было  холодно,  тесно и  воняло  тухлой  рыбой.  Конвоиры  задраили  люки,  ударили по ним  прикладами автоматов  и  зашагали  над  головами  заключённых  тяжёлыми,  упрямыми  шагами.  Свет  проникал  в  трюм через   четыре (по два с каждого  борта)  грязных  иллюминатора.  Слышно  было,  как  небольшая волна  стучит в  левый  борт,  покачивая  судно  у  пристани.  Потом   заработала  машина.  Засопела,  заурчала,  застучала.  С  палубы  послышались  крики,  кто-то  быстро прошёл  вдоль  правого  борта,   буксир  раз  ударился  о  пристань,  потом  другой  и,  подавшись  влево,  дрогнул,  напрягся  и   направился  к  выходу  из  бухты  чтобы  выйти в  море.  Сколько  и  куда  он  будет  плыть - никто не  знал,  однако  опытные  люди  полагали,  что  плыть  он  будет  не  менее  трёх  суток в направлении  Сахалина  или  Владивостока.  О  целях  отправки  партии  говорили  разное.  Кто-то считал,  что  везут на Сахалин  обживать  отнятый у японцев  остров,  другие,  что  везут не  обживать,  а   на  каторгу,  которую  восстановят  на  острове,  как  было  когда-то.  Другие   полагали,  что  везут их  во  Владивосток,  чтобы  пересадить  в  вагонзаки   и  гнать в  Читу,  на  БАМ,  а,  может  быть, и дальше.
   Выйдя  из  бухты,  буксир   «ГБ – 28» дал  гудок,  прощаясь  с    портом  своей  приписки  и  всем  каторжно-золотым магаданским краем,  и  пополз  по  шарику вниз,  к  экватору,  таща  в  своём  брюхе  самый  никчёмный  и  дешёвый  груз, который  когда-либо  ему  приходилось  возить –  советских    зэков.
Услышав гудок  буксира,  Кочетов  остановился,  оглянулся   на  бухту  и  вздохнул.  Подошедший  к  нему  сзади  заместитель  по  режиму  тоже  остановился и  тоже  смотрел  на  выходящий из  бухты буксир,  а   потом  спросил Кочетова:  -  А  знаешь,  Михалыч,  куда  наших  повезли?   - Мне  не  докладывали,  - не  оборачиваясь  ответил  Кочетов.  -  Мне  тоже, - ответил  помощник.  – Мне  об  этом  один  человек по секрету  сказал. – Ну и куда? – спросил Кочетов. – Да, на  полигон  какой-то,  то ли в Казахстан,  то  ли  в  Сибирь.  Бомбу  там  будут испытывать.  Кочетов  почувствовал,  как  у  него  задрожали  колени.  _- Бомбу? А они-то причём?    -  Они-то,  ну,  наверное,  для  эксперимента.  Надо  же  знать,  как  она  на  людей  действует.  -  А  что,  неизвестно?  За  войну  что ли не насмотрелись?  -  Да  бомба-то не простая,  а  атомная,  такая,  как  у  американцев.  -  А  зачем  было  людей  отсюда  для  этого  тащить,  поблизости,  что  ли,  найти не  могли?  -  Значит  так  надо,  начальству  виднее.  Наверное,  решили,  чтобы  поблизости  никто  пропавших людей  не  хватился,  да и разговоров  чтобы  меньше  было.  -  А  как же  наши  освобождённые?  - спросил  Кочетов,  невольно  выдав  свой  интерес. -  неужели  их  тоже  на  полигон  загонят?  - А  то  как же,  кому  же  нужны  лишние  свидетели? – мрачно  ответил  помощник.   Такого  оборота  Кочетов  не  ожидал.  Казалось,   что  всё  предусмотрел,  всё  устроил,  а  тут  такой  сюрприз.  Что  же  теперь  с  самородком  будет?  Вот  тебе,  Иван  Михалыч,  и  обеспеченная  старость,  вот  тебе,  дураку  старому,   и  домик  в  Крыму.  А  не  остаться  ли Вам, уважаемый,  в  этих  местах,  ставших  для  вас  родными,  доживать  свой  век  в  качестве  зэка,  изменив,  так   сказать,  профиль  Вашей  деятельности?  Проклиная  всё  на  свете  и  не  обращая  внимания  на  своего помощника, Кочетов  зашагал  к конторе,  опустив   голову  и  заложив  руки  за спину.
Дмитрий  Морозов ещё  в  лагпункте  накинул   петельку  из  тоненькой  нити на  один  из  своих нижних  зубов,  а  другой её  конец  продел  в  ушко маленького напильничка  с  заострённым  кончикиком.  Этот  напильничек  он взял  рот,  проглотил  и  тот  повис  у  него в пищеводе.   При  обыске  перед  отправкой  на  судно  напильничек  этот  у  него   не нашли.  Довольный  этой  удачей  он  находился в хорошем  настроении  и  подбадривал  своего  приятеля,  Толика,  которому  вместе с ним  предстояло  в  пути  провернуть  одно  весьма  рискованное  дельце.  У  приятелей  было  много  общего.  Они  были  ровесниками,  родились и выросли в деревни,  перед  войной  получили  сроки: Дмитрий  за убийство, Толик – за  кражу,  оба  служили во  время войны  полицаями   при  немцах,  а  после  войны  получили  по четвертному  и  были  отправлены  в  Магадан  добывать  для  страны   золото.   Сегодня  же  их  должна  была  ждать  удача.  Дело в том,  что  им  доподлинно  было  известно  о  том, что  один  из  их  попутчиков,  некий  Север  Морковкин – племянник  жены  начальника  лагпункта,  освобождённый  из  заключения  стараниями  своих  московских  родственников,  везёт на  континент  огромный  золотой  самородок.  Да,  не  зря  Кочетова  мучили  сомнения:  действительно,  о  самородке  в  лагпункте  знал  не  он  один,  потому  что  умирающий  зэк  успел   о  нём  кое-кому  рассказать.  Теперь  судьба  самородка  находилась  в  руках  трёх  пассажиров  грузового  буксира  «ГБ-28»  Днём  его  изрядно   потрепала  качка  и многие  заключённые,  страдавшие  «морской  болезнью»,  заблевали  трюм.  Конвоирам  пришлось тогда открыть  на  время  часть  иллюминаторов.  Вечером  море  успокоилось  и над  ним  взошла  неестественно  большая  луна.  Морковкин  ослаб  от  качки  и  заботившиеся  о  нём  Дмитрий  Морозов и Толик  подтащили  его  к  открытому  иллюминатору. Он  откинул  голову  и  наслаждался  проходившим  сквозь  щель  в  иллюминаторе  свежим  воздухом.  Все  зэки,  умаявшись за день, крепко  спали,  когда  Дмитрий  Морозов,  потянув    ниточку,  извлёк  из  своей  утробы  напильничек,  снял  петельку  с  зуба  и,  изловчившись,  точным и  резким  ударом  проколол  сонную  артерию  Северу,  а  Толик  зажал  ему  рот.  После  этого  они  обыскали  его,  нашли,  привязанный  к  мошонке,  самородок,  а  труп  спустили  в  иллюминатор.  Всплеск  воды  был  последним  звуком,  свидетельствовавшим  о  пребывании  на  Земле  Севера  Морковкина -  бывшего  студента,  бывшего  осуждённого  по  ст. 58-10 УК РСФСР,  бывшего  заключённого  и  племянника  жены  начальника лагпункта Кочетова.  Уходя  из  этого  мира,  люди  произносят  какие-то последние  слова,  храпят,  хрипят, стонут,  икают, а  то  и  просто молчат.  Звук  же,  с  которым  Север  ушёл  из  этого  мира, люди  обычно  обозначают  буквосочетанием «бултых»,  словом  не говорящим  ничего,   кроме  подобия  звука,  вызванного  падением  тела в воду. На  следующее утро  никто не заметил  исчезновения  человека, или не  хотел  замечать,  зная  нравы  бывших полицаев. Когда  прибыли на место,  то  всё  сошлось, лишних не было.  Узнав  об  этом,  Кочетов  потирал  руки  и  говорил  себе: - Ай да  Север,  ай да сукин  сын!  Да,  ловкий  малый, как  это он  их, а?  А  этап,  тем  временем,  погрузли  в  товарный  вагон  вместе с конвоирами и  погнали на  Запад. На  оправку  два  конвоира  по  утрам выводили  желающих   на  тормозную  площадку.  В  первую  же  ночь  Дмитрий  и  Толик  распилили  пополам  самородок и поделили.  Надо  было  решать  кому  бежать  первому.  Выкинули  пальцы – досталось Дмитрию.  В  это  время  поезд  подходил  к  мосту  через  какую-то  реку.  Друзья  переглянулись  и  мысль  одобрили.  Попросились  оба  сразу.  Поскольку поезд  шёл  очень  быстро и подходил к   одноколейному  мосту,  то  решили  рискнуть  и  вывести  обоих,  чтобы  скорее  закончить  оправку.  Держась  за  поручень, Дмитрий  и  Толик  спустились  на  нижнюю  ступеньку  лесенки,  ведущей на площадку.  Замелькали  редкие фермы  моста.  Дмитрий,  незаметно  перекрестившись, отпустил  руку,  оттолкнулся,  что  есть  силы,  от  лесенки  и  полетел  вниз.  Вслед  за  ним  полетел  и  Толик. Конвоиры  открыли  огонь. Мост  кончился,  несмотря  на  выстрелы,  эшелон  не  остановился.  Сделать  это  на  мосту  машинист  не  имел  права.  Дмитрий летел  вниз,  зажмурив  глаза,  ожидая гибели.  Наконец,  ощутил  сильный  удар  и  на  мгновение  потерял  сознание.  Когда  пришёл в себя  и  осмотрелся,  то  понял,  что  на нём  нет  штанов,  что  вода  очень  холодная  и  что  из  носа  его  течёт  кровь.   Мимо  него  проплывали  льдины.  На  одной  из  них  он  заметил  что-то  похожее  на человека.  Когда  льдина  подплыла  ближе, он  понял,  что  это  был  Толик.  Он не двигался и не отвечал  на  его  крики.   Погиб,  бедняга – подумал Дмитрий  и  поплыл к льдине.  Ему  удалось  забраться  на  неё.  Обыскав  друга,  он достал  привязанный  у него  за  пазухой  узелок  с  самородком,  а  труп  сбросил  в  воду  чтобы,  когда  будут  искать,  не  нашли.   По  льдинам и воде  он, наконец,  добрался  до  берега.  Здесь,  как ему  сообщил  один  зэк,   где-то совсем  близко,  должен  быть охотничий  домик.     Вскоре  он  заметил  прибитую  к  дереву  стрелку,  указывающую  на  юг.  Он  быстро  зашагал  туда,  и  вскоре  увидел  нечто  вроде  шалаша  или  маленькой  избушки.  Это и  был,  как  он  понял,  охотничий  домик.  Выдернув  из  петель  продетый  сквозь  них сучок,  Дмитрий  открыл  дверь….

Тем  временем  в   «самоварном»  ските  произошло  довольно  неожиданное  событие.  Сюда,  буквально  на  два – три  дня,   пока  не  оборудуют  специального  места,  поместили  молодую  красивую  женщину,  тоже  «самовара»,  или  «самовариху»  Это  была  медсестра  Люба  Соседова.  Зимой  сорок  третьего  она была  ранена,  потеряла  сознание   и, оставшись в  поле,  отморозила  себе  все  четыре конечности. После  того как  их  ампутировали,   отправили  её  в  деревню,  к  матери.   Недавно  мать  умерла  и  ухаживать  за  Любой  стало  некому.  Тогда то  и  пришлось  привести  её  сюда,  чтобы  висеть оставшуюся  жизнь.  В  скит  её  занесли  ночью Мария  Ивановна и Михаил  Ефимович,  когда  все  спали.  Подвесили к раме,  отгородив  простынёй,  пожелали  спокойной  ночи  и  ушли.   
Утром,  проснувшиеся  самовары,  не  придав  большого  значения  висевшей  простыне,  стали оправляться.  Пришёл  Лёха  со  шлангом,  ругаясь  и  матерясь,  выполнил  возложенные  на  него  обязанности,  и  удалился.  Вскоре  после  него  в  помещение  вошли  главный  врач  и  Мария  Ивановна.  Михаил  Ефимович,  обратившись к контингенту,  сказал: - Товарищи,  с  сегодняшнего дня в вашей палате, совсем  непродолжительное  время,   будет  находиться  женщина.  Прошу  любить и жаловать,  Любовь  Ивановна  Соседова.  При  этих  словах  Мария  Ивановна   сняла  простынь  и  перед  взором   «палатных  висельников»,  как  назвала  их  сестра-хозяйка  Ляжкина,  предстала  женщина.  Она  была  молода и красива.  У  неё  были  золотые  волосы  и  голубые  глаза.  На  ней  был  короткий  белый  халатик,  а  на  шее  голубые  бусы.  Было  заметно, что  и  губки  у  неё  были  подмазаны.  Ах,  Мария  Ивановна,  Мария  Ивановна….  В  палате  стало  тихо, У Славы  глаза  раскрылись до  бровей,  противно  заржал  Федька,  а  за  ним  Иван  Иванович, ставший  краснее  кремлёвских  звёзд, затянул,  заикаясь:  «К-к-как  же  н-на-ас   н-не  п-предуп-п-редили…..» А,  действительно,  почему не предупредили?  Может  быть  решили  окунуть  сразу  всех  в   ту  обстановку,  которую  не  имели  сил  изменить? - Возможно.  А,  может  быть,  просто  не  подумали?  - Может  быть и так.  Теперь  осталось  только  извиниться  и  развести  руками,  что  Михаил  Ефимович и сделал,  пообещав  сразу,  как  только  будет  устроено  место для  женщины,  она  будет  переведена  туда. 
Три  дня,  в  которые  скит  был  удостоен  присутствием  женщины,  изменили  жизнь  его  обитателей  до  неузнаваемости. Почти не стало матерщины,   Мария  Ивановна  оставила  свои  обычные  шутки  и  стала приходить в палату  раньше  Лёхи,  чтобы  вынести  Любу  в  соседнее  помещение.  После  обеда  мужики,  чтобы  как-то  развлечь  даму,  попросили  Ивана  Ивановича  рассказать  что-нибудь  интересное про  любовь.  Иван  Иванович  засмущался,  но  вскоре справился с  застенчивостью  и  начал  рассказ  в  своей  обычной  манере  чуть ли не  участника  происходивших  событий,  хотя  знал  о  них  из  газет  своей  молодости. Рассказ  свой  он начал  издалека.
             
 «Парижские рассказы  Ивана Ивановича»
 -  И так,  друзья  мои,   жил  я  тогда в Париже.  В  конце 19-ого  века  прекрасный  город этот  узнал  о  судьбе  одного  молодого  человека  по  фамилии  Мистраль.  Вы  должны  знать  его  двоюродного  брата,  поэта  Фредерика  Мистраля,  которого  Малларме  назвал  «Брильянтом  млечного  пути»    (никто из присутствующих  о таком  поэте не слыхал,  но  вида не подал) Но  дело сейчас не в нём,  а  в его  кузене,  то есть двоюродном  брате. Оказалось  тогда,  что  он  просидел  в  сумасшедшем  доме  почти  пол века  и  упрятал  его  туда  ни  какой-нибудь  тиран,  а  собственный  отец  из-за  того,  что  он    влюбился  в  польскую  певицу  и  решил  на  ней  жениться. Причина,  по  которой  вздорный  отец  решил  во  что  бы  то  ни  стало  воспрепятствовать  этому  браку,  состояла  в его банальной  алчности.  Этот жестокий   скряга  больше  всего  на  свете  боялся,  что  его  огромное  состояние  достанется какой-то певичке.  Ради  того  чтобы  разлучить  влюблённых  он  был  готов  на  всё.  Сначала  он   лишил  сына  средств  существования,  перестав  давать  ему  деньги.  Однако,  это  не  помогло  и  сын всё-таки  женился.  Но  как  жить   с  молодой  женой,  на какие  средства, то есть?  Тут    не  выдержал и спросил: - А  что,  на  работу  нельзя  было устроиться,  комнату  в  общежитии  получить?  - Комнаты  были  заняты. -  раздражённо  ответил  Иван Иванович,  который  не  любил  когда  его  перебивали,  и,  откашлявшись,  продолжал: - Пришлось   молодым,  чтобы  не  умереть  с  голоду,  петь  за  гроши на  улицах.   Узнав  об этом,  отец  совсем  рассвирепел. – Он  ещё  и  позорит  меня!  - кричал  он  и  топал  ногами.  – В  сумасшедший  дом  его,   в  смирительную  рубашку! А   следует  Вам  заметить,  что в  то  время  упрятать  человека  в  сумасшедший  дом,  в  тюрьму и даже в   Бастилию  было  совсем  не  трудно,  а   всё  потому,  что  у  какого-нибудь    полицейского  за большие  деньги   можно  было  купить заполненные  бланки,  т.н.  "летр   де  каше",  в  которых  оставалось  только  проставить  фамилию  несчастного.   Бывало,  родители  пользовались  этими  бланками,  чтобы  разлучить  сына  с невыгодной  невестой.  В  тюрьме  они  держали  его до  тех  пор,  пока  он  не  выкинет  дурь  из  головы.  Когда  свершилась  Великая  французская  революция,  из  Бастилии  были  выпущены  и  правые  и  виноватые,  а сама  Бастилия  была  разрушена.  Мистраль  же продолжал находиться  в  сумасшедшем  доме,  поскольку  сумасшедшие  дома  революция  не  разрушила. Продолжал он  там  находиться   и  после  смерти  своего  отца.  О нём  просто  забыли.  Родственники  его,  в  том  числе  и  его  кузен, о  котором  мы  говорили, не  очень-то хотели  его  освобождения,  ведь  они   пользовались  его  наследством,     В конце  концов,  за  бедного  влюблённого  вступился  журналист  одной  парижской  газеты  и  его  заточение  кончилось.   Что  стало  с  польской  певичкой  я  не  знаю.  Рассказывали,  что  её потом  видели  поющей  в  каком-то  кабаке…
Иван  Иванович  замолчал.  Кто-то  вздохнул,  а  «Партизан»  снова  стал  просить Ивана  Ивановича,  чтобы  он  рассказал  ещё  что-нибудь.  Народ  его  поддержал. Рассказчик опустил  голову,  помолчал  и  заговорил  снова.  -  Любовь  в  жизни  парижан  вообще  играла  огромную роль.  И  чаще  всего  это  была  не  та  любовь, которую  освещает  церковь,  а любовь - приключение,  любовь  игра,  а  то  и любовь - сумасшествие.  Одна  такая  сумасшедшая  любовь  случилась  в  Париже  задолго  до  моего  приезда  и   о  ней  мне  поведал  мой  старый  приятель.  Вот  что  он  мне  рассказал: В  Парижском  оперном  театре тогда      танцевала  прекрасная,  юная  девушка,  которую  звали  Нанин  Дорваль.  В  неё  безнадежно влюбился  юный  танцовщик  того  же  театра, Жан Лаваль.   Но  юной  Нанин  нравился  офицер  Петен.  Он  возглавлял  тогда команду,  охранявшую  театр.  Бедный  танцовщик  невыносимо  страдал  от ревности,  и  однажды,  не  выдержав,  подстерёг  Петена  около  театра  и,  набросившись  на  него,  схватил  за  горло.  Офицер  был  гораздо  сильнее  мальчишки-танцовщика,  а  поэтому  легко  оторвал  его  от  себя  и,  бросив  на  землю,  приказал  солдатам  связать  сумасшедшего  и  оставить  у  входа,  чтобы  все  видели,  как  он  с  ним  расправился.  Танцовщик  был  опозорен  перед  людьми,  а  главное,  перед  Нанин.  Он  не  смог  пережить  унижения  и  сильно  заболел.  Перед  смертью  Жан  попросил  театрального  доктора     оставить  в  театре  его  скелет.  Доктор  сначала  очень  удивился  и   попытался  успокоить  юношу,   отговорить  его  от  такого  решения,  но  под  давлением  его  слёзных  просьб,  в  конце концов,  сдался  и  пообещал  исполнить  его  просьбу.  А  причина  такой,  казалось  бы,  нелепой  просьбы  несчастного  юноши  состояла в том,  что  в  одном  из  спектаклей  Нанин   танцевала  около  скелета  и   бедному  юноше  очень  хотелось   быть  в  эту  минуту  на  сцене  рядом  с  ней.   Доктор  исполнил  его  просьбу.   Так  он  вновь,  вместе  с  Нанин,  появился  на  сцене,  только  теперь  в  виде  скелета…    Иван  Иванович,  сказав  это, замолчал.
- А от моего  скелета  одни  рёбра  останутся.  Половина его  в  Польше  – сказал  Петров,  - А  моего – под  Одессой,  - добавил  Гуськов.   
- Да,  кости  человеческие,  не  дают  людям  покоя, - вздохнув  сказал  Иван  Иванович. - Возьмите  вы  Наполеона, -  он  держал  у  себя голову  герцога  Ришелье,  в  шкафу   английской  королевы  Елизаветы  хранился череп её  любимца лорда  Эссекса, а наш знаменитый  путешественник  Миклухо - Маклай  сделал  настольную керосиновую  лампу  из  черепа  своей любимой  девушки  с  Новой  Гвинеи.
- Интересно, а  из нас можно наделать  что-нибудь? – задумчиво спросил   Мешков. – Пельмени  - сострил Чиж. Все засмеялись. – А я  бы,  задумчиво  начал  Гуськов, -  наши  скелеты  оставил  в  музее  войны,  чтобы  все  видели,  что  война с людьми делает.  И  почему только её  «великой»  называют? «Великая  отечественная»! Чем  она  велика? -  количеством  смертей,  безмерностью страдании? – Победой,  дура,- ответил  Чиж.  – Вот  победу  и  называйте  великой, - отрезал Гуськов, а  партизан  стал снова  просить  Иван Ивановича  рассказать  что-нибудь «о ю-о» - «Про  любовь» - перевёл Гуськов.  Но  не  успел  Иван  Иванович  начать  новый  рассказ,  как  пришла Мария  Ивановна  гасить свет  в  ските.  Было  уже  поздно  и  пора  было спать.  Все  стали  её  уговаривать  не спешить,  лучше  послушать  ещё  один рассказ  Иван  Ивановича  «о юо»  Она,  конечно,  согласилась и села  на  табурет,  а  Иван  Иванович  начал  рассказ: - История  эта  произошла  с  одним  русским  повесой,  приехавшим  в  Париж  развлечься  и  погулять. Для  русского  человека  тех  лет  слова «когда  я  был  в  Париже»  имели  просто  магическое  значение.  Все  мечтали  побывать  в  этом  романтическом  городе,  к  тому  же  законодателе  мод.   
- А  повеса, это кто  такой? – спросила  Мария  Ивановна.
- Ну,  как  Вам  сказать,  это  вроде  как  балбес  того  времени, - разъяснил  Иван Иванович  и  продолжал: - Так  вот, балбес  этот  кутил  с себе  подобными  бездельниками   в  ресторанах  и  кафе,  сорил  деньгами,  менял любовниц,  играл  в  карты  на  деньги  и.  в  конце  концов,  промотал  всё,  что  у  него  было.  А  поскольку  делать  он  ничего  не  умел  и,  следовательно,  заработать  на  жизнь  не  мог,  да  и,  честно  говоря,  не  хотел,  то  стал  занимать  деньги у  знакомых и не только. Сначала  ему  деньги одалживали,  но  потом,  когда  он  не  стал  их  возвращать,  перестали.    Тогда  он  попытался  жить  за  счёт  женщин,  но  тем  это  не понравилось, ведь они  сами  искали  состоятельных  кавалеров  для  того  чтобы  пожить  за  их  счёт. Короче  говоря,  послали  они  его  ко  всем  чертям.  – И правильно  сделали! – добавила  Мария  Ивановна.  -  Тогда, - продолжал  Иван  Иванович, не обращая  на  неё  внимания, - он  стал   распродавать  всё,  что  у  него  было. Когда  остались  одни  брюки и один пиджак,  появляться  в  обществе  ему  стало  неудобно,  потому  что  одежда  его с  каждым  днём  становилась  все  грязнее  и  неопрятней.  Кончилось  тем,  что  он   опустился,  ходил  в  лохмотьях, попрошайничал.  Все  знакомые  от  него  отвернулись  и он  остался  один.    Пробовал  найти  работу,  но  найти  её  в  Париже  не легко  было  тогда  даже  французу,  не  то,  что  иностранцу.  Голодный  и  нищий  слонялся  он  по  Парижу,  не  имея денег  на  то  чтобы  вернуться домой, в  Россию.   Наконец,  потеряв  все  надежды,  он  попытался  покончить  с  собой,  но  не  смог  этого  сделать,  силы  воли  не  хватило. И  вот   однажды,  когда  он  шёл  вдоль  Сены  - Сена, - тихо  поправила  его Мария  Ивановна. Не  обращая  на  неё  внимания,  Иван  Иванович  продолжал: -   ему  улыбнулась  удача:   он  встретил  московского  приятеля,  такого  же,  как  он,  разорившегося  бездельника  и  тот  предложил  ему   устроиться  в  команду, в  которой  служил  сам.  Команда  же  эта  занималась  тем,  что  отыскивала  в  трущобах  города  трупы  умерших  и  хоронила  их.  Работёнка,  конечно,  не  очень  приятная,  но  она  позволяла  нашему  оболтусу  хоть  как-то  прокормиться  и  купить  приличную одежду.  В один  прекрасный  день,  в  одной  из  трущоб,  он  встретил  обнищавших  женщин:  пожилую  мать  и  юную  прекрасную  дочь,  в которую  сразу  влюбился.  Он  стал  опекать  их,  помогая,  чем  мог.  Женщины  нуждались в  помощи,  особенно  девушка,  страдавшая  чахоткой.     Девушка эта  была не только  красива,  она  оказалась  к  тому  же  доброй, искренней  и милой.  Вскоре  умерла,  простудившись,  её  мать. Молодой  человек  поставил  перед  собой  цель  отвести  девушку  на  юг лечиться  от  чахотки.  К  тому  времени  они  решили  пожениться.  Для  того,  чтобы  заработать  больше  денег,  он  целыми  днями  бродил  по  трущобам  в поисках   покойников,  оставляя  девушку на  целый  день  одну.   Однажды, после  очередного  обхода  трущоб,  он  вернулся  к  девушке  и  нашёл  её  мёртвой  в  своей  жалкой,  убогой  комнатке.   Не  выдержав  такого  потрясения,  несчастный  сошёл  с  ума.  Я  как-то  встретил  его,  бродя  по  одной  из  окраин  Парижа,  это  было  жалкое  зрелище
Заметив  на  глазах  Любы  слёзы.  Мария  Ивановна  стала  упрекать  Ивана  Ивановича в  том,  что  рассказ  его  больно  жалостный  и  что  он  им  девушку до  слёз  довёл.  Иван  же  Иванович,  терпевший  и  всеми  силами  удерживавший  себя  весь  день,  наконец,  не  выдержал  и,  как  говориться,  опростался.  Мария  Ивановна  убрала за ним, а  коллектив  решил  потребовать  у  администрации  перевода  Ивана  Ивановича  в  другое  помещение  на  то  время,  пока  в  их  палате  находится  Любовь  Ивановна.  Просьба  коллектива  была  удовлетворена,  и  Иван  Иванович в  тот  же  вечер  был  перенесён  в  другое  помещение. На  следующий  день  раньше   всех  в ските  проснулся  Слава.  Присутствие  женщины  не  давало  ему  покоя.  Он  мог  часами,  не  отрываясь,  смотреть  на  неё.   Сейчас,  поскольку  было  очень  рано  и  темно,  он  не  видел  её  лица,  а  мог  любоваться лишь  отсветом    уличного  фонаря  на  её  золотых  волосах. Вдруг,  в  тишине,  он  услышал  звук  капель,  падающих  на  цементный пол. Кап,  кап…  Что  это? – думал  Слава  и не  находил  ответа. Когда  стало  светлее,  он  заметил  на  полу,  под  женщиной,  пятно, в которое  время от времени  капала  новая капля.  Тогда  Слава,  видя,  что  проснулся  Чиж,  позвал  его: - Дядя  Саша,  чего  это,  может  быть,  у  неё  рана  открылась? Чиж  вздохнул,  повернул  голову  в  его  сторону  и  сказал:  -  У  неё  эта  рана  давно  открылась,  до  войны.   Дурак ты,  Славик,  баб,  что ли,  не  знаешь?  Течка  у  неё.  Славе  стало  стыдно  за  свою  тупость  и  неграмотность.  Когда  о  произошедшем  событии  узнали  остальные  мужики,  то  оно  произвело  на  них  сильное  впечатление.  Не  умом,  а  каким-то  чувством,  зарытом  под  толстым  слоем  жизненной  грязи,  страданий  и  житейской  суеты,  осознали  они  всё  великое  значение  сего очищения,  без  которого  невозможно  зарождение  новой   жизни. Всем  им,  пожалуй,  кроме  Федьки,  захотелось самим стать  чище и  лучше,  смыть  с  себя  всё  плохое  и  жестокое,  что  зародила в них  злого  и жестокого эта  война.  А  Гуськов  стал  мечтать  о  том, как  летом,  когда  их  вынесут  на  волю,  он  попросит  Марию  Ивановну  посадить его  под  яблоню,  а  потом  станет  кататься  по  поляне и рвать  зубами  цветы.  Нарвёт  букет  и  подкатит к  ней  в  репьях и  листьях,  как  леший  с  букетом  в  зубах  и  положит  их  возле  неё.  Иван  Иванович заплакал,  вспомнив  жену.  Всем  им  было до  боли  обидно  то,  что они,  не  старые, а  в большинстве  своём  молодые  мужчины,  лишены  возможности,  болтаясь  на  парашютных  стропах,  дотянуться  до   женщины,  чтобы  продолжить  свой  род,  а не одного  удовольствия ради. 
С  этим их  естественным желанием,  ежедневно  сталкивалась  Мария  Ивановна.  Теперь,  когда  в  палате  появилась  женщина,  в   ней  пробудилось  естественное,  свойственное  её  возрасту,  желание - желание  стать  свахой,  и  она  решила  поженить  Славу  и  Любу.  То,  что  Люба  постарше – не  страшно,  думала  она,  зато  какие  у  них  будут  дети  красивые! На  следующее  утро  она  приступила  к  выполнению  своего  намерения.  Первое,  что она  сделала,  это  перевесила  Славу  на  место  удалённого  на  время  Ивана  Ивановича.  Потом  помыла  Славу,  подстригла   и  причесала  его.  К  юноше  этому она  испытывала  особые  чувства.  Во-первых потому,  что  он  напоминал  ей  сына,  во-вторых,  тому,  что  никогда  не  позволял  себе  никакой  грубости  или  пошлости  и,  наконец,  потому, то она  сделала  для  него,  как  женщина,   больше,  чем для  других.  А  виноват  в  том  был  опять  этот  прохвост  Моисеенко.  Последние дни  он  не  раз  просил  защитить  его  от  торчащего  «перца»  Славы.  -  У  мэнэ  вся  спина в синяках,  - жалобно  говорил  он,  не   сегодня-завтра  проткнёт  мэнэ  насквозь!  Она  стыдила  его  и  просила  не  смущать  бедного  парня.  Правда,  по  утрам  сама  замечала  у  Славы  оттопыренный  фартук.  Моисеенко  же  подтрунивать  над  Славой  по  этому  поводу  было  мало,  он  стал  уговаривать  Марию  Ивановну,  чтобы  она  помогла  ему  облегчить  душу.  Она,  конечно,  сначала  отмахивалась  и  стыдила  этого  заводилу  Моисеенко,  но  однажды,  перед  уходом,  когда  стемнело,  подошла  к  Славе  и  спросила  его: -  Ну  что,  малец,  правда,  что ли,  помочь  тебе?  Он  покраснел  и  опустил  голову.  Она  огрызнулась  на  обернувшихся   любопытных  и  взяла  дело  в  свои  руки.  Стало  тихо  и  завидно и  так  до  тех  пор,  пока  Слава  не  застонал. И вот тогда  Моисеенко  взмолился: -  Ратуйте,  братцы,  караул,  быть  мне  галушкой  в  сметане!  Все  дико заржали,  а  Мария  Ивановна  обмыла  Славу,  вытерла  его  и, пристыдив  охальников,   ушла.   
Думая о Славе,  Мария  Ивановна  совсем  не  думала  о  Любе.  Ей  казалось, что  в  её  положении  брезговать  молодым  красивым  и  добрым парнем  было   бы  просто  нелепо.  Впрочем,  она  была  недалека  от  истины.  Люба  была  женщиной,  познавшей  радости  жизни  и  лишиться  их  было для  неё  равноценно   уходу  из  жизни  вообще.  Была  у  неё,  конечно,  любовь,  но  теперь  она  о  ней  и  думать  не  смела. Какая  из  меня  теперь  подруга  жизни, - говорила  она  себе.  – Я  теперь  только  в  подруги смерти  гожусь. Ах,  мама,  мама,  как  ты  была  права, когда не  пускала  меня  на  фронт! При  таких  Любиных  мыслях,  договориться  с  ней  о  будущем  союзе  со  Славой   для  Марии  Ивановны  не  составило  труда.  Идею  эту  поддержали  главный  врач  и  директор Дома  инвалидов.  – А  что, - сказал  он, - и свадьбу  сыграем,  чтобы всё,  как  положено.  С  помещением,  правда,  сложнее  было,  но  Ляжкина  помогла  отыскать  закуток  для  молодых.  Свадьбу  назначили  на  третий  день,  сообщили  в район,  попросили  приехать  представителя  ЗАГСА.  Наварили  картошки,   в  деревне добыли  сало,  солёных  огурцов и кислой  капусты.  Лёха  раздобыл  самогон.   Свадьба  удалась.  Пышная рыжая дама  из  ЗАГСА  сказала  речь,  Мария  Ивановна и Ляжкина  повернули  молодожёнов лицом  друг  к  другу,  чтобы   поцеловались,  а  потом и  тот  и  другая приложились  губами  к  журналу  бракосочетаний. 
За  столом,  как  водится,  кричали  горько,  говорили  тосты  и  пели.  Дама  из  ЗАГСа  разомлела  и  стала  чесать  свои  груди.  Ляжкина  поняла,  чего  ей  надо  и,  подсев  к  ней,  заговорила о  любви.  -  Хороший  мужик  теперь  редкость, - сказала  она  в  покрасневшее  веснущатое  ухо опьяневшей  дамы. -  Поистрепались  за  войну,  да  и  мало  осталось-то  тех,  стоящих,  всех ведь  почти  повыбило.  Рыжая  обратила  к  ней  помутневший  взор  своих  зелёных  кошачьих  глаз и простонала: - Эх,  сейчас бы…  - Это  можно  устроить,  всё  в наших  руках, -  прошептала  ей  в  ухо  Ляжкина.  – Тут  в   одном  ските  один  отличный  мужик  есть, останетесь  довольны, хоть  он  и  самовар. Не  сомневайтесь, его  …  любых  рук и ног  стоит,  да и не  разболтает, я его  знаю. Рыжая  кивнула, икнула  и простонала: - Когда  выпью…     Ляжкина   пробралась  сквозь объятия  танцующих  пар    к  Марии  Ивановне   и  упросила  её  дать  на  время  ключ  от  скита,  где  находился  Кузнецов.  Опьяневшая  обладательница ключа  поняла,  для какой  цели  он  нужен  и  не  смогла  отказать.  Ляжкина  перетащила Кузнецова  в  мед. изолятор,  протёрла  спиртом  его  тело  и  оставила  на  топчане  голого,  укрыв  простынёй.  «Для  храбрости»  Ляжкина  влила  в  него  стакан  самогона.
 Рыжая  дама,  покачиваясь,  вошла  в  полутёмное  помещение  и,  подойдя  к  Кузнецову,  спросила  его: - Скучаете?  Кузнецову не  раз  приходилось  играть  эту  роль.  Его  и  раньше, по знакомству,  Ляжкина  подкладывала  изголодавшимся  дамочкам  из  центра,  так  что  ему  не  составило  труда  поддержать  светскую беседу  с  новой  искательницей  приключений.  Слово  за слово,  намёк  за намёком  и  вот  уже  рыжая бестия  оседлала нашего  затворника  и,  обдав  его  запахом  самогона  и  кислой  капусты,  засопела  и  застонала    над  ним,  как   обжора  над  лоханью. Она  полоскала  о  его  лицо  свои  мягкие  сиськи,  прижимала  его к  себе  так,  что  у  него  кости  трещали,  взваливала  его на  себя,  каталась  с  ним  по  полу,  потом  опять  бросала  его  на  топчан и снова  вскакивала  на  него,  пугая  его  воображение  быть  задушенным   нависшим  над  ним  телом.    Угомонилась  рыжая  бестия  на  рассвете.  Свернувшись  калачиком,  легла  внизу,  положив  голову  ему  на  живот,  а  прощаясь, сказала,  что любит  его  и непременно  приедет  к  нему ещё.  Потом, одевшись  и  встав  на  колени  перед  его  топчаном,  целуя  его  туловище,   сообщила,  что  знает  одного  человечка  из  ссыльных,  хирурга,  который  делает  чудеса. - Он  тебя   на  ноги  поставит, - сказала она, - я  уговорю  его  это  сделать,  хотя  ему  и  запретили  заниматься  врачебной   практикой.     Сергей  не  придал  значения  её  словам:  мало  ли  что  болтают  благодарные  женщины  в  обмен  на  доставленные  им  удовольствия, однако  поблагодарил  ночную  фею  за заботу  и  пообещал  не  забывать  её.  Вскоре,  после  того  как она  ушла,   его  отнесли  обратно   в  скит и заперли.  Тут  он  вспомнил  как  однажды,  когда  после  такого  «ночного  дежурства»  его  занесли  в  скит, Моисенко  спросил  Гуськова:  - Слухай,  Мыкола,  а  что  такое  «Без рук,  без  ног на  бабу скок»  Гуськов  задумался,  а  Моисенко продолжал: -  Кажут, шо  цэ  коромысло,  так  ты  не  верь,  то  ж  наш  Серёга -  ходок без  ног,  туды  его  в  качель.  Вспомнив  это,  Сергей  улыбнулся, потянулся лёг  на  бок  и   уснул  с  чувством  выполненного  долга.  - Жить  всё-таки  можно, - это  была  последняя  мысль,  промелькнувшая  в его   почти  совсем   уснувшем  мозгу.
Славу  с  Любой  от свадебного  стола  унесли  в  изолятор  и  положили  углом  на  два  топчана,  ножки  которых  связали,  чтобы  не  разъехались.   По  утрам  Лёха  выносил  Славу на  оправку  в  другое  помещение, а   потом  приходила  Мария  Ивановна и  обслуживала  Любу.  Молодые   были  счастливы  и  наловчились находить  друг  друга  без  посторонней  помощи.  Все  были  рады  за  них,  кроме  Лёхи.  Тот   матерился  и  грозился  удавить  обоих.  Однажды  утром  он  вошёл  в  изолятор  и  увидел  спящую  Любу  обнажённой.  Одеяло сползло  с неё  и  лежало на полу.  Лёха  взял полусонного  Славу и вынес  его  в  соседнюю  комнату.  Тот  решил, что на  оправку, и  молчал.  Негодяй  же,  вернувшись  в   изолятор,  снял  штаны,  трясясь  от  желания  и  прыгая  то  на  одной, то на  другой  ноге,  приступил к Любе.  Проснувшись, та  сразу  не  поняла,  что  происходит и,  увидев  Лёху,  даже  улыбнулась,  потянувшись.  Поняв  же,  стала  кричать  и  звать  на  помощь.  Услышав  крик  любимой  женщины,  Слава  тоже  стал  кричать и  звать  на  помощь.  Лёха  же,  сделав  своё  дело,  удалился,  а  уходя,  сказал,  чтобы  они  заткнулись,  а  то  им  будет  хуже.    Мария  Ивановна,  придя  в  изолятор,   сразу  всё  поняла,  но  не  знала  что  делать:  говорить  начальству  о  происшествии,   или  промолчать.  Слава  просил  сказать,  а  Люба  говорила не  надо,  что  она  не  хочет  позора. 
Мария  Ивановна  решила промолчать  и  поговорить с Лёхой. Вскоре  она  встретила  его,  остановила,  попыталась  поговорить  с  ним по  душам, но   разговора не получилось.  Лёха,  поняв,  что  она  от  него  хочет,  послал  её,  как  говориться, подальше,  грязно  оскорбил,  показав свою  осведомлённость  в  её  «добрых  делах»  в  ските и  заявил,  что  Любка его  сама  просила и  он  будет  делать  с  ней  всё,  что  захочет. Мария  Ивановна  чуть не задохнулась  от  возмущения.   Со  всей  очевидностью  она  поняла,  что  ничего от  него не  добьётся,  потому,  что  у  него  абсолютно  отсутствует  совесть.   Перед  ней  стоял  законченный  негодяй,  пользующийся  своей  незаменимостью  в  стенах  данного  заведения,  злой,  моральный  и  физический  урод. Она   махнула  на него  рукой, плюнула и  пошла  своей  дорогой. Ей  было  до  слёз  обидно  то,  что  этот  подонок  мог  так  оскорбить  её,  что  он  знает  её  тайну  и  пользуется   этим.  Мария  Ивановна  как  человек  совестливый  не   могла  не  чувствовать  себя  виноватой,  ведь  в ожидании    порочного   поступка,  тело  её  наполнялось  томительной  сладостью. Сладость  эту  она  презирала  и  даже  ненавидела,  но  поделать  с  ней  ничего не могла.

У  оставшихся  в  ските  мужиков  после  того  как  из  него  вынесли Славу  и  Любу,  настроение  стало  мерзким. А  тут  ещё  Лёха  с утра  расхвастался  тем,  как  отделал  Любу.  Иван  Иванович  стал просить, чтобы  ему  заткнули  уши, а Петров  рявкнул: «Заткнись, сволочь!» От  всего  этого,  от  утренней  сырости  и  весенней  тревоги   заныли  у  «самоваров»  ампутированные  члены,  пропал  аппетит  и  вообще  все  они  с  особой  болью  ощутили  весь  ужас  и  безнадежность  своего  положения.  Мимолётное  явление  женщины  со  всей  силой  естества  напомнило  им  о  существовании  другой,  доступной  миллионам  людей,  жизни,  о  тех  простых радостях,  которых  они,  замурованные  в  этом  склепе,  были  лишены.  Из-за  всего  этого  они  стали  более  нервными,  нетерпимыми и злыми.  Бывало  и  раньше  между  ними  вспыхивали  ссоры.  Они  матерились,  оскорбляя  и  проклиная  друг  друга, плевались,  норовя  попасть  в  лицо.  Потом  успокаивались,  просили  друг  у  друга  прощения  и  жизнь  начинала  возвращаться  в  свою  обычную  колею.  Они  понимали,  что  беспомощные  и  никому  не  нужные,   они  никогда  не  смогут  послать  всех  к  чёрту,  хлопнуть  дверью  и  уйти,  куда  глаза  глядят.  В  то  утро  всё  началось,  как  обычная  ссора.  Гуськов  и  Чиж  заспорили  о  достоинствах  флота  и  пехоты.  Никто даже  не  обратил  внимание  на то, с  чего это  у  них  началось.  Споры  на  подобные  темы  не  редко  возникали  и  раньше и всё  кончалось  более  или  менее   нормально,  но  теперь, выбитый  из  колеи  исчезновением  Любы Гуськов   не  мог  совладать  с  собой  и  всё  больше  и  больше  нападал  на  Чижа,  который   уступал  ему  в  агрессивности,  но  не  в  злобе.  Оскорблений,  угроз    и  плевков   оказалось недостаточно  для  того, чтобы  висевшие  по  соседству  мужчины  могли  излить  друг  на  друга  всю  желчь.  Гуськов и Чиж  стали  раскачиваться  и  стараться  ударить  друг  друга  головами,  а  потом  и  укусить.  Попытки  эти  увенчались  успехом  и  люди,  совсем  ещё  недавно  считавшие  себя  товарищами  по несчастью,  готовы  были  загрызть  друг  друга.  Они  не  обращали  внимания  на  крики  окружающих,  только  злобно  хрипели  и  лязгали  зубами.  По  лицам  их  текла  кровь  и  капала  на  пол.  В  конце  концов,  они  почти  одновременно  сорвались  со  своих  парашютов  и  упали.  Оказавшись  на  полу  и  разбив  при  этом  головы  они  стали  сползаться  чтобы  продолжить  борьбу. Когда  же,  наконец,  сползли,  долго  пытались  перегрызть  друг  другу  глотки.  Не  в  силах  остановить  драки  те,  кто  смог,  стали  писать  на  них,  чтобы  хоть  как-то  охладить  их  пыл.  В  конце  концов,  враги  выдохлись  и,  откинувшись  на спину,  хрипели,   матерясь  и  кусая   воротники  своих  халатов. Потом  они  и  этим  утомились,  и   устав,   уставились  глазами  в  потолок.

Слава  весь  день лежал с  закрытыми  глазами,  от  которых  к  ушам  пролегли  следы  его  слезинок.  Он  отказывался от  еды,  сколько  ни уговаривала  его  Мария  Ивановна  съесть  «хоть  ложечку», и  молчал.  Голубое   небо,  которое  только   что  сияло  над ним  огнями  любви  и  ласки,  померкло  и  затянулось   грязной  тучей,  ещё  более  тёмной  и  грязной,  чем  та,  что  стояла  над    скитом  до  того  как  в  нём  появилась  Люба. Люба  тоже  переживала  случившееся.  Она   понимала,  что  больше  никогда  между  ней  и  Славой  не  будет  тех   светлых человеческих  отношений,  которые  были  до  этого.  Призрак  общения  её   с  этой  грязью  навсегда  будет  стоять  между  ними.  Однако,  самым  неожиданным  и  неприятным  стало  для  неё  то,  что  она  почувствовала  тягу  к  этому  уроду,  её  влекло  к  его  грубому  и  властному  отношению  к  ней,  к  его  сильным  рукам   и   хищному  темпераменту.  Утром  она  почувствовала,  что  ждёт  его  и  когда  он  вынес  Славу  из  комнаты, даже  не  стала  кричала.  Близости  между  молодожёнами  не  стало.  Однажды  Слава  спросил  Лёху,  за  что  он  так  его  обижает,  на  что  тот  ответил: - А  что я тебя бесплатно  должен срать носить?   

В следующую  ночь  Люба  неожиданно для  себя   проснулась,  ей  показалось,  что  что-то  скрипит  или  кто-то  храпит.  Она  думала,  что  Слава,  но  его  рядом  не  было.  Она  посмотрела,  повернувшись на бок,   вниз  и  увидела,  что  Слава   лежит  на  полу,  а  горло  его  на  перекладине  табуретки.  Она  закричала,  скатилась  с  топчана, подползла  к  Славе и стала  тащить  его  зубами  за  ворот  рубашки.   Голова  его,  как  бильярдный  шар,    стукнулась  о  кафель.  Она  стала  целовать  его,  умоляла  простить  и  плакала.  Он  пришёл  в  себя,  понял,   что  она  спасла  его,  и  тоже  заплакал.  Утром  они  решили  расстаться.  Место  для  Любы  было  уже  готово.
В  ските  после  возвращения  Славы  у  многих  отлегло  от  сердца:  мужики  увидали  разбитые  мечты  их  молодого  друга,  укрепились  в  мыслях  о  призрачности  и  невозможности  земного счастья,  продажности  баб  и понемногу  успокоились.   

Аграфена  Грушина  забежала  к  Марии  Ивановне,  как  всегда,  на  минутку   и  проболтала  целый  час.  А  разговор  их  был  о   том,  что  в  деревне  есть  добрые  люди,  готовые  взять  себе  какого-нибудь  «самовара»  на  кормление и уход. Вроде  для  того,  чтобы  таким  путём  грехи  свои  перед  богом  замаливать.  Марию   Ивановну  это  сообщение  очень  взволновало. Последние  дни  она  не  находила себе  места  из-за  чувства  вины  перед  Славой,   проклинала  Лёху  и  очень  недовольна  была  этой  вертихвосткой  Любкой.   Она  не  могла  понять,  как  могла  она  променять  такого  парня,  как  Слава,  на  этого  поддонка  и  урода.    А   Аграфена  рисовала  перед  ней  райские  условия  для  её  «самовара»   в  деревне.  И    питание-то  не  сравнить,  и  уход,  да  и  девки  молодые,  незамужние  есть,  авось  и  пара  ему  найдётся.  Мария  Ивановна,  постоянно стремящееся  делать  людям  добро  и  испытывающая  чувство  вины  перед  Славой,  ухватилась  за  это  предложение  и  сказала  подруге,  что  такой  человек  у  неё  есть,   и  она  поможет  устроить  его  в  хорошую  семью.  Аграфена  же, тише  обычного, сказала:  - Только  сделать  это  надо   по-тихому,  не  официально. Сама  же  знаешь,  как  у  нас  всё.  Бумажками,  комиссиями  да  налогами  замучают.  Люди  сами  будут  не  рады  тому,  что  доброе  дело  делают.  От  этих  слов  у  Марии  Ивановны  аж   сердце  упало:  - Вот  тебе  и  сделала  доброе  дело,  -  подумала  она,  а  Аграфене  сказала: - Как  же  это,  что ж,  его  красть  придётся?  -  Зачем  же  красть? – удивилась Аграфена, -  просто  взять  и  перенести  в  другое  место,  где  ему  лучше.  С  его  же  согласия  всё  будет  делаться,  а  он  ведь  тут  не  арестованный.  Хочет -  живёт,  не  хочет  - ушёл.  Мария  Ивановна  почувствовала,  как  у  неё  в   голове  всё  перепуталось.  С  одной  стороны  начальство, ключ  и  материальное  обеспечение  контингента,  с  другой -  желание  человека,  лучшая  жизнь  для  него  и  сэкономленные  Домом  инвалидов  средства. Мария  Ивановна  не  сказала  Аграфене  ни  «да»,  ни  «нет»,  а  казала, что  подумает,  да и  с  человеком  переговорит.  Нельзя  же  без его  согласия. -  А  что  за  человек? -  на  всякий  случай  поинтересовалась  Грушина.  – Да  Слава, ты ж  его  знаешь, я  тебе  про  него  сколько  раз  говорила,  красивый  такой,  хороший.  И  Мария  Ивановна  рассказала  подруге  о  последних  событиях  и  постигшем  Славу  ударе  судьбы.   Обо  всём  этом  Грушина  в  тот  же  день  рассказала  старику  Морозову  и  его  внучке.  Рассказ  этот  пришёлся  как  нельзя  более  кстати.  Старик  Морозов  затевал создание  нового  толка  в  скопичестве.  Ему  хотелось  внести  в него  культ  бога живого,  лишённого  греховных  деталей.    Судя  по  рассказам  Грушиной,  Слава  прекрасно  подходил  на  это  место, а  его разочарование в  любимой   женщине  только  облегчало   достижение  намеченной  им  цели.
Дед и внучка  решили  отрядить  на  это  дело  Матвея  Шкилёва  и  его  приятеля,  ходившего  в   военной  форме. В  деревне  наступала  весна  и  сделать  дело  надо  было  до  весенней  распутицы,  поскольку  им   после  этого  предстояла  довольно  дальняя  дорога.

Сестра-хозяйка  Ляжкина   к  этому  времени переспала  со  всем  контингентом  общего  и  значительной  частью  психиатрического  отделений  Дома  инвалидов.  Достойного  кандидата  на место  любовника  (если  не  считать  Сергея  Кузнецова)  она себе  не  нашла,  но  Сергей  был  «самоваром»,  а  потому,  как  она  считала,  не  мог  справно  исполнять  столь  ответственный  пост.  Об  остальных  она  и  слышать  не  хотела:  мало того, что  от  них  толку  мало,  так они  ещё  постоянно  у  неё  спиртное  клянчут: - Александровна,  купи  четвертинку,  - Дорогая,  поднеси  стопаря. -  Любимая,  налей  стаканчик  и  пр. И  вот  однажды,  разочарованная  и  томящаяся,  она  положила  глаз  на  Митю.  – А  что,  говорила  она  себе,  он  здоровый,  бабами  не  испорченный, а,  следовательно,  не  заразный,  болтать не  будет,  поскольку  говорить  не  умеет,  да  и  на  водку  просить не  будет,  поскольку  не  пьёт.  К  тому  же,  он  послушный:  что  скажу,  то и будет  делать.  С  того  дня  стала  Ляжкина  оказывать  Мите  знаки  внимания:  то  улыбнётся  ему,  то  угостит  чем-нибудь,  а  то  пройдётся   перед  ним,  виляя  задом, да  ещё  нагнётся  до  земли  что-нибудь  поднимая.  Однако  Митя  эти  её   подвиги  не  оценил.  Он  лишь  выполнял  её  указания:  поднимал,  подносил,  переносил  всё,  что  она  ему  велела.   Поняв  его  психологию,  сестра-хозяйка  решила  действовать  прямо.  Однажды  летом  она  велела  ему  зайти  на  бельевой  склад,  предварительно  отослав  кастеляншу Клаву  по  делам  в город.  Ещё  утром  она  высчитала,  что  сегодня  она  не  может  забеременеть,  а  потому  была,  как  говориться,  во  всеоружии.  Скинув одежду,  она  накинула  на  голое  тело  белый  халат,  забыв  его  застегнуть,  и  когда  Митя  вошёл,   предстала  перед  ним  во  всём  своём  великолепии.  Ляжкина,  мягко  говоря,   не отличалась  особой  красотой,  однако, что  касается  прелестей  её  тела,  фигуры,  то вряд  ли  у  неё  нашлась  бы   достойная  конкурентка  в  районе и не только. Женщины,  подобные  Ляжкиной,  с  удовольствием   одевали бы паранджу  на  голое  тело, жаль  только,  что  моды  такой  не  существует.  В  своих  расчётах  она  не  ошиблась,  вид  её произвёл  сильное  впечатление  на  неразвитый  Митин  мозг  и  он  потянулся  руками  к  тому  месту,  которым  умел  только  писать.    Кому-то может  показаться  странным,  что  на мозг  кота  или  кобеля,    не  уступавший  по  своим  размерам  мозгу  Мити,  вид  обнажённого  женского   тела  впечатления  не  производит, а  вот  на  Митю  произвёл. Тут,  наверное,  сказалась  не  только  сила  эстетического  воздействия,  но  и   причастность  Мити  к  роду  человеческому.  Поэтому  когда  Ляжкина  изобразила  испуг  и  упала  на  кучу  грязного  белья, закрыв  лицо  руками,  Митя  знал  что  делать.   Когда  кастелянша  вернулась  из  города,  она  застала  Ляжкину  лежащей   на  куче  грязного  белья  в  одном  халате.  На  вопрос  «Что  случилось?»  она  не  отвечала,  а   только  спрашивала: - Он ушёл?    Кто  «он»  кастелянша  Клава  понять  не  могла. 
На  следующий  день  она,  да и не только,  заметили,  что  у  Ляжкиной  изменилась  походка,  и  она  стала  как-будто  тише.  Теперь  она  перед  тем  как  куда-то  идти  спрашивала: - А где  Митя,  его  там  нет?  Митя  же стал  ходить  за  ней  по  пятам.  Другими  женщинами  он  не  интересовался,  поскольку,  надо  полагать,  считал  источником  наслаждения  не  женский  пол,  а  конкретно  сестру-хозяйку  Ляжкину.  В  присутствии  людей  он  вёл  себя  вполне  прилично,  но  горе  было  бедной  женщине,  если  она  попадалась  ему  в  роще  или  в  каком-нибудь  другом  уединённом  месте.  Здесь,  обнажившись,  он  нападал  на  неё  со  всей  страстью  юного  зверя. Оттащить  его  от  неё  ни  у  кого,  конечно,  сил  не  было,  да  и, честно  говоря,  желания,  даже  наоборот.  Однажды,  перед  тем  как  пройти  рощу,   она  попросила  Лёху  посмотреть,  нет  ли  в  ней   Мити.  Он  пообещал,  а  вместо  этого,  нашёл  Митю,  привёл в  рощу,  спрятал за  деревьями,  показав  известным  жестом  ему  его  ближайшую  перспективу,  а   сам  сообщил  Ляжкиной,  что  путь  свободен.  После  этого  она  к  нему  с  подобными  просьбами  не  обращалась. Начальство  сочувствовало  ей,  но  помочь  не  могло,  поскольку  считала,  что  она  сама  виновата, так как   развратила  Митю,  к  тому  же  он  был  незаменим,  как  работник,  и  в  отношении   других  жителей  монастыря и деревни  агрессии  не  проявлял.   Поэтому,  наверное,  когда   следователь  Орехов,  перед  отъездом  в  город,  услышал  дикий  вопль,  никто,  услышав его,  не  насторожился  и  не  побежал  никого  спасать.  Орехову  это  показалось  несколько  странным,  но  значения  он  этому  не придал, да  и  не  до  того  ему  тогда  было.
Теперь,  вернувшись в город  и  не  застав жену  дома,  он  испытал  какое-то неприятное  чувство,  похожее  на  обиду.  Она  ведь  знала,  что  я  приеду, - думал  он,  -  и  вместо  того  чтобы  встретить  меня  с  обедом,  ушла,  не  оставив  даже  записки. Куда?  Орехов  ждал  жену  весь  вечер, потом  ночь,  но  она  не  появлялась.  Не  пришла  она  домой  и  утром.  Соседи её не видели  и,  вообще, она  к  ним  не  заходила  и  ничего  передать  ему  не  просила.  Он  забежал  к  своим  родителям,  обегал   родственников,   знакомых,  но  всё  было  напрасно. Спасительная  мысль  каждого  мужа,  у которого  пропала  жена, «А  не  уехала  ли  она  к  маме?»  его  не  посетила,  поскольку  он  знал,  что  мама  её,  как  и  отец,  погибли  во  время  войны  и  ехать  ей  было  некуда.  Да и уехать  из их  города  не  так-то  легко.  Железной  дороги  нет,  а  взять  билет  на  самолёт  не  так-то  просто.  Он  и  это,   на  всякий  случай  проверил,  но  оказалось,  что  билет  на  самолёт  она  не  брала. В  милиции,  куда  он  на  всякий  случай  зашёл,    тоже   ничего  о  ней не  знали.  Во  всяком  случае  трупов  за  это  время  в  городе и его  окрестностях,  если  не  считать  трупов  пары  пьяниц,  обнаружено не  было,  в  больницу  гражданка  с  такой  фамилией  тоже  не  поступала.  Он  сидел  на  своём  стуле,  опустив  голову,  и  жалел  себя. По  лбу  его,  казалось,  как  сонная  осенняя  муха,  проползла  скучная,  безрадостная  мысль  о  бренности  и  нелепости  человеческого  существования.  Он стал рисовать свою  жизнь в  самых  мрачных  тонах,  не  считаясь  с  её реалиями.  И  получилось  такая  картина:   жил  на   свете  добрый,  хороший  человек,  которого  все  любили.  Но  вот  он  женился на  стерве,   которая  ему  постоянно  изменяла,  а  сама  закатывала  скандалы,  обвиняя  его  в  супружеской  неверности.  Однажды,  во   время  очередного  скандала,  когда  эта  стерва  дошла  до  рукоприкладства,  он  не  выдержал  и  убил   её.   И  вот  из  доброго,  хорошего  человека  он  превратился  в  арестанта  и  пропала  вся  его  жизнь  вместе   со  всеми  мечтами  и  планами.  – Неужели,  спрашивал  он  себя, - она  так  жестока,  что  может  сейчас  с  кем-то  наслаждаться  жизнью  и  смеяться  над  ним?  Если  так,  то  он  застрелит  её,  пусть  даже  его  самого за  это  расстреляют.   Однако  фантазии  фантазиями, - думал   Орехов, - но  надо же и рассуждать  здраво.  Сначала  он  попытался  подойти  к  случившемуся,  как  криминалист. - Дома  всё  в  порядке, - думал  он, - значит  нападения на квартиру  не  было  и  жена  покинула  квартиру самостоятельно,  в нормальном  состоянии,  во  всяком  случае,  не  убежала  из  неё,   бросив  всё. Об  этом  говорит  и  обстановка  в  квартире  и то,  что дверь в  ней  была  заперта. Это  раз.  Каких-либо  записок,  фотографий,  писем,  которые  говорили  бы  о  связи  жены  с  каким-нибудь  мужиком,  он  не  обнаружил,  хотя  и  перерыл  всё. Это  два.  Правда,  он  обратил  внимание  на  то,  что  жена,  уходя  из  дома,  одела  своё  любимое   платье,  которое  берегла.  Случайно  ли  это?  Зачем,  куда  она  пошла, к  кому?  На   улице  он  два  раза  чуть  не  кинулся  навстречу  женщинам,  показавшимся  ему  его  женой.  Разочарования,  которые  постигли  его  вслед  за  секундами  счастья,  чуть  не  свели  его  с  ума.  Прокурор  Евсюнин,   к  которому  он  зашёл  для  того  чтобы  отчитаться  о  результатах  командировки,  как  мог,  его  успокаивал,  но  что  такое  слова  по  сравнению  с  фактом? – пустяк,  мелочь и  поэтому  прокурор,  понимая  это,  решил  разговором  о  деле  отвлечь  своего  подчинённого  от  страшных  мыслей.   Выслушав  рассказ  следователя,  он  спросил? –  А  задний  проход  у  трупа  ты  смотрел?  - Ну,  как, - замялся  Орехов,  специально  не  разглядывал,   необходимости  не  было,  поскольку  телесные  повреждения  в  этой  области  отсутствовали.  А  что?   - Да то,- ответил  прокурор, -  что,  может  быть,  у  них  конфликт  возник на фоне  педерастии.  Ну,  представь,  сидят  здоровые  молодые  мужики не первый  год  в  одиночке,  да  ещё  вдвоём  в  одной  корзине.  Ни  погулять,  ни  онанизмом  заняться  не  могут,  а  организм  требует  разрядки.   Что  им  делать?  - Орехов пожал  плечами,  и  в  голове  его  мелькнула  мыль  о  похотливости жены. - Она  могла  с  кем  угодно  на  улице  познакомиться  и  пойти  куда  угодно,  если  бы  приспичило,  решил  он,  вспоминая,  как  она  уводила  не  раз  его  с  работы  домой. Прокурор  же,  совсем  не кстати,  заговорил  о  гомосексуалистах.  Он  рассказал,  что  когда,  после  победы,  он   служил  в   Прокуратуре  оккупационных  войск  в  Германии,  то   узнал о  том,  что  в  этой  развитой  и просвещённой  стране  ещё  в  60-тые  годы  прошлого  века  страшно  развилась  пидерастия,  как  среди  штатских,  так   и  среди  военных.  Дошло  до  того,  что  гомосексуалисты  стали  устраивать  специальные  балы  своих  единомышленников,  а  вернее,  «единожопников»,  как  он  выразился.  Не  зря  же  Гитлер  разделался  с  вождём  штурмовиков  Ремом  и  его  парнями  не  только,  как  с  конкурентами,  но  и  как  с  гомосексуалистами.   - Балы  в  Европе  обычное  дело, - заметил  Орехов, - увлёкшись  разговором, - я  где-то  читал,  что в Англии  раньше  устраивались  балы  воров.  Правда,  их  устраивала  полиция  с  благотворительной  целью  для   того  чтобы  помочь  ворам  вернуться  к  нормальной  жизни.  Англичанам,  наверное,  было  стыдно  от  того,  что  французы  называют  их  ворами.  – Неужели? – удивился  прокурор,  с  чего  бы  это,  англичане  вроде  бы  народ  культурный.  -  Культурный-то  культурный,  да  на  большие  праздники  в  Париж  в  том  же  девятнадцатом  веке  съезжались  все  английские  воры,  чтобы  шарить  по  карманам  зевак,  толпящихся  на  какой-нибудь  площади, -  заметил  Орехов.  Наступила  пауза,  во  время которой  Орехов  спросил  себя: - О  чём  это  я, разве  мне  до  этого.  Мне  бежать  надо,  но  куда?  Как это  страшно  потерять  любимого  человека  и  не  знать,  что  с  этим  делать.  Более  того,  чувствовать,   что  за  спиной  над  тобой  посмеиваются:  жена к  любовнику  сбежала,  а  он  рогами  землю роет. Прокурор  не  дал  ему  возможности  углубиться  в  мрачные  мысли  и  спросил:  - Так  что  думаешь  делать  с  этим  Кузнецовым? – Думаю  направлять  в  суд  по  136-ой – ответил  Орехов.  Прокурор  задумался,  погнул  руками  линейку,  почесал  ею  за  ухом  и  сказал:  - На   последнем  совещании  представитель  Гулага  очень  возмущался  тем,  что  мы   шлём  ему  стариков,   детей  да  инвалидов,  а  ему  надо  план  выполнять,  а  не  богадельню  устраивать,  и секретарь  райкома  его  в  этом поддержал. – сказал прокурор,  ударив  линейкой  по  столу,  – представляю,  как  он  будет  материться,  когда  мы  ему  этот  «самовар»  преподнесём! -  Что  же  делать? -  спросил  Орехов.  – Делать? – повторил  прокурор. – Надо  бы  ему  психэкспертизу  провести,  да   и  оставить на  принудительном  лечении  в  том  же  учреждении.  Куда  он  денется.   На том  и  порешили.  Надо  было  только  Кузнецова   доставить  в  областной  центр  на  экспертизу,  а  это  было не просто.

Поезд,  с  которого  спрыгнул  Дмитрий  Морозов,  несмотря  на  выстрелы  конвоиров,  не  остановился.  Он  продолжал  гнать  полным ходом  до  разъезда,  находящегося  в  двух - трёх  километрах  от  моста.  Дмитрий,  зайдя  в  охотничий  домик,  осмотрелся,  и,  увидев  печку  с  рядом  лежащими  сухим  дровами,  успокоился: всё  складывалось для  него  как  нельзя  лучше.
В  охотничьем  домике,  куда  зашёл  Дмитрий,  было  всё,  что  нужно,  чтобы  сохранить  жизнь:  печка, спички, дрова,  одежда, еда. Он  развёл  в  печке  огонь  и,    не  дожидаясь  пока  она  согреет  помещение,  разделся,  растёр  тело  вафельным  полотенцем,  висевшим у  рукомойника,  и оделся  в  новую  одежду.  Потом  порылся  в  шкафчике,  отыскал  в  нём  какую-то  крупу и,  набрав  на  улице  ведро  снега,   поставил  его  на  печку.  После  еды  его  потянуло в сон, и он  уснул  розовым  сном  младенца.  Сквозь  сон  он  слышал  какие-то  шаги,  ему  казалось,  что  кто-то  отряхивает  валенки  от  снега,  ходит  по комнате,  но  проснуться   не  мог:  усталость  и  нервное  напряжение  последних  дней  сковали  его,  как  тяжёлые  доспехи,  вес  которых  он  был  не  в  силах  преодолеть.  Когда   же,  наконец,  он  смог  пошевелиться  и  застонать,  то  услышал  сказанные,  как  он  понял  в  его  адрес,  слова: -  Не  годится   спать  при  горящей  печке.  Эдак  можно совсем сгореть.  Дмитрий  каким-то  чужим,  хриплым  голосом  стал  извиняться  и  объяснять,  что очень  устал  и  не  смог  справиться со  сном.  Рядом  с собой  он  увидел  собаку,  по  всей  вероятности,  помесь  лайки с овчаркой. Тщательно  обнюхав   его,  она  села  у ног  хозяина, сидевшего на табурете,  и  бросала на  Дмитрия  время  от  времени недобрые  взгляды.  Он  же  старался не  смотреть  ей  в  глаза,  а  на  человека  старался смотреть  так, как  учили  немцы, чтобы  не  было  видно,  что  он нарочно на него  смотрит. Это был вполне  равнодушный взгляд.  В разговоре  с незнакомцем   он  не  стал  отрицать  того,  что  это  он  бежал  с  поезда,  и того,  что это  его  теперь  разыскивают  вохровцы.  Отрицать  это  было  без  толку – человек  всё равно  бы  ему  не  поверил.  Единственное,  что  он  скрыл, так  это  то, за  что  получил срок.  Сказал,  что  за  анекдот.  Оба  они  понимали,  что  встреча  их  может  быть   чревата  самыми  мрачными  и,  увы,  не  человеколюбивыми  последствиями.  Дмитрий  не  мог  быть  уверен  в том,  что  незнакомец  не  выдаст  его,  а  тот,  в  свою  очередь,  опасался  за  свою  жизнь, т.к. понимал,  что  «беглому  каторжнику»  свидетели  не  нужны.  Поэтому  он  не  выпускал  из  рук  охотничье  ружьё.  Единственным,  что  удерживало  Дмитрия  от  кровавой  развязки,  была его  надежда  добыть  через  этого  человека  хоть  какие-нибудь  документы.  Он  об  этом ему  так и  сказал.   Незнакомец  долго  молчал,  поправляя правой  рукой  дрова  в  печке, а  левой  держа  ружьё,  а  потом,  махнув  рукой,  сказал:  - Дам  я  тебе  документы.  Тут,  в  тайге,    о  прошлом  годе  я  одного  мужика  нашёл.  Замёрз  он что  ли,  или  так  помер, - не  знаю. Только  когда  я   его  нашёл,  то  обыскал  его  одёжу  и  документы  взял,  на  всякий  случай. Думал  в  милицию  отдать,  да не  отдал,  видно  милиции не  до  них  было,  ну, а мне тем  более.  Так  они  у меня  и  остались.  Ты  посиди  здесь  маненько,  а  я  их  тебе  с  Рексом  пришлю,  они  у  меня  хранятся  в  другом  месте.  С  этими  словами  незнакомец  встал  и,  не  сводя  глаз  с    Дмитрия,  направился  к  выходу. У  двери  он  остановился  и  хитро  прищурившись  сказал: - Расскажи  анекдот-то  этот,  за  который  тебя…   Дмитрий  вздохнул  и  ответил: -  Я  тот   анекдот,  как  только  мне  срок  объявили,  сразу  забыл,  должно  быть  с  непривычки. Ну,  если  вспомню,  расскажу.  Когда  человек ушёл,  Дмитрий  никакого анекдота  вспоминать,  конечно,  не  стал, а  вспомнил  почему-то,  как  немцы учили  его  пользоваться  партизанскими  методами,  а  именно:  делать засады  и  при  этом   не разговаривать,  а  объясняться  знаками, врага  подпускать   поближе и только  тогда стрелять  в  него, стараться  сначала уничтожать командира отряда и политрука,  которые обычно  шли  впереди  отряда и т.д.   Это  он не  забыл. Ему,  вообще, всё  плохое  с  детства  прилипало  на  всю  жизнь.
 Утром  он услышал,  как кто-то  скребётся  когтями  в  дверь и   скулит, и понял,  что  это  Рекс.  За  ошейником  у  него  он  увидел  паспорт.  В  благодарность  он  потрепал  Рекса  за  ухом  и отпустил.   Лицо  на  фотографии  в  паспорте  чем-то  походило  на  его  собственное,  разве  что  было  покруглее,  да  волос  на  голове  побольше,  одним  словом,  не  зэковским  было  это  лицо.    Но  что  бы  там  ни  было,  выбирать  ему  было  не  из  чего.  Теперь  он  должен  был  навсегда  запомнить  и  зарубить  на  своём  носу,  что  он  теперь  не  Дмитрий  Дмитриевич   Морозов,  а    Фёдор  Елизарьевич  Голубев  1921 года  рождения,  уроженец  города  Лысьвы  Пермской  области.  Переночевав  в   охотничьей   избушке,  Фёдор  Голубев  отправился  в  путь. 

В  деревне  дед  его,  Морозов,  готовил  «обретение  бога  живаго»  Шкилёв,  во  исполнение   воли  «святого  старца»  вместе  со  своим  приятелем,  носившим  военную  форму,  приобретённую  им  на  барахолке,  зашли  как-то  утром в  кит,  который  днём  не  запирался и не  охранялся,  поздоровались с  контингентом»  и   объявили,  что  явились  за  Славой,  чтобы  перевести  его,  согласно  распоряжению  Облздрава,  в  госпиталь  для  прохождения  специального  лечения.   Какого  и  от  чего,  правда,  не  сказали.  Сообщением  этим  они  очень  расстроили  Гуськова  и  Ивана  Ивановича,  которые  особенно  любили  Славу.  Они  даже  потребовали  предъявить  им  документ,  на  основании  которого  они  забирают  Славу.  Шкилёв  на   это  ответил,  что  документ  передан  директору  Дома  Инвалидов  товарищу    Гырымову,   с  которым  перевод  их  товарища  согласован.  После  этого,  обратившись  к  своему    напарнику  в  военной  форме,  сказал: - Преступайте,  товарищ  лейтенант.  Тот  подошёл  к   Славе, освободил  его  от  «парашюта»  и  понёс  к  выходу.  Увидев  это,  Гуськов  и  Иван  Иванович  стали  так  кричать,  что  «товарищ  лейтенант»  остолбенел  и  не  мог  двигаться.   По  требованию  палаты  ему  пришлось  поднести  Славу  к  Ивану  Ивановичу,  Гуськову,  а  так же к Чижу и  «Партзану»  для  того,  чтобы  они  могли    поцеловать  его.  Все,  кроме  Чижа  и  Федьки,   плакали.  Сам  же  Слава  был  в  каком-то  отвлечённом  состоянии  и  создавалось  впечатление,  что  он  не  понимает  что  с  ним  происходит.   Когда  Мария  Ивановна  не  обнаружила Славы,  она  всё  поняла,  однако  сообщить  о  своей  догадке  начальству  не  решилась,  надеясь  в  душе,  что  Славе  у добрых  людей  будет  лучше.  Директор  приказал  немедленно  приступить  к  поиску  пропавшего,  а  Митя,  узнав  об  исчезновении Славы,  заревел,  вырвал  из  стены  скита  два  кирпича  и забросил  их  за  монастырскую  стену.

      В  кабинете  Сталина,  похожем, как  две  капли  воды,  на  известную картину,   было  тихо.  Его  хозяин  склонился  над  столом,  почёсывая  иногда  правую  ногу  повыше  щиколотки.  На  столе перед  ним  лежали  стихи.  Они  предназначались  для  исполнения  контаты-ноктюрна  «Кремль  ночью»   «Не  слыхать  дневного  гула  стынет  камень плит. Тишина,  Москва  уснула,  только  Кремль  не  спи»  -  Не  плохо, - подумал Сталин,  хотя и несправедливо. «Весь  огнями  изукрашен  стрельчатый  фасад,  девятнадцать  башен  грозных  время  сторожат»  Сталин  задумался: - Какими  это  огнями  фасад  изукрашен?   Освещён – другое  дело,  да  и  не  башни  время  сторожат,  наоборот  «девятнадцать  башен  грозных  время  бережёт» - так  будет  правильней. Вот  взял  бы  Гитлер  Москву  и  не  стало  бы этих  твоих  «грозных»  башен.   Следующая  фраза  Сталина  просто  возмутила. «Вдоль по  каменной  зубчатке ветер  босиком…»  он  даже  откинулся в своём  кресле.  – Что за  чушь,  почему это ветер  босиком, а  он  что  обычно в сапогах  бегает? А дальше « … то  опустится  к  царь-пушке  ядра  перечтёт…»  - Сколько  этих  ядер:  три,  четыре – чего  их  пересчитывать?  Ты  лучше  яйца  свои  «перечти»,  или  извилины,  может  каких  не  хватает – разозлился  Сталин.  Вот  бог  поэтов  послал!  И вот  такие меня  славят,  стараются,  хотят,  чтобы  я  их   заметил,  чтобы  им  премию  дали,  лизоблюды …  А  что  пишут? - Или  вот  такие  глупости,  или  слова  надоевшие, как «о Сталине  мудром,  родном и любимом…»   Слова,  конечно,  хорошие – слов  нет,  но  вдохновляют ли  они    народ,  доходят  ли  до  души  его?  Что-то  мне  не верится,  а  ведь  русским  нужен  вождь,  они  веками  при  царях  да  при  боге  жили.  Это не англичане  какие-нибудь.  На  этой  мысли  Сталина  прервал  секретарь,  сообщив,  что  пришёл  Лаврентий  Павлович  Берия.  - Пусть заходит, -  ответил Сталин. Когда  Берия  сел  около  его  стола,  Сталин  спросил  его: - Слушай,  Лаврентий,  ты  когда-нибудь  стихи  писал,  ну,  в  молодости  хотя  бы?  -  Стихи? – переспросил  Берия, - Кому?  Зачем? – А я  писал, - сказал Сталин,  - правда,  со  своими  стихами  не  лез  к  царю  и  не  думал получить за  них премию.  Мы  скромнее  были,  а  теперь  напишет  какой-нибудь  недоучка  о  том,  что  ветер  по  Москве  гуляет  босиком  и  думает,  что  он  поэт.  Да  ещё  за  то, что  славит  товарища  Сталина,  хочет  премию  получить.  Берия поинтересовался, что  за поэт.  Сталин назвал  фамилию.  Берия  блеснул  своим пенсне и сказал,  что  у  него  на  него  ничего  нет. А  Сталин  продолжал читать  просебя  текст про  себя  и  вдруг,  ударив  по столу  ладонью,   воскликнул: - Вах!  Ты  послушай, что  пишет: - «Кто-то, где-то  очень  глухо  прозвенел  в  ночи,  то  история-старуха  достаёт  ключи»  и   смотри, что  дальше: «Сразу  связку  вынимает  кованцев  больших и со  связкою  шагает  мимо  часовых» - Как  тебе  это  нравится, а? Берия  ухмыльнулся  про себя.  Он  что-то  слышал  про  эту  поэму,  но  не  это  заставило  его  ухмыльнутся,  а  то,  о  чём  он  не  решился   говорить  своему  шефу,  а  именно,  о  похабной  пародии  на  неё.  Были  там  такие  слова: «Раз  история-старуха к Сталину  зашла  и  невинностью  своею  хвастать  начала…/ Сталин  слушал,  ухмылялся,  трубку  закурил,  а  потом  старуху-врунью  за  ноги  схватил./  Заупрямилась  старуха: - Хоть  умри не  дам,  ну а Сталин  тащит  дуру  прямо  на  диван./ - Прокляну! – кричит  шалава,  - коль  войдёшь  в  меня/ И  убийцей, и тираном  назовут  тебя./ Будешь  партией  своею  ты  разоблачён/  И  словами  «Культ» и «Личность»  к   стенке  пригвождён./  Но  не верит  вождь  угрозам,  он  упрям  и  зол  и  на  голову  старухи  натянул  подол»  Заканчивалась  пародия  так: «И  хоть  обыщите  вы  весь  белый  свет/ Паскудней  историй  с  Истории  нет» Ну,  мог  ли  он  показать  это Сталину,  не  рискуя  своей  жизнью?  - Конечно,  нет  и  он  промолчал.  Сталин  же,  увлечённый  нелепым  текстом,  обращаясь  к  нему,  сказал: - А вот дальше,  слушай: «Прямо к Сталину в рабочий  кабинет  идёт. Подошла к нему,  взглянула,  строго вслух  произнесла: - Отдохнул бы хоть  немного,  встал  из-за  стола»  Прочитав  эти  слова,  Сталин  встал  из-за  стола  и  стал  ходить  туда-сюда  по  кабинету.  -  Эта  старая б…  меня  что,  на  пенсию  хочет  отправить?  Взглянув  искоса  на  Берию,  он  заметил  хищный  огонёк  в  его  глазах,  и  злые,  невесёлые мысли,  которые  и  раньше  не  давали  ему  покоя,  вновь  вернулись  к  нему. – Все  они (он  имел  в  виду  своё  ближайшее  окружение)  случись  что-нибудь,  предадут  меня. И Вячеслав, и  Клим, и  Лазарь, и  Гога,  и Никита,  и  этот  вот  Лаврентий  откажутся  от  него,  как  Пётр от Христа,   а  вот  какой-нибудь  Иван  из  Курска  его  не   предаст,  умрёт  за  него,  а  заодно  и  за  родину  и  выходит,  что  если  воспитать  в нём  любовь  к  нему, Сталину,  то  тем  самым  воспитается в  нём  патриотизм   и  он  Родину  не предаст. Эх,  был бы  Пушкин  жив,  он  бы  написал  о  нём,  не  то,  что  эти,  и,  обратившись  к  Берии,  казал: - Как  думаешь,  Лаврентий, Пушкин  написал  бы  поэму  о вожде  советского  народа?   - Если бы  не написал,  то  мы  бы  ему  подсказали  это  сделать.  Его можно  было  бы  в  какой-нибудь  санаторий  поместить.  Там  бы  он  стихи  писал  и  рядом с  ним  никаких  иностранцев,  вроде  Дантеса,  не было бы.  Для  Дантесов  у  нас  специальные  учреждения  есть.        -  Ты,  Лаврентий,  конечно, прав,  для  Дантесов  у  нас  учреждения  всегда  найдутся,  потому  что  их  много,  а  вот для  Пушиных  и  санатории  строим,  и  дачи  им  даём, и премии,  а написать  о  товарище  Сталине  поэму,  как  Пушкин  о  Петре  «Полтаву»  написал – не  могут.   Его бы,  конечно,  подправить  кое в чём  не  мешало. Ну,  вот,  возьми  ты  его  «Памятник» - «Я памятник  воздвиг  СЕБЕ  нерукотворный»  Ну, скажи,  Лаврентий, кто  сам  себе  памятники  ставит?  Памятники  ставят  потомки.  У  нас  бы  он  написал:  «Я  памятник  ТЕБЕ  воздвиг  нерукотворный»,  это  было  бы  естественно  и  с  политической  точки  зрения  своевременно.  А  наши  лизоблюды  и  такого  сочинить  не  могут.  Ну,  что  с  ними  делать?    Наказать - руки  отобьёшь,  вообще  писать  перестанут,  а  награждать  - не  за  что.  Тут  к  нему  явились Маленков,  Хрущёв  и  Щербаков,  которых  он  разрешил  впустить  в  кабинет.   В  ходе  разговоров,  не  имеющих  отношения  к  вопросам  государственного  управления  Сталин,  раскуривая  трубку,   обратился   к  Хрущёву: - Скажи,  Никита,  почему  в  стране  голод,  а  товарищ  Маленков  пополнел?  Хрущёв  замялся,  но  тут  же  нашёлся и сказал: - Он  не  пополнел,  Иосиф  Виссарионович, это он с голода  опух.  Все,  кроме  Маленкова  и  Сталина  засмеялись.  Правда,  Маленков  изобразил  на  своём  одутловатом  лице  кривую  улыбку.   Сталин  же,  обратившись  на  этот  раз  к Кагановичу,  сказал: - Лазарь,  я  слышал  тебе  из  Палестины  мацу  прислали,  а  ты  никого  не  угостил.  Каганович   стал  оправдываться,  говоря,  что  мацу  его  сестра  в  московской  синагоге  купила.  В это  время  вошёл  секретарь  с  подносом,  на   котором  стояли  стаканы  с  чаем  в  подстаканниках.  В  так  его  шагов  тихо  позвякивали  ложки.  Поставив  стаканы  на  длинный  стол,  секретарь  удалился.  Сталин  кивнул  в  сторону  двери  кабинета, в которую  вышел  секретарь,  и,  обращаясь  больше  всего  к  Кагановичу,  тихо   и  как-то  хитро,  сказал: - Обиделся.  У  него  недавно  брата  арестовали.  Что же  обижаться?  У  меня  тоже  кое-каких  родственников  арестовали.  Что  же  мне  теперь  тоже  обижаться?  И  на  кого?  На партию,  на  государство?  Все    его  в  этом  поддержали,  а   Хрущёв  сказал: - Сейчас  время  такое,  что  строгость  нужна.  На  Украине  народ  за  войну  разболтался,  отвык  работать  в  колхозной  упряжке.  Колхозы  и  совхозы  из-за  этого  план  не  выполняют.  Надо  меры  принимать.  -  Какие? – поинтересовался  Сталин.  – Простые, - ответил  Хрущёв,  те,  что  мы  в  29-ом  к  кулакам  применяли. Выселять  надо  саботажников и лодырей  куда  подальше,  чтобы  другим  неповадно  было  от  работы  отлынивать.  – Ну,  что ж,  мысль  правильная,  готовь  Указ  Никита.  Если на  Украине   эта  мера  себя  оправдает,  то  применим  её  и  в  других  местах.  Да,  за  время   войны  некоторые  наши  граждане,  оказавшиеся  на  территории, оккупированной  врагом, подверглись  тлетворному  влиянию враждебной  нам буржуазно-фашистской пропаганды,  они  забыли  нормы морали,  которыми должен руководствуется  в  своей  жизни  советский  человек.  Говоря  это,  Сталин  прохаживался  около  стола,  за которым  сидели  члены политбюро,  держа  в  руке  трубку,  и  движением   её  акцентировал внимание  слушателей  на  отдельных  словах.      Закончив  излагать,  он  обратился  к  собравшимся с обычным  в  такой  ситуации  вопросом: -  Какие  будут  предложения,  товарищи?  Среди  высказанных  Сталин  обратил  внимание  на  предложение  Щербакова, касающееся  мер  по  отношению  к  инвалидам,  среди  которых  не  мало  одиноких  и  нуждающихся  в  уходе. Главный  коммунист  Москвы,  кроме  того,  стал    жаловаться  на  то,  что  среди  инвалидов  есть  не  мало  таких,  которые  работать  не  хотят,  несмотря  на  то,  что  городская   партийная  организация  приняла  ряд  важных  и  неотложных  мер  для вовлечения  инвалидов  в  учёбу  и  трудовой  процесс.  Инвалиды,  пользуясь  предоставленными  им льготами, - отметил  Щербаков, - занимаются спекуляцией,  торговлей  краденого,  продажей  самогона,    они  постоянно пьянствуют  и  своим  видом  и  поведением  уродуют  лицо  столицы  нашей  родины.   В  конце   Щербаков  предложил  создать подальше от  Москвы  большой   центр,  в  котором  сосредоточить  подобных  лиц,  лишив  их  возможности  вернуться   назад.  Он  ещё  добавил,  что  для  этой  цели уже  используется  один  заброшенный  монастырь  на  Севере  и  опыт  такого  сосредоточения  инвалидов,  по  его  мнению,  себя  оправдал. – Ты  что же,  концентрационный  лагерь  предлагаешь создать  для  инвалидов?  - спросил,  прищурившись, Сталин. - Никак нет, Иосиф  Виссарионович, я предлагаю  создать  для  них  Дом  отдыха.  – И  для  тех,  кто при  немцах  работал?  Щербаков  побледнел. - Не  волнуйтесь,  товарищ  Щербаков, нет  таких  вопросов,  на которые  большевики  не  нашли  бы  ответ. Вот  я  слышал,  что  у  наших  юристов  есть  такой  вопрос:  засчитывать  или  не  засчитывать  в  трудовой  стаж  учителям  время  работы  на  оккупированной  территории?  Одни  считают,  что  надо,  потому  что  они  в  школах и  гимназиях,  которые  существовали при немцах  для  наших  детей,  учили  их  и  тем  самым  давали  образование будущим советским  людям.  Они  говорят,  что  все  эти  учителя  верили в нашу  победу.  Другие  считают,  что  учителя  эти  предатели,  что  они  учили  детей  для  работы  на  немцев,  воспитывали в них фашистские  взгляды,  а  о  победе  советских  войск над  фашизмом и не  думали.  Собравшиеся  заворчали,  запыхтели,  завозмущались,  а  Каганович  сказал: - Что это  за  юристы,  откуда  у  них  такие  взгляды?  Остальные  его  поддержали.  Поддержал  его и Сталин.  Заключил же  вождь  дискуссию так: - Инвалиды  войны не  могут  оставаться без  помощи  государства.  Мы  обязаны позаботиться  о  них  и  я  думаю, что  предложение  товарища  Щербакова  безусловно  правильное  и  своевременное,  а  что  касается  тех,  кто  запятнал  себя  сотрудничеством  с  фашистами, то  для  них  мы  дома отдыха  создавать  не будем,  несмотря на мнение  товарища  Щербакова.  Щербаков  открыл  рот, но  ничего  не  сказал.  Все  заулыбались,  а  Берия  похлопал  его  по  плечу  и  сказал: «Не  переживай, Саша,  у  нас  к  тебе  вопросов  пока  нет»  Через  неделю  Щербаков умер. Вопрос  же  об   открытии  «дома  отдыха – концлагеря»  для  инвалидов  остался  открытым.  Надо  было,  прежде  всего,  найти   для  него  место. 
           Просмотрев  этот  сон,  «Слепой»  снова  оказался   в  темноте.  Он  не  раз  видел  подобные  сны,  однако,  сколько не  старался,  не  мог  объяснить  себе,  почему  их  видел.
        Поезда  на  этом  повороте  снижали  скорость,  и  Дмитрий  рассчитывал  именно  здесь  забраться  в  товарный  вагон.  Сесть  надо  было  ночью,  стараясь,  чтобы  не заметили    сторожа.  Во  втором  часу  вдали  засветились  рельсы, и  стало  слышно  пыхтение  паровоза.  Дмитрий  лёг  около  рельсов.  Вскоре  они  стали  вздрагивать  и  грохот  железа  обрушился  на  его  голову.  Он  приподнялся  и  увидел  проплывающие  мимо  себя  закрытые   товарные  вагоны,  потом  пошли  платформы  с  лесом.  На  концах платформ  были  лесенки.  Надо  было  схватиться  за  одну  из  них, а  потом  повиснуть,  поджаться на руках,  запрокинуть  ноги  и  заползти по  лестнице  на  платформу.  Надо  было  решаться. Дмирий  прыгнул.  Лестница  больно  ударила  его  в  грудь,  перебив  дыхание,  но  он  не  выпустил  ступеньку из  рук,  хотя  ноги  его  ещё  тащились  по  гравию.  Он,  как  мог,  поджал  их  и  зацепившись  левой  рукой  за  вторую  ступеньку,  подтянулся,  оторвавшись  от  земли.  Взобравшись на площадку  долго  лежал,  слыша  стук  собственного  сердца.  Вдруг  услышал,  как  кто-то,  над  его  головой,  сказал: - Вставай,  оглох,  что  ли?  Дмитрий  поднял  голову  и  посмотрел  вверх.  Рядом  стоял  пожилой  вохровец,  державший  в  руках   карабин.  Он   медленно  встал,  отряхнул  одежду  и  тут  почувствовал  боль в  правой  ноге. Нога  была  до  крови  разодрана  о  гравий.  Вохровец  тоже  заметил  кровь  на   ноге   и  пожалел  Дмитрия. – Эх, парень, - сказал  он, - угораздило  тебя,  хорошо  ещё,  что  тебе  поезд  башку  не  отрезал,  – и полез  в  карман.  Оттуда   он  достал  платок  и протянул  его  Дмитрию.  Тот  взял его  и  стал  пытаться  перевязать  им  раны.   Делал он  это  крайне  неловко. Заметив  это,  вохровец   положил  карабин  на пол  и  стал  сам  делать  ему перевязку.  Дмитрий,  не  думая,  подчиняясь  одному  звериному  чувству,  сильно  ударил  склонившегося к его  ноге  старика,  который  от  удара отлетел  к  краю  площадки.  Дмитрий  сильно  ударил  его  кулаком  в лицо и тот  полетел  вниз  по  насыпи,  успев  оставить  в  памяти  Дмитрия  свой  испуганный  и  удивлённый  взгляд  широко  открытых  глаз.  Вслед  за  стариком  Дмитрий  выкинул  его  карабин.  Не  желая  оставаться  на  ветру,  бушевавшем на платформе,  он  решил  пробраться в  вагон.  Забравшись  на его  крышу,  он  нашёл  люк,  пролез  в него, зацепившись  за  край  руками,  повис  на  руках,   а  затем   прыгнул  в низ,  упав  на  мешки  с  чем-то  мягким. Мука,  наверное,  подумал  он.  Продырявив  один  из  них,  он  отсыпал  на  ладонь  содержимое.  Это  оказался  сахар.  Он  ел  его,  пока  не  надоело.  Хотелось  пить,  но  пить  было  нечего.  В  вагоне    было   темно.  Он  решил  потерпеть  до  утра  и  поспать.  Когда  проснулся,  в   люк  на  потолке  проникал  дневной   свет.  Он  осмотрелся.  К  его  удивлению  в  конце  вагона,  на  мешках,  лежал  человек.  – Сейчас  его  прирезать,  или  подождать? – подумал  Дмитрий  и  взял в руку  нож,  которым  разжился  в  охотничьем  домике.  Тут  он  заметил,  что  человек  проснулся  и  смотрит  на  него.    Оказалось,  что  это  служащий  какого-то  министерства  из  Москвы,  который   не  смог  достать  билет  на  поезд  и  теперь  добирался  домой   «на  перекладных»,  надеясь в Красноярске  пересесть  на  самолёт.  На  одной  из  станций  этот  служащий   сбегал  в  лавку  и  принёс  жратвы  и  пива.   Наконец-то  Дмитрий  смог  первый  раз  за  столько  лет отвести  душу  и  ощутить  вкус  давно  забытой  еды.  В  разговоре  служащий  поинтересовался  стариком-вохровцем,  пустившем  его  в  вагон,  на  что  Дмитрий,  зевнув и потянувшись,  сказал, что  старик,  наверное,  сменился. До  Красноярска,  как  он  понял  со  слов  служащего,  оставалось  ехать  ещё  сутки.  Дмитрий  понимал,  что  у  его  попутчика  есть  деньги,  которые  ему  так  нужны.  Не  пойдёт  же  он  где  попало  самородок  продавать.  Сначала  устроиться надо.  Когда  ночью  он  услышал  храп  соседа,  то  встал,  подошёл  к  нему  и всадил  нож в  горло.  Обыскал  его,  вынул из карманов  документы,  кошелёк с деньгами,  расчёску,  ключи, из  портфеля  - батон  колбасы,  пол буханки  хлеба,  штопор,  перочинный   нож,  соль,  завёрнутую  в  кусочек  газеты.  Труп  завалил вещами  и  лёг  спать.  Не  доезжая  Красноярска,  спрыгнул  с  поезда  и  пошёл  в  сторону  города.          
       
В  избе  Морозовых  всё  было  готово  к  отъезду.  Смазаны  дёгтем  колёса  телеги,  накормлены, «стоящие под  парами»,  как  сказал  Шкилёв,  лошади.  Славу  встретили  поклонами  до  земли,  посадили  за  стол,  подперев  подушками,  выставили  угощение:  варёную  картошку,  солёные  огурчики,  кусочек  мяса,  хлеб  ржаной,  масло  постное,  какая-то солёная рыба  и  то-то ещё,   чего  Слава  никогда  не  видел и не ел. Ел  он  всё  это,  конечно,  с  удовольствием,  но  торчащий  у  него  в  сердце  кол  не  позволял  ему  всему  этому  радоваться.  Вот  если бы  рядом  сидела  Люба,   было   бы  другое  дело.  Какое  счастье    было  видеть  её,  видеть,  как  она  тоже  радуется  угощению  и  радушию  хозяев. Как  было  бы  здорово,  если  бы  хозяева  и  её  взяли  к  себе,  и  мы  бы  с  ней  здесь  жили. И  не  было  бы  никакого  Лёхи, привычной  вони,  холодных  казённых  стен.         

Утром  Аграфена Грушина,  вставив  голые  ноги  в  стоявшие  в  сенях  валенки,  взяв  коромысло  и  два  ведра,   отправилась  за  водой.  Подойдя к колодцу,  она  отвалила  деревянную   дверцу  над  ним,  сняла с крючка  цилиндрическое цинковое ведро  и  отпустила  его,  придерживая  рукой  гладкое  тело  барабана,  с  которого  всё  быстрее  и  быстрее  сходила  цепь,  увлекаемая  ведром.  Гаркнув  что-нибудь  в  эту  тёмную  таинственную  бездну,  пахнущую  сыростью,  можно было  услышать  эхо.   Дойдя  до  середины,  ведро  ударилось  о  стенку  и  полетело  дальше,  пока  не  достигло  воды.  Здесь оно  перевернулось и вверх  дном ушло  под  воду.  Почувствовав это,  Аграфена  схватилась  за ручку  и  стала  медленно  вертеть  её, поднимая ведро.  Когда  ведро  появилось  у  края  колодца,  качая  серое  небо  на   поверхности  ледяной,  как  полюс,  воды,  Аграфена потянула  его к  себе,  вытащила из  колодца  и  стала  переливать  воду  в  своё  ведро.  После  воды  из  ведра  выпали  красные  коралловые  бусы.  Аграфена,  принеся  воду  домой,  сразу,  перед  зеркалом,  одела  бусы  и  стала вертеться  до  тех  пор,  пока  окончательно  себе не понравилась.   Однако,  из  головы  у  неё  не  выходила  одна  мысль:  откуда в колодце  могли  оказаться  такие  бусы,  когда  в  деревне  ни  у  кого  таких   не  было.  Решила  спросить у  Марии  Ивановны,  может  быть  такие  были  у  кого-нибудь в  Доме  инвалидов. 

В  этот  же  день  Орехов  тоже  собрался  с  утра  в  Дом  инвалидов.  К  этому  его  обязывало  указание  начальства  о  проведении  Кузнецову  судебно-психиатрической  экспертизы.  Доехав  до  монастыря,  он   вышел  из  машины  у  его  ворот  и  направился  в  контору.  По  дороге  он  встретил  женщину,  на  шее  которой,  как  капельки  свежей  крови   аллели  на  солнце  бусы  его  жены.  Орехов  сначала  остолбенел,  потом  кинулся  к  женщине, не на шутку  её  испугав. -  Откуда   у  Вас  эти  бусы?  - чуть ли не  закричал  он.  -  Тебе  то  что? – ответила  женщина.  – Мне  это  очень  надо  знать! – воскликнул  Орехов. – Сегодня  из  колодца  вытащила, - слегка смутившись,  сказала  женщина.  Орехов,  потащив  за  собой  женщину, кинулся  к  колодцу.  Вскоре,  узнав  об  этом,  подошли к колодцу  ещё  несколько  деревенских.  Принесли  фонарь,  долго  светили  пока,  наконец,  Орехов  не  увидел  торчащую  из  воды  ручку.  Он  сразу  понял,  что  это  ручка  его  жены.  Когда  труп,  наконец,  достали  из воды  и  уложили  на  снег,  ужас  охватил,  стоявших у  колодца  людей.  У  женщины  было  разорвано  горло,  как-будто  его  грыз волк.  Когда  труп  осматривали  в  морге,  то  выяснилось,  что  на  нём  нет  нижнего  белья,  вернее  трусов и трико,  а на  безымянном  пальчике  левой  руки - перстенёчка  с  синим  камушком.  – Леночка,  Леночка,  ну  зачем  ты  только  приехала  за  мной,  ведь  я  был  бы  уже  вечером  дома! -  повторял  про себя  Орехов  в  морге  и  в   санитарной  машине  Дома  инвалидов   когда  вёз  в  город  труп  жены  и  живого  Кузнецова.  Мысли  его  путались  и  рвались.  Он  проклинал  себя   за  то,  что  подозревал   жену  в   измене,  за  о,  что ругал  её  последними  словами,  когда  она  исчезла.   Теперь  у  него  не  было  сомнений  в   её  искренности  и  верности.  – Она,  конечно,  в  монастырь  ко   мне  приехала,   соскучилась, в  этом  не  может  быть  сомнения, - думал  он  и  тут  вспомнил  этот  страшный,  нечеловеческий  крик.  – Неужели  это  она?  А  я,  тупица,  стоял  и  о  какой-то  ерунде  думал,  и  не  спас  её. Она,  конечно,  заблудилась  и  на  неё  напал  этот,  тот  самый,  который  загрыз  Мамина.  Значит  Мамина  не  Кузнецов  загрыз,  а  я  везу  его  на  экспертизу.  Для  чего?   Был  бы  он  с  ногами,  его  можно  было  бы  из  машины   высадить и пусть  идёт  на  все  четыре  сторон.  А  что  с  ним  делать  теперь?   Да если  бы  не  пошёл  по  пути  наименьшего  сопротивления,  то,  может  быть,  нашёл  этого  выродка  и  он  бы   не  убил  её.  А  я,  халтурщик  проклятый,  старался побыстрее   отделаться,  чтобы  домой  поскорей  вернуться. Мне не до  работы  было – вот  бог и наказал.  Так  мне  и  надо.   Когда,  наконец,  добрались  к  вечеру  до  города,  труп  отдали в морг,  а  Кузнецова  Орехов  отвёз  к  себе  домой.  Скудный  холостяцкий  ужин  и  бутылка  самогона – это  всё,  что  Орехов  мог  предложить  своему  подследственному.   
Они  проговорили  всю  ночь.  Больше  говорил  Кузнецов. После   монастырского  каземата,  с  его  холодом  и  мраком  обычная  комната,  сохранившая  запах  женщины  и  созданный  ею  уют,   согревала  ему  душу  и  позволяла  почувствовать  себя  человеком.
Орехов,  из  деликатности,   решил  не  касаться  в  разговоре  убийства  в  ските,  а  Кузнецов,  естественно, на  этом не настаивал.  Ему  достаточно  опротивел  и  этот  скит,  и  заброшенный  монастырь  и  сама  память  о  нём. Согретый  едой  и  выпивкой,  домашним  уютом  и  человеческим  к  себе  отношением  он  отдался  задушевной  беседе,  той  беседе,  в  которой   люди  не  ищут  интереса,  не  боятся  лишнего слова  и  не  ограничивают  себя  во  времени.  Орехов  же  смотрел  на  Кузнецова  сквозь  пелену своего  горя,  но  постепенно,  незаметно,  приобщался  к  беседе.
«Рассказ  Сергея Кузнецова  о  бегстве от немцев  из  Белгородского  госпиталя  в  марте  1943  года»
  Когда  мы сдали  Харьков,  в  Белгороде  началась  паника.  Если  вы  бывали  в  тех  краях,  то  знаете,  что  от  Харькова  до  Белгорода  всего  час  езды  на  поезде.  О  приближении  немцев  начальство  знало,  однако  никаких  мер   для  эвакуации  из  города   гражданских  лиц  не принимало. Я  тогда  лежал  в  госпитале,  где  мне,  в  связи  с  ранением,   ампутировали  левую  руку.  В  ночь  на  9  марта  кто-то  в  штабе  фронта  заметил  движущуюся  в  сторону  города  колонну  немецких  танков.  На  следующее  утро  в  городе  не  осталось  ни  одного  партийного  и  советского  служащего.  Все  сбежали.  В  девять  утра началась  бомбёжка   и  население  города  тоже побежало,  кто  куда.  Основная его  часть  двинулась  пешим  порядком  по  дороге  к  Новому  Осколу.  Колонна  беженцев  растянулась  вдоль  шоссе  на  несколько  километров.  В  колонне  находились  и  бывшие  заключённые.  Они  оказались  на  свободе,  поскольку  охранники  покинула  город  и  всех  их  выпустили.    Часть  заключённых,  сидевшая  за  сотрудничество  с  оккупантами: старосты,  полицаи,  правда,   осталась.  Не  идти же  им  было со  всеми,  чтобы  угодить  в  новую  тюрьму.  Начальство    нашего  госпиталя  сбежало  из  города  одним  из  первых.  Что  нам  было  делать,  не  оставаться  же  для  того  чтобы  фашисты  прикончили.  Решили  идти  вместе  со  всеми.  И  вот,  представьте  себе,  сотни  раненых  людей,  кто в чём,  многие  без  обуви,  перевязанные окровавленными  бинтами,  ослабевшие  от  ран  и  болезней,  плетутся по грязной  разбитой  дороге  на   восток,  а  пройти  им  надо  не  много, не  мало  25 – 30  километров!  Кто-то   опирается  на  костыли  и  палки,   кто-то  тащит  за  собой  на  детских  саночках  тяжело  раненого, кого-то  тащат  на  носилках.  От  всего этого,  а  ещё  из-за  того,  что  в   последние  дни  никто  практически  не  получал  медицинской  помощи,  у  некоторых  началась  гангрена.  Многие  просто  выбились  из  сил  и  не  могли  идти.  Местные  крестьяне разобрали  их  по  хатам,  ухаживали  за  ними  и  кормили  их.  А  вот  шофёры,  гады,  на  пустых  полуторках  и  трёхтонках   мимо  нас   проезжали и  не  останавливались,  даже  женщин  и  детей  не  брали,  а  если  кто  пытался  остановить  их,  то  они  нарочно  на  них  машины  направляли  чтоб  испугать. Раненые наши,  видя  такое  дело,  говорили: «В  бою  так мы  нужны,  а  как  ранили – никому,  подыхай,  как  собака!»  Был  тогда  налёт.  Немец  прошёлся  над  нами  на  бреющем  полёте,  поливая  свинцом.  Все  легли и я  тоже,  а  встать  уже  не  мог,  он  мне  из  пулемёта  ногу  прошил.  Тогда  меня товарищи  понесли на  оставшихся  руках  и  вынесли,  но  от  гангрены  меня  это  не  спасло.  В  медсанбате  мне  правую  ногу  ампутировали.  Вот  таким,  одноруким  и  одноногим  я  тогда,  в  мае  сорок  третьего,    и  прибыл  в  Москву»
Выслушав  рассказ  Кузнецова  о  бегстве  из  Белгорода,  Орехов  решил  рассказать  ему  об   оставлении  Курска.
«Рассказ  Орехова  об   оставлении   Курска  в начале ноября  1941-ого года»
Весной  41-ого я  закончил  4-ый  курс  юрфака  Курского университета. В  августе  меня  мобилизовали  и  я  попал  в  истребительный  батальон.  В  октябре  немцы  подошли к городу.  Начались  обстрелы  и   частые  налёты.  Техники  было  мало.  Оборудовали  на  заводе  гусеничные  трактора  под  танки.  1 ноября  жизнь  в  городе  остановилась.  Закрылись  магазины.  Всё,  что можно:  продовольствие,  спирт,  шерсть,  промтовары,  короче  говоря,  всё,  вплоть  до  медных   трамвайных проводов,  было  вывезено. За два  дня  до  подхода  немцев  в  городе  была  прекращена  выпечка  хлеба  и  людям  выдавалась  мука,  так  как  хлебозаводы  были  подготовлены  к  взрыву.  Защищать  город  остались  полки  народного  ополчения.  Рано  утром  второго  ноября  враг  появился   на  окраинах  города.  У  нас  было  много  убитых  и раненых. Медслужба  была  организована  плохо.  Чтоб  выносить  раненых  женщины  и  старики  выносили  ополченцам   верёвки  для  того чтобы те  могли  связывать  верёвки  и  делать  из  них  носилки,  на  которых  выносить  раненых.  Бой  в  городе  продолжался  до  девяти  вечера второго  ноября. В  десять  наши  части  оставили  город.  Перед  тем, как  уйти,  наши  многое   взорвали  в  городе,  в   том  числе    электростанцию.  Телефонную  же  станцию,  через  которую  велась  координация  боя,  не  взрывали.  Взрыв  её  должен  был  произойти  после  того  как  наши  части  переправятся  с  того  берега  реки  на  этот. Однако,  у  уполномоченного  НКВД  Миронова  не  выдержали  нервы  и  он  отдал  приказ  о  взрыве  моста  тогда,  когда  часть  наших  войск  была  на  той  стороне.  Связь  между  войсками  на  той  стороне  и  полками  ополчения  на  этой была  нарушена.  Более  того, взрыв  телефонной  станции,  как  и  было  задумано, послужил  сигналом  к  взрыву  моста,  через  который  должны  были  отходить  наши  части.  Командир  дивизии  не  выдержал  и  застрелил  лейтенанта,  взорвавшего  мост,  как  предателя.  Миронов  был  предан  суду  военного  трибунала.  Воска  переправлялись  на  лодках.  Много  людей  погибло  тогда. Меня   легко  ранило,  но  уйти  я успел» 
Они  говорили  ещё  и  ещё.  Им было,  что  рассказать  друг  другу.  И  тот  и  другой,  не смотря на  свою  молодость,  многое  повидал  и  испытал. 
Утром,  когда  Орехов  пришёл к прокурору,  тот,  как  водится,  выразил  ему  своё  искреннее  соболезнование,  а  потом  сказал,  что  просит  его,  не  в  службу,  а  в  дружбу,  провести  Кузнецову  психиатрическую  экспертизу,  поскольку  он  уже  привёз  обвиняемого,  а  потом  (тут  прокурор  просмотрел  листки  настольного  перекидного  календаря)  разрешил  ему до  понедельника  не  выходить на  работу.  Потом  они  заговорили  об  убийстве.   Не  заговорить  о  нём  они  не  могли.   Узнав,  что  убийство  в  бывшем  монастыре  совершено  аналогичным  способом,  прокурор  задумался.  – Что ж  получается, там  какой-то  человек-волк  завёлся?  Странно. Откуда?  А  ты  уверен,  что  травма  нанесена  зубами?  -  Нет.  Вскрытия  ещё  не  было. Подумав,  прокурор  спросил  Орехова,  читал ли  он  роман  «Тиль Уленшпигель»,  потом  сказал:  -  Есть  в  нём  один  негодяй,  называемый  «рыбником»   В  конце  романа  оказывается,  что  этот  самый  «рыбник»  был  маньяком-убийцей,  рядившимся  в  волка.   Фантазия,  конечно,  но  любопытно.   
Привезя  Кузнецова  в  областную  психиатрическую  больницу,  Орехов  оставил  его  в  приёмном  покое  и  пошёл  разыскивать  Зиновия  Ефимовича  Кошкера,   младшего  брата  главного  врача  Дома  инвалидов,  который  служил  в  этой  больнице  врачём-ординатором  и  был предупреждён  своим  братом  о появлении  Орехова.  Кошкер-младший  оказался  похожим на  Кошкера- старшего,  как  гепард  на  леопарда.  При  общих чертах  лица  что-то  неуловимо  особенное  отличала  одного  брата  от  другого. Зиновий  встретил  Орехова  очень  радушно  и  сазу  повёл  его  на  экскурсию  по  больнице,  о  чём  Орехов  его  совсем не просил.  Однако,  врачу-ординатору,  видно,  хотелось  представить  ему  поле  своей  деятельности   и  поделится  собственными  впечатлениями.    В  отличие  от  своего  малоразговорчивого  брата  он  говорил  не умолкая.  Говорил,  когда  они  шли  по  коридорам,  когда  заходили в палаты  и  даже  в  туалет. – Представьте,  говорил  он,  - ещё  в  двадцатые  годы  в  наших больницах  лечили влажным обёртыванием в простынях, намоченных в горячей воде. Современные  лекарства  не  очень-то помогают,  так  что  основное  наше  лечение  это   трудотерапия. Больные  делают коробки,  конверты, обтягивают  материалом пуговицы. Больным с двигательным возбуждением поручаем  натирку полов, уборку. В женском отделении  делали  шапочки  для освобождённых красной армией районов. Теперь они  наматывают пряжу, набивают  ватой  туловищ кукол, вяжут  носки. Говорят – когда вяжешь – мягче лежать.   Мужчины разматывают  «путанки». Это  успокаивает  нервы.  Тут  Орехов  подумал,  что  от  такой  трудотерапии  он бы сошёл с ума, представив,  как  раздражала  бы  его  размотка  такой  «путанки»  Думая  об  этом  он  прослушал   какие-то  слова  своего  собеседника  и  включился в разговор  тогда,  когда  Кошкер  сказал: - А  один конгенитальный сифилитик - лектор планетария,  прочитал лекцию  на тему «Возможна ли жизнь на других планетах»   Потом  Кошкер  рассказывал о  покушениях  больных  на самоубийство,  как  они пытаются    задушить  себя обрывками  белья, простыни, халата,  как пытаются повеситься на полотенце, ударяются с разбега головой о стену,   выбрасываются из окна, стараются  перервать артерии  на шее  куском железа.  И  ещё  он  рассказал,  как  один шизофреник,  желая покончить  с  собой,  поставил  себе   на горло  ножку железной кровати.
Тут Орехов  поймал  себя  на  мысли  о  том,  нормальным  людям  трудно  понять  сумасшедших,  вернее,  трудно  понять  их  страдания.  Для  них  слова  «сумасшедший»,  «психически  больной»  делают  людей  какими-то  куклами,  лишёнными   настоящих  чувств. Психически  больные  люди  для  них  скорее  какие-то  музейные  экспонаты,  чем  такие  же,  как  они,  способные  страдать,  люди.   - Суицидального больного, - нахмурив  брови,  продолжал говорить  Кошкер, -  следует держать отдельно и следить, чтобы он не украл что-нибудь острое.   Нельзя  забывать,  что  они  очень искусно прячут  острые  предметы.  Порой  они даже  настаивают  на  том,  чтобы  их  обыскали. Прячут  они эти  предметы  не  редко в чужую постель, под пол или выбрасывают через форточку  во двор  с намерением, когда всё утихнет, его  подобрать.  Особенно  искусно прячут такие вещи женщины.  Они могут вколоть  чужую иголку  в  шов  своего  или чужого платья, в  тапки, в стол  под клеёнку, в землю цветочного горшка на окне или в обои  и  попробуй,  найди  её,   а  свою  иголку  они  сдают,  и  к  ним,  поэтому  нет  никаких    претензий.  Вообще,  заключил  врач-ординатор,  есть  интересные  больные  и  интересно  их  восприятие  окружающей  жизни.  В  начале  войны, представьте,  наши  шизофреники  не  хотели  думать  о том,  что  началась  война.  Утверждали,  что  это  маневры.  За  годы  войны  у  людей  изменились  страхи.  Если  раньше  они  боялись  НКВД,  раскулачивания  и  доносов,  то  теперь  их  стал  преследовать  страх попадания  в  плен,  шпионажа.  Изменились  и их фантазии.  Раньше  они предлагали проекты переустройства  мира,  а  потом  - уничтожения  фашизма и скорейшего окончания войны.  Один,  например,  предложил  вооружить  миллион  китайцев  и  под  видом  японцев  отправить   на фронт  под  японскими  знамёнами.  Фашисты  бы  испугались  такого  предательства  со  стороны  своих  союзников и  сбежали бы. Другой  предложил  выставить  по  линии  фронта  большие  портреты   Гитлера  и  немцы   стрелять  бы  не  стали.   Третий – зарывать  наших  убитых  солдат  в  землю  ногами  так  чтобы  они  стояли.  Немцы  испугаются,  что  нас  так  много  и  сдадутся. В  конце  войны,  да  и  теперь, - продолжал Кошкер-младший,  -  стали  поступать   больные  с  обострившейся совестью,  даже с  тягой к самобичеванию,  я  бы  сказал.  Они  слышат голоса, называющие их дезертирами,  немцами, фрицами,  они говорят, что едят  чужой хлеб,  а  поэтому часто отказывались от  еды,  один  из  них  называет  себя  вором,  говорит:   «я ем чужой хлеб», «я виноват в гибели своей семьи» Откуда  это  у  них? – думал  я  и  интересовался  их  прошлым,  но  ничего  такого,  что  могло  бы  внушить  им  эту  мысль,  не  находил.  Возможно,  это осталось  за  пределами моей  осведомлённости,  ведь  каждый  человек  это  тайна.   
Слова  Кошкера  о  виновности в гибели  семьи  больно кольнули  Орехова.  Он  вдруг  почувствовал  себя  виновным  в  гибели  жены. Ведь  это  он  не  взял  её   с  собою  в  старый  монастырь,  хотя  она  его  так просила   об  этом  и  вот  теперь  нет-нет  да  и услышит  её  голос  и  слова: «Я с тобой, я с тобой!»  Поэтому он задал  вопрос  доктору  о  современных  галлюцинациях,  на  что  тот  ответил: -  Порой  у  них  возникает   ощущение  «несовместимости» головы  и  туловища  и  тогда  их охватывает  ужас.  Им  кажется,  что  их  хотят  расстрелять.  Они  видят  толпы  людей,  родных,  медведей  на занавесках.  Алкоголики,  побывавшие  на  фронте,   вместо пауков,  тараканов  и чертей, видят  теперь трупы убитых,  различные фронтовые картины из пережитой  ими боевой обстановки,  слышат разрывы снарядов. Часть их во время войны стала пить  меньше, а некоторые  вовсе  перестали.  Тут  они  подошли к ординаторской  и  Кошкер,  извинившись,  попросил  его  подождать  пока  он  пригласит  двух  своих  коллег  для  образования комиссии. 
Занятый  Кошкером  и  его  беспрерывной  лекцией,  Орехов  не  имел  возможности  воспринимать  в  полной  мере  окружающей  обстановки. Теперь,  оставшись  один,  он  приглядывался  к  окружавшим  его  людям  и  открывал  для  себя  новую, отличную  от  большинства,  их  разновидность.  Люди  эти  были  в  халатах  и  пижамах какого-то  тёмного,  полинявшего  цвета.  Одни  расхаживали  по  коридору,  сложив  руки  за  спиной,  другие  сидели  на  стульях  и  подоконнике.    Кто-то  трясся,  кто-то  сидел  без  движения,  тупо  глядя  перед  собой,  были и такие,  что  беседовали,  и  такие,  что  напевали,  бормотали  или  повторяли  одно и то же,  как  один, например,  который  неустанно  повторял: «Передайте Лиге  наций: завтра  будет патефон!»    Был  больной,  который  делал  два  шага  вперёд  и  один  в  бок  и  больной,  державший  в  руке  картонку,  на  которой  были  выведены  карандашом  три  буквы: ЖКТ.  Орехов  заметил  женщин,  бросающих  на  него  многообещающие  взгляды  и сам отвёл, на  всякий  случай,  от  них  взгляд.  В  этот  момент  к  нему  подошёл  больной  с  измученным  взглядом  и  стал  умолять  его  о  том,  чтобы  он  что-нибудь  сделал,  а то  врачи  поят  его  водой,  которой  обмывали  трупы.  Орехов  не  знал,  что  ему  ответить   и  растерялся.  В   это  время  подошёл    Кошкер  и  жалобщик,  сделав,  поднеся  палец  к  губам,  ему  знак  «молчать»  удалился.   
Экспертиза  не  заняла  много  времени (не  зря  же  её  называют  «пятиминуткой»)  Результат  поразил  Орехова:  шизофрения.  – Не  может  быть,  - думал  Орехов, - или я совсем  ничего  не  понимаю  в  судебной  психиатрии. Прощаясь  с  Кошкером-младшим,  он  всё-таки  поинтересовался  у  него  больными,  которых  видел в коридоре.  Оказалось, что  тот,  что  ходил  необычной  походкой  вообразил  себя  шахматным  конём,  а другой,  с  картонкой  с  начертанными  на  ней  буквам  Ж, К и Т,  считает  себя  «жертвой  коричневой  тени»,  т.е. лицом,  преследуемым  за  связь  с  фашистами.   Сделав  шаг  к  выходу,  Орехов  остановился,  обернулся и позвал  доктора.  Они  сошлись  и  Орехов,  несколько  смущаясь, сказал:  -  Доктор,  Вы,  конечно,  читали  чеховскую  «Палату  № 6»  Как  Вы  считаете,  её  сюжет  реален,  может  врач-психиатр  сойти с ума?  -  Как  любой  человек,  но  Вас,  наверное,  интересует  другой  вопрос:  может  ли  нормальный  человек  под  влиянием  обстановки,  существующей  в  психиатрическом  лечебном  учреждении,  лишиться  рассудка? – Да,  да,  именно  это  я  и  хотел  спросить, - подтвердил  Орехов.  Кошкер-младший  покрутил  пальцами  у  лица  и  сказал: -  Человеку  вообще  свойственно  подражать  другим и перенимать  их  особенности и привычки.  Нас  всех  в  детстве  родители  обвиняли в подражании  кому-нибудь.  Взрослые  перенимают  меньше,  но  тоже  перенимают. Возьмите  Вы  милиционеров.  Откуда  среди  них  так  много  грубых  и  жестоких  людей?  Не  всех  же  так  мама  воспитала.  Что-то  они  заимствуют  у  тех,  с  кем  ведут  борьбу. А  вальяжность  наших  академиков  и  профессоров?  Вы  замечали?  Они  перенимают  её  у  своих  старших  товарищей.  Так  что  и  психиатры,  вращаясь  среди  больных,  тоже  кое-что,  не  осознанно  конечно,  но  у  них  перенимают.  Но  я  не  думаю,  что  это  влияние  настолько  сильное,  что  может  помутиться  разум.  Во всяком случае, такого профессионального заболевания  психиатров в науке не зафиксировано.  Так что   это  художественный  вымысел,  хотя  какой-нибудь  конкретный  факт  с  каким-нибудь  психиатром  мог  иметь  место,  ведь  психика  многих  из  нас  так  лабильна!    
Из больницы   Орехов решил  заехать с  Кузнецовым  в прокуратуру. Когда  подъехали,  Кузнецов  попросил  вынести  его  из  машины  и посадить  на  скамеечку  возле входа. Орехов,  не  опасаясь  побега  обвиняемого,  исполнил  его  просьбу.  Каково  же  было  его  удивление,  когда  он,  вернувшись,  не  застал  его  на  скамеечке.  Он,  конечно,  сразу  доложил  о  случившемся  прокурору, а  тот  позвонил  начальнику  милиции,  однако  результатов  это  не  дало.  Обвиняемый,  как  в  воду  канул.

Дмитрий  Морозов,  наконец-то,  добрался  до  своей Самарской   деревни.  Вид  её  ему  не  понравился.  Стало  в  ней   грязней  и  неопрятнее  прежнего.  Однако  волнение  от  встречи  с  детством,  охватившее  его  при  виде  родной  деревни,   так  его  захватило,  что  он  ни  о  чём,  кроме  своего  детства,  думать  не  мог.  Здесь  они  играли,  здесь  дрались,  здесь  купались….   Не  будь  этого проклятого раскулачивания,  этой  проклятой войны,  - думал  он, -  был  бы  я  теперь  нормальным  человеком,  имел  бы  семью,  ходил  бы  и  ездил,  куда  хотел,  и  не  был бы  ни изменником, ни полицаем, ни бандитом ни убийцей,  ни  беглым  каторжником.  При  таких  мыслях  сердце  его  наполнялось  злобой   на  весь  этот  мир,  на  всю  эту жизнь,  делающую  по  прихоти  своей  из  одних людей героев,  а  из  других  -  врагов  рода  человеческого.   Он  не  очень  опасался  того,  что  его  узнают:  всё-таки  прошло  много  лет,  да  и  о  том,  что  он  служил  оккупантам  здесь  тоже  никто  знать  не  мог,  ведь  то  было  в  Калужской  деревне,  однако,  он,  на  всякий  случай,  натянул  на  лоб  пониже  кепку  и  ссутулился. Долго  ходил  по  деревне,  расспрашивая  встречных  о   прошлом  и,  наконец,   ему  удалось  разговориться  с  бабкой,  помнящей  его  семью. Ею  оказалась  подруга  его  матери.  Она-то  и   сообщила  ему  о  том,  куда  выселили  его  семью.  Об  этом  написала  ей  в  письме  его  мать.  У  неё  даже  сохранилось  это  письмо.  В  жалком  жилище  старухи,  в  старой  коробке  из-под  печенья,  возможно  съеденного  ею  когда-то единственный  раз  в  жизни,   хранились  слова  его  давно  умершей  матери.  Он  читал  письмо  и  злоба  снова  наполняла  его сердце.  – За  что  этой  простой  деревенской  бабе  выпало  столько  страданий? – спрашивал  он  себя и не находил  ответа. Старуха  же  плаксивым  голосом  несколько  раз  повторяла  ему  рассказ  о  гибели  на  войне  своего  единственного  сына.  За  вечерним  чаем,  который  он  организовал,  оставшись  у  неё  ночевать, она рассказала     ему  о  сегодняшнем  дне колхозного крестьянства.  Оказалось,  что  недавно  вышел  Указ  о  выселении  лодырей  и    тунеядцев   в отдалённые  места  и  снова  потянулись  на  Восток,  в  Сибирь  крестьяне  Украины  и  России.     – Старых  выселяют, -  говорила  старуха, - больных.  От  неё  он  узнал  о  том,  то  в  пылу  исполнительского  задора  «слуги  народа» одного  выселили    за  то,  что он ругался  с  бригадиром  и  председателем,  а  другого - за  то,  что  с  работой  не  справился.   А на  общем  собрании,  когда  колхозники  не  захотели  голосовать  за  выселение  двух  своих  односельчанок,   председатель  велел  проголосовать  не  за   выселение,  а,  наоборот,  против  выселения.  Народ,  конечно,  побоялся и в  результате  единогласно проголосовали за  выселение.   - Трусы  ничтожные, - думал  Дмитрий  о  жителях  деревни. – так  вам  и  надо.  Если  сами  своих  предаёте, то  кто  за  вас  бороться   будет? А  ведь  были  среди вас и  такие,  которые требовали  вывезти «лодырей»,  ваших  же товарищей,  пасти  белых  медведей!  Вас  бы  самих  туда  вывезти! А  после  слов  хозяйки о  том,  как  председатель  колхоза вызывает  ночью  в  контору  деревенских  и  избивает  за  то,  что  они не  подписались  на  заём,  у  него  сжались кулаки.  Женщина  же,  обрадовавшись  внимательному  собеседнику,  вошла в раж  и  поделилась  с  ним    чувствами,  которые  ему  были  не  очень  близки  в  силу  ряда  обстоятельств,  связанных  с  его  собственной  деятельностью  на  оккупированной  территории.  Она  с  возмущением  заговорила об  одном  своём  односельчанине,  сотрудничавшем с немцами,  и  теперь  во  всю  поддерживающим  политику  партии  в  деревне.   «..Паразит, - говорила  она, - он  ведь при  немцах  выгонял  людей  на  работу,  забрал  себе  весь  колхозный  инвентарь.  Он  всё  Гитлера  хвалил,  все  стенки  его  портретами  облепил.  Сам  часами  обвешался.  Носил  их  не только  на  руках,  но и на  ногах.  Каждый  день  патефон  накручивал «Тру-ля-ля да тру-ля-ля»  и  жену  в  гамаке  качал  под  музыку,  а  я  в  это  время  нужники в Гестапо  мыла. Он  всё кричал  про  меня: «Повесить  её!»  Если  бы  турки  пришли,  так  он   и  туркам  бы  служил.  Соседка  моя,  Пелагея  Воронова,  просила  его: - Дай  хоть  клочок  земли,  чтобы  с  детками  с  голоду  не  пропасть,  а  он  в  ответ: - Иди,  говорит,  и  проси  землю  для   своих  байстрюков  у  Сталина.  Пусть  он  их  кормит. Она  его  тогда  обругала  и  говорит: - Ну,   подлюка,  подожди,  вот  нас  вызволит  от  немцев  Сталин,  тогда  узнаешь,  как  над  нами  измываться.  Теперь  он  сам  кормит  байстрючат,  которых  ему  его  дочка  из  Германии  привезла.  - А он  сейчас где? – на  всякий  случай  поинтересовался  Дмитрий.   -  Выслали, - ответила  старуха.  Рано  утром  Дмитрий  Морозов  покинул  покосившуюся  избу.  Перед  уходом  он  остановился  над  мирно  спавшей  хозяйкой и подумал,  не  прикончить  ли  её.  Мысль  об  убийстве  в  нём  всегда  подталкивали  два  обстоятельства:  лёгкость  его  совершения и уверенность в безнаказанности.  Убийство в деревне не редкость.  На его  глазах взрослые  резали  кур,  поросят,  закалывали  бычков,  мальчишки  убивали  собак и кошек.  Бывало,  в праздники,  напившись,  мужики и парни  затевали  драки,  в которых, случалось,  кто-нибудь  погибал.  Первое  своё  убийство  он  совершил  в  17  лет.  Встретил  среди бела  дня  на  окраине  деревни,   у  речки,  пьяную  бабу  с  синяком  под  глазом.  Сначала  захотел,  пользуясь  тем,  что  пьяная,  использовать её.  Она  поняла  его  желание.  Не  возражая,  легла  на  траву  у  воды,  повернулась  к нему  спиной и,  что  называется,  подставилась,  оттопыря  зад.  Ей,  видно,  не  хотелось    показывать ему свою  избитую  морду.  Он  сделал,  что  хотел,  а    она  на  четвереньках  подползла  к  реке  и,  опустив  голову,   стала  пить  из  неё  воду.  Он,  ни о чём  не  думая,  повинуясь  какому-то  затаившемуся  в  нём  чувству,  подошёл  к  ней,  встал  на    колени,  потом  взял  её за  голову и   целиком  погрузил    в воду.  Баба  стала  брыкаться,  но  он  навалился  на  неё  всем  телом,  давя  рукой  на  затылок.  Самого  его стала  пробивать  дрожь,  но  головы  её  он  не  выпускал. Она  ещё  подёргалась  немного  и  затихла.  Он,  наконец,  отпустил  её.  Она  не  поднимала  головы  из  воды. Руки  её  болтались  в  воде.  Он  понял,  что  совершил  убийство.  Смесь  испуга  и   довольства  собой  овладела  им.  Можно  было  встать  на  четвереньки  и  завыть,  как  волк,  на   Луну,  но  Луны  не  было,  ярко  светило  солнце и  он  был  такой  же,  как  всегда  и  совсем  не  оброс  шерстью.  Он  почувствовал,  что  теперь  он  не  такой,  как  все, что  он  способен  на  большее,  чем   его  друзья.  Чтобы   скрыть  следы  преступления  он  скинул  бабу  в  речку  и  оттащил  за  волосы  подальше  от  берега.  На  следующий  день  он  слышал  в  деревне  разговоры  о  том,  что  в  реке  нашли  утонувшую  женщину.  В  груди  его  зашевелилась  гордость.  Теперь  он не  только  почувствовал  удовлетворение  от  власти  над  человеческой жизнью,  но  и  тайную  сладость  от  знания  тайны, доступной  только  ему  и  недоступной  простым  смертным его окружающим.  И  всё  же,  когда  началась  война,  и,   казалось  бы,  для  познавшего  радость  убийства  открылись  широкие  возможности, он    загрустил.   Он  понимал,  что   убийство  на  войне  не  является  таинством,  а  потому  не  щекотит  нервы. К  тому  же, - думал  он, - когда  все  кругом  убивают  друг  друга  и  чем  больше  убьют – тем  лучше,  тем  выше  награда  их  ждёт,  пропадает  острота  чувств,  свежесть  восприятия. Ну,  что  может  чувствовать  пилот  бомбардировщика,    кинувшего  на  жилой  дом  большую  фугасную  бомбу? – Ничего.   Он  лишь  тупая  гайка  в  машине   массовых  убийств. Морозов  лютой  ненавистью  ненавидел всех  этих  участников  войны,  защитников   «нашей  необъятной  родины»  Ему было  ясно,  что  на  войну  они  пошли,  боясь  наказания  за  дезертирство,  что  воевали  они,  боясь  трибунала  и заград-отрядов,   что  они  не  меньше  его  грабили  и  насиловали,  что  спасали  они  не  Родину,  а  жидовскую  власть  в  ней.  Он  уверял  себя  в  том,  что  если  бы  победили  немцы,  то  жизнь  в  стране  стала  бы  в  тысячу  раз  лучше, чем  теперь,  а  заодно   она  бы  избавилась  от  жидов,  цыган и коммунистов.  И  вот,  в  результате  этой  чёртовой   победы  его  загнали  на каторгу,    инвалиды    торгуют  на  рынках  папиросами,  а  воры  гуляют в ресторанах!
  Теперь  он  стоял  около  спящей  старушки  и  думал:  а  не  прибить  ли её,  ведь  разболтает,  старая,  по деревне  о  том,  что  он  был  у  неё   и взял  письмо  с  адресом  сестры.  Останавливала  его  только  мысль  о  том, что   в  деревне  его  вчера  многие  видели и запомнили. Поэтому он, немного постояв  над  старушкой,  вздохнул  и  вышел  из  дома.  Самородок,  лежавший  во  внутреннем  кармана  пиджака,    жёг  ему  грудь.  Нужно  было,  наконец,  с  ним  что-то  делать.  Он  решил  ехать  в  Москву  и  там  его  продать.

Отец  Илларион,  он  же бывший  священник  Красовский,  собрал  у  себя  в  избе  народ   послушать  странницу  Домну  Чмырёву.  Прежде  чем предоставить  ей  слово  он обратился  к  собравшимся  и  сказал: - Дорогие  братья  и  сестры,  власть  душит  нашу  православную  церковь  налогами,  отдаёт  храмы  под  склады и клубы  и  даже  случные  пункты  для  скота.  Но  им  всего  этого  мало.   Местное  начальство  глумится  над  святынями  и  оскорбляет  наши  религиозные  чувства.  Доходят  до  нас  известия  о  глумлениях  и  богохульствах  этих  слуг  антихристовых.   Один  из  них  приказал  духовому  оркестру  заглушать  пасхальную  службу  в  храме,  другой  велел  поставить  в  церковной   ограде  патефон  с  усилителем звука  и  заводить  бесовскую  музыку во  время крестного  хода.  Начальница  в  другом  месте  забрала  из  церкви  иконостас,  хоругви,  сняла  двери и  всё  изрубила  на  дрова.   Нашёлся  ещё  такой  пёс,  который  на  водосвятие,  когда  у  колодца  собрались  верующие  для  того,  чтобы  свершить  молитву,  никого  не  постеснявшись,  испражнился   в  колодец.  Речь  священника  сопровождались  охами,  вздохами  и   плачем  женщин,  а  после  последних  слов  с  одной  из  них  сделалась  истерика  и  её  вынесли  из  избы.   
Небольшого  роста,  в  белом  платочке,  морщинистая  и  некрасивая  Домна  Чмырёва  начала  свой рассказ  со  своих  рано  умерших  родителей  и  с  деревни,  в  которой  жила.  Сообщила  о  болезнях  и  хворях  своих  и  о  том,  как  с шести  лет  пасла  коров.  «Когда  мне  было  10 лет, - рассказывала  она, - я, а это  было  в  субботу,  перед  Троицей,  часов  в  8  утра,  подметала  пол  и  вдруг  в  глазах  помутилось  и  я   упала.  Меня взяли,  положили  на  лежанку,  где  я  и  уснула.  Сон  мой  продолжался  десять  суток.  Во  сне  я  видела  большую  дорогу,  по  которой  двигался  крестных  ход  с  иконами  чудной  живописи,  священство  было  одето  в  зелёных  ризах с  пальмовыми  ветками  в  руках.  Во  главе  ехали  три  всадника  на  белых  лошадях.  После  этого  сна  я  решила  стать  странницей.  Ходила  по  монастырям.  Была в Киеве,  где  поклонилась  Печерским  угодникам,  была в  Макарьевом,  в  Арколабском  монастырях,  посетила  Почаев  и  много  других  святых  мест.  Однажды  вечером,  зазвонили  в  церковь и  я  стала  собираться,  чтобы  поспеть  к  чтению  деяний  апостольских  у  плащаницы.  Сидя  на  стуле,  я  одевалась  и мне  оставалось  надеть  последний  башмак,  который  я  держала  в  руках,  и  вдруг  я   услышала,  что  вокруг  меня  словно  как  бы  ветер  поднялся  и  чудный  голубой  свет  наполнил  комнату. Я  испугалась»  В  этот  момент,  слушавшие  Домну  женщины,  как  по  команде,  перекрестились,  а  странница  продолжала: «…  стала  молиться  и  вижу  себя,  как  бы  на  воздухе и  мне  12  лет,  с  распущенными  волосами,  в  какой-то чужой одежде  и  в  голубом  свете,  который  не  позволял  мне  видеть  саму  себя  и  окружающие  предметы,  но  я  ощущала  стул,  на  котором  сидела.  Я  подняла глаза  кверху  и  увидела  всё  тот  же  свет  голубой,  цвета  неба  воздух  и  красивую  огненную  лестницу,  по  которой  спускалась  владычица  в  длинном  хитоне  и  по  всему  хитону  - множество  звёзд.  На  голове  её  была  корона  и  вокруг неё  был  венец  славы.  Сама  она  была  светлее  молнии.  Она  спускалась  по  лестнице  и  вдруг    остановилась,  а  я  силилась  ухватиться  за  неё.  Грудь  её  была  открыта  и  вся  в  ранах. Я  в  испуге  стала  громко  читать «Святый  Боже, святый Крепкий,  святый  Бессмертный,  помилуй  нас!» и  «Пресвятая  Богородица,  спаси  нас!» и  тогда  Владычица  благословила  меня  обеими  руками  и  склонила  голову  с  выражением  глубокой  грусти  и  печали  и  стала  подниматься  по  лестнице,  удаляясь  от  меня  наискось  вправо.  И  вот  с  той  минуты,  как  я  увидела  матерь  божью,  я  забыла  всё  земное  и  смотрела  на  неё,  пока  она  не  скрылась. И  тут  передо  мной  явился  святитель  Николай  с  крестом  в руках  и  говорит: - Следуй  за  мной,  времени  очень  мало,  я  иду  совершать  пасху.   Мы  подошли  к  лестнице  светящейся,  солнечной  и  поднялись  по  ней,  а  сошедши  с  неё, пошли  по  воздуху,  всё  поднимаясь  выше.  Вскоре  я  заметила  вдали  город  и  вдруг  увидела  его  прямо  перед  собой.  Он  был  великолепный,  чудный,  неизреченной  красоты,  которая  уму  человеческому  непостижима  объяснить.  Ворота  входа  были  из  жемчуга  и  других  драгоценных  камней.  На  правой  половине  их  изображён  архангел  Михаил,  а  на  левой – архангел  Гавриил.  Над  воротами  сияла  радуга  и  на  ней  греческими  золотыми  буквами  написаны  слова,   прочитанные  мне   святителем  и  гласящие  так:  «Приидите  благословении  отца  моего,   наследуйте  царство,  уготованное  вам  от  создания  мира  и  дам  вам  престол  свой,  пойте  и  веселитесь  яко  аз  с  вами  есть  во  веки  веков.  Блажен  человек,  чья  нога  станет  в  городе  сем»  Когда  вошли в  город,  то  я  увидела,  что  улицы  в  нём  устланы  мрамором,  жемчугом,  разнообразными  фигурами  и  рисунками,  дома  украшены  иконами,  а  между  домов  множество  церквей,  сияющих краше солнца,  украшенных  драгоценными,  разноцветными  камнями,  на столько  сильно  светящими,  что  если  бы  взять  один  камешек  величиной  с  горошину,  то  и  то  бы  осветил  он  пол  мира,  а  их  там  было  очень  много.  А  от  города  шёл  очень  приятный  аромат,  а  над  городом,  как  бы   в  воздухе,  я  увидела  церковь.  Она  сияла,  словно  солнце,  яснее  чистого  золота,   а  вокруг  неё  была  золотая  ограда  с  колышками  и  на  каждом  колышке  человеческая  голова,  а  на  каждой  голове  сияющий  венец  и  в  нём  имя  человека.  Я  спросила  святителя,  что  это  за  город  и  он  ответил: «Это  Иерусалим»  А  что  это  за  церковь? – спросила  я.  -   Смотри  и  узнаешь, - ответил  он.  Я  стала  смотреть  внимательно  и  увидела,  что  церковь это  сам  господь  Иисус Христос,  а  вокруг  него  это  те,  которые  сложили  свои  головы  за  имя  господне  и  за  истинную  веру»  На  этих  словах  отец  Илларион  предложил   сделать  перерыв,  дав  Домне Чмырёвой  отдохнуть,  а,  заодно,  и  промочить  горло  чаем.  Когда бабы, у  которых  после  рассказа  странницы  всё  светилось  перед  глазами, как  после  долгой  и  сладкой  случки,  разошлись по  домам,    священник  налил  из  самовара  себе  и  гостье  в  кружки  кипяток,  поскольку  чая у него давно не было.  Когда  же  он  блюдце  поднёс ко  рту,  в  избу  его  ввалилась  Аграфена  Грушина  и,  ничего  не  говоря,  бухнулась  ему  в  ноги.  Она  просила  прощения  и  ругала   себя  всеми  доступными  в  присутствии духовной  особы,  словами.     Старик  не  сразу  понял,  что  случилось,  настолько  несуразны  и  путаны  были  слова  свалившейся  ему  на голову,  полоумной  бабы.  Постепенно  до  него  стал  доходить   смысл  её  слов.  Он  понял,  что  скопцы  выкрали  из   «самоварного» скита  какого-то  молодого  парня  и увезли   в  лес.  Красовский давно  хотел  прижать  этих  богоотступников и сообщение  Грушиной  пришлось  как  нельзя  более  кстати.  Не  допив  чая,  священник  быстро  оделся  и  большими  шагами  направился в контору.  За  ним  мелким  шажочками,  огибая  колдобины  и  ямки,  бежала  Аграфена   Грушина. Директор,  узнав  о  случившемся,  велел  снарядить  спасательную  экспедицию  на  санитарном  автобусе  Дома  инвалидов,  в  который  посадить и Грушину,  чтобы  она  показывала  дорогу.  Аграфена,  пока   заводился  автобус,  успела  позвать с  собой Марию  Ивановну.    Тарахтя,  завывая  и  кое-где  застревая  в  снегу,  автобус,  наконец,  достиг  конечного  пункта  экспедиции  - небольшой  избы,  скрывавшейся  среди  деревьев.
В  избе  же  в  это  утро  произошли  следующие  события.  Старик завёл  со  Славой  очередную  душеспасительную  беседу.  Словами на  этот  раз  он  не  ограничился.  Для  убедительности   спустил  штаны  и  показал  ровное  место,  отгороженное  от  живота   венчиком  поседевших волос.  – Избави  себя от уда греховного и  душой  станешь чист  и  непорочен,  аки  голубь  белый! – сказал  он  многозначительно,  одевая штаны.  -  А  как  же,  дедушка,  ты  сделал  это? - поинтересовался  Слава.  – А  просто,  голубок,  - ответил  дед, -  взял  я  всё  своё  хозяйство  в  левую  руку,  а  в  правую  взял  косу  вострую-вострую,  да и  махнул  этой  косой  свой уд  под  самый  корень.  Так  в  руке  у  меня  всё  и  осталось.  -  Ну, и что?  - испуганно  спросил  Слава.  -  Да  ничего, - ответил, -  малую  нужду  только  стоя  не  справляю,  приседать  приходится,  а  в  остальном  никаких  проблем.  Ну,  а   тебе,  милок,  и  это  не  помеха. Скажу  тебе  ещё,  что истинная  вера  чудеса  делает.  Сказывают  у  первых христиан,  отрубленные  руки и ноги  вырастали. Вот  какие  чудеса  с  человеком  истинная  вера  делает!  Это  тебе не  в  церкви,  в которой  такие  вот,  как  отец  Илларион,  служат.  У  них  и  Бог  и  порок
 - всё  вместе:  и  вера и разврат – бабы  и  водка.  У  них «не согрешишь – не покаешься»,  они с неверными  из  одной  лохани  жрут. Тьфу!  И  старик  сплюнул и перекрестился. – Прости,  господи!   А  ты, я  вижу,  душой  чист  и  коль  верить  будешь  по-настоящему,  у  тебя  и  ноги и руки  вырастут.      Ну,  что,  согласен? – тихо  спросил  дед.  Слава  молчал. – Ну,  что  молчишь?  Не  бойся,  мы  это  тихо  сделаем,  не  заметишь.  Зато  потом  не  будет  в  твоей  жизни  никаких  мук  душевных,  не   свалишься  ты  сердцем   в  пропасть  похотливую,  не  станут  тебя  больше  терзать  ни  любовная  жажда,  ни  ревность,  ни  зависть, ни  боль  унижения,  ни  желание  мстить – всего   того,  что  связано  с  пагубой  любовной.  Зато  в  царствие  небесное  войдёшь!  Ты,  я  знаю,  познал  в  жизни  бабью  измену,  и  теперь  за  минуты  удовольствий  платишь   и  будешь  платить  до конца  жизни  муками  душевными.  Женщину  дьявол  нарочно  наделил  соблазнами  для  того,  чтобы  человека  с  пути  истинного  сбивать.  Женщина – посланец  ада, гостиница  бесовская!  - заключил  старик и выжидательно  посмотрел  на   Славу.  У   того  в  голове  образовалась  путаница  из  божьих  слов,  собственных  радостей, мучений  и  стариковских   аргументов.   Он  устал  от  страданий   по  Любе,  от  сомнений   и  боязни   сделать  то,  на  чём  настаивал  старик,  наконец,  от  борьбы  с  самим  собой,  а  поэтому  на  последнее  стариковское  «Ну!» ответил  «Да» 

Когда  вся  компания,  покинув  автомобиль,  подходила  к  дому,  Евдокия  Морозова  замывала  кровь  на  полу  горницы.  В  избе  царила  торжественная  обстановка.  Можно  было  подумать,  что  в  ней  родился  Иисус  Христос.  Несколько  девушек,  одетых  в  белое,  пели  молитвы.  Избушка  была  украшена  бумажными  цветами  и  еловыми  ветками, иконы – белыми полотенцами с вышитыми на них красными петушками. К  тому  же  из-за  туч  на  небе  выглянуло  солнце.  Когда  представители  Дома  инвалидов  вошли  в дом,  Мария  Ивановна  отворила  дверь  в горницу  и  увидела  Славу,  лежащего  на  койке,  покрытого  белой  простыней.   Лицо  его  было  бело,  как  мел,  а  внизу,  сквозь  простыню,  проступало кровавое пятнышко.  «Он  потерял  много  крови»  и  «Опоздали»!  - сразу  мелькнули в  голове  её  две  страшных  мысли.  В  этот  момент  к  ней  подошла  Грушина с ведром  в  руке.  Заглянув  в  ведро,  Мария  Ивановна  увидела  то,  от  чего  у  Славы  осталась  только  кровь  на  простыне. Мария  Ивановна  кинулась  к  Славе. – Что же  ты  сделал  с  собою,  дурачёк?! – прошептала  она.  Он  не  ответил.  Не  смотря  на   сопротивление  скопцов,  команде  Дома  инвалидов  всё  же  удалось  забрать  Славу  и  увести  его  с  собой.  Он  лежал  в  изоляторе и  Мария  Ивановна  ухаживала  за  ним.  Любке,  как  она  её  теперь  называла,  она  о  Славе  ничего  не  сказала.   

Как  человек  никогда  не  знает,  что  с  ним  может  случиться  буквально  через  минуту!  Не  зря  говорят: «Человек  предполагает,  а  бог  располагает»  Орехову,  когда  он  получал от прокурора  новое  дело,  связанное  со  смертью  человека,  всегда  было  интересно  узнать,  с  чего  начался  день   человека,  не  дожившего  до  его   окончания. Орехов  с  каким-то  суеверным  страхом   всматривался  в  то,  что  погибший  человек  делал  в  день  гибели,  о  чём  он  думал,  какие  дела   планировал  на  ближайшее  время  и  как  в  тот  злополучный  день   его  первый  шаг  с  постели   стал  первым  его  шагом  на  пути  к  смерти.  Теперь  он  сам вспоминал  тот  день,  когда  приехал  в  Дом  инвалидов  расследовать дело  об  убийстве  Мамина.  Каким  счастливым  был  этот  день  и  как  не  ценил  он  его  тогда!  А  что  теперь?  Теперь   он   остался   один,  жена  убита,  обвиняемый,  без  рук и без  ног,  сбежал  и  он  должен  за  это  ответить.    С  такими  мыслями  он  и пришёл   на  работу  в  тот  злополучный  понедельник.    Прокурор,  встретив  его  в  коридоре,    сказал,  что  приехал  старший следователь  областной  прокуратуры  Медведев,  который    спрашивал  про  него.  Расположился  он в 11-ом  кабинете. Орехов  постучал  в  дверь этого  кабинета  и,   не  дождавшись    ответа,   вошёл.  За письменным  столом  сидел  незнакомый   ему  человек  в  очках,  причёской  «заём»  и   оттопыренными  ушами.   Узнав,  кто вошёл  следователь  указал  Орехову  на  стул  у  стола, а сам  продолжал  читать   какой-то  протокол.  Закончив  чтение,   он  внимательно  посмотрел  на  сидевшего  перед  ним  Орехова и  спросил: - Вы,  товарищ,  давно  следователем?  - Третий год, - ответил  Орехов.  – Тогда  объясните  мне,   как  Вам  удалось  потерять  подследственного.  Орехов  объяснил.  Старший  следователь  посмотрел  на  него  сощурив  глаза.  -  Ну  что ж,  это  весьма  правдоподобно,  если  учесть,  что  подследственный  перед  этим  чуть  ли  не  сутки  жил  у  Вас  дома,  на  правах,  так  сказать,  гостя.  Скажите  Орехов,  Вас  что,  влечёт к  убийцам?  Зачем  Вы  притащили  его  к  себе  домой?    -  А  куда  я  его  мог  деть, он  же  совершенно  беспомощный.- ответил  Орехов.  -  Как  куда,  удивился  старший  следователь, -  в  КПЗ,  в  больницу,  наконец,  выставив  там  пост.  – Мы  поздно  приехали. – Не  говорите  чепухи,  они  обязаны  были  его  у  Вас  принять  в  любое  время  дня  и  ночи.  Орехов не  знал, что  ответить.      Конечно,  если  бы  дома  была  жена,  то  он, конечно  так бы  и  потупил,   как  говорит  следователь,  но  тогда,  когда  вместе с Кузнецовым  он  вёз  в  машине  труп  своей  жены,  ему  было  не  до  этого.  К  тому  же,  он  боялся  одиночества  и   не  хотел  оставаться  один.  Объяснять  следователю  он  это  не  хотел, считая  эти  обстоятельства  сугубо  личными,  не  имеющими  отношения   к  делу.  Он  сидел,  опустив  голову,  и  молчал,  как  нерадивый  школьник. В  этот  момент в  кабинет  зашёл  знакомый  опер  из  угро  и  положил  перед  следователем  лист бумаги  с  напечатанным  на  ней  текстом.  Следователь  прочитал  и внимательно  посмотрел  на  Орехова.  - Послушайте,  Орехов,  среди  Ваших  связей  и, вообще, знакомых,  есть рыжая  женщина.  _ Н-нет,  не  помню, - ответил  Орехов. – Поступили  данные  о  том,  что  Кузнецова  похитила  женщина  с  рыжими  волосами. Чёрт  знает  что,  «Союз  рыжих»,  конандойлевщина  какая-то! -  возмутился  следователь,  и,  почувствовав  своё  интеллектуальное  и  стратегическое  превосходство  над  своим  собеседником,   приступил  к  главной  цели  своего  допроса:  изобличению  Орехова  в  убийстве  собственной  жены.  -  Скажите,  Валентин  Кузьмич,  Вы  один  приехали  на  машине  в  Дом  инвалидов? – спросил  он.  Один, - ответил  Орехов,  и  тут же  оговорился,  сказав,  что   недалеко  от  монастыря  в  машину  села  женщина,  «проголосовавшая»  на  дороге. Следователь  стал  допытываться,  что  это  за  женщина,  знал  ли  он  её,  как  она  выглядела и пр.,  а  потом  спросил  Орехова,  глядя  ему  в  глаза: -  Это  была  Ваша  жена?   -  Нет, - ответил  Орехов. Далее  беседа  потекла, как  река по  порогам,  спотыкаясь  и  журча.– А как  тогда  она  попала  на  территорию  Дома  инвалидов? – Не  знаю.  -  А  какие  у Вас  были  отношения  с  женой? – Хорошие.  – А  Вы не  преувеличиваете.  Есть показания  Ваших  соседей,  которые  говорят,  что  Вы  угрожали  ей  убийством. – У  нас  происходили  ссоры  на  почве  ревности,  и  в  ходе  одной  из  них  я   мог  сказать какую-нибудь  глупость,  но  это  всё  не  серьёзно.  -  Ваши  сотрудники  рассказали, что  Ваша  жена  приходила  не  раз  к  Вам  на  работу  и  уводила  Вас  на  какое-то  время.  Она  ревновала  Вас  к  кому-нибудь  из  Вашего  служебного окружения?  -  Не  знаю,  возможно.  – Скажите,  Орехов,  а  к  гражданке  Ляжкиной  она  Вас  ревновала?  -  Нет,  она  не  знала  о  её  существовании. -  Есть  сведения  о  том,  что  у  Вас  с  Ляжкиной   были  близкие  отношения.   Вы  признаёте  этот  факт?  -  Признаю,  только  они  были  такими  до  моей  свадьбы.  После  свадьбы  я  интимные  отношения  с  указанной  Вами  гражданкой  прекратил  и  повода  для  ревности  жене  не  давал. Я  очень  любил  свою  жену  и  мне  никто,  кроме  неё  был  не   нужен.  Посмотрев  внимательно  на  Орехова,   следователь  неожиданно  убрал  со  стола  газету  и Орехов  увидел   свой  перочинный  нож, пропавший  несколько  дней  тому  назад. -  Узнаёте? – спросил  следователь.  -  Узнаю  -  ответил   Орехов. -  Этим  ножом,  уважаемый  Валентин  Кузьмич, -  ехидно  и  излишне  подробно  сказал  следователь. -  неделю  назад  была  убита  Ваша  жена,  Орехова  Людмила  Александровна.  Услышав  это,  Орехов чуть  не  потерял  сознание, а  следователь, поднеся  нож  к  глазам  Орехова,    прошипел – На  нём  кровь  Вашей  дрожайшей  супруги,  милейший  Валентин  Кузьмич. Если  Вас  не  затруднит,  расскажите   мне,   Вашему  сослуживцу,  хотя  бы  вкратце,  как  и  за  что  Вы  убили  свою  любимую  супругу.  Орехов,  ошарашенный  произошедшим,  молчал,  не  в  силах  сказать ни  слова.  Следователь  же,  начитавшийся  Достоевского,  довольный  собою,  чтобы  окончательно  раздавить  своего  сослуживца,  сиречь процессуального  противника, стал  рисовать  картину  совершённого  им  преступления,  не   жалея  для этого  самых  ярких   красок  из  скудного  арсенала своего  воображения.  -  В  тот  день,  -  упивался  он  своим  красноречием,  -  Вы,  уступив  настоятельным  просьбам  своей  жены,  взяли  её  с  собою  в  Дом  инвалидов.  Находясь  там,  Вы  вступили  в  интимную  связь  с  гражданкой  Ляжкиной и  были  застигнуты  супругой.  Во  время  выяснения  отношений  с нею,  Вы,  с  целью  сокрытия  своего   аморального  поведения  и  пресечения  угроз  с её стороны,  несколькими  удами  перочинного  ножа  убили  её,   тело  с  целью  сокрытия  совершённого  преступления,  бросили  в  колодец,  а  сами,  как  ни  в  чём  не  бывало,  вернулись  домой.  Скажите,  Орехов,  Вы  признаёте  себя  виновным?  Вместо  ответа  Валентин  стал  биться  головой  о стол  и  кричать: - Вы  что,  с  ума  сошли?   Мне  жизни  без  неё  нет,  да  как  Вы  смеете,  я  Вас  самого  убью!  Старший  следователь  выбежал  в  коридор  и  стал  звать  на  помощь.  Пришёл  прокурор  и  другие  сотрудники  прокуратуры.  Они  успокаивали  Орехова,  поили  водой,  бегали  за  валерьянкой.    Спустя  пол  часа  его,  по  постановлению  приехавшего  старшего  следователя,  утверждённому  прокурором,  отправили  в  КПЗ.            

И  как  же  хорошо,  как  приятно,  после   всех  этих  вонючих  казённых  стен  оказаться  на  лавочке  тихого  и  уютного   садика.   Сергей  с  аппетитом  вдыхал  чистый  холодный  воздух  и  разглядывал  ворон  и  воробьёв.  Его  заинтересовала  ворона. - Интересно, - думал  он, - почему  ворона  не  преследует  воробья,  утащившего  у  неё  из-под  носа  какую-нибудь  крошку.  Ведь  она  могла  его  убить  одним  ударом  клюва.  Так  нет  - принимает  его  дерзость,  как  должное,  и  снова  ищет  что-нибудь,  чтобы  сожрать.   За  этим  глубокомысленным  занятием  его  и  застала,  подъехавшая  на  чёрном  автомобиле,  «Рыжая  бестия»  Подойдя  сбоку,  она  сгребла  его  в  охапку  и  потащила к  машине.  Он  оказался  на  заднем  сидении,  Рыжая  прыгнула  на  переднее  и  машина  резко  рванула  с  места, выпустив  в  проходившую  мимо  старушку  струю  выхлопного  газа.  – Здравствуй,  любимый!  -  сказала  Рыжая,  уложив  его  на  диван,  вот  я  и  выполнила  своё  обещание.  – Какое? – удивился  Сергей,  позабыв  о  разговоре   в  изоляторе.  -  О  том  самом.  У  тебя  скоро  будут  и  руки,  и  ноги!  - сказала  Рыжая  и  стала  раздеваться.   Когда она,  наконец,  насытилась,  Сергей спросил: -  А когда  это  будет?  -  Когда донора найдут.   -  Какого  донора?  - А  такого,  которому  руки-ноги  не  нужны.  – Где же  такого  найдут?  Найдут,  мало,  что ли  народу  гибнет?  Ну,   а  если  не  найдут,  мы  его  сами  сделаем.  – Как  это?  -  Очень  просто,  у  меня  есть  знакомые,  которые  всё  устроят. -  Ну,  ты  это  забудь, - сказал Кузнецов, -  мне  запчасти,  снятые  с  убитых,  не  нужны.  Я  их  носить  не  смогу,  они  мне   сердце  жать  будут.  -  Не  волнуйся, дурачёк,  я  пошутила, -  ответила  Рыжая. -  А  пока  поживёшь  здесь.  За  тобой   женщина  будет  ухаживать,  ну, а я пошла,  до  встречи,  любимый!  -  Неудобно  перед  следователем,  - опустив  голову,  сказал  Сергей, -  он  ко  мне  отнёсся  по-человечески,  а  я  его  подвёл.  Сообщить  бы  ему  надо.  -  Сообщим,  сообщим,  не  волнуйся.  И,  подойдя  к  Кузнецову,  Рыжая  протянула  к  нему  свои руки.  Не  желая  новых  объятий, Кузнецов,  чтобы   её  отвлечь,  спросил: - Что  за  колечко у тебя,  прошлый  раз  я  его  не  видел.  Рыжая,  повертев  перед его глазами руку  с  перстенёчком  с  синим  камушком,  ответила: - Это  мне  Ваш  этот,  ну,  как  его,  Лёха  подарил,  думал  купить  меня.   А  что,  хороший  перстенёк,   мне  нравится. – А  Лёха? – Фу,  я  с  ним  и  за  миллион  не  стану  и  Рыжая,  послав  Сергею на  прощанье  воздушный  поцелуй,  удалилась.   – Дурацкое  положение, - думал  Сергей, -  Рыжая  эта  играет  мной,  как  игрушкой,  а  я  не  могу  ничего  сделать  и,  главное,  не  знаю,  что  меня  ждёт.  Вполне  возможно,  что  не  мне  пришьют  чужое,  а  у  меня что-нибудь  вырежут.  А,  действительно,  если  бы  мне  собирались  пришить  руки    и  ноги,  то  зачем  было  меня  похищать?  Сделали  бы  на  мне  этот  эксперимент  с  моего  согласия официально и всё.  А  теперь  вырежут  мне  почки  или  печень,  а  остальное  выбросят,  вот  и  будут  мне дальняя  дорога – пиковый интерес.  Ну,  а  зачем  тогда    меня   шизофреником  признали?  Ну,  какой  я  шизофреник?  Значит,  я  нужен  буду и после  операции.  И  как  это  Рыжая  всё  пробивает,  неужели   этим  местом?  Не  думаю,   что  оно  в  наше  время  так  дорого  стоит,   баб  кругом  полно  и  никого  им  не  удивишь.  А  что,  если  диагноз  у  меня  не  фальшивый,  а  правильный?   И он стал  вспоминать  первые  бои,  окружение,  как  выходили  из  него,  как  был  ранен  первый   раз.  Он  помнил,  как бежал  от  танка,  как что-то грохнуло  позади и стало темно,  и  вообще ничего  не  стало. Постепенно  к  нему стало  возвращаться  сознание.  Он  мог  говорить  сам  с  собой,  но  что  было  вокруг – не  знал.  Его  окружала  сплошная  тьма.  Он  вспомнил   слова «Я  мыслю – значит  я существую»  Но  где,    как?  Если  бы  я  был  без сознания,  то не мог бы  думать,  а  если  я  могу  думать,  то  почему  ничего  вокруг,  ни  меня  самого  нет?  Может  быть,  я  потерял зрение  и  слух  и  теперь  валяюсь  в  поле,  а  по  нему  идут  танки  и  какой-нибудь  балбес  проедет  по  мне.  Если я  лишился  зрения и слуха,  то  почему я не могу  кричать, звать  на помощь?   А  может  быть  я  превратился  в  мировой  разум  из  какой-нибудь  научно-фантастической  книжки  и  теперь  летаю  над  землёй? -  подумал  тогда он и эта  мысль  развеселила и испугала  его.  Он  не  знал,  сколько  прошло  времени  пока,  наконец,  не  услышал   журчание  воды,  а  потом  и  белый   свет.  Прошло  ещё  какое-то  время  и  оказалось,  что  он в госпитале,  вода  журчит  в унитазе,  а кругом  него,  как  снег  в  поле,  белеют  простыни.   Он  узнал,  что  его,  контуженного,  подобрала  медсестра,  случайно  заметив, что  он  живой.  После  госпиталя  снова  бои и не просто  бои,  а  бои  рукопашные.  Ничего  более  страшного  он не  знал.  Когда-то,  ещё  в  школе,  он  читал  «Спартак» Джованьоли.  Там  описывались  бои  гладиаторов - артистов   кровавого  жанра.  Но  то  был  древний  Рим,  далёкий  и  фантастический.  Тут  же  было  всё  до  отвращения  реально:  и  кровь,  и  чужие  сопли,  и  грязь,  а,  главное,  невозможность  остановиться  пока  не  убьёшь,  или  не  убьют  тебя  самого.   Потом  он  вспоминал  ранение, госпиталь,  бегство от  немцев,  гангрену,  ампутацию…  Можно  было  свихнуться  от  такой  жизни? Запросто.  Так  что  же  удивляться,  что он  загрыз  человека,  что  он  помнит, как  хрустели  у  него  на  зубах    сухожилья  и  хрящи,  или  что  там  ещё.  И  это  был  он,  культурный,  можно  даже  сказать,  интеллигентный  человек  и  недоучившийся  студент,  ставший,  по  чьей-то  вине  не  «павшим  героем»,  а  человеческим  обрубком,  игошкой   и, к  тому  же,  убийцей.

Следователь  Орехов,  перед  которым Сергею было неудобно,  оказался  в  камере  предварительного  заключения  и  вот  ему-то  в  ней  было  действительно  не  удобно.  Помимо  него, в  ней  оказалось  два  негодяя.  Неизвестно  откуда   они  узнали,  что  он  следователь.  Унижения,  обиды,  издевательства,  моральные  и  физические  страдания,  пережитые  человеком,  попавшим во  власть  подонков, ужасны  и  Орехову пришлось их познать,   а  потому  Орехов  до  того, как  попал  в камеру  и  Орехов,  выпущенный  из  неё,    оказались разными  людьми.  Первый  Орехов  был  человеком  любопытным,  любящим,  весёлым,  не  лишённым  склонности  к  философии.  Орехов, вышедший  из  КПЗ,  - человек  ограниченный,   скучный,  пугливый.   Когда  к  нему  кто-нибудь  приближается,  он  весь  как-то  съёживается  и  закрывает  голову  руками.  Он  перестал  шутить  и  сам не  понимает  шуток. Он  всё  понимает  буквально  и  как-то  односторонне.  А  следователь  из  областной  прокуратуры  выяснил, что  в  машине  с  Ореховым  находилась  не  его  жена,  а  шеф-повар  Дома  Инвалидов,  Татьяна  Николаевна  Журкина,  что  никаких  встреч  у  Орехова  с  Ляжкиной  в  тот  раз  не  было   и,  наконец, что Орехов  действительно  потерял  свой  перочинный  нож  и   искал  его  в  Доме  инвалидов. Короче  говоря,  его  версия  об  убийстве  Ореховым  своей  жены  не  подтвердилась  и  он,  разочарованный и  потерявший  интерес  к  Орехову,   уехал,  не  простившись  с  ним.

Узнав  о  возвращении  Мити, скитские  «самовары»  обрадовались.  О  том,  что   с  ним  случилось  в  лесной  сторожке,  они  не  знали.  Зато  Мария  Ивановна  не  находила  себе  места.  Ей  было  стыдно  и  больно.  Во  всём  она  винила  себя,  свою  глупость  и  доверчивость.  В  ските  это  её   состояние  заметили  и   не  раз  спрашивали о его  причине.  Она  отговаривалась  плохим  самочувствием.   Настроение  Марии  Ивановны   не  могло  не  отразиться  на  её  подопечных.  Одни  погрустнели,  другие  стали  задумчивее,  а  Федька   стал  особенно  зло  насмехаться  над  Иваном  Ивановичем.   -  А  жидов  в  Париж  разве  пускают? – спрашивал  он. – А  засранцев?  Они  ведь  весь  Париж  засрут!   Эй, Ваня,  расскажи  про  Париж,  как  ты  там  обосрался.  Иван  Иванович   молчал,  опустив   голову.  Наконец,  хамство  это  всем  надоело  и  Петров  резко  оборвал  его,   рявкнув на  Федьку: «Заткнись!»    Федька  заткнулся,  не  решаясь  послать  подальше  Героя  Советского  Союза,  однако, затаил  злобу и  когда  на  следующий  день  пришёл  Лёха,  он  мимикой  дал  ему  понять,  чтобы  он  повесил  его  позади  Ивана  Ивановича. Тот  это  и  сделал.  Никто  не  придал  этому  значения. После  обеда,  когда  многие  дремали,  покачиваясь  на  своих  парашютах,  Иван  Иванович  вдруг  громко  и  испуганно  стал  спрашивать: - Что  такое, что  такое?  Все  посмотрели  в  его  сторону  и  увидели,  что  Федька  писает  ему  на спину.  – Ты  что  делаешь,  паразит? – закричал  Гуськов.  -  А  тебе  какое  дело? – огрызнулся  Федька.  – Ну,  и  гад же  ты! – закричали  все. 
В  тот  вечер  Мария  Ивановна   пришла   особенно   нервная  и  расстроенная.   Узнав  о случившемся,  пригрозила Федьке   переводом в  «тюрьму»  Долго  и  тщательно  убирала  помещение.  Когда  собралась  уходить  и  с  трудом,  опираясь  на  щётку,  распрямила  спину,  с  Иваном  Ивановичем  случился  грех.  Его  пронесло  на  только  что  вымытый  пол.  Мария  Ивановна молча вытерла пол  под  Иваном  Ивановичем,  немного  постояла,  опершись на  швабру  и  тут  разум  её  помутился.  Все  прошлые  обиды  и несчастья,   все   переживания  последних  дней  соединились  в  её  голове.  Она  сняла  со  швабры  тряпку  и  с    размаха  ударила  ею  Ивана  Ивановича по  лицу. Первые  секунды  после  этого  в  ските  стояла  тишина,  скучная,  как  в  покойницкой.  Потом  было  слышно,  как  Иван  Иванович  давился  воздухом,  который  отказывался  помещаться  у  него  в  груди.  И  лишь  после  этого  всё  живое,  кроме  Федьки,  слилось  в  длинном  и  горестном  крике.  Можно  было  подумать,  что  грязной  тряпкой  ударили  по  лицу  не  только  Ивана  Ивановича,  но  и  всех.  В  крике этом  было  бесконечное  горе  изуродованных  человеческих  тел,  горькая  обида  беспомощных  существ,  лишённых  в  жизни  всего,  кроме  осознания  своей  беспомощности.  Особенно  больно  было  им от  того, что  сделала  это  Мария  Ивановна,  самый  близкий  им  человек.  К  оплеухам  Лёхи  они  уже  привыкли, но  никак  не  ждали   ничего  подобного  от  доброй  женщины. Заикаясь  и  задыхаясь,  Иван  Иванович  кричал  Марии Ивановне: - Как  ты  смеешь,  дрянь,  я  тебя   презираю!   Мария  Ивановна не  шевелилась.   Раскрыв  рот  и  вытаращив  глаза  она  смотрела  на   эти  стенания  и  не  понимала,  почему  под  ней  не  разверзлась  земля.  Она  заслужила  это  и  хотела  этого.  И  она,  наконец,  разверзлась.  «Самовары»   стали  рваться  из  своих  парашютов.  Прошла  минута и все,  кроме  Федьки и Петрова,  валялись  на  полу,  крича  и  содрогаясь.  Мария  Ивановна  упала  на  колени  и  стала  молить  у  всех  прощения,   целуя  и  гладя  каждого.  Слёзы  текли  по  её  щекам.  Она  их  не  утирала.   Жуткую  картину  эту  увидела  судомойка  Соня,  заглянувшая  в  скит  в  поисках  Марии  Ивановны.  Испугавшись, она  побежала  к  главному  врачу,  а  тот,  ничего  не  поняв  с  её  слов,  но  испугавшись,    прибежал в  скит.  Успокоившись и  повиснув  снова  в  своих  «парашютах» мужчины  сразу  стали  ругать Федьку,  требуя  выкинуть  его  из  скита.  Главный   врач  пообещал подумать,    а  пока  что  велел перевесить  его  подальше  от  Ивана Ивановича,  что  и  было  сделано.   Перед  тем  как  покинуть  скит  Михаил  Ефимович подошёл  к  Ивану  Ивановичу,  положил  руку  ему  на плечо  и  спросил,  не  пора  ли   им  встретиться  у  него  в кабинете - что-то  давно  они  не  беседовали.  Иван  Иванович  с  ним  согласился.

Дмитрий   Морозов  вышел из  вагона  поезда  на  Киевском вокзале.  Площадь,  на  которой  он  оказался,  была  заполнена  трамваями, автобусами,  автомашинами  и  людьми.   К  нему  то и дело  подскакивали  какие-то  мужики и спрашивали «Кому  на  Казанский?»,  «Кому на Курский?», а  один  даже  спросил: «Хомут не трэба?» Другие тоже приставали,  предлагая  всякую  дрянь.  Дмитрий,  зло  матерясь, гнал  их  прочь.  Он  понимал,  что  на  вокзалах  ничего  стоящего  ему  не  найти  и  решил  поискать нужное  ему  на  какой-нибудь  «приличной»  улице.  Об  одной  такой  улице  он  слышал  ещё  в  лагере.  Улица  эта  называлась  Арбат.     Он  нашёл  её.  Дойдя до  ювелирного  магазина, остановился  и  осмотрелся.  Заметил  двух  мужчин и даму.  По  напряжению  глаз  понял,  что  они  кого-то  высматривают,  ищут.  Один  из  мужчин,  походя  мимо  него,  спросил: «Стучишь?»   Дмитрий  кивнул.  – Золото,  серебро? – спросил  мужчина. -  Золото, - ответил  Дмитрий.  – Иди  за  мной.  Дмитрий  пошёл.  Через  железную  калитку ворот  прошли  во  двор  и  зашли  в  подъезд  старого  деревянного  дома.  Дмитрий  сразу  занял  место  в  углу. – Покажи,  - сказал  мужчина.  Дмитрий  полез  во  внутренний  карман  пиджака  и тут  заметил,  что  кто-то  спускается  со  второго  этажа.   Он  сделал  вид,  что  ошибся  карманом и  стал  ощупывать   другие   карманы  своей  одежды.   Тут  к  нему  подошёл  второй  мужчина,  тот  который  спустился  по  лестнице  и,  достав  нож,  скомандовал: «Гони,  что  есть»  Дмитрий  полез  в  карман  и  достал  самородок.  Увидев  его,  мужики  обалдели.  Дмитрий  воспользовался  этим  и,  выхватив   нож,  ткнул  им  одного  и  другого.  Мужчины  скрючились,  матерясь  и  проклиная  его,  а  он,  раскидав  их  в  разные  стороны,  вышел  на  улицу.   Да,  -  подумал  он,  -  этот  способ  продажи  отпадает.  Развелось  этих  крыс  за  войну!  Пойду-ка  я  другим  путём.  И  он  отправился  на  Тишинский  рынок.  Надо  было  потолкаться  среди  народа,  послушать  разговоры,  что он  и  сделал.  Рынок  оказался  тесным и шумным. Между  его  деревянными  павильонами  и  прилавками  суетился  народ  со  свёртками,  сумками,  мешками  и  авоськами.  Торговали  отрезами  материала,  сапогами,  кусками  мыла,  о  котором  в  народе  говорили,   что  оно сделано  из  человеческого  жира,  солью  или  каким-то  порошком  на  неё  похожим,  трясли  в  руках  брюки,  солдатские галифе,  пиджаки,  платья  и  кофточки.  Предлагали  пластинки  Лещенко  и  Вертинского,  трофейные  часы,  радиоприёмники и фотоаппараты,  самовары,  статуэтки,  театральные  бинокли,  целлулоидные  пупсы  и  многое,  многое  другое.  Прислушиваясь  к  разговорам,  Дмитрий  обратил  внимание  на  двух  евреев,  обсуждающих  довольно  горячо  вопрос  о  создании  организации  объединённых  наций.   - Была   Лига  наций, - говорил  один, - и где  она  теперь?  Нет,  Вы  скажите,  где  теперь  Лига  наций,  где  решение  палестинского  вопроса,  я  Вас  спрашиваю. Я  уверен  на  1000%,  что  эту  Вашу  ООН  ждёт  то же  самое.  Ну,  скажите  мне  раз  и  навсегда:   Вы  хотите  объединить  Европу  с Африкой, а Азию с Америкой? Так объедините  сначала  северный  полюс с южным  и  посмотрите  что  получится. На  это  другой  еврей  предложил  соединить лучше серебро с золотом.  Золота  станет  больше,  а  гешефт  выгоднее.   Упоминание о золоте  Дмитрия  заинтересовало.  Он  решил  проследить  за  евреем.  Через  некоторое  время  он дошёл с ним до  ювелирной  лавочки  и  зашёл  в неё.    Ювелир  оказался очень  осторожным  и  долго  делал  вид, что  не  понимает,  что  от  него  хочет  Дмитрий.  Наконец,  он  предложил  ему  показать «вещь»  Дмитрий  развернул  перед  ним  части  самородка.  Он  заметил,  как  у  еврея  затряслись  руки.  – У  меня,  молодой  человек,  нет  таких  денег, -  сказал  он, - но  если  Вы  зайдёте  завтра  в  это  время,  я  постараюсь  для  Вас  кое-что  сделать.  Теперь  Дмитрию  осталось  найти    женщину,  чтобы  прилично  провести  ночь. Выйдя  с  Арбата,  он пошёл  по  бульвару,  где  сел  на  лавочку.  Вскоре  к  нему  подсела  девушка. Худенькая,  светленькая.    Она  попросила  папиросу   и  сразу  стала  уверять  его  в  том,  что  она  не  такая,  как  он  о  ней  думает,  что  ей  просто  нечем  кормить  мать  и  сына  и  что если  они  будут  встречаться,  то она  вернёт  ему  деньги,  когда  найдёт  работу по  специальности.  Он  поинтересовался  её  специальностью. Оказалось,  что   она  балерина.  В   переулке,  выходящем  на  бульвар,  они  зашли  в  невысокий  дом  и  по  длинному  коридору они  прошли  в  её  комнату,  вернее,  в две  комнаты,  вторую,  запроходную,  занимали  её  мать  и  маленький  сын,  что  понял  он  по  ворчанью  и  бормотанию  за  дверью.  Здесь,  в  этом  маленьком  мирке  этой  маленькой  женщины  он чувствовал  себя  неуютно.  Всё  казалось  ему таким  хрупким  и  жалким,  что  он  боялся  сделать  лишнее  движение.  И  эта  полочка  с  фотографиями  в  рамочках,  и  это  зеркало с фацетом  и слоники  на  комоде,  и  эта  железная  никелированная  кровать   с подзорами,  накрытая  кисеёй,  -  казались  ему  давно  знакомыми,  как  будто  он  видел  их  во  сне  о  своём детстве. Она  попросила  его  отвернуться, и  когда  он  сделал  это,  юркнула в постель.  Он  не  спешил  ложиться.  Курил  и  молчал. Самое  неприятное  было  то,  что он  боялся  этой  маленькой  женщины. За  годы  лагеря  он  отвык  от женского  пола  и теперь не был  уверен в себе.  Смешно, - думал  он, - лагерных  урок не  боялся, а  этой  фитюльки…    Утром  он оставил  ей  сто  рублей  и  ушёл  в  паршивом  настроении.  Ювелир,  когда  он  пришёл  в  лавочку,  познакомил   его  с  каким-то  кавказцем (то ли с грузином, то ли с армянином)  Тот  повёл  его  по   Пресне,  деревянные  домишки  которой  были  похожи  один  на  другой.  В  одном   таком  домике  они  поднялись  на  второй  этаж  и  кавказец  три  раза  постучал  в  квартиру.  Дмитрий  на  всякий  случай  взял  в  руку  нож.  В  квартире  находился  ещё  один    кавказец  и еврей,  толстый  и  лысый.  Кавказцы  представили  его  как  покупателя.  Перед  ним  стоял  накрытый  белой  скатертью  стол.  На  столе  стояли  бутылки  коньяка,  водки,  тарелки с закуской: салатом,  селёдкой,  икрой, крабами,  колбасой.  Сначала   говорили  о  деле.  Толстый  еврей  достал  аптекарские  весы  с   гирьками  и  взвесил  части  самородка.  Сговорились  о  цене и  толстый  достал  деньги.  Перед  тем  как  отсчитывать  их,  он  предложил  Дмитрию  положить  самородок  в  ящик  стола.  Когда  самородок  был  положен,  толстый  закрыл  его  на  ключ,  а  ключ  отдал  Дмитрию.  После  этого  он   отсчитал  и  передал  ему  деньги.  По  окончании   сделки  кавказцы,  как  положено,  предложили её  отметить.  Выпили,   закусили. Кавказцы  спели  «Сулико»  после  чего  Дмитрий  перестал  воспринимать  окружающее.  Когда очнулся,  денег  при  нём  не  оказалось, вернее,  осталось  несколько  сотен  на мелкие  расходы.  Не  было и самородка, а  заодно и стола,  в  ящике  которого  самородок  был  заперт.  Дмитрий  кинулся в лавку  ювелира,  но  лавка  была  закрыта.  Он  сел  на  какой-то  ящик  и  ударил  себя   кулаком  по  лбу. – Идиот, фраер  вшивый,  как  же  это  я!  Тут  он  вспомнил  рассказ  одного  зэка,  тоже  грузина,  или  армянина  о  том, как  тот   с  друзьями  проводил  подобные  операции.  Они   использовали  при  этом складной  столик  с   ящиком,  запирающимся  на  ключ.  Вот  почему  пропал  тот столик, понял  он.  Но  было  поздно.   Надо  было  что-то  делать.  Но  что?   Не  бежать  же  в  милицию.  Она  его  и так  ищет.  Остаётся  пробираться на Север, к  сестре  и деду.  На  Ярославском  вокзале  он  сел  в  поезд.    Ночью  его  мучили  кошмары.  Он  видел  тех,  кого  убил, пробираясь  по  стране   с   этим  чёртовым  самородком  и  тех,  кого  хотел  убить,  но  не  убил.  Ему  было  до  слёз  обидно,  что  его, прошедшего  огонь  и  воду,  имеющего  руки  по  локоть  в  крови,  так  облапошили  какие-то  фраера,  рвань  нерусская. - И  как  это  у  них   всё  гладко  получается, - думал он.  Как  они  умеют  мозги  запудрить.  Как  сыпят  они  такими  словами,  как «Дорогой»,  «генацвали»  и  как  умеют  обнять  за  плечи,  посмотреть  любящим открытым  взглядом  тебе  в  глаза,  какие  тосты  произносят  и  какие  златые  горы  обещают, если  ты  когда-нибудь  заедешь  в  их  город  или  село.       Общаясь с  немцами,  и  с  русскими    он  никогда  не  слышал  от  них  ни  подобных  слов,  ни  подобных  обещаний.  Может  быть,  потому  не  могу  я  быть  таким,  как  эти  гады,  что  меня  в  детстве  мать  врать  не  учила? – спрашивал  он  себя  Нам,  русским,  легче  убить, чем  вот  так,  как  эти,  комедию  разыгрывать. Да  и  лень  нам  выдумывать  что-то.   Душа  горит и результата  требует.  Терпения  нет.  Гоп-стоп  - наше  призвание,  а  для  тех,  кто  постеснительнее – кража.  А в  преступном  мире  евреев,  кавказцев  и  цыган  существуют  «изобретатели»  Это  они  придумывают  всякие  мошеннические  комбинации  такие,  как со  столиком,   с   разменом  денег,  со  сбытом  стекляшек  под  видом  драгоценностей  и  множество  других  хитрых  комбинаций,  требующих  располагающей  внешности  и  артистических способностей.   Что ж,  каждому  своё,  а  гадов  этих  я  всё-равно  найду -  подумал  он, - и,  повернувшись  к  стенке,  уснул.

Тайна   оскопления  Славы  сохранялась  не долго.  Повариха  Татьяна в  разговоре  с  посудомойкой Соней    как-то  брякнула  об  этом,  не  обратив  внимания  на  Лёху, пожиравшего  из  лохани  баланду.  Нечего  и  говорить,  что  через  пол  часа  об  этом  знал  весь  монастырь  и  прилегающая к нему деревня.  Мария  Ивановна, встретив  во  дворе  Лёху,  стала  ругать  и  стыдить   его.  Лёха  же    обвинил  её  в  содействии  оскопителям  и  пригрозил    «накостылять»  ей  и даже  замахнулся  на  неё.  И  надо  же  такому  случиться,  что  в  этот  момент, совершенно  неожиданно,  появился  рядом  Митя.  Заметив,  что  Лёха  непочтительно  разговаривает  с  Марией  Ивановной  и  даже  пытается   её  ударить,  Митя,  подойдя  сзади,  взял  Лёху  за  шиворот  и  поднял  над  землёй.  Лёха  заорал  и   задрыгал  ногами.  Мария  Ивановна  стала  просить  Митю  отпустить  Лёху.   Тот   нехотя  поставил  его  на землю.  Лёха,  отбежав  на  несколько  шагов, зло  поглядел  на  Митю  и  что-то  злобно  пробормотал.   Мария  Ивановна  после  обеда  зашла к  Славе.  Он   всё  так же  лежал,  глядя  гладью  голубых  своих  глаз  в   белый  потолок.  Она  пыталась  как-нибудь  отвлечь  его  от  печальных   мыслей,  но  у  неё  ничего  не  получалось.   И  тут  она  вспомнила  Николая  Островского,  про  которого  слышала  ещё  до  войны.  Этот  Николай  Островский  ослеп,  не  мог  двигаться,  но  не  сдался,  не  превратился  в  бревно  бесчувственное,  а  стал  писать  книги  про  Павку  Корчагина,  то есть  про  себя.  Она  рассказала  о  нём  Славе  и  уговорила  его  сочинять  что-нибудь,  а  она  будет  его  рассказы  записывать.  Когда  она  пришла  к  нему  на  другой  день,  он  продиктовал  ей  начало  своей,  как  он  её  назвал,  «Повести  о  печальной  любви»  Повесть  начиналась  так: «Льются  звуки,  нежно  осыпаются  лепестки  музыки,  вянет  свет  электрических  лампочек,  а  прямо  перед  окнами  остановились  загадочные  зрачки  осеннего  вечера.  Я  знаю,  в  этой  темноте  полощутся  голые  ветви  осинника,  грустно  развеваются  длинные  пряди  берёз,  по-девичьи  рдеют  красные  ягоды  рябины   и  старый  дуб  монотонно  машет  небу  своими  последними  листьями.  Там  в  синеющих  сумерках   застыли  хороводы  звёзд,  бросая  на  землю  горсти  лучей.  Звёзды  дышат,  звёзды  любят,   улыбаются,  звенят  и  напевают  свои  неуловимые   для  нас  напевы.  Вдалеке,  словно  голуби,  посматривают    тускло  освещённые  деревни,  контуры  леса,  верстовые  столбы.  Я  о  чём-то  думаю.  Пробегают  одна  за  другой  картины  прошлого.  Вот  набежало  настоящее.  И  грустно,  и  безотрадно,  и  неопределённо…  Что  я  есть?…  Что  кругом?  Что  в  каждой  точке  земли?  Чем  там  живут?   Глаза  мои  устают от безответной  темноты.  Что  это  такое?  Неужели  пришла  осень?»  У  Марии  Ивановны  застучало  сердце.  Славины  слова  о  таких  простых,  знакомых  и  совсем  непримечательных  для  неё   вещах и явлениях,  показались  очень  красивыми  и  значительными.  Она  не  жалела  на  них  своих  каракуль  и   даже  забыла   о  своих  обязанностях,  ждавших  её  с грязной  тряпкой в руках.  Она  с  упоением  записывала  Славины  фантазии, и  мир  открывался перед  ней  совсем  в  другом  свете и цвете.  «Догорают  последние  краски  заката,  жухнут  и  словно  обугливаются.  В  далёкой  глубине   затрепетали  крупные  искрящиеся  звёзды.  Я  не  перестаю  думать  о  Любе,  не  перестаю   ей  желать  счастья…»   От  слова  «Люба»  Марию  Ивановну  передёрнуло.  Уйдя от  Славы,  она  не удержалась, чтобы  не  зайти к  ней  и не  поделиться  своим   впечатлением  от  Славиной  повести.  На  Любу  её  восторженные  слова  не  произвели  никакого  впечатления.  Заметив  это,  Мария  Ивановна  повернулась,  чтобы  уйти  и когда  открыла  дверь,  услышала, как  Люба неуверенно  и, как  бы  стесняясь, прошептала: «Скажите  Лёхе,  чтоб  зашёл»   Мария  Ивановна  плюнула  и  вышла   из  палаты,  хлопнув  дверью.

Когда  стало  вечереть,  Михаил  Ефимович  Кошкер  попросил  Лёху  принести  в  его  кабинет  Ивана  Ивановича.  «Интеллигенция»  Дома  инвалидов  №17  была  немногочисленна.  Иван  Иванович, Михаил Ефимович,  два   инвалида  из  общетерапевтического и один из  психиатрического  отделения, а,  бывало,  что  и   погибший  Мамин – он  был  музыкантом и вносил  в  разговор  лирическую  струю.  Иногда  их  посиделки  посещал и бывший священник  Красовский.    Говорили обо  всём,  в том  числе  и  о  том,  о  чём  обычно  говорят  русские  люди,  когда  думают,  что  их  никто  не  подслушивает.  Бывало  Иван  Иванович  скажет, хитро  прищурившись: -  А всё-таки  нет  более атеистической  интеллигенции; чем  русская!  И  тут  же  Михаила Ефимовича  прорвёт: -  Ну,  что  Вы, Иван  Иванович,  а  кто  же  такие  все  эти  Соловьёвы,  Булгаковы,  Леонтьевы,  Ильины,  как не интеллигенты?  А  Толстой,  а Достоевский?  -  Человек,  придерживающийся  тоталитарного  учения, каким  является  учение  церкви, - вступив в  беседу, скажет  третий, - не  может  быть свободен  в  мыслях,  а  без  этого    не  может  быть  интеллигента.     И  тут  пойдёт  у  них  дискуссия,  от  которой  они, то  соглашаясь, то  не  соглашаясь друг  с  другом, получат  удовольствие не столько  от  смысла  сказанного,  сколько  от  удачного   интересного  словца  или  образа, смелости  мысли.    И  вот,  в  продолжение начатого  разговора,  один, ели  дождавшись  окончания  тирады  другого,  скажет: -  Позвольте,  да  как  же  это,  ведь,   начиная  с  Белинского,  атеизм  стал  непременным  признаком  интеллигентного  мировоззрения. 
- Да  это  всё поза,  - кто-нибудь  скажет, -  это  ему  диктуют  правила  хорошего  тона,  которые  он  заимствовал   у  европейцев, а сам,  как прижмёт  болезнь,  так  бога-то и   вспомнит.   
-Это ни о чём не говорит, - ответят ему, - ведь  приверженность  интеллигенции  к  просвещению  само  по себе  делает  её  безразличной  к  вопросам  веры, а то, о чём Вы говорите, это всего лишь привычка.
- Нет, батенька, - закатив глаза к потолку,  встрянет кто-нибудь третий в разговор, - суеверные страхи живут во всех. Да и поверить чему-то потустороннему легче,  чем живому человеку. Возьмите Вы Шекспира. Поверил Отелло Яго, задушил любимую женщину, а оказалось, что Яго наврал, а Гамлет, узнав об убийстве своего отца от его тени, не ошибся. И, заметьте, Гамлет реалист, помните, как он о червяках и королях рассуждает, а тут вдруг поверил призраку, и все поверили, даже зрители. А сказал бы ему об этом Гильдестерн, или Розенкранц, - чтобы вышло: простая сплетня. Можно ли ей верить? – Нет,  а вот тени покойника можно, она не соврёт.
- А старуха, «Пиковая дама»? – прошепчет кто-то. И тут в кабинете главного врача, как цепочка над унитазом, повиснет тишина, а потом все заговорят  наперебой, не слушая друг друга, так,  что     посторонний  наблюдатель  не  сможет понять,  кто  какую  позицию  занимает  и  против какой  возражает.   
-  Но  ведь  тем  самым, - вдруг прорвётся кто-то сквозь гам голосов, - интеллигент  отдаляет  себя  от  народа,  а  своими  «научными»  проповедями,  как справедливо  считали  наши  православные  мыслители,  он  только  разлагает  душу  народа и  сдвигает  её  с  незыблемых  вековых  традиций. 
-  Вы  называете  «вековыми  традициями»  рабство?  Чем  же  Вы  отличаетесь  от  Достоевского,  который  призывал  русскую  интеллигенцию  во  имя  высшей  святыни  к  духовному  самоотречению,  к  пожертвованию  своим  гордым  интеллигентским «я», а  что  это,  за  «высшая  святыня»,  ради  которой  люди  должны   сносить  и  нищету,  и  несправедливость,  и  варварство, - не  объяснил. 
- Они  понятны  каждому  человеку,  почитайте  Нагорную  проповедь,  в  ней  всё  сказано. 
-  Не  всё.  В  том-то  и  дело,  что  не  всё - выпалит  Иван Иванович, -  В  ней ничего  не  сказано  о  подвиге  самого  Иисуса  Христа,  выступившего  против  лжи  и  жестокости.  Заметьте, не  против  веры и пророков,  а  против  косности и  ограниченности  священнослужителей!  Его  поддержит  представитель  нервно-психиатрического  отделения,  которого  после подобных  бесед в кабинете  главного  врача,  не  раз  приходилось  фиксировать,  привязывая  к  койке, - Посмотрите, - скажет  он, - какую  он интеллигенцию в «Бесах»  вывел! Это карикатура  на  интеллигенцию! Он  сравнил  её  с  евангельским  бесноватым, а  сам  то  он и  был  первым бесом, как  Победоносцев и  ему подобные.  Это  они  своей  тупой  и  варварской  политикой  толкали  людей  на  путь борьбы  и  террора! 
И тут  Михаил Ефимович,  спохватившись,  бывало, закричит: - Господи,  заговорились мы,  а  я  Вас  ещё  чаем  не  напоил!  И  начнёт  угощать  гостей  чаем,  а  Ивана Ивановича – поить,  то  и  дело  отстраняя  кружку  от  его  рта,   поскольку тот  ни на минуту не  умолкает.    
– Да  русская  интеллигенция, - примирительно  скажет  представитель  общесоматического  отделения, - предпочла  путь  борьбы не  ради  всеобщего  равенства,  поскольку  в  большинстве  своём  жила лучше, чем  жил  народ Возьмите  вы  того  же  Герцена,  Плеханова, Лаврова,  Ленина  - все  они  выходцы из  дворянского  сословия и жили  отнюдь не  бедно, а  потому,  что  их  привлекала та  же  личность  Христа  своей  жертвенностью.  Героизм -  вот  то слово,  которое выражает  основную  сущность  интеллигентского  мировоззрения  и  идеала,  а  до  чего  этот  героизм  довёл,  мы знаем.  Тут у  нас не  мало  тех,   которых   его  плодами  пришибло. 
-  Вы  не  правы. -  скажет на это  Михаил  Ефимович, -  Конечно,  путь  борьбы  не  всегда  приводит  в  сады Эдема,  но это  не  значит,  что   человечеству  этот путь заказан  и  если    мы  говорим,  что  дети за  грехи  отцов  не  отвечают,  то  почему бы  не  сказать  и  то,  что  не  могут  за  все  художества  детей  отвечать    родители! 
  Подобные разговоры  длились  часами,  оттачивая  языки  и  углубляя  извилины.  К тому  же  они  стимулировали  участников дискуссий  к  чтению,  а  для  этого  в  заброшенном  монастыре  была  неплохая библиотека,  оставшаяся  в  наследство  от  прежних  времён.  Правда,  большинство  книг  в  ней  принадлежало  к  т.н. духовно-нравственному  жанру,  а  поэтому  они  не  вызывали  интереса  у большинства  обитателей  Дома  инвалидов.  Возможно  для  них   самоограничение,  бедность и  сопротивление  похоти  не   имели  той   привлекательности,  которую   бы  они  могли  иметь  для тех,  кому земные  радости  были   доступны.  Они  не  понимали,  наверное,  почему  жизнь  впроголодь  и  «связь  с  кулаком»  являются воплощением  высокой  духовности  и  отказывались  это  понимать. 
На  этот  раз  в  кабинете  главного врача  их  было  двое: Иван  Иванович и Михаил  Ефимович.   Мамина  не  стало,  Красовский,  запуганный  Савиным,  сидел у себя в деревне,  один из представителей  общесоматического  отделения  уехал,  другой  - умер, а  тот,  что  находился  в  психиатрическом  отделении, совсем  свихнулся и  стал  утверждать, что  через 50  лет, хоть и не навсегда,  в  Россию,  как  Дед Мороз на новый  год,  придёт  демократия.  Иван  Иванович  и  Михаил  Ефимович   отводили  на  подобные  перемены  в  Союзе  более  длительный  срок,  порядка  300  лет.  На этот раз  им  особенно  хотелось  спокойно побеседовать,  чтобы  отвлечься  от  неприятностей. Они,  увлечённые  разговором,  не  знали,  что  их,  приложив  ухо к  замочной  скважине,  подслушивает  Лёха.  Ему это было  необходимо, ведь  не  зря  же  он  предложил  Савину  свои  услуги,  а Савин,  хоть  и  не  принял  его  предложение всерьёз,  всё  же  не  оттолкнул  его,  не  прогнал,  посчитав, что  в  его  деле  всякий,  даже  самый  ничтожный  человечек  может  пригодиться.  Поэтому-то  так  внимательно,  несмотря  на  неудобство  позы  и  опасность  быть застигнутым  за  этим  гнусным  занятием,  Лёха,  не  отрываясь  от  замочной  скважины,  слушал  разговор  двух  презиравших  его  людей,  практически  не  понимая  смысла  сказанного,  а  улавливая лишь  те  слова, которые, по  его  мнению,   могли  быть  признаны  антисоветскими.  Иван  Иванович  же  и  Михаил  Ефимович  сначала  много   смеялись,  видно  шутили,  перебрасываясь  какими-то  дурацкими  фразами как,  например: «Знаете, ну,  что  Авраам  родил   Исаака,  я,  как  исключение,  допускаю,  но  чтобы ещё  Исаак  родил   Якова,  то   это  уж,  извините,  полный  нонсенс»,  или  «Женщина  любит  мужчину  в  себе,  а  не  себя в мужчине»     Перестав  шутить «интеллигенты»  перешли  к  «учёному»  разговору.   На  этот  раз  их  интересовали  проблемы  либерализма  и  тоталитаризма.   Один  из  них  сказал,  что  все  мы  бываем  и  либералами  и  тоталитаристами  и  зависит  это  от  того  на  какие  доходы  живём.  Человеку  на  жаловании  проще  быть  тоталитаристом,  а  крестьянину,  которому  нужна  свобода  торговли, – либералом,  и  что  доброта  и  мягкость  к  людям,  и  даже  к  преступникам, свойство  не  либерализма,  а  натуры  человека.  Потом   они  заговорили  о  каком-то священнике  по   фамилии  то ли Лоронский,  то  ли Форенский. Лёха  слышал  своими  ушами,  как  они  говорили  о  том,    что   для  того,  чтобы  руководить  таким  великим  государством,  как  СССР,  нужно  лицо  пророческого  склада,  что  лицо  это  должно  видеть  будущее  и  быть  таким,  как  Гитлер  и  Мусолини, что  появление  таких,  как  Гитлер,  отучит  массы от  демократического  образа  мысли, от  партийных,  парламентских  и  прочих  либеральных предрассудков и  даст  им  понять,  как  много  может  сделать  воля  властителя,  не  отягощённая веригами права.  Они  говорили,  что  священник  этот  учил  тому,  что  такой  вождь должен  не  бояться     выбросить  все  эти  избирательные  права  и  право  народа  на  представительство,  как  старую  ветошь,  которой  место  в крематории  и  что   как  бы этот  деятель  ни  назывался:  диктатором,  правителем  или  императором,  люди  должны  считать  его  истинным  самодержцем  и  подчиняться  ему  не  из  страха,  а  в  силу  трепетного  сознания,  что  пред  нами  чудо  и  живое  явление  творческой  мощи  человечества.  Сказанные кем-то  из  собеседников  слова  «Бред  какой-то»  Лёха  пропустил мимо  ушей,  они  были  ему  не  интересны.  То,  что  услышал Лёха  дальше,  вдохновило  его  на  донос  сверх  всякой  меры.  Упоминая  всё  того же Форенского  наши  собеседники  стали  говорить о том,  что  сделать  такую  власть  можно  только  с помощью  Германии, пообещав  ей  златые  горы,  и что Германия,  поверив  этим  обещаниям,  согласится  на  это  с  целью  подчинения  себе  СССР.
Когда  Лёха  нёс Ивана Ивановича  обратно  в  скит,  то  боялся уронить  его  или  упасть  и  нечаянно  прибить  этого  «интеллигента»,  понимая,  что в этом  случае  донос,  который он  теперь  предвкушал,  утратит  половину  своей  прелести.

Дмитрия  Морозова  не  покидало  мрачное  предчувствие.  Иногда   ему  казалось,  что  за  ним  следят.  Невозможность,  как  он  не  старался,  выявить  слежку,  его  раздражала  и  он  ругал  себя  за  то,  что,   наверное,  выдумал  её.  Успокаивая себя,  говорил: -  Ну, зачем  им  за  мной  следить?  Взяли  бы  давно  и  дело  с  концом. И  всё-таки  тревога  и  страх  не  покидали  его.  Он  понимал,  что  надо  «рвать  когти»  из  Москвы.  В  большом  городе,  где  столько  людей,  столько  углов, окон,  подъездов, подворотен,  столько  стеклянных  витрин,  зеркал,  застеклённых  газетных  стендов,  в  отражениях которых  ему  мерещились  волчьи  глаза  агентов  службы  наружного  наблюдения,  он  мечтал  об  одном:  оказаться  в чистом  поле,  чтобы  всюду,  куда  хватает  глаз,  было  пусто.  Однако,  на  его пути  к  чистому полю   стояла  одна проблема:  деньги.  Бежать  из  города  с  пустыми  руками  было  невозможно  и  глупо.  Но  что  было  делать,  не  нападать  же  с  ножом  на  прохожих,  у  большинства  из  которых  в   карманах  денег  не  больше,  чем  у  него.  Пойти на  ограбление  какой-нибудь  государственной   службы  (почты, сберкассы)  одному,  почти с  голыми  руками,  было  глупо.  Однажды,  когда  он  сидел  на  скамейке   какого-то  бульвара,  ему  захотелось  курить и  он  полез  в карман  за  «Беломором»  Вместе  с  пачкой  папирос  он  вытащил  из кармана  какую-то  записку.  Он  стал  разглядывать  её.  Текст  на  ней,  видно  записанный  карандашом,  почти  стёрся,  однако  он  смог  прочесть «Морковкина  Лидия  Александровна  Молчановка  дом 8 квартира 54»   Это  была  бумажка,  в  которую  был  завёрнут  самородок.  Сомнений  быть  не  могло.  Это  был  его  единственный шанс  и  он   отправился  на  Большую  Молчановку.  Дверь ему  открыла  девочка  лет  восьми.  Тут  же  в  переднюю  вышла  пожилая  дама  и  велела  девочке  идти  к  себе.  Та  ушла.  Дама  спросила,  что  ему    нужно  и  он  ответил,  что  он  от  Севера.  Она  предложила  ему  пройти в комнату.  Обстановка  комнаты  произвела на  него  впечатление. Он  решил,  что  здесь  должны  быть  деньги.  Книги  в  шкафах,  картины  в  золочёных  рамах  на  стенах,  пианино  с  канделябрами,  ковры – всё  говорило  о  состоятельности  хозяев  этот  «буржуазного  гнёздышка»  Дама,  войдя в комнату,  села  в  кресло,  а  ему  указала  на  стул.  Он  сел.  Тогда  она  достала  платок  и,  вытирая  повлажневшие  глаза,  сообщила  ему,  что  Северчик,  как  она  его  назвала,  убит.  Он  сделал  вид,  что  это  известие  поразило  его  своей  неожиданностью,  и  стал  рассказывать о  том,  как  они  дружили  там  и  каким  Север  был  хорошим  другом.  Дама  качала  головой  и  время  от  времени  прикладывала  платок  к  глазам.  Когда  он  поинтересовался тем,  почему  его  назвали  Севером,  дама  сказала,  что   так  захотел  его  отец,  один  из  первых   полярных  лётчиков  Советского  Союза.  Когда  он  собрался  уходить,  дама  предложила  ему  чай.  Он  отказался  и  встал,  направившись  к  двери.  Проходя  мимо  дамы,  которая  ещё  не  успела  встать,  он  достал  нож  и   всадил  его  ей  в шею.  Дама  подалась  вперёд,  захрипела и  выплеснула    изо  рта  кровь.  В  это  время  в  комнату  вошла  девочка.  Поняв,  что   даме  плохо, она закричала  и  подбежала к  ней.  Дмитрий   заколол  и  её.  Трупы  накрыл  ковром  и  стал  шарить  по  шкафам.  «Улов»  был  не  плохой: более пятнадцати  тысяч  рублей  и  кое-какие  ювелирные  изделия.  Он  запер  квартиру  на  ключ.  Ключ  выбросил  в  мусорную  урну  и  пошёл на  вокзал. 

«Слепому»,  наконец,  удалось  отковырять  цемент  и  вынуть  плиту.  Ощупав  образовавшийся  лаз, он понял,  что  может    пролезть  в  него.   Однако  сделать  это  решил  после  того,  как  уйдёт  Мария  Ивановна  после  вечерней  кормёжки  и  на  улице,  как  он  понял  с  её  слов,  будет  темно.   Со  слов  этой  женщины, не  подозревавшей  для  чего  он  говорит  с  ней  о  монастыре  и  его  постройках,  ему  стало  известно   местоположение  его  каземата  и  направление  движения  из   монастыря  на  дорогу  в   город.  Когда  на следующий  день  Мария  Ивановна  пришла  в  скит,  каземат  или  склеп,  как  его  ещё  называли,   то  слепого  в   нём  не  оказалось.  Поняв,  что  он  сбежал  через  лаз в  полу,  она   с  испугу  поставила   плиту  на  место,  и  побежала к  директору.  -  Ищите! – кричал  директор, - он не  мог далекой  уйти! 

Дмитрий  Морозов, сойдя с поезда,   сговорился  на  вокзальной  площади  с шофёром грузовика  за  тысячу  рублей  доехать  до  монастыря.  Добрался  он  до  него,  когда  стемнело.   Метров  за  двести   до  монастыря  он велел  водителю  остановиться.  Кода вышел  из машины,  подошёл    какой-то  слепой  и  попросил  довести  его  до  города  бесплатно.  Шофёр  махнул  рукой  и  сказал   «Садись!» После   убийств   на  Большой  Молчановке  чувство  страха  в    Дмитрии Морозове разрослось  ещё  больше.  Он  даже  не  пошёл  через  монастырь,  опасаясь,  что  появление  в  нём  в  такое  позднее  время  постороннего  человека  может  вызвать  тревогу.  Он  решил  идти  в  обход.  Стало  совсем  темно.  Дорога  была  плохая,  он  часто  спотыкался,  падал или  утопал  в   снегу  и  порядком  устал.  Вдруг  впереди  запрыгали  какие-то  огоньки.  – Деревня,  - мелькнуло  у   него  в  голове, -   однако,  почему  эти  огоньки  движутся,  неужели  волки?  Да,  это  были  волки,   голодные  весенние волки.  Он  достал  нож.  Волки  окружили  его  и  бежали  рядом,   принюхиваясь  и   присматриваясь.  Наконец,  один  из  них,  молодой  и  нахальный,  подбежав  к  нему,  цапнул  за  ногу.  Дмитрий  махнул  ножом  и  порезал  ему  холку.  Почуя  запах  крови,  волки  осмелели.  Один  из  них  набросился  на  него  сзади,  вцепившись  в  воротник.  Дмитрий   попытался   ударить  его  ножом,  но  поскользнулся и  упал.  Волчица  вцепилась  ему  в  горло.

Утром  не  только  весь  Дом  инвалидов,  но  и  вся   деревня были  подняты  на  поиск  «Слепого»,  но  его  нигде  не  было.  Зато  недалеко  от  монастыря  был  найден  труп  мужчины  с  перерезанным  горлом. Труп  отнесли  в  морг.  За   последнее  время  это  был  уже  третий  случай  подобной  смерти.  По  деревне  прошёл  слух  о  том,  что  в  округе  появился  оборотень.  Бабы  заголосили  и  перестали  выпускать  детей  из  дома,  мужики  стали  вооружаться.  Вот  в  этот - то  момент  Лёха  и  вспомнил  о  Мите.  -  Это  Митька,  Митька  всё,   кто  ж  ещё,  кроме  него?  -  болтал  он,  шлясь  по  деревне и  монастырю. Вскоре  у  конторы  Дома  инвалидов  собралась   толпа  деревенских.  У  мужиков  в  руках  были  колья,  вилы  и  грабли.  На  крыльцо  вышел  директор  Гырымов.  – Что  Вам надо? – спросил  он.  - Митьку,  Митьку  давай! -  закричала  толпа.  -  У  меня  его  нет, - ответил  директор  и  продолжил: - Органам  власти  сообщено  о  найденном  человеке.  Скоро  приедет  следователь  и  во  всём  разберётся. – Знаем  мы,  как  он  разберётся!  Уже  третий  покойник,  а  следователя  и  след  простыл. Давай  Митьку!  Узнав  о  толпе,  ищущей  Митю,  Ляжкина испугалась,  но  не  только за  Митю,  но и за  себя. Она  хотела  найти  Митю, предупредить  его,  спрятать,  но  боялась  выйти  на  улицу.  Лёха  вспомнил  о  ней,  когда   толпа  была  готова  громить  контору  Дома  инвалидов,  и  чтобы  отвлечь  её  от  этого,  крикнул:  -  Он  у  Ляжкиной!  - и  повёл  толпу  к  её  квартире.  Мужики  сначала  материли  её  грязно  и зло,  а  потом  стали  бить  стёкла  её  окон.  Она  залезла  под  кровать  и  кровать  затряслась  от  её  озноба.  Видя,  что  она  не  отвечает,  они  ворвались  в  её  комнату  и  стали  бить  всё,  что  попадалось   им  под  руку.  Били  и  её  саму.  Били   зверски,  не  обращая  внимания на  её  мольбы  и  слёзы.  Когда  она  потеряла сознание,  мужики  бросили  её  и ушли.  Обыскав  барак  и  не  найдя  Митю,  они  вышли  во  двор  и  снова  направились  к  конторе,  и  тут  увидели  шедшего  им  навстречу  Митю.  – Бей  душегуба! – крикнул  кто-то,  и  толпа  кинулась  на  Митю.  Он,  видно,  не  понимая,  что  происходит,  сначала  заулыбался  бегущей  ему  навстречу  толпе,  но  когда  первый,  подбежавший  к  нему,  замахнулся  на  него  палкой,  он  вырвал  её  у  него  из  рук  и  закинул  за  монастырскую  стену. В  этот  момент  на  него  обрушился  град   ударов.  Он  отбивался,  как  мог,  но  ударов  было  так  много  и  они  были  такими сильными,  что  некоторые  палки  даже  сломались.   Вилы  и  грабли  намокли  от  крови.   Наконец,  кто-то всадил  ему  в  шею  заострённый  обломок  палки.  Хлынула  кровь.  Митя  встал  на  колени  и  захрипел,  обводя  толпу  озверевших  людей  ничего  не  понимающими  глазами.  Его  ещё  несколько  раз  сильно  ударили  по  голове,  он  упал,  уткнувшись лицом  в  снег,  и  затих.  Тут  прибежала  его  мать и  с  криком  кинулась  к  нему.  Кто-то  крикнул – Бей  ведьму! -  но  на  этот  призыв  никто  не  откликнулся.  Люди,  совершив  убийство  и  опохмелившись  кровью,  притихли  и  успокоились.  Подобрав  свой  сельскохозяйственный  инвентарь,  они  стали  расходиться   по  домам.      Когда  почти  все  ушли,     на  территорию  монастыря  въехал  санитарный  фургон,  на  матовых  окнах  которого  краснели  красные  кресты.  Фургон  остановился  у  морга.  Два  дюжих  санитара  вошли  в  морг  и  вынесли  из  него  на  носилках  найденный  в  этот  день,    труп.  Погрузив   его  в  фургон  и,  не  сказав  никому  ни  слова,  они  уехали. 

Вечером  в  монастырь  пожаловал  Савин с молодым  помощником.  Чувствовалось,  что  терпению  оперуполномоченного  пришёл  конец.  Он  кричал  на  испуганного  директора,  перечисляя  цепь  странных    и  безобразных  происшествий,  произошедших  в  его  «кефирном»  заведении  в  последнее  время:  прослушивание  по  радио  «Голоса  Америки»,  убийство  Мамина,  антисоветский  митинг  у  каземата,  убийство  Ореховой,  оскопление  «самовара»  и,  наконец, новый  труп  в  поле,  побег  «Слепого»  и  убийство  Мити.  Не  много  ли?   Директор  заикался   и  дрожал  от  страха,  он  уже  видел  себя  не  в  своём  уютном  кабинете,  а  в  лагерном  бараке  и  ощущал задом,  не  мягкость  кресла,  а  жёсткость    нар,  а  поэтому был  готов  на  всё,  лишь  бы  чаша  сия  его  миновала.  Он  каялся,  угощал  Савина  чаем  с  печеньем,  клялся  найти  «Слепого»,  однако  ничто  не  действовало   на  уполномоченного. События  явно разворачивались не в его  пользу.  Осматривающий  скит,  в  котором  находился  «Слепой»,  молодой  помощник  Савина  заметил  отсутствие  цемента   вокруг  каменной  плиты.  Он  отодвинул  плиту,  спустился  в  подземный  ход  и  нашёл  в  нём  ложку,  которой  «Слепой»  ковырял  цемент.  Узнав  об  этом,  Савин  велел  найти  Марию  Ивановну,  а  когда  её  привели,  стал  требовать  у  бедной  женщины  ответа  на  вопрос  «Почему  она  помогла  «Слепому»  бежать,  передав  ему  для  этого  металлический  предмет  в виде  ложки,  и  где  теперь  находится  «Слепой».  Мария  Ивановна  божилась  тем,  что  ложку  не  передавала,  а нечаянно забыла  в  ските,  что об  этом  она говорила  поварихе  Татьяне,  а  где  находится  теперь  «Слепой»  понятия   не имеет.  Савин ей  не  поверил  и  её  арестовал,  заперев  в  скит,  из  которого  сбежал  «Слепой»,  а  ключ  от  него  взял  себе.   У  скита  его  поджидал  Лёха,  который  сообщил  ему   о  разговоре  Ивана   Ивановича  с  Михаилом Ефимовичем.  Савин  велел  написать  ему  заявление   на  имя  начальника  районного  КГБ.  Поскольку  Лёха,  мягко  говоря,    слогом  не  владел,  Савину  пришлось  самому  бессвязные  и  косноязычные фразы своего  нового  помощника  облекать  в   более-менее  понятную  форму.   В  этот  момент  его  позвали в  кабинет  директора,  к  телефону.  Начальник   приказал  ему  выяснить,  не   появлялся  ли  в  деревне  брат  ссыльной  Евдокии  Морозовой -  Дмитрий,  и,  если  он  там,  то  немедленно  его  арестовать.  Савин  вместе с помощником,  бросился  в  дом  Морозовых,  захватив  с  собой  Лёху.  Недалеко  от  дома  он  велел  Лёхе  пойти  проведать  соседку  и  посмотреть,  нет  ли  у  неё  кого.  Лёха  вернулся  ни  с  чем.  Дом  оказался  заперт.  Удалось  выяснить,  что  ещё  два  дня  тому  назад  Евдокию  и  деда  забрал  следователь  прокуратуры и  увёз  в  город.  Оказалось,  что,    действительно,  в  деревню  приезжал  следователь   Орехов с прокурором  района  и  они  арестовали  Морозовых  за  оскопление  одного  из  «самоваров».  Савин  вспомнил  о  найденном  за   монастырём  трупе  и  кинулся  в  морг,  но  там,  кроме  трупов  старухи  и  безногого  мужика,  других  трупов  не  было.  Где  загрызаный? -  взревел  Савин.  -  Сегодня  в  город  увезли – ответил  санитар  морга.   – Кто? -  Приезжали  какие-то  на  санитарной  машине.  От обиды  и  бессильной  злобы  Савин  готов  был  перестрелять  всех  в  этой  обители  тупости  и  разгильдяйства.  В  голову  его  даже  полезли  совсем  не  патриотические  и  не  партийные  мысли,  но  делать  было  нечего,  пришлось  доложить  начальству  то,  что  есть   и  с пустыми  руками  возвращаться  в  город.  Впрочем,  не  совсем  с пустыми.  У  него  имелась  в  руках  группа  заговорщиков,  которые,  по  словам  Лёхи,   восхваляли  Гитлера и готовили  в  стране  переворот  с  помощью  немцев. Разведя  Михаила  Ефимовича и Ивана  Ивановича  по  разным  кабинетам,  Савин  с  помощником  преступили  к  их  допросу.  Особое  рвение  при  этом  проявил  молодой  помощник,  которому  достался  допрос  Ивана  Ивановича.  После  его  не  совсем  понятных  объяснений  по  поводу  либеральной  и  тоталитарной  форм  устройства  общества  и  философских  воззрений  ряда  лиц и,  в  частности,  некоего    священника   Флоренского,  молодому  помощнику  стало  ясно,  что  задержанный  темнит  и  пытается  увести  разговор  в  сторону,  пользуясь  познаниями  в  области,  не  имеющей  отношения  к  настоящему  делу,  а  поэтому  он   записал  в  протоколе   такую  фразу:  «Перестаньте  хитрить  и  уходить  от  ответов  на  поставленные  перед  вами  вопросы.  Следствию  всё  известно  о  ваше  преступной  деятельности,  приступайте  к  даче  правдивых  показаний»  Иван  Иванович  видно  не   понял,  что  от  него  ждёт  следователь,  и  стал  повторять  то,  что  уже  не  раз  говорил.  Молодой  помощник,  которому  надоело  возиться  с  этим  старым  ослом,  мотавшим  ему  душу  своей  дурацкой  болтовнёй,  не  сдержался  и  сильно  ударил,  сверху  вниз,  Ивана  Ивановича ладонью  по  лицу.  У  того   брызнула  кровь  из  носа  и  он  крикнул: «За  что!»  Этот  крик  услышал  Савин.  Он  вбежал  в кабинет,  чем  спас  Ивана  Ивановича  ещё  от  одного  удара.  Допрос  был  прекращён.  Савин решил  оставить  этот  старый  «самовар»  в  монастыре,  а  Михаила  Ефимовича  толкнул в машину  и  уехал.         
         
Операция  прошла  успешно.  Кузнецов  под  хлороформом  видел  сны  о  своей  московской  жизни.  Он  приехал  в  столицу,  потому  что  ехать  ему  был  некуда.  То,  что  было  его  домом,  его  близкими,  навсегда  исчезло  с  лица  Земли.  В Москве  же  легче  было  приспособиться  к  жизни,  найти  какое-нибудь  занятие,  чтобы  прокормиться. Он  решил  продолжить  образование  и,  приехав  в  Москву,  стал  подыскивать  подходящий  институт.  Нашёл. Там сказали  «Приходите  в  августе»,  а  это  был   февраль.  И  жизнь  закружила  его,  однорукого  и  одноногого  в  своих  объятиях.  Жил  с  такими  же,  как  он  сам, убогим  в  подвале  какого-то  большого  дома  на  Трубной.  Днём  торговал  папиросами  на  Цветном  бульваре, ставшем частью Центрального рынка ночью  пьянствовал.  Костыли его были грязные и ободранные. Клеёнка, которой была обтянута вата на их верхней перекладине, порвалась и  из-под неё торчала вата. Стоя на рынке, он устраивал культю ноги на нижней перекладине костыля. Бывало, напившись, дрался с такими же, как он,  зло и безотчётно, упиваясь боем, как воспоминанием о своём героическом прошлом.  После драки  ползал по земле, подбирая костыли. Он чуть было не свыкся со всем этим тоскливым и заунывно-драчливым бытом, однако, жизнь пощадила его и свела  его  с  одним  стариком,  поведавшем  ему  перед  смертью  о  каких-то  сокровищах,  награбленных  фашистами,  и с  женщиной  по  имени  Тоня,  спившейся  актрисой.  Бывало,  скажет  ей: - Актрисуля,  трахнем  ещё  по  маленькой,  и  она,  хитро  посмотрев  ему  в  глаза,  ответит: - Ну,  разве  что  по  маленькой. Сокровища  он, подобно графу Монте-Кристо  искать  не  стал,  не  до  того было,  а  женщину  эту,  самую  любимую  из  всех  его  самых  любимых,  как-то  по  пьянке,  зарезал  один  псих.  С  горя  он  бросился  под  поезд  после  чего  и  оказался  в  ските.
Пока  Кузнецов  смотрел  сны  о  своём  прошлом,   Рыжая  бестия нервничала.  Когда же,  наконец,  влюблённый  в  неё  хирург   стянул  со  своих  рук  резиновые  перчатки  и  вытер  пот  со  лба,  она  спросила  его: -  Ну  как?  И  он  ответил: - Нормально. Будем  надеяться  на  лучшее.  Для  такой  надежды  были  основания. Во-первых,  у  Кузнецова  и  его  донора  была,   к  счастью,  одна  группа  крови и,  во-вторых,  у  хирурга  было  какое-то  заграничное  средство,  способствующее  приживанию   тканей.    Когда Кузнецов  пришёл  в  себя   после  наркоза,  то  увидел  над  собой  лицо  влюбленной  женщины.  – Хорошее  начало!  -  подумал  он.   
Радоваться  жизни  Рыжей  долго  не  пришлось.  Савин  установил  на  чьей  машине  вывезли  труп  из  морга  и  кто  всё  это  организовал.  Через  день  после  операции  Рыжая оказалась  за  решёткой.  Хирург  же,  предвидя  такой  сценарий,  заранее  подготовил  фальшивые  документы  на Кузнецова  и  уложил  его  в  клинику  под  чужой  фамилией.  Оставалась  одна  проблема:  куда  девать  остатки  трупа  донора?    Выход  был  один:  сдать его,  как  обычно,  на  кладбище  вместе с невостребованными  трупами.  Но  были  ли  такие?   Оказалось,  что  один  такой  был.  Хирург  исправил   единицу  на  двойку  и  велел  сегодня  же отвести  трупы  на  кладбище.  Савин  запретил  привлекать  хирурга к  работе в районной  больнице,  а  Рыжую  выпустил  по  указанию начальника,  решив,  что  у  неё  во  власти  есть  большая  мохнатая лапа.

В  Дом  инвалидов,  несмотря  на  все  жуткие  события  последнего  времени,  всё-таки  пришла  ленивая и  сонная   северная  весна.   Запели  кое-какие  птицы,   закапала  вода  с  крыш,  на  дорогах  затемнели  проталины.  Коллектив  сотрудников  и  контингент  его  обитателей  стали  готовиться  к  праздникам:  Первомаю   и  Дню  победы.  Как-то  в  ските  заговорили  о  будущем  концерте  и  стали  обсуждать   кто  с   каким  номером  может  выступить.  – Федька  спляшет, - сказал   Чиж, - А  Моисеенко  фокусы покажет – А  Ваня  обосрётся – сострил  Федька.  Иван  Иванович  на  эти  слова  никак  не  реагировал.  Он,  вообще,  после  того  допроса,  перестал,  как  говориться,  участвовать  в  жизни  коллектива.  Всё  молчал  и,  не  смотря  на  уговоры  «Партизана»  рассказать  что-нибудь,   так  ничего  и не  рассказал. Незадолго  до  1-го  мая,  когда  утром,  теперь  под  конвоем  Лёхи,  Мария  Ивановна  пришла  кормить    своих  подопечных,  никто  не  услышал  обычного  «Доброго  утра»  Иваныча.  - Просыпайтесь, Иван  Иванович,  -  сказала  Мария  Ивановна,  завтракать  пора.  Но  Иван  Иванович  не  просыпался.  Он  продолжал  тихо    висеть на  своём  парашюте,  опустив  голову.  – Спит? – Тихо  и  испуганно спросила  Мария  Ивановна.  Все  молчали  и  тут  Петров  грустно  сказал:  «Он  умер»  «Партизан»  заплакал,  Федька  заржал,  в  глазах  Марии  Ивановны  скит  накренился  и  поплыл  куда-то  влево,  вниз.
Когда   хоронили  Ивана  Ивановича,  был  тихий  ясный  день.   Сводный  оркестр  общесоматического  и  психиатрического  отделений,  немилосердно  фальшивя,  играл  что-то  похоронное,  за  гробом,  впереди  всех,   шёл  «Дружок»,  время  от  времени  отбегая  в   сторону,  чтобы  обнюхать  какую-нибудь  кочку  и  поднять  над  ней  заднюю  лапу.  Лёха  нёс  венок,  состряпанный   из  подручного  материала  с  лентой  из  чёрного сатина,  на  которой  белой  краской  было выведено  «Ивану  Ивановичу  Усыкину  от  коллектива  Дома  инвалидов  №17» Заведующий  нервно-психиатрическим  отделением  нёс  на  маленькой  подушечке  медаль  «Отличнику  народного  образования» На  деревенском  кладбище  секретарь  партийной  организации Дома  инвалидов  и  бывший  поп  Илларион  сказали  речи,  помянув  недобрым  словом  вылазки  империалистов  США  против   мира  и  нашей  солнечной  страны.  Когда   гроб  опустили  в  могилу,  директор  Гырымов  первым  бросил  в  неё  ком  холодной  земли.  На   холмике,  выросшем  над  могилкой,  поставили  крест,  на  котором  один  однорукий  художник  белой  краской  вывел: «Господи,  прими  дух  его  с  миром»

После  смерти  Ивана  Ивановича  жизнь  осталась  прежней, только  чуть  грустнее  и  не мешали  этой  грусти  ни  весна,  ни  праздники.  1-ого  мая  был  концерт,  на  котором  Гуськов  в  тельняшке  сплясал  «Яблочко»  Помог  ему  в  этом,  встав  сзади,  один  постоялец  нервно-психиатрического  отделения,  надевший  на  руки  брюки  и ботинки.  Лёха и Федька  изобразили  диалог  Павла Федотова с  фашистом  Штюбингом  из   кинофильма «Подвиг  разведчика»,  а  Мария Ивановна  спела  очень  душевно «На  позицию  девушка  провожала  бойца»   9-го  мая  в  скит  приходили  пионеры,  приехавшие  из  города.  В  этот  день   «контингент»  одели  в  белые  халаты  и     нацепили  ордена. Петров  поделился  с  пионерами  воспоминаниями  о  войне,  а  вечером  всем  были  поднесены   фронтовые  сто  грамм.  «Хорошо,  но  мало» - таково  было  общее  мнение.  Потом  вспоминали  Мамина,  Кузнецова,  Ивана  Ивановича,  рассказывали  анекдоты,  думали о прошлом.

Очнувшись  от  наркоза,  Кузнецов  не сразу  понял,  что  ему  пришиты  руки  и  ноги.  Он  их  просто  не  почувствовал.  Когда, наконец,  осознал  это,  то  не  смог  пошевелить  ни  тем,  ни  другим. На  следующий день  руки  и  ноги  ему  также  не  подчинялись.  Хирург  его  успокаивал, говорил,  чтобы  он  подождал  дня  три-четыре,  а  он  думал: -  На фиг  мне  такие  конечности – лишняя обуза.  Когда,  наконец,  проснувшись  на  пятый  день,  он,  неожиданно  для  себя,  почесал  себе нос,  то  сначала  испугался,  подумав,  что  нос  ему   почесал  кто-то  другой  и  машинально  отдёрнул  руку.  Успокоившись,  он  тихонько   поднёс  руку  к  лицу,  пошевелил  пальцами.  Рука  ему  не  понравилась.  Она  была  какая-то  жилистая,  грубая  и  в  татуировках.  На  первых  фалангах  четырёх  пальцев   красовались  буквы: «д», «и», «м», «а».  Дима – дошло  до  него.  Что  за  Дима?  Кто  он,  хороший  человек,  или  подонок?  Что  он  делал  этой  ручкой:  работал  на  станке,  лазил  по  карманам,  убивал?  Судя  по  татуировкам  (звёздам, кинжалам и прочей  чепухе)  по  узловатости  сосудов,  грубости  кожи,  вросшим в  кожу  ногтям,  мозолям  и  шрамам,  ручке  этой  пришлось  немало  потрудиться  и  отнюдь  не за  письменным  столом.  Эта  рука  не привыкла  держать  смычок  скрипки,  или  ручку,   ей,  были  привычны  кайло  или  кирка,  лопата.   Что ж,  такие  руки  всё-таки  лучше  изнеженных  ручек, - думал  Сергей, -  с  ними  я  не  пропаду:  и  работу  найду и,  если  надо,  в  морду  дам.  Когда  он  откинул  одеяло  и  поглядел  на  ноги,  то  они  его  удивили  больше,  чем  руки.  Как  и  на  руках,  на  них  были  ссадины  и  шрамы,  особенно  на  правой.  И  опять  те же  звёзды,  те же  кинжалы,  те  же  кресты.  Но  больше  всего  его  потрясли  слова  на  ступнях,  чуть  выше  пальцев:  на  левой  ноге  было  написано: «шли к любимой», а на правой: «а пришли в зону»  - Что  за  чушь? -  подумал  он,  что  они  мне  подсунули?  А  если  бы  этот  ваш  донор  оказался  каким-нибудь  извращенцем,  то  я  бы  его  вывеску  на  себе  таскал  и  меня  бы  в  бане  шайками  закидали?  С  такими  руками  и  ногами  в  приличной  компании  и  раздеться-то  неудобно,  о  дамах  и  говорить  нечего.  Никому  не  объяснишь,  что  они  не  твои – не  поверят.  Но  всё  это  были, конечно,  мелочи.  Он  не  верил  сам  себе,  что  всё  это  не  сон,  не  бред,  а  настоящая  реальность  и  что  теперь  он  такой  же,  как  все,  человек.   Он  смотрел  на  свои  руки  и  ноги  и  спрашивал  себя: -  Почему  все  эти  люди  не  пляшут,  не  хлопают  в  ладоши  и  не  резвятся,  сознавая  то,  что  у  них  есть  ноги  и  руки,  что  глаза  их  видят,  а  уши  слышат.  Они  приходят  в  уныние  только  тогда,  когда  у  них  не  стоит.  Им  бы  в  моей  шкуре  побывать,  узнали  бы  тогда,  что  самое  ценное  в  жизни!   От  счастья  ему  хотелось  целовать  свои  новые  руки,  но  что-то,  в  глубине  души,  мешало  ему  это  делать.  Он  хотел  встать  на  ноги,  но  боялся.  Тут  вошёл  хирург. Велел  встать.  Он,  держась  за  спинку  кровати,  поднялся.  Хирург  велел  отпустить  кровать. Он  отпустил  и  стоял,  боясь  сделать  шаг.  Хирург  взял  его  под руку  и  они  сделали    несколько  шагов.  Потом   они гуляли  по  коридору  и  хирург  просил  его  никому  не  говорить  о  том, кто  сделал  ему  операцию  и  где.  Перед уходом  он  протянул  Сергею  бутылочку  с  таблетками  и  сказал,  что  он  должен  ежедневно  принимать  по  одной  для  того,  чтобы  лучше  приживались  новые  ткани.  - Только  каждый  день! – подчеркнул  Хирург. 
На  следующий  день  в  палату   влетела  Рыжая  бестия  и,  вытаращив  глаза,  выпалила,  что  он должен  немедленно  бежать,  что   хирург  арестован  и  ищут  его.  Быстро  одевшись,  он,  вместе  со  своей  спасительницей,  бежал  из  больницы. Но  не  успели  они  выйти  на  улицу  и  сделать  несколько  шагов,  как  Кузнецов  на  мгновение  остановился  и  Рыжая,  повернув  к  нему  удивлённое,  встревоженное  лицо,  спросила: - Что с тобой?  - Следователь, - ответил  Сергей.  И  он  был  прав,  навстречу  им  шёл  Орехов.  Бежать  было  поздно,  да  и  Сергей  не  мог  ещё  бегать.  Он и так  шёл  нетвёрдой  походкой.  Когда  они  оказались  в  трёх  шагах  от  Орехова,  Кузнецов  машинально,  а,  может  быть  от  растерянности,  сказал  ему  «Здрасьте».  В  ответ  Орехов  кивнул  и  тоже  что-то  сказав,  прошёл  мимо.  Кузнецов с Рыжей  свернули  в  первую  же  попавшуюся  подворотню.  Пройдя  несколько  шагов,  Орехов  остановился.  – Это  же  Кузнецов! – сказал  он  самому  себе  и  не  поверил  сам  своим  словам. - А  может  быть  двойник? Он  оглянулся,  но  сзади    никого  не  было.  – Показалось.  Конечно  показалось! Последнее  время  мне  от  этой  чёртовой  жизни  всё  время  что-то  кажется:  то  голос  Лены,  которая  меня  зовёт,  то  хвост собаки,  забежавшей  за  угол,  а  теперь  вот  Кузнецов  на   своих  двоих.  И  до  чего  же  ноги   преображают  человека!  Подумав,  он  всё-таки  решил  об  этой  встрече  никому  не  говорить,   потому  что,  во-первых,  встанет  вопрос,  почему  он  не  задержал  преступника,  и,   во-вторых,  никто  этому  не  поверит,  и,  мало  того – засмеют.

Вернувшись  из  монастыря,  Савин  три  дня  занимался,  в  основном,  Кошкером,  и  не  зря:  он,  наконец,  стал  давать  показания.  Теперь  надо  было  провести  очную  ставку  между  ним  и  тем  монастырским   «самоваром»,  с  которым  так  невежливо  обошёлся  его  помощник.   Савин  снял  трубку  и  позвонил  Гырымову с тем,  чтобы тот  доставил  к  нему  в  город  И.И.Усыкина.   Гырымов  ответил  не  сразу,  пару  раз  откашлялся,  а  потом  сообщил,  что  Иван  Иванович  Усыкин  27  апреля  скончался  от  острой  сердечной  недостаточности  и  похоронен  на    кладбище  деревни  «Мама  родная»,  вторая  аллея,  могила  74.   Что  за  странное  название  у  деревни,  - подумал  Савин,  положив  трубку, - кто  его  выдумал?  Он  не  знал  тогда,  что  название это дали  первые  ссыльные  поселенцы.  Когда  их  привезли  сюда,  на  голое  место,  то  одна  из  баб  воскликнула: - Мама родная,  как  же  мы  тут  жить  будем!?  С  тех пор  так  и  пошло  «Мама родная»  да  «Мама родная» с ударением на «о»  Что  же  касается  самого  Савина,  то  у  него,  после  того  как  он  узнал  о  смерти  этого  безрукого и безного  старика,  на  сердце  заскребли  кошки.  Он  стал  неприятен  сам   себе,  а  этого  Лёху,  который  подтолкнул  его  на  всё это  дело,  просто  возненавидел.  А  какое  мне  дело  до  того,  что  Кузнецов  пропал? – спрашивал  он  себя. – Пропал и чёрт  с  ним,  пусть  об  этом  прокуратура  думает,  к  нашей  конторе  он  отношения   не  имеет,  да  и  того  загрызанного  на  пустыре  пусть  милиция  ищет.  Моё  дело  только  хирурга проверить,  чтобы  запрет  соблюдал и никаких  медицинских  экспериментов не устраивал.  С  этой  мыслью  он и отправился  в  больницу,  где  своим  появлением  поднял  тихую  панику   и вынудил  Кузнецова  раньше  времени  подняться  с  койки. 

Паровоз,  пыхтя  и  выпуская  пар,  подтаскивал к платформе Ярославсого  вокзала состав  пассажирских   вагонов,  в  одном  из которых  ехал  Кузнецов.  Ему  не  верилось,  что  он,  с  ногами и руками,  возвращается  в  город,  из  которого  его  абсолютно  беспомощного  год  назад  увезли  на  Север.  Он  не  мог  усидеть  на  койке  и  пробрался  сквозь  людей,  чемоданы и мешки к выходу.  На  ступеньках   вагона  сидели  люди, очевидно,  те,  у  которых  не  было  денег  на  билет.  Не  доезжая  до  вокзала,  они  побросали  свои  мешки и сами,  вслед  за  ними, спрыгнули  на  землю.  Каланчёвская  площадь показалась  ему  огромной.     Трамваи,  автобусы,   телеги,  лошади,  люди,  автомобили – наши и трофейные,  носильщики,  чистильщики  обуви,  пьяные,  готовые  упасть и упавшие,  женщины  с  синяками  на  лицах,   мальчишки  в  ватниках  для  взрослых,  милиционеры,  узбеки и таджики с Казанского  вокзала  в  своих  полосатых  халатах,  чиновники  из  Ленинграда -  с  Ленинградского.   Вся  эта  пёстрая  масса  людей  куда-то  спешила,  что-то  тащила,  на  что-то  таращилась  и  то и дело  спрашивала  друг  у  друга  как  пройти,   как  проехать  или  с  какой  платформы  поезд на  «Пыжмаш»  или  Таратутовку,  и  отвечала,  размахивая  руками,  что-то  невнятное  или    пожимала  плечами  в   ответ.  На  трамвайной  остановке,  к  которой  подошёл  Сергей,  было  полно  народа.   Он  попытался   пробраться  поближе к рельсам,  но  властный  женский  голос  отбил  у  него  желание  это  сделать. Услышав  давно  забытое  «Куда  прёшь?»,  он  остановился,  посмотрел  на  хмурое  небо и вдруг  услышал  голос.  Первый  раз  он   услышал  его  тогда,  после  контузии,  второй  - тогда,  на   станции  «Перхушково»,  когда  он  бросился  под поезд,  и последний  раз   в  ските,  перед  тем,  как  он  загрыз   Мамина.  Теперь  этот  голос  сказал  ему  «Рви!»  и  он  бросился  на  мешок  этой  бабы  и  стал  рвать  его  зубами.  Баба  завизжала  и  тогда  несколько  мужчин  схватили  его  и  еле-еле  оторвав  от мешка,  оттащили  в  сторону.  На  губах  у  Сергея  выступила  кровавая  пена.  Глаза  блуждали.  Он  скрипел  зубами  и  хрипел.  - Видать  навоевался, -  сказал  кто-то.  -  Да,  теперь  этих  контуженых  хоть  пруд  пруди.  У  этого  хоть  руки-ноги  целы.  Повезло  человеку.  Постепенно  Кузнецов  пришёл  в  себя.  Встав  с  асфальта,  отряхнул  одежду,  стёр  пот  с  лица  и  шеи,  и  снова  подошёл  к  остановке.  – Что  это? – думал  он, - Кто  это  отдаёт  мне  эти  приказы?   Неужели  Савин?  Возможно,  у  МГБ  есть  какое-то  новое  изобретение,  передающее  мысли  на  расстояние.  Я  что-то  читал  об  этом  ещё  до  воны.  Но,  если  так,  то  почему  он  не  даёт  мне   приказа  вернуться в скит?  Что  ему  от  меня  надо?  С  такими  мыслями  он  доехал  до  цента.  Здесь,  в  Столешниковом  переулке,   жил   один  его приятель  по  имени  Борис.  Пройдя  табачный  магазин,  он  зашёл  во  двор и поднялся   по стёртым  в  середине  ступенькам  на  второй  этаж    старого  московского  дома.  Из  шести  звонков  на  дверной  раме  он  выбрал  звонок   с  фамилией   Гудима.  Дверь  ему  открыл  сам Борис.  Спросил – Вы к кому?  - К  тебе,  старый  чёрт. -  Невозмутимо  ответил Сергей.  По  лицу  Бориса, как  облака  над  озером,  пронеслись  воспоминания.  Он  широко  открыл  глаза  и пролепетал: - Серёга. -  Он  самый.  Тут  начались  объятия,  междометия  и  вопросы: - Где  был?, Где  пропадал?,  Почему не писал?  и  т.д и т.п.   Наконец,  Боря  сказал: - А  мне  Вовка  Кокичков  сказал,  что  ты  на  войне  руку  и  ногу  потерял.  _- Это  он  преувеличил.  Ранения  были,  это  факт,  но  всё,  как  видишь,  обошлось – руки  и  ноги  на  месте.  И  Сергей,  вспомнив  о  том,  какие  у  него  руки,  постарался  спрятать  их  подальше  в  рукава.  Потом  они  вспоминали  прошлое  под  бутылку  «Перцовки»  и  селёдочку с  варёной  картошкой  и  Боря  предложил  Сергею  пожить  у  него.  Брюки  Сергей  снял  только  после   того  как  Боря  погасил  свет  в  комнате.  Утром  Анатолий  потащил  его  на   собрание  в  свой  институт.  - Будет  интересно, -  сказал  он. 
В  большом  зале института,  когда  они  пришли, было  многолюдно.   Ряды  стульев   пестрели  лысинами,   шевелюрами,  причёсками   «полубокс»,  перманентами,  газетами,  журналами,  шляпками  и  тюбетейками.  Смотря  на  всё  это человеческое  обилие  скучающее,  читающее, мирно   беседующее,  Сергей   думал  о  том,  как  много  на  свете  здоровых  людей,  занятых  своими  небольшими,  а  то  и  совсем  мелкими  делами  и  делишками,   как  мало  им  дела   до  жизни  других:  беспомощных,  жалких  и  вонючих,  таких,  каким  совсем  недавно  был он.   Им  гораздо  важнее  указания  партии,  тон  начальника,  взгляд  посторонней  женщины,  счёт  футбольного  матча,  цена  картошки…  Закончить  своё  рассуждение  по  поводу  окружающей  публики  он  не  успел,  так  как  Боря  подвёл  к  нему  изумительную  женщину.  Она  напомнила  ему  Тоню.  Вместо  писаной  красоты  в   ней  была  бездна  женского  обаяния.   – Клава, -  назвалась  она,  протянув  ему  тонкую  ручку.  Ну, как  имя  может  опошлить  такой  прекрасный  образ! – подумал  Сергей. - Назвалась  бы  ещё  Зиной  или   Раей.  Знал  я  одну   Клаву,  буфетчицу  в  Доме  офицеров,  так то  действительно Клава – было  за  что  подержаться,  а  эта:  дунешь – улетит.  Она  села  рядом  с   ним,  справа,  между  ним  и  Борисом.  Ощущение  близости  её  трепетного  тельца  и  аромат  каких-то  невинных  духов   вскружили  ему  голову.  Ему  до  тошноты  захотелось  эту  женщину.  Он  чувствовал,  что  может  потерять  контроль  над  собой.  С  ним  такое  случались.  На  сей  раз  он  постарался  взять  себя  в   руки,  и  когда  его  правая   бандитская,  вся в  татуировках,  рука  потянулась  к  её  ножке,  он  схватил  её  левой  и  оттащил.  Сознавая,  что  эта  женщина  не  его,  а  его  друга,  он  старался  занять  себя  выступлениями  ораторов.   На  трибуне  в  это  время   уборщица  института   клеймила  позором  каких-то евреев,  продавших  американцам  секрет  борьбы  с  раком.  После  этого  с  трибуны  стали  совершенно  открыто  читать какое-то  «закрытое   письмо»   о  том,  как  эти  евреи,  при  попустительстве  бывшего  министра  Здравоохранения  Митерева  и  при  активной  помощи  американского  шпиона  - вывшего  секретаря  Академии  медицинских  наук   СССР   Парина,  передали  американцам   важное  открытие  советской  науки  - сыворотку  от рака.  «Будучи  сомнительными  гражданами  СССР,- говорилось  в  письме, -   руководствуясь  соображениями  личной  славы  и  дешевой  популярности  за  границей,  они  не  устояли  перед  домогательствами  разведчиков  и  передали  американцам  научное  открытие,  являющееся  собственностью  советского государства,  советского  народа…  лишили  советскую  науку приоритета (первенства)  в  этом  открытии  и  нанесли  серьезный  ущерб  государственным  интересам Советского  Союза.   
- Почему? – тихо  поинтересовался  Сергей  у  Клавы. -  Что «почему»? – переспросила  она. – Ну,  почему  нельзя  было  передавать  американцам  это  лекарство,  у  них  ведь  тоже  люди  раком  болеют. -  Потому,  - ответила  Клава, - что   в  руках  капиталистов  это  лекарство   будет  не  достоянием  широких  масс,   а  источником  прибыли  для  небольшой  кучки  капиталистов. И  добавила: - Так у нас  считают. – А  как  думаете  Вы?  - спросил  Сергей. – Я  думаю,  что  вы  правильно  удивляетесь.   Когда  она  это  говорила,  личико  её  было  так  близко  и  губки  шевелились  так  сладко и нежно,  что  у  Сергея  закружилась  голова.  Ему  стало  не  до  собрания.   Из  дальнейших  речей  до  него  долетали  только  отдельные  фразы.  Он  слышал,  как  кто-то  напомнил  аудитории   слова Сталина  о  том,  что   даже  самый последний  советский  гражданин,  свободный  от  цепей  капитала,  стоит  головой  выше  любого  зарубежного  высокопоставленного  чинуши,  влачащего   на  плечах  ярмо  капиталистического  рабства,  что  согласно  учению  Сталина  нет  ни  одного  поступка  человека,  который  не  имел  бы  политического  значения, что  все  великие  открытия  принадлежат  русским  ученым, а  заграница  только и  делает,  что  присваивает  их  и  выдаёт  за  свои.  Следующий  выступающий      цитировал  слова  Сталина о  необходимости  в  кратчайший  срок  превзойти  достижения  науки  в  зарубежных  странах.  Последовали  аплодисменты.  Ораторы  изощрялись  в  патриотических  чувствах  и  клеймили    позором  тех,  кто,  по  их  мнению,  такими  чувствами  не  обладал.  Одного  ругали за  то,  что  он  утверждал,  что  русский  язык  произошёл   от  церковно-славянского,  другого – за то,  что  он  любит  западноевропейские  танцы,   третьего -  за  то,  что  он  верит  в  бога,  четвёртого  за  произнесённую  им  фразу «Если  бы  союзники  не  открыли  второго  фронта,  нам  бы  Германию  не  победить»  Но  больше  всего  собравшихся  возмутило  то,  что  один из студентов  на  слова   военрука о  необходимости им,  защитникам  родины, изучать  военное  дело, брякнул: «На  это  дело  есть   Иваны,  а  наше  дело  изучать  интегралы» 
Выступавших  это  замечание  особенно  задело, и они  с  новым  пылом и  жаром  заговорили  о  патриотизме  и  преклонении  перед  иностранщиной.  -  Ведь  до  смешного  доходит,  товарищи, - говорил  начальник  транспортного  цеха. -  Вот  на своём  заводе  наши  шефы  делали  плохие  шлифовальные  круги. Вы  их знаете (по залу  пробежал  одобрительный  шумок) - так   их  все  брать  отказывались.  Тогда  на  них  наклеили  этикетки  фирмы  «Нортон»  и  они  пошли  нарасхват. (Смех в зале) После  начальника  транспортного  цеха  к  микрофону вышел  доктор  наук и,  то ли  в  шутку,  то  ли  всерьёз, заявил:    - Если  некоторые  разделы  микробиологии  в  Америке  сильнее,  чем у нас,  например,  вирусология,  то  зато  идеологически  мы  их  выше  и  сильнее.  Бурные  аплодисменты  вдохновили  его  ещё на один,  не  менее  интересный  пассаж, а  именно: «Существует  поговорка «Муха  садится на  сладкие  места»  - так  вот наше  государство    для  иностранцев  и  является  «сладким  местом»  Тут  Сергей  вспомнил  сколько  мух  было  в  их  ските  и  подумал: - Муха  садится  не  только  на  сладкое.  А  доктор  наук  тем  временем вспомнил  какого-то  Пищука,  возглавлявшего  КБ (конструкторское  бюро) созданное  из  пленных  немцев,  и  работой   которого  он  восхищался,  называя её «образцом  высококвалифицированного  труда» - Так  вот  этот  самый  Пищук, - продолжал  доктор  наук, -  считает,  что  наши  люди  бездарны,  что  любой  немец  заменит  5  человек  наших. Кто-то из  зала крикнул: - Пусть  выйдет на трибуну и скажет!  Выступавший  успокаивающе  поднял руку  и  крикнул  в  микрофон: - Да   наш  Саша  Скворцов  даст  20  очков   каждому из  этих  немцев! – и   под  бурные  аплодисменты  ушёл  с  трибуны.  Когда  собрание  стало  клониться к  закату,  вспомнили  о  разлагающем  влиянии  на  молодёжь  кинофильма  «Девушка  моей  мечты»  с  Марикой Рёк  в  главной  роли.  Один  из  выступавших  заявил  даже,  что  это  любимый  фильм  Гитлера и в нём  снималась  его  любовница  Ева  Браун,  а  представитель  студенчества  призвал   фильм  этот   бойкотировать,  утверждая,  что  демонстрация  его  на  советских  экранах  является  оскорблением  нравственных  чувств  нашей  молодёжи,  воспитанной  в  духе  коммунистических  идей.  Студента этого  до  глубины  души  возмутили  и огромные  очереди  за  билетами  на  этот  фильм  у  московских  кинотеатров, и  происходящие  в  этих  очередях  безобразия, и спекуляция  билетами. – Я  не  могу  понять, - сказал  этот  представитель  студенчества, -  почему  студентам этот  глупый  фильм  «Девушка  моей  мечты»  нравится  больше,  чем  фильм  «Клятва». Понять это  ему  попыталась,  выступавшая после  него, представитель  профессорско-преподавательского  состава.  Она   говорила   о  необходимости      объяснять,  особенно  молодым  девушкам  с  еще  не  окрепшим  мировоззрением,  что  такой  фильм  как  «Девушка  моей  мечты»,  несмотря  на  хорошее  техническое  оформление,  по  содержанию своему пустой,  что  он  не  обогащает  зрителя  духовно, а  проповедует  пошлость  и  грубость,  сопутствующие  современной  германской  буржуазной  культуре.  Закончила  своё  выступление  она  предложением  о внушении  студентам  мысли  о необходимости  побольше  читать  классиков  марксизма-ленинизма в  подлинниках,  чем  вызвала  жидкие  аплодисменты.   
Когда,  наконец,  собрание  закончилось,  Сергей  обнаружил,  что  ручка его  соседки  находится  в  его  руке-ручище.  – Неужели  я  не  властен  над  собственными  руками? – подумал  Сергей  и  ему  стало  как-то не по  себе.   Однако,  то,  что  Клава  не  убрала  свою  ручку,  было  ему  приятно.  Боря,   спросил  его: - Ну,  как  тебе? – На  что  он,  поморщившись,  процедил: - Тыловые  крысы  упражняются  в  патриотической  риторике.  Надо  же  им  как-то  себя  проявить  в  качестве  защитников  отечества.    Боря с  ним согласился  и  заторопился  куда-то,  сказав,  что  вечером  ждёт  его  у  себя. Клаве  он  только  кивнул. 

Не смотря  на  разруху,  причинённую   войной,  Москва   была  прекрасна  своим  уютом, разнообразием, весенним  пробуждением,  когда  небо  становится   особенно  синим,  солнце  особенно  ярким, а  люди  откровенней  и   впечатлительней.  Сергей  с  Клавой  шли  по  бульварам,  где  высохли  ещё  не  все  лужи,  и   чтобы  женщина  не  промочила  ножки,  Сергей  брал  её  на руки  и  нёс,  не  обращая   внимания  на  прохожих  и  милиционеров.  Какое  это  было  счастье  для  него,  ещё  недавно  лишённого  такой  возможности!  От  ощущения  этого  счастья  ему  хотелось  не  идти,  а  прыгать  с  дерева  на  дерево,  как  Тарзан,  летать и  кричать: - Люди,  я  такой  же,  как  вы!  Почему  же  вы   не  носите  на  руках  своих  женщин,  если  можете,  почему   не  бродите  по  свету  и  не  управляете  парусами  кораблей,   имея  руки  и  ноги?  Клава  смеялась,  слушая  его,  и,  лёжа у него  на руках,  запрокидывала  голову.  В  переулке,  куда  они  свернули,  было  тихо.  Каждый  шаг  его  ботинок и её  каблучков  звонко  отдавался  в  стенах  окружающих  домов.  Вдруг,  позади  них  зашуршали   и  застукали  чьи-то чужие,  торопливые  шаги  и  тут  же  их  окружили, прижав  к  стене,  пять  здоровых   парней.  Они  достали  ножи  и  тот,  кто  был  к  ним  ближе  всех, грубо  сказал: - Раздевайтесь.  Пришлось  раздеться.  Сергей,  оценив  обстановку,  решил,  что  другого  варианта  нет.  С  кем  бы  из  них  он  не  затеял  драку,  любой  другой  всегда  имеет  возможность  всадить  ему  нож  в  бок  или  в  спину.  Когда   он  отдавал  грабителям  одежду,  то  заметил  перемену  в  лице  их  главаря.  Тот,  ни  с  того,  ни  с  сего,  приказал  своим  приятелям  вернуть  ограбленным  все  вещи  и  стал  извиняться  перед  Сергеем.  Сергей  не  понял  с  чего  это  ему  взбрело в голову,  но  вещи  взял.  Они  с  Клавой  быстро  оделись  и  пошли  дальше.  Её  трясло.  Ему  же  было  стыдно  перед  ней,  ведь  он  же  не  защитил  её  от  бандитов.  У  подъезда  её  дома  они  простились. Сергей  спросил  её – Тебя  Борис  любит? – Говорит,  что  любит,  -  ответила  она.  -  А  ты  его? – Нет.  -  Ты,  вообще,  никого  не  любишь?  - Нет. Сергей опустил голову,  вздохнул и они простились.
На  обратном  пути  до  Сергея  дошло,  почему  грабители  вернули  вещи:  они  же  увидели  татуировки  на  его  ногах  и  руках!  Конечно!  Всё  так  просто.    – Вот  и  татуировки  пригодились  - подумал  он, - что  мне  от  них  ещё  ждать?   Ему  не  хотелось  идти  к Боре,  т.к. было  неудобно  перед  ним. Он  сознавал,  что  поступил по  отношению  к  нему, по-хамски,  не по-товарищески,  уйдя  с  его  женщиной.  Оправдывал  же  он  себя  тем,  что  Борька сам  ушёл  первым,  оставив  их  одних.  Ноги  его  от  этих  мыслей  шли  всё  медленнее  и  медленнее  и,  наконец,  остановились. Он  стоял  и  прислушивался  к  самому  себе,  чувствуя, как  догорает  в  нём, вспыхнувшее  в  институте,  желание  иметь  женщину.   Правда,  после   Клавы  ему  ни  на  кого  и  смотреть-то  не  хотелось.    Однако,  стыд  перед   ней  и  чувство  неудобства  перед  Борькой,  подталкивало  его  к  такому   отвлекающему  варианту, как  ночёвка  у  случайной  женщины. Он  уже  было  направился  бодрым  шагом  к  Метрополю,  как  вдруг   неприятная  мысль  поразила  его:  Борька  подумает,  что  он  остался  ночевать  у  неё.  А  как  это  отразится  на Клаве,  на  её,  так  сказать,  репутации? Нет. – решил  он, -  никаких  случайных  связей  с  возможными  мерзкими  последствиями. И  он  отправился  в  Столешников  переулок.
Дверь  ему  открыл  Борис.  Сначала  они  долго  молчали.  Потом  Сергей не  выдержал  и  сказал: - Ты   не  думай,  у  нас  с  Клавой  ничего  не  было.  Но  должен  же  я  был,  чёрт  возьми, - добавил он,  пытаясь  обратить  всё  в шутку, -  проводить  бедную  девушку,  если  её  кавалер  куда-то  пропал  в  последнюю  минуту.  - Да,  кстати,  нас  ограбили  какие-то  негодяи,  правда,  потом  вещи  вернули.  -  Всё  правильно, - ответил  Боря,  -  у  меня  к  тебе  никаких  претензий,  ты  не  думай,  да  и  отношения  у  нас  с  ней  скорее  платонические,  она  ведь  слишком  хороша  для меня.  Я  это  понимаю,  а  поэтому  не  будем  больше  касаться  этой  темы.  И  они  легли  спать. 
Утром  Сергей    слонялся  под  Клавиными  окнами.  Она  заметила  его  и  поманила  ручкой. Он  взлетел  на площадку  третьего  этажа,  где  она  его  уже  ждала.   Дальнейшие  события  разворачивались  с  быстротой  любовной  горячки.  Опомнился  Сергей  тогда,  когда  Клава  лишилась  чувств. Он  набрал  в  рот  воды  из  чайника  и  прыснул  ей  в лицо.  Придя  в  себя,  она  сказала: - Тебе  надо  насиловать  мёртвую  женщину.  – Я  люблю  тебя,  - ответил  он.  -  Заведи  себе  конюшню. – Мне  никто,   кроме  тебя,  не  нужен.  – Тебя  мне  слишком  много,  но  я не  смогу  без  тебя.  Ты  слышишь,  как  стучит  моё  сердце? – вдруг  спросила  она, -  Оно  стучит  по  тебе. И  она  прижала  его  руку  к  своей  груди. 
Счастье,  сколь    бы   не  было оно  большим, не  длится  долго. И  им,  наконец,  пришлось  оторваться  друг  от  друга,  встать,  одеться  и  отправиться  в  консерваторию,  где  Клава  училась  играть  на   скрипке.  Он  упросил  её  разрешить  ему  нести  её  скрипку  и   поэтому  всю  дорогу  находился  в  страшном  напряжении,  опасаясь  за  ценный  груз.  Ему  постоянно   казалось,  что  прохожие  так  и  норовят  задеть  её,  выбить  у  него  из  рук,  проткнуть  её  какой-нибудь  железкой,   а  в  трамвае  раздавить  её  своей  массой.  Наконец,  они  оказались  в  Консерватории,  где  Клава  оставила  его  в  холле,  а  сама  отправилась  в класс.  Скучать  Сергею  не  пришлось. К  нему  подсел  какой-то  разговорчивый   господинчик,  которому  было  необходимо  излить  душу,  вспаханную  последними  событиями  музыкальной  жизни.  В  ответах  Сергея он не  нуждался.  Он  отвечал  на  них  сам.  – Представляете, - говорил  он,  идёт  съезд  композиторов  в  Колонном  зале,  а в зале  почти  никого  нет.  Все  гуляют  по  фойе,   торчат  в  буфете.  Композитору  Захарову ,  сидевшему в президиуме,  прислали  «Пропуск  для  проезда  его  автомашины  на  кладбище»,  а  Хренникову – ругательную  записку  со  словами:    «Хренниковы и Ковали  проходят,  а Шостаковичи  и Прокофьевы остаются  в истории»  Представляете,  как  это  возмутило  наше  партийное  начальство!   Они  это  так  не  оставят!  Вы  думаете  они  простят  Неждановой  её  слова  о  том,  что  певцу  марксистско-ленинская  теория  не  нужна  и  что  он  от  этого  лучше  петь  не  будет,  а  Юдиной   -  её высказывание  о  том,  что   в  ЦК  ни черта не понимают  в  искусстве  и  что  она  никогда  не  работала по их  указке  и  работать  не  собирается.   -  А Вы  слышали, что  сказала  Елена  Фабиановна ?  А? – Ну,  как  же!  Она  ведь  на  последнем совещании  заявила,  что  Хачатурян  никогда  не  изучал  марксизма-ленинизма  в  таком  объёме,  как   это  поставлено  в  её  училище,  а,  между  тем,  он  прекрасный композитор. Представляете? Но  этого  мало, старуха   возьми  и  скажи: «Зачем,  например,  обременять  этим  студента  Светланова ,  ведь  он  же  Рахманинов.  Уверяю  вас – Рахманинов,  а  здоровье  у него  слабое.  Ну,  заставим  мы  его  изучать  марксизм  и  другие ещё  науки,  так  это же  будет  во  вред   главному  делу!  Разве  от  этого  выиграет  наша  культура и страна?» Один  товарищ,   из  проверяющих,  решил,  наверное,  поддеть  её  и  спрашивает: - Может  быть  этот  Ваш  студент  просто  не  способен  усваивать  материал?  Старуха  на  это  ему: «Боже  мой,  да  это  же  способнейший  человек,  если  его  заставить,  он  за  один  день  весь  ваш  марксизм  изучит. Но нужно ли это делать?  Можно  ведь сделать  некоторое  исключение  в  отношении  таланта»  Каждому  ясно, - продолжал  господинчик, -  что студенты  в  консерватории  не  тупее,  чем  в  других  институтах  и  что  страна  ничего  не  выиграет  от  того,  что  они  вместо  занятий  музыкой  будут  конспектировать «Что  делать?»  Ленина,  но  разве  могут  они  допустить,  чтобы   студенты  не  изучали  марксизм?  Разреши  это  консерваторским – захотят  другие.   Вот и всыпали  преподавателям,  чтобы  студентов  не  портили. -  Под  Вашим  разлагающим  влиянием,  говорят,  студенты  совсем  разложились,  заявляют,  что марксистская  теория   к  скрипичному  мастерству  никакого  отношения  не имеет,  что   скрипка   существовала  и до  появления  марксизма,  однако  звуки  производила  не  хуже,  чем  теперь  и  что  они  готовятся  стать  музыкантами,  а  не  преподавателями марксизма-ленинизма,  а  сами  не  знают  ни  одной  работы  Сталина,  не  знают, что происходит в  Китае,  ни черта не знают о плане  Маршала,  газет  не  читают  и,  вообще,  считают  Белинского,  Герцена,  Добролюбова  и  Чернышевского  учениками  Гегеля  и  Фейербаха.   Уловив  на  лице  Сергея  после  этих  слов  крайнее  удивление,  господинчик  с  тем,  чтобы  довершить  удар,  покачивая головой  и  сощурясь,  хитро  произнёс: - А  вот  на  торжественное  заседание по  поводу  30-ой  годовщине  революции  в Консерватории  пришли  уборщицы,  истопники,  гардеробщицы,  а  вот  преподаватели  и  студенты  не  явились  за  очень  редким  исключением. 
На  вопрос - Как  Вы  думаете,  будут  такое  положение  терпеть  в   ЦК? Сергей  решительно  ответил:   -  Думаю,  что  не  будут.   -  И  я  так  думаю. – вздохнул  господинчик.   А  что, по-вашему,  является  главной  причиной  такого  отношения?  - Не  знаю, - вздохнул  Сергей.  -  А  я  знаю,  - решительно  сказал  господинчик. – Дело  в  том, - прищурившись сказал  господинчик, - что   на  65  русских  преподавателей у  нас  приходится  50  инородцев,  а  каких,  Вы  сами знаете! - И  он  сощурился  ещё  больше.  Сергей  сочувственно  покачал  головой,  но  ничего  не  сказал,  услышав  стук  Клавиных   каблучков  в  глубине коридора. Он  встал  ей  навстречу,  извинившись  перед   своим  собеседником.   
Когда  он  проводил  её  до  подъезда,  она  стала  прощаться  с  ним.  Ей,  оказывается,  надо  было  заниматься – скоро  экзамены,  концерт. – У  меня  после  тебя  весь  день  трясутся  руки.  Я  не могу играть.  Что же мне,  со  скрипки на балалайку переходить? – сказала Клава и  засмеялась.  Сергею,  отвыкшему  за  последние  годы,  от  всяких «надо»,   казалось  чем-то  противоестественным  ради  них  отказываться  от  своих  желаний  и   страстей.  А,  главное,  он  не  хотел  даже  думать  о  том,  чтобы  отпустить  свою  любимую  женщину  и  женщина  сдалась.  Уходя  от  Клавы,  он  чувствовал  себя  самым  счастливым  человеком  на  свете.  В  трамвае, сидя  на  скамейке  и  закрыв  глаза,  он  думал  о  ней  и   чувствовал,  как  по  всему  его  телу  разливается  сладость,  какой  он  никогда в жизни  не  испытывал.  Он  понимал,  что  столь  сладостное  чувство  нашло  на  него  благодаря  близости с любимой  женщиной    и  радовался  ему,  как  ребёнок.       
С  Борисом он о Клаве  не  говорил.  Расспрашивать  его  о  её  прошлом  ему  было  неприятно.  Как-то  Боря  сказал,  что  у  неё  была  любовь,  но  он  погиб  на  войне.    Услышав  это,  он   почувствовал  душевную  боль.  Он  же  не  мог  не  понимать,  что  овладев  ею,  он воспользовался  гибелью  на  войне  другого,  ни чем не хуже  его,  человека,  не  понимать,  что  превзойти  этого  человека  ему  никогда  не  удастся,  потому  что  нельзя  живому  бороться  с  памятью  о мёртвом.  Ясно  было  ему  одно:  память  эту  могут  победить  только   время  и  его  любовь.  В  любви  своей  он  не  сомневался,  а  вот  во  времени….   Как  жить  дальше?  Ведь  у  него  не  было  документов,  а  без  документов  он  не  существовал.  Сколько  можно  отсиживаться  у  Бориса,  сколько  можно  ходить  по  московским  улицам,  где  так  много  милиции  и  военных  патрулей,  без  документов?  Ложась  спать,  он  вспомнил  последние  свои  впечатления  от  разговоров  с  людьми,  от  выступлений  на  собрании  и  спросил  Бориса -  Что,  зажимают  демократию?  - Да,  - ответил  тот,  -  поначалу,  в  конце войны,  да  и  первое  время  после  неё,  вроде  ничего  было,  а  сейчас  снова  стали  гайки  закручивать.  Одного  моего  приятеля  из  института  вышибли.  – За  что?  - Да,  за  какую-то  ерунду…  он  стихи  писал.  Прочитать  тебе?  Сергей  изобразил  внимание  на  лице,  хотя  самодеятельные   стихи  наводили  на  него  скуку.  Борис  же  взял  тетрадку  со  стола,  раскрыл  её  и  стал  читать:
Как-то сидя в кафе поздней ночью
Я сказал  забулдыжным друзьям,
Что недавно  увидел  воочью
Чудный мир – без страданий и драм.

Без  вражды,  без  грызни,  без  печали,
Без  воров,  без  убийств,  без  войны,
А  друзья  мне  на  это  сказали,
Что я вижу  чудесные  сны.

Да, - сказал я, - мне  кажется  тоже,
Но, однажды,  в  лесу под сосной
Я  увидел  на  глобус  похожий
Пень  огромный  обросший  травой.

Глядя в щели  его  за  травою
Мир  увидел  я  дивный,  как сон,
Жизнью  терпкой,  рабочей,  живою
Весь  кипел,  переполнившись, он.

Там  работали дружные  семьи,
Отдыхали и  ели  там  всласть,
И царила там, чтимая   всеми, 
Материнская  нежная  власть.

Коридоры  вели  в  подземелье,
Там  для всех  сохранялась  еда,
А  над  ними  цветочки  пестрели
И  коровок  резвились  стада.

Всем,  друзья,  муравьи  нам  знакомы,
Пьём за  них и да скроется  тьма!
Чтобы  люди  пример  с  насекомых
Брали  впредь,  если  хватит  ума!

Сергей  молчал. Им  владела  сладостная  мечта  о  жизни  в  таком  человеческом  муравейнике, однако,  посидев  некоторое  время,  охватив  голову  руками,  он  встал,  прошёлся  по  комнате,  и  сказал  Борису: -  Отказаться  от  разума  ради  жизни  в  дисциплинированном  стаде?  Нет,  это  не  по  мне.   
Рано  утром  в  квартире  на  Столешниковом  переулке   захрипел  один  из  звонков. Проснувшись,  Сергей  почувствовал,  как  у  него  от  волнения  застучало  сердце. Он знал,  что  обычно  так  рано  в  квартиры  наведываются  милиционеры  и  посыльные  от  военкоматов. Борис  тоже  проснулся  и  вышел  в  коридор,  а,  вернувшись,  сказал:  -  Идиоты,  они  всё-таки  вызвали  милицию.   Я  же  им  говорил… -  О  чём? – спросил  Сергей.  Да  ходит  тут  к  соседке  её  муж,  не  прописанный  в  квартире.  Он  артист,  ты  его  знаешь,  он  ещё  Миронова  играл  в  фильме  «Яков  Свердлов»  и  ещё  каких-то  «врагов  народа»  и  шпионов.  Так   вот  этим  чудакам  его  физиономия  не  понравилась.  Они забыли,  наверное,  что  в  кино  её  видели в отрицательной  роли,  и  решили,  что,  если  он  приходит  на  ночь,  то  он  шпион,  и  донесли  на  него.  Когда  Сергей  выглянул  в  коридор,  то  мимо  него  прошёл  артист,  за  ним  милиционер,  а  за  ним  возмущённая  жена  артиста.  – Разберёмся – сказал  ей  милиционер  и  закрыл  перед   её  носом  дверь.  – Сматываться  надо, - сказал  Сергей  и  стал  одевать  брюки.  -  Ничего, - успокаивал  Борис, - пришли  и ушли  и  больше  не  придут,  им  тут  делать  нечего.  Однако,  не  прошло и пяти  минут,  как  в  дверь  снова  позвонили  и  в  квартиру  вошли  два  милиционера.  Один  из  них  сразу   постучал  в  дверь  комнаты  Бориса,  а  войдя,  сказал: - Проверка  документов,  граждане.  Прошу  предъявить  ваши  документы.  Сергей  пытался  объяснить,  что  документы  он  оставил  дома,  в  деревне,  что  привезёт  их  и  предъявит.   Милиционера  это   не  убедило.  Он  предложил  Сергею  пройти  с  ними  в  отделение  милиции. 

В  отделении  на  Пушкинской  было  не  до  него.  Воры,  спекулянты,  свидетели,  потерпевшие  отвлекали  внимание  от  него  внимание  милиционеров.  Наконец,  дошла  очередь  и  до  него.  Присмотревшись  к  нему, узнав  фамилию и имя, капитан  милиции  спросил: - Чем  занимаетесь?  -  Выгуливаю  бродячих  собак, - ответил  Сергей.  – А  в  свободное  от  этого  благородного  дела  время?  -  Устраиваюсь  в  институт,  который  не  успел  закончить  перед  войной.  -  Значит  студент.  Ну,  а  как  с  судимостями?  - Вот  чего  нет того  нет.  Капитан  прищурился,   изобразил  на  своём лице  нечто  ироническое  и  вдруг  резко  сказал:  -  Руки  на  стол.  Увидев  собственные  руки,  Сергей  испугался.  Перед  ним  были  руки  убийцы,  иначе  их  воспринимать  было  трудно.  Узловатые,  грубые,  хищные,  все в татуировках.  -  А  это  что?  - спросил  капитан,  указывая  на  синие  буквы и  рисунки  на  руках,  шпаргалки?  - Ошибки  молодости, - буркнул  Сергей.  – Раздевайтесь,  - приказал  капитан.  Когда  осмотр  закончился,  он  сказал:  -  Длинный  ты  мужик,  Кузнецов,  или  как  там  тебя.  Отпустить  я  тебя,  сам  понимаешь,  без  подарков  не  могу.  Вот  сдашь  нам  свои  пальчики,  мы  узнаем,  кто  ты  такой  и  откуда  взялся,  а  вот  тогда  и  решим,  что  с  тобой  делать.  Кузнецова  обыскали,  отняли  расчёску,   галстук, ремень, вынули  из  туфель  шнурки,  а  также  отняли  таблетки,  которые  ему  дал  хирург.   Он  просил  не  забирать  их,  но  его  не  послушали  и,   лишив  таблеток,    отвели в камеру.
В  помещении этом  не  было ничего,  кроме  пола и тусклой лампочки  под  потолком.  На  полу,  в  углу,  спал  какой-то  парень.  – Вот  тебе и свобода,  вот  тебе и руки-ноги, - подумал  Сергей.  Он  ещё  не  знал  тогда,  какие  сюрпризы  готовит  ему  жизнь.  Узнал  он  о  них  через  неделю,  когда  пришёл  ответ  из  картотеки  об  отпечатках  его  пальцев.  В  тот  день  его  ввели  в  кабинет  начальника  отдела  уголовного  розыска,  где  помимо  допрашивавшего  его  капитана,  находились  ещё  два  работника  милиции в звании  полковника  и  подполковника.  Капитан  предложил  ему  сесть  и  сказал: - Назовите  своё  настоящее  имя и фамилию. – Сергей  Кузнецов.  Капитан  положил  перед  ним  справку,  полученную  из  картотеки,  и  сказал: - «Ознакомьтесь»  Сергей  прочитал  справку  и,  наконец,  узнал  чьи  у  него  руки.  Тут  ему  захотелось  рассказать  милиционерам  всю  историю  с  его  руками  и  ногами,  но  он  не  стал  этого  делать,  помня  настойчивую  просьбу  хирурга.  А  капитан  стал  перечислять  «заслуги»  владельца  его  ног и рук  перед  советским  государством  и  его  гражданами.  – Вы,  -  говорил  капитан,  чётко  выговаривая  каждое  слово, -  гражданин  Морозов,  перед  войной  совершили  два  умышленных  убийства: убийство  гражданки  Тимофеевой  Людмилы  Прохоровны  сопряжённое  с  её  изнасилованием,  и  убийство  гражданина  Кудрина  Игоря  Гавриловича  с  целью  ограбления.  Находясь  в  ходе  расследования  дела,  как  подозреваемый  в совершении этих  преступлений,   под  арестом,  вы  бежали  из  тюрьмы,  а  когда  пришли  немцы,  пошли  к  ним на  службу  и  служили  до  мая  1944-го  года  у  них  полицаем,  участвуя  в  массовых  убийствах  советских  граждан. В  том  же  году,  Вы, как  изменник  Родины,  были  осуждены  трибуналом  к  25  годам  лишения  свободы  и  для  отбывания  наказания  направлены  в  Магаданскую  область,  откуда  направлены  на спец объект  для  дальнейшего  отбывания  наказания.  В  пути  следования  по  морю  от  Магадана  до  Владивостока  вы   ограбили  и  убили  осуждённого  Севера  Морковкина, завладев  имеющимся у  него  золотым  самородком.  Следуя  на  поезде  к  месту  назначения,  воспользовавшись  прохождением  вагона  по  мосту,  бежали.   Следуя  далее на  попутном  поезде  к  Москве,  вы  совершили  умышленное  убийство  сопровождавшего  поезд  стрелка  военизированной  охраны  Храпунова,  а  затем  командированного  из  Москвы  в Хабаровск  Зятина.  Находясь  в  Москве,  вы   в  подъезде  дома  №37  на  Арбате  ударили  ножом   граждан Смирнова  и  Носова,  один  из  которых,  Смирнов,  скончался  на  месте,  а  второй – Носов  в  результате  нанесенного  вами   удара,  получил  тяжкие  телесные  повреждения.  Находясь  там  же,  в  Москве,  вы,  с  целью  ограбления,     совершили  умышленное  убийство  гражданки  Загряжской    и  её  девятилетней  внучки.  Слушая  капитана, он  со  всё  большим  и  большим  ужасом  смотрел  на  свои  руки,   чувствуя,  как  к  горлу   подступает  тошнота.  - Вы  признаёте   себя  виновным  в  совершении   перечисленных  преступлений? -  спросил  капитан  и  Сергей,  выйдя  из  оцепенения,  которое  на  него  нашло,   резко  ответил:  – Нет.  -  Отпечатки  ваших  пальцев  обнаружены  в  квартире  Загряжской,   а  Носов  опознал  вас  по  фотографии.
 -  Он  не  мог  опознать  меня  по  фотографии,  произошло  недоразумение.  И  Сергей   решил,  наконец,  рассказать всё,  что  с  ним  произошло.  Но  тут  капитан  встал,  подошёл  к  нему,  взял  за  волосы и,  посмотрев  в  глаза,  зло  сказал: -  Значит,  русских  слов  не  понимаешь,  гад,  ну  тогда  мы  с  тобой  на твоём  языке   поговорим.  После  этих  слов  Сергей  почувствовал  сильный  удар  сзади.  Его  схватили  за  шиворот,  оттащили  от  стола  и  стали  бить.  В  кабинет  вошли  ещё  два  милиционера.  Впятером  они  стали  играть  им,  как  мячиком,  ногами  и  руками  нанося  удары,  так  что  он  нарывался  то  на  кулаки,  то  на  сапоги  то  одного,  то  другого.  – «Пятый  угол» - мелькнуло  у  него    голове,  -  я  ещё  до  войны  слышал  об  этом  «методе»
Когда,  наконец,  он  потерял  сознание,  его  облили  водой  и  отнесли в камеру,  бросив на пол.  Утром,  когда  проснулся,  у  него  всё  болело,  а  в  голове  стоял  гул,  как-будто  где-то  работал  самолётный   двигатель.  – Если  так  пойдёт  дальше, - подумал  он, -  то  мне  отсюда  живым  не  выбраться.  Сергей  огляделся  и  заметил  в  камере  нового человека.  Это  был  молодой  парень,  на вид  рабочий,  или  строитель.  Того же  мужика,  что  был  раньше,  в  камере  не  было.  Новенький  вскоре  стал  с  ним  делиться  своими  проблемами,  прося  совета. Он  рассказал,  как  в  общежитии  играл  в  карты  с двумя  соседями  по  комнате,  как  двое  его  соседей  поссорились  и  один  убил  другого  ножом,  а  убив,  стал  просить  его,  чтобы  он  взял  вину  на  себя,  как  несудимый,  или  хотя бы  выгородил  его,  показав,  что  убитый  напал  на  него  с  ножом  первый.  Он  это  делать  отказался,  сказав,  что  ты,  мол,  убил  моего  товарища,  а  я  должен  тебя  выручать,  не  много ли  хочешь?  Тот  ответил: - Шкура  ты,   твоему  товарищу  теперь  ничего  не  поможет,  а  мне  вышка  светит,  меня  выручай.  В  ответ  он  сказал  убийце:  - Тебе  о  вышке  надо  было  думать  раньше,  когда ты нож  в  руку  взял,  а  теперь  ты, чтобы  спасти  свою  шкуру,  меня,  своего  товарища,   шкурой  называешь  и  под  статью  подводишь.  Тот  же  взял  нож и  говорит: -  Ну,  мне, что  за  одного,  что  за  двоих  отвечать – всё  едино.  И  на  меня.  Я  тоже достал  нож, ну  и,  короче,  мне  повезло  больше.  Теперь  эти  гниды  на меня  два  трупа вешают,   и  не  того  гада,  а  меня  к  стенке   прислонят.  -  И  что  же  ты  надумал? – спросил  Сергей.  -  А  что  тут  думать,  бежать  надо.  И  они  стали  обсуждать  побег. 
На  следующее  утро  Кузнецова  опять  повели  на  допрос.   На  этот  раз  его  не  били, его  должны  были  предъявить  на  опознание  Носову.   Кроме  Носова  начальник  угро  приготовил  для  него  другой  сюрприз:  через  Гулаг  отыскал  вернувшегося  из  Магадана в  Москву  Кочетова.      Тот,  услышав  о  задержании  негодяя,   убившего его  тёщу  и  внучку, завладевшего  его  самородком,    решил   прикончить  его,  чего  бы  ему  это не  стоило.  -  Вот  тебе  и  обеспеченная  старость,  вот  тебе и домик  в  Крыму  из-за  какой-то  гниды,   выродка….  Войдя  в  кабинет  капитана,  Кочетов  опустил  руку  в  карман,  где  лежал  пистолет.  Спиной  к  нему,  на  стуле  у  стола,   сидел  тот,  кто  разрушил  его  жизнь:   лишил  внучки,  жены,  бросившей  его и  обвинившей в  том,  что  это он всё подстроил, чтобы  избавиться  от её  матери. стрелять  он  не  стал  и  не  потому,  что  передумал  или  побоялся,  а  потому,  что  захотел  взглянуть  в  лицо  убийце,  произнести  ему   свой  приговор.  Он  обошёл  его,  заглянул  в лицо  и  разинул  рот:   перед  ним  сидел  человек  совсем  не  похожий  на  Дмитрия  Морозова.  – Это  не  он, -  сказал  он  капитану. – Приглядитесь, - посоветовал  тот. -  Да  что  там   приглядываться, и  так  видно.  Когда  Кузнецова  среди  троих  не опознал  и  Носов,  настроение  начальника  угро  заметно  испортилось.    Строго  говоря,  после  того,  как  его  никто  не  признал,  а  какие-либо  другие  доказательства  отсутствовали, Кузнецова  надо  было  выпускать.  Но  отпечатки,  что  делать  с  ними,  кто  поймёт  его,  если  он  отпустит  этого  Кузнецова-Морозова?  Ведь  Носков  мог  просто  забыть  его  внешность,  мог  побояться  опознать  его,  мог,  наконец,  из-за сочувствия  к  коллеге  по  цеху,  так  сказать,  покрыть  его.  Кочетов  мог  сделать  вид,  что  не  узнал  его.  У  него  в  кармане  был  пистолет,  это  было  заметно.  Он, возможно,  собирался  убить  мерзавца,  но  не  в  отделении  милиции,  а  тогда,  когда  его  отпустят.  В  такой  ситуации  необходимо  было  найти  фотографию Кузнецова  и  капитан  по  ВЧ  связался  с  тамошним  угро.  Ему  сообщили,  что  Кузнецов  Сергей  Иванович  1920-го  года  рождения  находясь  в  Доме  инвалидов  №17,  совершил  умы-шленное  убийство,  а  во  время  доставления  его  на  судебно-психиатрическую  экспертизу, бежал  и  находится  в  розыске.  Отпечатками  пальцев  Кузнецова  они  не располагают   за  отсутствием у  него  верхних  конечностей равно,  как   и  его  фотографией.  -  Чертовщина  какая-то  без   рук и без  ног,  а  бежал, - подумал  капитан.  Его,  честно  говоря,  смущала  не  только  вся  эта  неразбериха  с  руками  и  лицами,  его  смущала  манера  поведения  и  выражение   глаз  задержанного.  Не  вязались  они  с  его  татуировками  и  биографией.  Он  искал  ответ  на  этот  вопрос,  но  не  находил  и  это  его  угнетало.

Вернувшись  в  камеру,  Кузнецов  сразу  заговорил  с  сокамерником  о  побеге.  Он  чувствовал,  что  долго  не  продержится:  ноги  и  руки у  него  ныли  и  переставали  слушаться.  Решили действовать  по  составленному  им  плану. 
Спустя  пол  часа   после  того,  как  Кузнецова  ввели  в   камеру,  раздался  его  крик: - Помогите!    Дежурный  по  КПЗ открыл  дверь  и  увидел, как  он  держит  за  ноги  парня,  а   тот,  с  петлёй  на  шее (петлю  эту  нарисовал Сергей,  собрав на палец  пыль, которой в помещении  было предостаточно) висит  под  потолком,  у  лампы,  свесив  голову  на бок  и  высунув  язык.  Дежурный  подскочил  к  повешенному,  пытаясь схватить  его  за  ноги,  чтобы  поддержать  и  тем  самым  ослабить  стягивание  петли.  В  этот  момент  самоубийца  оказался  на  полу  и  вместе  с Кузнецовым  схватил дежурного,  засунул  ему  в  рот  свои  подштанники  и связал  ему  руки его  собственным  ремнём.  Затем  «самоубийца»  одел  его  китель, а Кузнецов - фуражку   и  оба  чинно  проследовали  по  коридору  к  выходу  через  дежурную  часть.  Когда  они  вышли  за  дверь,  на  улицу, то до  милиционеров,  находящихся  в  дежурной  части,  наконец,  дошло,  что  продефилировавшие  мимо  них  с  таким  гордым  видом  личности  не  стражи  порядка,  а  арестанты.  Они  кинулись  в  погоню.  Беглецы  же,  выйдя  на  улицу,  побежали  в  разные  стороны.  Кузнецов  перебежал  на Пушкинскую  и,  пробежав  несколько  шагов  по  Столешникову  переулку,  упал  в  траншею,  выкопанную  для  прокладки  то ли газа, то ли  водопровода,  а  парня  на  улице  Горького  схватили  граждане.  Два  милиционера,  присев  на  корточки  у  траншеи,  предложили  Кузнецову  вылезти  и  протянули  ему  руки.  Кузнецов  протянул  им  свои  и  вдруг  почувствовал  сильную  боль  в  плечах.  Не  прошло  и  минуты,  как  толпа  зевак,  собравшихся  у  траншеи,  ахнула,  увидев  сидевших  на  земле  милиционеров,  у  каждого  из  которых  в  руках  было  по  руке  Кузнецова.  Придя  в  себя,  милиционеры  спустились в траншею  и  стали  тащить  из  неё  Кузнецова  за  ноги.  Какой  же  ужас  охватил  окружающих,  когда  те  увидели,  что  милиционеры  оторвали  человеку  и  ноги!  Подошедший  в  это  момент  начальник  угро,  пытаясь  успокоить  собравшихся  граждан,  стал  убеждать  их,  что  это не  ноги и руки,  а  искусно  сделанные  протезы.  Народ  не  хотел  этому  верить  и  кричал  «А  откуда  кровь?!»,  «А  разве  на  протезах  татуировки  бывают?!» и пр. Капитан  пообещал во  всём  разобраться  и  принять  меры.  После  того,  как  толпа  немного  успокоилась,    процессия  отправилась  в  отделение  милиции,  завязав узлом  брюки  и  рукава  одежды  задержанного.  Впереди  шёл  капитан,  за  ним  милиционер  с  ногами  и  руками Кузнецова.  Замыкал шествие  милиционер  со всем остальным,  что  осталось  от  Кузнецова  после  задержания.
Теперь  в  личности Кузнецова можно  было  не  сомневаться.  Надо  было  только  решить,  что  с  ним  делать.  Пока  что  его  отнесли в  КПЗ,  а  ноги и руки  начальник  угро  велел  сложить  у  себя в кабинете.
Вскоре  в  отделении  появились  две  дамы.  Сначала  одна,  светловолосая  и  очень  милая  со скрипкой.  Она  просила  разрешить  ей  свидание  с  Кузнецовым.  Войдя  в   кабинет  начальника  угро  и  увидев  лежавшие  у  стены    ноги  и руки,  она  упала  в  обморок.   Придя   в себя,  спросила: - Вы  его  убили,  или  он  попал  под  трамвай?   Пока  милиционеры  пытались  объяснить  ей  ситуацию,  в  кабинет  ворвалась  рыжая  дама  и,  увидев  руки  и  ноги,  стала  кричать  милиционерам,  что  они  убийцы,  что  они  лишили  его  необходимого  лекарства  и  он  из-за  этого   снова  стал  беспомощным  инвалидом.  Потом,  узнав,  что  женщина  со  скрипкой  тоже  пришла  к  Кузнецову,  набросилась  на  неё  и,  если  бы   не  милиционеры,  разорвала  бы  в  клочья.  Наконец,  когда  дамы  успокоились,  капитан,  начальник  угро,  сказал  им, что  после  оказания  Кузнецову  медицинской   помощи,  он  будет  поставлен  в  известность   об  их  желании  встретиться с ним  и  в  зависимости  от  принятого  им  решения,  им  будет  разрешено  свидание,  или в  этом  свидании  им будет  отказано.  Дамы  же,  наперебой,  стали  говорить,  что  готовы  взять  его  себе  хоть  на  поруки, хоть  как.
Кузнецов,  узнав  об  этом  от  капитана,  задумался.  Стать  обузой  для  Клавы  он  не  хотел,  а  игрушкой  для   Рыжей – тем  более.  Его  потянуло обратно, в  скит,  к  своим  ребятам,  и  он  сказал   капитану: - Скажите  им,  что  я  возвращаюсь  домой. 

Лето  в  монастыре  было  благословенной  порой.  «Самовары»  весь  день  висели  на  старой  большой  яблоне  и,  если б не   деревенские  мальчишки,  которые  иногда  бросали  в  них  шишки и камушки,  всё  было  бы  прекрасно.  Кузнецова  привезли  в  скит  поздно  вечером,  когда  все  спали,  и  тихо  подвесили  на   свободное   место.  Гуськов,  который проснулся  первым,  продрал  глаза,  зевнул  и  уставился  на  Сергея.  – Серёга!  -  нерешительно  сказал  он,  - откуда  ты?  И  тут  же  крикнул: - Мужики,  Серёга  вернулся!   Когда  все  проснулись,  удивлению  и  расспросам  не  было  конца и Сергей  рассказывал,  и рассказывал.  Они  же   ему поведали  о  том,  что  Мария Ивановна  теперь  стала  их  общей  женой,  что  Ляжкина   родила  от  Мити  чёрта с рогами,  а  самого  Митю  убили  деревенские,  что  Иван  Иванович  умер,  а  Лёху  повысили  и  он  стал  старшим  говночистом, что  Михаила  Ефимовича  отпустили, что  Слава  написал  книжку,  а Люба  умерла  с  тоски,  наверное, что  «Слепого»  нашли  и  водворили  на  старое  место,  и  от  него   просочились  сведения  о  том,  что  его  папаша  скоро  умрёт. 
Сергей  слушал   рассказы  скитников,  вспоминал  о  днях,  проведённых  в  Москве,  о  Клаве.  Ему всё  чаще  стали  слышаться  какие-то  голоса,  которые  приказывали  ему то  бежать, то  убивать,  но  внимания  на  них   он  не  обращал.



06.02.12 – 29.03.12. Москва


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Георгий   Андреевский

   
С К И Т













Москва     2012







В  книге нет  никаких намёков и параллелей.  Это  не  хроника  прошедших  событий,  хотя в ней и запечатлены реальные факты, а  «фантазия на тему»  Много  лет  тому  назад  я  впервые  услышал  о  ските  Валаамского  монастыря,  в  котором  в  послевоенные  годы  доживали  свою  жизнь  безногие и безрукие  инвалиды,  и  не мог  забыть  об  этом. Человек  так  устроен,  что  видя   чужие  страдания  (человека  или  животного  безразлично)  он  воспринимает  их,  хоть  чуть-чуть,  но  как  свои собственные.   И  такому  восприятию их   не  помеха   ни  собственное  счастье,  ни   эмоциональная  тупость.  Прочитаем  ли мы рассказ  Кафки «Превращение», увидим  ли на улице  безмерно  изуродованное  и  униженное  существо, мы   не  можем  оставаться  к  нему  равнодушны    и  не    видеть   себя  на  его  месте.    Если  Вам  скажут,  что  написав  книгу  или  картину   об  этих  страданиях,     можно   от   них   избавиться, - не  верьте.  Они  умрут   вместе  с  нами.











Скит -  пустынь, общая обитель отшельников, братское, уединенное сожительство в глуши…. .  - Толковый  словарь  В.И.Даля


В то утро  на  башне  бывшего  монастыря  зазвонил колокол.  Зазвонил, отупев  от  многолетнего  молчания,  сам, тревожно и тоскливо,   как  воет собака  по  умершему хозяину.   Никто  его,  кроме  ветра, не трогал  и  не  раскачивал.  Проснувшись, Мария  Ивановна  подумала: уж не пожар ли?  Встала,  подошла к окошку,  посмотрела  и,  убедившись,  что  во дворе всё  спокойно,  снова  легла.  От испуга и холода  в  комнате,  бывшей  келье,   её  пробрала  дрожь.   Она  забралась  под  одеяло,  сжалась под  ним,  грея   руки  о  собственное  тело.  Здесь,  под  грудью, им  было  тепло  и  тесно.  Согревшись,  размякла,  раскинула ноги  и,  проведя  рукой  по  круглому,  как  глобус,  животу своему,   стала  вспоминать  каким  был  этот самый  живот  у неё  в  молодости.   Тогда  рука  её  от  груди  съезжала  по нему вниз,  как  на санках,  под  горку, и только спустившись  до самого низа, следуя  дальше, въезжала на  бугорок. И  ем  вроде  не  много  и  в  работе  всё   время,  а  толку  нет,  видать живот  растёт не  от котлет,  а  от  лет, - не  зря  люди так  говорят, - думала  она,   и  была  права.  Вся  жизнь -  впроголодь,  уж и  не  помнила,  когда  жила в  достатке,  и жила ли вообще.  Теперь,  когда  с  голоду  живот  подводило, шла  на  пищеблок,  к  шеф-повару  Татьяне.  Та  пекла  шикарные  блинчики  из  картофельных  очисток,  а  ещё,  после  обеда,  сваливала  все  недоеденные  остатки  в  кастрюлю и  разогревала.  Это  «горяченькое», если  не  задумываться  о том, что  это  объедки,  вполне  сходило за  обед,  которым  «набивала  пузо»  не  только  она  и  постоянно  околачивавшийся  у  пищеблока  в  поисках  собачьей  радости  пёс  Дружок,  но  и  сама Татьяна,  судомойка,  татарка Соня Хабибуллина  и  их  дочери:  Лена и Венера десяти и семи  лет. Мария Ивановна  вспомнила  тут,  как  Соня, обычно  обращаясь  к  своей  маленькой  дочери,  говорит:  «Ах, ты,  маленький  проститутка…» Девчонки - девчонки,  кем  они  вырастут  в  этой  богадельне?  Кругом  мужики,  да  ещё  чокнутые,  от  них,  что  хочешь,  можно  ожидать.  И  она вспомнила,  как  Ленка  с  хитрой  рожей,  думая, что  она  не  слышит,  сказала  Венере на  ухо:  «Пойдём,  посмотрим,  как  слепые  писают»  Она  рассказала  об  этом  Татьяне,  но  та  махнула  рукой  и  сказала: «Разве  за  ней  углядишь?  А  чему  быть – того  не  миновать.  Рано  или  поздно всё равно  бабой  станет»    Спорить  с  Татьяной  она  не  стала – возразить  было  нечего.           - Эх,  молодость,  молодость!  – вслух  сказала  Мария  Ивановна  и  решила,  что  пора  вставать.  Встав,  накинула на плечи  ватник и присела над ведром.  Струя  со  звоном  ударила в  железо  и  разрезала  тишину  её скромного  жилища  звуком напоминающим  звук  циркулярной  пилы.  Проведя  рукой  между  ног  и  вытерев  руку  о  висевшую на  верёвке  у печки  тряпку,     Мария  Ивановна    оделась,  причесалась,  съела кусок  чёрного  хлеба,  запила  его  водой,  зачерпнув  её  железной  кружкой  из  ведра, стоявшего на столе,  и  отправилась на работу.  В  пути  её,  как  всегда  сопровождал  «Дружок»,  тот  самый,  что  обычно  околачивался около  кухни.   До работы было не  далеко:  перейти  двор   с  пищеблоком,  свернуть направо,  пройти  лабораторию,  морг, повернуть ещё  раз  направо  и  пройти метров  сто  до  небольшой  монастырской  постройки,  из  красного  кирпича,  именуемой  скитом,  а  теперь  общежитием  палатой №3 дома  инвалидов  №17,  или «самоварней»   Название  такое  это  общежитие  получило  потому,  что  в  нём  доживали  свою  жизнь  инвалиды  Великой отечественной войны,   лишённые  всех  четырёх конечностей. Их  тут и прозвали «самоварами»,  поскольку  из  всех  выступающих  деталей  у  них  торчал,  как у самовара,  лишь  крантик  спереди. 
Когда  Мария Ивановна открыла дверь  подъезда, то чуть не задохнулась от сильного  порыва  ветра, ударившего ей  в  лицо.   Такого ещё не  было, - подумала  она,  -  чтобы  в  этих  местах  ветер с  ног  валил.  И  откуда он только  такой  взялся,  кругом  ведь лес  стеной  стоит,  защищает.  Опустив  голову  и   подхватив  концы  платка под  подбородком, чтобы  ветер не сорвал  его  с  головы,   она  двинулась   привычной  дорогой  к  скиту,  хрустя  валенками  по  мёрзлому снегу.   Было ещё  темно.  В  марте  в  этих  краях  светало  позже,  чем  в  её  пензенской  деревне – Север  всё-таки.  Теперь  ей  казалось,  что  и  деревня, и  мать,  и  старый дом  их  существовали в какой-то  другой,   потусторонней  жизни,  в  которой  были игры,  смех,  беготня,  страшные  истории, мальчишки,  тисканья.  Была  там  её  свадьба,  и  она  в  белом  подвенечном  платье, и муж  в  разорванной  и  окровавленной  после  драки  рубашке,  был и  первый  сын  их,  умерший  на  третий  день  после  рождения,  и  второй  сын – голубоглазый и  розовый,  как  пятачок  поросёнка.   Годы  первых  пятилеток  и  ежегодные  «битвы  за  урожай»  внесли  изменения  в  её  стройную,  тонкую  фигуру.  У  неё  стали шире плечи, талия  и  бёдра,  тяжелее  грудь.  Ладони  рук  стали  грубые  и  шершавые,  как  асфальт.   В  двадцать  девятом им  повезло:  из  своей  покосившейся  хибары  они  переехали в  просторную  кулацкую  избу.  В  избе  этой  жила её  подруга – озорная  девчонка. Всё  частушки сочиняла  и  пела  их  тонким  звонким  голосом:  «Хорошо  живётся, братцы,  лебеда  есть  и  навоз.  Оторвите  руки, ноги – не пойду я у колхоз!»  Где  она  теперь?  Небось в Сибири.  Повезло ей.  Её  выслали, а нас,  бедных, – оставили на погибель.  Началась война - мужа призвали,  а  сын  сам  пошёл,  сколько не уговаривала  остаться. Когда немцы  стали подходить,  многие  из их деревни  бросили свои дома и  пошли на восток.   Она  тоже  пошла.  Шла неделю  и  гнала корову   под  бомбёжками и обстрелами.   В  сорок втором  вернулась на пепелище.  Жила в  землянке.  Молилась  только  за  то, чтобы  корова не пала. Возила  в город  молоко  по  квартирам  в  двух  бидонах  по двенадцать литров.  Приходилось  на  четвёртый,  и  на  пятый  этаж  забираться.  Надорвала  себе  живот  и  спину  потянула.  Всё  болело.  Бывало  утром  встать – целая  пытка.  Муж  вернулся  контуженый.  Сильно  пил  и  матерился.  Матерился и пил, да  ещё  бил  её,  молча  и   зло.   В  сорок  пятом он,  всё-таки, закончил   строить  дом,  а  вскоре  в  его  подвале-то и повесился.  Ждала она сына  - не дождалась.  Пришла лишь бумажка о том,  что  он  пропал  без  вести. Сколько не пыталась она узнать  подробности – ничего не вышло.  Все только  руками разводили,  а  ничего  ответить не могли.   Когда пала корова  и  начался  голод  ей  ничего не оставалось  как  завербоваться  куда-нибудь.  Было  это в  сорок  пятом  году.   Вот  так   и  попала  она  сюда,  в  Дом  инвалидов  № 17.   Вербовщики  обещали  ей  должность  сестры-хозяйки,  а когда  она приехала  сюда,  должность эта оказалась  занята.  Уговорили  остаться  уборщицей.  Согласилась.  Деваться-то всё равно было не куда, да и   на  обратную  дорогу  денег  у  неё  не  осталось.  Вот  так   и  стала она   уборщицей  в  этом  самом  «самоварнике»  Сначала  бежать хотела, хоть на край  света,  к  зверям, в дремучий  лес, только  бы  не  видеть  всего того, что ей  довелось  увидеть  здесь,  но  постепенно  стала привыкать  и  к  виду  этих  несчастных,  и  к  их  характерам,  и к  тем  физиологическим  проявлениям,  которыми  человек не отличается от  животных  и  при  этом  самых,  что  ни  на  есть,  вонючих.  Запах,  который  постоянно  царил в ските,  был  далёк  от  сельского аромата  коровников и конюшен,  он  скорее  напоминал  зловоние  свинарника.  Первое  время  это  угнетало  Марию  Ивановну.  Она  вставляла в ноздри  вату,  стала  даже курить.  Постепенно   стала привыкать. Однажды, прибирая  в ските,  она  забыла  забить нос ватой и  поймала себя на  том,  что  не  обратила  внимания  на  запах.      К  тому  же  её  не  покидала  мысль о сыне.  Ей  представлялось,  что,  возможно, он  тоже  вот  так,  как  эти  несчастные,  где-нибудь  страдает.  Уцепившись  за  эту  мысль, она стала  внушать  себе  материнское  чувство  к этим  чужим  для  неё  людям.    И  в  чём-то  ей  это  удалось.  По  крайней  мере,  она  стала  ходить на  работу  не как на  Голгофу,  как это было в начале.    
Подойдя в  это  утро к двери  скита,  Мария  Ивановна  достала  ключ  из-за  пазухи и открыла им большой  амбарный замок,  висевший на двери.  Железная  дверь  открылась  с  трудом,  скрипя  и  цепляясь  за  выступавший  под  собой  лёд.  В  ските  было  темно  и   тихо,  если не считать  храпа.   Спят -   подумала  она  и  занялась  своими  обычными  приготовлениями к работе,  наводя  порядок в  тряпках, вёдрах  и  прочих  технических  приспособлениях.  Закончив  приготовление,  она  вошла в палату,  когда  уже  начало  светать.  Палата – бывшая трапезная,  была не большой,  примерно  15 квадратных  метров.  На  деревянных  настилах,  прижавшись к стенам,   стояли  большие плетёные  корзины,  из  которых  торчали  человеческие  головы.  Из  одних корзин  торчала одна  голова,  из  других – две.  Протирая  пол мокрой  тряпкой,  Мария  Ивановна  обратила  внимание  на  то,  что  постоялец палаты  Саша  Мамин  как-то  странно  откинул  голову  назад.  Как-то уж  очень  сильно. А, главное,  глаза у него  открыты и не просто открыты,  а  даже  как-то выпучены.  Она  подошла  ближе  и  обмерла.  В  корзине,  рядом со  спокойно спящим  в  ней   Кузнецовым,   находился  покойник  с  разорванным  горлом.   Она  выронила из  рук  швабру,  перекрестилась  и  попятилась к двери…

В  кабинете  директора  Дома инвалидов   Гырымова («человека с двумя  ы»,  как  его  ещё  называли)  помимо Самого,  находились:  главный врач  Михаил Ефимович  Кошкер,  заместитель  директора по хозяйственной  части  Абдулов,  сестра-хозяйка  Ляжкина,  а  также  заведующие   общим  и  психиатрическим отделениями:  Мордовин  и  Крайний.  Марию  Ивановну,  сообщившую  директору  о  страшном происшествии,  тоже  попросили  остаться,  и  она  уселась на белый деревянный  диван,  стоявший  у двери.  Вопрос  был  один:  - Что  делать?   Лучше всего  было  бы,  как  говориться,   предать факт забвению,  чтобы весь  год  о  нём  не  твердили на каждом совещании,  чтобы  не  нагрянула  комиссия  из  Минздрава  и,  наконец,   чтобы  не  лишиться  премии,  если  таковую  всё-таки  выделят  в  текущем  году.  Но  сделать  это  было  нельзя,  т.к.  Мария  Ивановна,  пока  дошла  до  директора,  каждому  встречному-поперечному,  и  даже  микроцефалу Мите,  рассказала  о  страшном  событии.  «Труп в корзине» -  где-то  я  уже  слышал  такое  название  детектива, - подумал Гырымов, - не  хватало  только  нам  ещё  попасть в его  продолжение!  Потерев   лоб  рукой  и  поморщившись, он  всё-таки  снял  трубку  и  позвонил  прокурору. Теперь,  до  приезда  следователя  нужно  было  выработать  позицию  Дома по  этому  прискорбному  факту.  Все  понимали,  что  у  следствия,  естественно,  возникнет  вопрос  о  том,  почему   Кузнецова и  Мамин  посадили в одну  корзину,   и  тогда может  вскрыться то,  что  по  указанию  администрации специально   подсаживали  в  чужие  корзины тех  постояльцев,  которые  мочились,  не  дожидаясь  утренней  оправки: авось  постесняются,  или  побоятся.   Поэтому  директор и спросил  главного  врача:  - А  что,  Михал Ефимыч,  в  истории  болезни  Мамина  имеются  какие-нибудь  замечания  по  этому  поводу?  Главный  врач не  ответил,  а  положил  перед  ним  историю  болезни, ткнув  пальцем  в  место,  где  стояло  красивое,  но  непонятное  слово.  Директор прочитал его по логам: ин-кон-ти-нен-ци-я и  вопросительно посмотрел  на  главного  врача,  мол,  что  это? - Недержание мочи,  - скромно  заметил  доктор. Услышав  это,   директор стал  стучать  себя  кулаком  по  лбу,  приговаривая:  - Так  тебе и надо,  так  тебе и надо…   При  этом он имел  в  виду  не  кого-нибудь,  а  самого  себя.  Ну, зачем  он  послушал этого  солдафона Абдулова,  привыкшего  всё  решать  казарменным  способом.  А  как  это  допустил  главный  врач? И  директор  обрушился  с  этим  вопросом на главного  врача.  Тот  категорически заявил,  что такого  указания  не  давал, а  наоборот, незадолго до случившегося  предупредил  санитара,  чтобы  он  ни к кому  Мамина  не подсаживал.  Директор  попросил  Марию Ивановну найти санитара.  Когда  она  его привела,  то  оказалось,  что  никто  ему  никаких  указаний  не  подсаживать  Мамина,   не  давал.  На  этом он  продолжал  настаивать и после  того  как  главный  врач  во  всех  подробностях  описал  обстоятельства  при  которых  ему  было  сказано  это  предупреждение. Он  тупо повторял одно и то же, говоря «Корзины засрали, а их  велели беречь»   - Сохранность  корзин,  конечно,  важна,  но  люди-то, важнее! – не выдержал директор.   Да,  люди,  люди…., - и в мозгу директора мелькнула спасительная  мысль, -  А,  может  быть,  Кузнецов просто с ума сошёл?  Если  представить дело  так,  всё,  может  быть,  обойдётся? Он  предложил  её главному врачу  и  заведующему психиатрическим  отделением,  но  те   ничего  вразумительного  о  психических отклонениях  Кузнецова  сказать  не  могли. Поступил он не так давно,   ни чем  себя  особенно  не проявил.  В  общем,  человек,  как  человек. После  некоторого  молчания  главный врач  сообщил  о  том,   что  от  Ивана  Ивановича  он  как-то  слышал  о  том,  что  Кузнецов  во  сне  не  раз  повторял   какое-то  женское  имя,   кажется  Тоня,  но  с  чем  это  связано, не известно.  Все присутствующие знали,  что  Иван  Иванович один из  «самоваров»,  с  которым  доктор  ведёт  беседы  в  своём  кабинете   на  разные  философские  темы,  что  он  большой  эрудит и  фантазёр,  а  поэтому  не  придали  этому значения.  Тут  ведь многие во сне говорят  и  даже  кричат.   И  всё же,  на  всякий  случай,  решили  обследовать убийцу,  поручив  это сделать  заведующему психиатрическим отделением. 
В  это время  дверь   кабинета  скрипнула  и  в  проёме  её   появилось  узкое и носатое  лицо  оперуполномоченного  МГБ  Савина.  Директор встал,  а  остальные  стали  покидать  его  кабинет,  стараясь  быстрее  прошмыгнуть в дверь мимо   него.
- Чем  обязаны  Вашему визиту,  Валерий   Петрович? Как я понимаю,  к контингенту  нашему  по  Вашей  части  вопросов  быть не должно.  Героический  контингент.  Ему по всей  стране и по  Европе  памятники  стоят,  он  свою преданность  Сталину и Советской  власти кровью  доказал.
- Контингент Ваш  героический,  Пётр  Валерьевич,  спору  нет,  только  ведь и на  Солнце  пятна  есть,  да   и    среди  Вашего  контингента  тоже  кое-какие  пятнышки имеются,  сами  знаете. Так  что   найдётся  и  для  него  ряд  вопросиков.
- Каких,  позвольте спросить.
- Важных,  Пётр  Валерьевич,  важных,  мы  ведь  пустяками  не  занимаемся.   
- Может  быть,  чаю? – вкрадчиво спросил  директор,  желая  отвлечь  уполномоченного  от  неприятного  для  него  разговора.  Он  знал,  что  уполномоченный  прав,  что  при  всём  героизме  не  все  его  подопечные  чисты  перед  органами,  что  в «тёмной»  сидит у  него  под  замком  слепой,  засаженный  туда по указанию  его  гостя  за контрреволюционную  пропаганду. 
- Не беспокойтесь,  Пётр  Валерьевич,  не  стоит, - строго  ответил  уполномоченный. - Чай  это  мы  как-нибудь в другой  раз  попьём,  а  сейчас  лучше  поговорим  о деле. Вот  Вам  не так давно  выделили радиоприёмник   для  коллективного  прослушивания  передач  центрального  радио.
- Совершенно  верно,  Валерий  Петрович,  он  у  нас   в Ленинской  комнате  стоит  и   коллектив  регулярно  его  слушает. 
- Слушает-то слушает,  да не то,  что  кушает. 
- Как  это?  - и по позвоночнику  директора  пробежал  небольшой  электрический  разряд.
-  А  так,    уважаемый  Пётр  Валерьевич,  дошло  до  нас,  что  люди  Ваши  не  Москву,  а  Лондон да  Вашингтон  слушают,  а  точнее  Би-би-си и  Голос Америки. 
- Да что Вы,  ах  мерзавцы,  ну  мы  им  покажем!- вскипел директор и машинально схватил  телефонную  трубку,  но  одумался и  оставил  её.  -  Кто же  это?  А  может  быть  сплетни  всё,  враньё.  Кого-нибудь не пустили  в  ленинскую  комнату вот он и наврал. 
- Мы,  Пётр Валерьевич,  сплетнями не занимаемся,  а   вот  ротозеями,  потерявшими политическое  чутьё  и  бдительность,   занимаемся,  нас  к  этому  долг  наш,  чекистский,  обязывает. 
После  этих  слов  директор  совсем  погрустнел    и поклялся уполномоченному  перенести радиоприёмник в свой  кабинет и при  прослушивании  каждой  передачи  присутствовать  лично  и  всё-таки уговорил  уполномоченного  попить  чай  с  печеньем,  которое  хранилось  для  особо важных  гостей.  Организовала  чай и угощенье  секретарша Зина,  кинувшая на  гостя  гостеприимный  взгляд.  Макая   засохшее  печенье в чай,  уполномоченный  начал  разговор  по  второму  вопросу  издалека. 
- Вот, Пётр  Валерьевич,  на  фронте у меня  такой  случай  был.  Поручил как-то  командир  одному  автоматчику  польку  расстрелять.  Она,  как  медсестра, у  нас  по медсанбату числилась. Красивая  была  девка,  фигуристая. Только  вот поведение её    подозрительным  кое-кому  показалось:  с  парнями  не  гуляет,  романы не  крутит, а  вот  нос,  куда не надо,  суёт и, вообще,  не  тем,  чем  надо,  интересуется.  Особенно  же   личность  её    подозрительна  стала  после  того как немцы  обстреляли нас,  да  так  точно,  что  от  командирского  блиндажа  ничего  не  осталось,  одна яма. Пять  человек  в  нём  погибло.  Командира   в    тот  момент  в  блиндаже не  было,  он  по нужде  ходил.  А  когда  вернулся,  увидел  всю  картину,  то  весь  аж  затрясся. - Я, -  говорит, - знаю кто   навёл  немцев на  нас.  Найдите  мне  эту  курву,  я  её в  расход  пущу.  Ну, а когда  её  привели, он  приказал  одному  автоматчику  отвести  её  в  сторонку и расстрелять.  Тот  повёл  её  к  лесу.  Слышим выстрелы,  ещё и ещё,  а  его  всё  нет и нет.  Потом  возвращается  и  говорит,  что автомат  заело, а  полячка, мол,  сбежала.  Командир   достаёт  наган,  ствол  к  его  лбу приставляет   и  говорит:  «Я  тебя в трибунал не пошлю,  я  тебя,  сукин  сын,  сам  расстреляю»  Только  вот не  расстрелял,  пожалел,  да и  солдаты  стали  его уговаривать  пощадить  парня – боец, мол,  хороший,  а  польку они  ему  найдут.  Только вот искали, искали  её, а не нашли.  Закончив  рассказ,  уполномоченный  смахнул  со  стола крошки  печенья,  кинул  их себе в рот и спросил  директора: - А  что бы  ты,  Пётр  Валерьевич  сделал  с  этим  автоматчиком?
Директор  хотел  сказать, что   не  знает,  но  посчитав  такой  ответ  не  совсем  политически  грамотным,  развёл  руками и выдохнул:   - Расстрелял  бы.
- Да,  суров  ты,  Пётр Валерьевич.  Командир-то   тот подобрее  тебя  был.  Но рассказал  я  тебе  эту  историю  не для  того, чтобы  твою  беспощадность к врагам проверить,  а  для  того,  чтобы  сказать  тебе,  что  вот  этот  самый  автоматчик  в  твоём  Доме  свою  жизнь  доживает,  а  командиром,  его  пожалевшим,  был….  Тут  уполномоченный   замолчал,  не  закрыв  рта,  и  директор  с  сомнением  в  голосе,  вымолвил: - Ты,  что ли?   - Я  самый, - ответил  чекист.
- А  кто же он? 
- Кузнецов  Сергей  Иванович,  22-ого  года  рождения,  уроженец  села  Хомуты  Ильинского  района  Тамбовской  области.  Знаешь  такого?
- Как  же  не  знать. Он  же  вчера  насмерть  загрыз  Мамина.
- Как?  -  вытаращил  глаза  уполномоченный. 
 - Да  так  и  загрыз,  как  волк  овцу…  и  директор  рассказал  уполномоченному  о  произошедшей  в  эту  ночь  в  Доме  инвалидов   неприятной  истории.   
- А где  он  сейчас? – помолчав,  спросил  Савин.
- В  изоляторе.  Человека к нему приставил  на  всякий  случай.  А  труп  в  морге.  Следователя  ждём.  В  это  время зашла  Зина и сказала, что  приехал  следователь и что  он  скоро  придёт.  Уполномоченный  засобирался,  сказав,  что  ему  надо  поговорить с Кузнецовым,  и  ушёл. 

Следователь  прокуратуры  был  молод,  невысок  ростом  и  рыж.   Когда  солнечные  лучи  падали  ему на  лицо,  то тени  от  больших  рыжих  ресниц  пробегали по веснушкам  и,  казалось,  подпрыгивали.  Он представился,  назвав  себя  Валентином  Кузьмичом  Ореховым,  и  сразу  стал  рассуждать  о  причинах,  способных  побудить  одного  человека  загрызть  другого.    Вспомнил  Маяковского  «Я  волком бы  выгрыз  бюрократизм»,  людоедов  с  Соломоновых  островов,  сожравших Кука,  и  даже  людоедов из  детских сказок,  а  закончил рассуждениями  о  влиянии  прошедшей  войны  на  человеческую  психику. Всё  это  время  он  с  тоской  поглядывал на  недоеденное  печение  и  глотал  слюну.  Под  конец  он  попросил  директора  представить ему  штатное  расписание  Дома  инвалидов,   книгу  приказов с положением о  распределении  должностных  обязанностей  его  сотрудников  и  ещё  кое-какие  документы.  Забрав  их,  следователь    велел  отвести  его  в  морг  для  осмотра  трупа.         
Морг  был  небольшой,  состоял  из  двух  отделений:  покойницкого и прозекторского.  Поскольку  все  покойники  в  покойницком  отделении  не  помещались,  в  прозекторском  отделении,  на  лавках  у  стен  лежали:  высохшая  старуха,  умершая  в  деревне  от  голода,  младенец и  два  одноногих  инвалида  мужского  пола.  Посередине  помещения  стоял  большой  стол,  обитый  нержавейкой,  на  котором  лежал  загрызенный  человеческий  обрубок,  на  груди  которого  чернильным  карандашом  было выведено:  «А.В.Мамкин 1927г»  Глаза  трупа  были  открыты  и  выражали  полное  равнодушие к происходящему.   Около  него   находился  санитар  морга  Кузьмич  и  хирург  районной  больницы,  проводивший  вскрытие.   Взяв  скальпель,  он  провёл  уверенной  рукой  разрез  вдоль груди,  сверху  вниз,  а   затем  раскрыл,  как двустворчатый  шкаф,  грудную  клетку  покойника.  При  этом  он  диктовал  приехавшему с ним практиканту  об  увиденном.  Закончив  с  туловищем,  он  приступил  к  голове. Разрезал  на  ней  скальпелем  кожу  поверх  лба.  Раздвинул  её.  При  этом физиономия  Мамина  изобразила  сначала  сосредоточенность,  потом  брезгливость и,  наконец,  зажмурилась,  как  будто она  ожидает  удара. – Бедный  Йорик! – подумал  Орехов. Хирург  же  взял  пилу  и  стал  пилить  череп.   Отпилив  купол,  снял  его  и  обнажил  мозг.  Величайшее  достижение  эволюции  предстало  перед  глазами  присутствующих  в  виде  продукта  ни  чем  не  отличающегося  от  того,  который   можно  было  увидеть  на  прилавках  мясных  лавок.  Единственное,  что  смутило,  так  это  то,  что  мозг, как  ему  показалось,  имел  какой-то  сиреневый  оттенок.  Но  он  объяснил  это  влиянием  солнечного  света,  проходящего  через  стёкла  окна,  которые  тоже,  как  ему  показалось,  были  сиреневатыми.  – Хорошо  бы  сравнить  этот  мозг  с  мозгами  других    обитателей  скита и,  прежде  всего, с  мозгом убийцы, Кузнецова -  подумал  Орехов,  но  оставил  эту  мысль  в  связи  с  невозможностью  приведения  её  в  исполнение. 
А  вообще, вскрытие  настроило  следователя  на  философский  лад и он,  получив  от  хирурга  заключение о причине  смерти,  состоящей  в  кровопотере,  вызванной  повреждением  сосудов  шеи  в  результате  воздействия  на  них  тупых  твёрдых  предметов (возможно зубов человека),  спросил:  -  А  как  Вы  думаете,  причинил  ли  убийца  своей  жертве  особые  не  только  физические,  но и моральные  страдания  своими  действиями?  Хирург  задумался.  Что бы я не сказал, - подумал  он, - всё  может  оказаться  правдой и всё  неправдой.  Нет  приборов,  измеряющих  страдания.   Вместо  ответа  он  пожал  плечами  и  сказал,  что  ему  трудно  ответить  на этот  вопрос,  поскольку  сила  страданий  величина  довольно  относительная  и  зависит  не  только  от  телесных  повреждений,  но  и  от  личности  того,  кому  они  были  причинены.    Но  следователь не унимался.  – А  разве,  говорил  он,   величина  разрывов  тканей,  повреждений  нервов,  время,  прошедшее  между  нанесением  повреждения  и  потерей  сознания,  недостаточны  для  того,  чтобы  сделать  вывод?   
- Как  Вам  сказать, - и доктор  почесал  лоб,  -  то,  что  Вы  говорите,  конечно, справедливо,  но  нельзя  не  учитывать  при  определении  моральных  страданий  то,  в  каком  состоянии  и  жизненной  ситуации  находился  в  этот  момент  человек.  Представьте  человека  на  взлёте  своей  карьеры,  обогащения,  наконец,  любви.  Потеря  жизни  для  него  в  такой  момент  особенно  ужасна.  Другое  дело  здесь, в  этом  склепе,  без  всяких  надежд на  будущее.  Они  тут  все,  в  глубине  души,  думают  о  смерти. 
- Вы,  наверное,  правы  в  этом,  - задумчиво  возразил  следователь, - но  мне  кажется,  что  в  последние  секунды  жизни  человек  всё-таки  хватается  за  жизнь,  как за  то  единственное,  что  позволяет  ему  осознавать  себя,  как  самое  дорогое  и ни чем  невозместимое.  Мы  просто  не  хотим  думать  об  этих  секундах.  - Возможно,  возможно, - пробормотал  хирург.

Оперуполномоченный  Савин  велел  перевести на время слепого в другое помещение  и,  когда  Кузнецов  остался  один,  вошёл  к нему.  Тот  находился в углу,  прижатый в своей  корзине к  стене.  Мария  Ивановна  давно  смыла  с  его  лица  кровь,  причесала,  одела  чистый  ватник.  Поставив  посередине  помещения  принесённую  с  собой  табуретку,  Савин  сел  и  внимательно  посмотрел  на  Кузнецова.  Да  он ли это? -  мелькнула  мысль.  Неужели  перепутал,  ведь  этих  Кузнецовых у нас как собак нерезаных. Да нет, вроде он, - подумал, приглядевшись.   Да, ну,  конечно он.  Постарел  да  отощал, конечно. Ну, от такой  жизни  любой постареет.
- Здравствуй,  Сергей, - по  возможности  дружелюбно  сказал  Савин.  Кузнецов  открыл  глаза  и  посмотрел на  Савина.   - Не  узнаёшь?  - Взводный?  - Он самый.  А  теперь,  чтоб ты  знал,  оперуполномоченный  МГБ  по  вашему  району. - Удивлён?  - Мир  тесен, и не такое  бывает.  А  ко  мне-то  какой  вопрос.  Я,  вроде,  по  вашей  части  чист.  Может  быть,  мой  старый  грех  вспомнил? 
- Да,  повезло тебе  тогда.  Девка-то  эта  действительно  шпионкой  оказалась,  сама  призналась. 
- У  вас  признаешься… -  мрачно  сказал  Кузнецов и закрыл  глаза.  -  Ты  ведь  знаешь,  почему я  здесь.  Только  это  вас не касается. Это  по  прокурорской  части. 
- Тут  всё  по  нашей  части. – прищурясь  сказал  Савин, и  как-то  задушевно  и  участливо обратился к Кузнецову: -  А  ты  озверел  здесь  без  дела-то.  Так  я  тебе  кое-что  хочу  предложить.  Думаю,  что  не  откажешь,  как  старый  боевой  товарищ. 
- Сбегать,  чтоль,  куда,  или  дров  нарубить?  Так  я  мигом. 
- Шутишь?  Это  хорошо.  Значит  душа  жива.  Значит  интерес к  жизни  имеешь.  Так  что  мы  с  тобой, думаю,  поймём  друг  друга.  А  предложение  у  меня  к  тебе  боевое.  Ты  ведь в разведку  ходил – ходил.  Значит  наш  ты  человек  и  мы  с  тобой  общий  язык  найдём.   
- Говори,  что  надо,  а  то  крутишь  всё,  да  крутишь.
- Надо  помочь  нам.  Тут  у вас  человечек   один  есть,  довольно  вредный,  от  него  нити  в  Москву  тянутся.  Так  вот  размотать  нам  эти  ниточки  треба,  понял.  Если  бы  ты  мог….
Кузнецов  сплюнул  и зло,  не  без  издёвки, отрезал: - Я,  Ваше  благородие,  людоед,  мелочами не занимаюсь.
- Зря  Вы  так,  Сергей  Иванович, - не  менее  зло  ответил  уполномоченный.  Мы  умеем  быть  благодарными,  но  умеем  и   бо-бо  делать. 
-  Стукачом   не  был  и  не  буду, а  в  разведку  ходил  и  ещё  бы  пошёл,  ели б  руки-ноги  были.  Ты  меня  знаешь.
 - Да,  я  тебя  знаю.  Знаю,  например,  как  ты  в  сорок  пятом,  когда   у  тебя  ещё  одна  рука  и   одна  нога  были,  сел  пьяный  в  трамвай,  а  милиционер  тебя  вывел, так  ты  упал  в  лужу  и  крикнул «Да  здравствует  Сталин!»
 - Всё-то  вы  знаете.  А  как  я  жил  это  время,  знаете?
- Мы  всё  знаем,  всё.
- Знайте, что хотите,  а мне  терять  нечего,  меня  стенка  ждёт.
- Не  скажи.  Обещаю  тебе,  что  сам  пойду  к  судьям,  упрошу  тебе  жизнь сохранить.  В  лагерь  тебя  отправим  и  поместим   к  педикам. Они  тебя  каждый  день  на  хор  будут  ставить,  задницу  надерут  моё  почтение!  Ну  что,  будешь  работать,  или  хочешь  петухом  кричать?
- Нет -  тихо  сказал  Кузнецов  и  отвернулся  к  стенке.

Когда  к  нему  пришёл  следователь  прокуратуры,  Кузнецов  говорить с  ним  вообще  отказался. Не  отвечал  он  и  на  вопросы  психиатров.  Им  овладела  одна  единственная  мысль,  мысль  о  самоубийстве.   Уход  из  жизни  избавит  его  от  всего:  от  долгого  и  нудного  ожидания смерти  в  вонючей  корзине,  от  мук  совести  за  загубленную  им  жизнь, от того  кошмара, который  пообещал  ему  взводный.  В  общем,  никаких  противопоказаний,  как  говорят  врачи, у  него  против  смерти  не  было.   Оставался  вопрос: как. Он   когда-то  слышал,  что  один  заставил  себя  не  дышать  и  задохнулся.  Несколько  раз  пытался  это  сделать,  но  когда  каждый  раз,  когда  терял  контроль  над  собой,  начинал  непроизвольно  и  судорожно  вдыхать  воздух.  Бился  головой  о  стену.  Текла  кровь,  голова  болела.  Ему  замотали  голову  одеялом.  Попав  в  мед. изолятор,  хотел  перекусить  электрический  провод,  но  это  заметила  медсестра  и  его  вернули  обратно в скит,  к  слепому. 

Савин  был  зол,  как  лагерный  пёс. – Вот  гад, - думал  он  про  Кузнецова. – Зря я его  тогда не шлёпнул.  Вражина,  конечно.  И дело  не  в том, что  он шпионку  отпустил. (Тут  он вспомнил,  что  доказательств  этого  тогда  так и не нашли)  Пусть  она  и не шпионка,  какая  разница,  могла  же  ей  быть – могла.  Должен  он  был  об  этом  думать – должен.…  Чистоплюй  несчастный…  Ну,  ничего,  пожалеешь  ещё,  попросишься,  да  поздно  думать.  «Мне  терять  нечего»  - передразнил  он  своего  бывшего  фронтового  товарища.  – Посмотрим,  как  ты  запоёшь,  когда  тебя  пидеры  драть  будут.  Тут,   словно  холодок  побежал  по  его  спине, он  вспомнил,  что никого  не предупредил  о  том,  чтобы  Кузнецова  не  оставляли  наедине со слепым.  Он  развернулся и пошёл  обратно.

Когда  Кузнецова  принесли в скит,  Яков,  так  слепой  назвал  себя,  был  уже  там.   Он  рассказал  слепому о  своём  разговоре с  уполномоченным МГБ.  Тут  слепой  протянул к нему  руки,  чтобы  ощупать.  Нервно  помахал  руками  в  тех  местах,  где  у  него  должны  были  быть  руки  и  ноги,  и,  не  найдя  их,  задумался, а потом спросил – Ты  что,  «самовар»?  И  услышал  в  ответ «Он  самый.  Не  видал  таких?»  И  тут  Сергей  стал  умолять  слепого  помочь  ему,  спасти  его.  Слепой  сначала  не  мог  понять,  что  он  от  него  хочет,  а  когда  догадался,  что  Сергей  просит  его   помочь  совершить  самоубийство,  то  у  него  даже  что-то   изменилось  в  глазах.    Он  замахал  руками  и  заплакал.  -  Нет,  нет,  я  не  такой,  мне  нельзя, ты   подумай,   что  потом скажут  обо  мне.  Сергей  не  понял,  что  он  имеет  в  виду  и  стал  говорить,  что  он  всё  придумал,  что  на  него  даже  не  подумают,  так  что  опасаться за  своё  будущее  и  за  свою  репутацию  ему  не  надо,  но  слепой  твердил  своё.
Наконец,  он  перестал  плакать,  вытер  кулаками  глаза  и  спросил  Сергея:  -  Ты  знаешь,  кто  я? Сергей  не  ответил.  Тогда  слепой,   всхлипнув,  прошептал: - Я  сын  вождя.  – Какого  вождя? – не понял  Сергей. – Нашего,  советского.  – Ладно  разыгрывать-то, - отмахнулся  Сергей. – Не  веришь? Мне  никто  не  верит, -  упавшим  голосом  продолжал  слепой.  Меня  специально  упрятали  в  этот  каземат.  Ты  разве  не  понимаешь,  что  я  укор  своему отцу.  Помнишь  его слова:  «У  нас  нет  пленных,  а  есть  предатели»  Так  вот  я  и  есть тот  самый,  что  был  пленным, то  есть  предателем.  Зачем  ему  такой.  Он  и  до  войны  меня  не  любил,  а  уж  теперь  подавно.  В  сорок  третьем  в  плен попал.  Контузило  меня,  потерял  сознание,  а  очнулся  уже  в  бараке.  А  как  очнулся,  не  поверишь,  всё  до  мельчайших  деталей  вспомнил:  и  квартиру,  и  обстановку,  и  книги  в  шкафу.  Вспомнил  даже  его  пометки  красным  карандашом  в  книге  «Переписка  Энгельса с  Каутским»
В  конце  войны  один  бендеровец  подговорил  меня  бежать  из  лагеря.  Теперь-то я  понимаю, что  это  провокатор  был,  а тогда  поверил,  уж  больно  он  заботливым  был,  всё  опекал  меня.  Ну,  побег  удался,  правда,   стреляли  нам  вслед.   Потеряли  мы друг  дуга  из  вида.  Так  я  его  и  не  нашёл.  А  вскоре  к  нашим  попал  в  лагерь.  Назвал  себя,  а меня  на  смех  подняли.  Потом  в «Смерш»  отправили.  Там  майор  один  говорит  мне:  «Яков  убит,  а  самозванцев  нам  не  надо» Один  раз  так  избили,  что  зренье  потерял.  Всё  допытывались,    не  потому  ли  я  назвался его   сыном,  чтобы  добраться до  него  и  убить. А  мне  такое  и  в  голову  не  приходило. Как  же  я  мог  родного  отца… 
Слепой  не  знал  тогда,  что  бендеровец  этот,  находясь  в  тюрьме  на  Лубянке,  обратился  с  письмом  к  Сталину,  в  котором  просил  принять  его  и  выслушать, ему,  мол,  надо  что-то  очень  важное  рассказать  о  гибели его  сына.  Письмо  это  попало  И.о. Генерального  прокурора  СССР  Сафонову.  Григорий  Николаевич   не  то  что  передать,  а  даже  доложить  адресату  об  этом  письме  побоялся.  Посоветовался с министром  внутренних  дел.  Тот  тоже  не  знал  что  делать.  Тогда  решил  действовать  через  Берию.  Зашёл  к  нему  в  кабинет  после  того  как  «особое  совещание» закончилось.  Берия  сидел  за  большим  письменным   столом и  перебирал  бумаги.  Увидев  прокурора,  предложил  ему  сесть.  Тот  сел.  В  это  время  к  Берии  подошёл  его  адъютант,  наклонился  и что-то  тихо  сказал.  Берия  испугался,  стал  как-то  меньше,  но  тут  же  встал  и  быстро  пошёл  в  комнату,  находившуюся  за  его  спиной.  Через  некоторое  время  вернулся и сказал,  что  звонил  Иосиф  Виссарионович.  Сафонов  подумал  тогда:  - Ну, если его сам  Берия  так  боится,  то  что  же  мне,  простому  смертному,  стесняться  своего  страха.  От  этой  мысли у  него  на  душе  стало  немного  легче.
Да,  слепой  всего  этого  не  знал,  однако  не  раз  повторил  слова о том,  что  бендеровец  этот  нарочно  распространял  ложь  о  его  смерти,   чтобы  насолить  ему. 

Пока  слепой и Сергей  делились  своими  переживаниями,  оперуполномоченный  Савин  метался по территории  монастыря  разыскивая  ключ  от  скита   или   кого-нибудь, кто  мог  бы  развести  их по  разным  помещениям.  Матерясь и проклиная  нерадивость и тупость  работников  этого  клистирного  заведения,  Савин  не  мог  избавиться  от  мысли  о  слепом.  Он  проклинал  тот  день   и  того  начальника  по  чьей  воле  оказался  этот  негодяй  в  курируемом им  учреждении.  Противнее  всего  было  то,  что  органам  до  сих  пор  не  удалось  установить  его  настоящее  имя,  а  без  этого  нельзя  было  передать дело не  то что в трибунал,  а  даже в тройку.  Его  угнетало  ещё  воспоминание о глупости,  которую  он как-то  сказал  при  начальнике.  Они  тогда  обсуждали  этого  «Слепого»  и  он  сказал:  -  Ну,  откуда  он  всё  знает?  Знает  обстановку,  знает, что  курит  Сталин,  знает  даже  какие  книги  стоят  у  него  в    шкафу.  Начальник  посмотрел  на  него  и  так  снисходительно  говорит:  - А Вы,  Валерий  Петрович,   в  Третьяковской  галерее  были?  -  Никак  нет,  отвечаю.  – А следовало  бы  посетить.  Непременно  поезжайте в отпуск в Москву. Увидите  там,  на  картинах,  обстановку,  о  которой  рассказывает Ваш  «Слепой».  – А  книги? – спрашиваю.  – Книги? - отвечает  начальник,-  А   Вы  знаете  какие  книги  стоят  в  шкафу  у  Иосифа  Виссарионовича?  - Но  он  же  их  перечислил, - пытаюсь  я  схватиться  хоть  за  какую-нибудь соломинку,  понимая  всю  нелепость  и  глупость  этой  попытки.  Начальник  спорить  со  мной  больше  не  стал,  а   посмотрел  на  меня  внимательно и говорит:  - Устали  Вы,  Валерий  Петрович,  отдохнуть  бы  Вам,  собраться  с  мыслями.  … Собраться  с  мыслями… С  вами  соберёшься!  Последних не останется.  Да и сами вы  ни черта не  понимаете.  До сих  пор  не  знаете,  что  с  этим  чёртовым  «Слепым»  делать:  то ли   пристрелить,  то ли  отпустить.  Ругая  начальство,  он  сам  не  находил  ответа  на  вопрос  что  делать.  Одно  было  ясно:  «Слепого»  этого  надо  скрывать,  содержать  в  строгой  изоляции.  В  тюрьме,  лагере,   психиатрической  больнице  он  может  чёрте что  наболтать,  нафантазировать про  нашего  вождя.  Хорошо  бы,  конечно,  расстрелять,  убить  его…  А  вдруг  окажется,  что  он  действительно..…   Страшно  даже  подумать.   
В  этот  момент  Савин  поскользнулся  и  упал.  Жёсткий  мёрзлый  снег  ободрал  ему  ладони, коленкой он   больно  ударился  о  лёд. В  этот  момент  кто-то  подошёл  к  нему   сзади  и  помог   подняться.  Это  был  Лёха. От  него  пахло  водкой.  Савину  не  хотелось  с  ним  говорить,  но  Лёха  не  отходил  от  него  и  всё  пытался   заговорить,  и он, согласно  одной  из  чекистских  заповедей,  слушал  его,  делая  вид,  что  ему  это  интересно.  Из  всего  бессвязного  набора  слов  он  понял,  что  Лёха  хотел  бы  сотрудничать с органами,  что  ему  есть  что  сказать  кое про  кого.  Савин  ничего  ему  по  этому  поводу не сказал,  а  предложил  поговорить в другой  раз,  когда  он  будет  трезв.  Лёха  обиделся,  но  промолчал.  Узнав  от  Лёхи  о  том,  что  медперсонал  собрался  у  главного  врача,  Савин  отправился к нему.   
Пройдя  по  длинному  коридору,  Савин подошёл  к  двери  с  табличкой  «Главный  врач  М.Е.Кошкер»  Войдя в кабинет, извинился  и,  подойдя  к  его  хозяину,  тихо    спросил  его: «Где  «Слепой?»,  а  узнав,  что  он  водворён  на  своё  обычное  место,  т.е.  в  скит, к  Кузнецову,  очень  расстроился,  но  вида не подал.  Да и что  толку  от  этого  вида,  когда  дело  уже  сделано.  Теперь  Кузнецов, конечно,  рассказал  слепому  о  том, как он его  вербовал,  а  поэтому  задушевного  разговора  со  слепым  у  него  уже  не  получится.  А  ведь  до  сегодняшнего  дня всё  складывалось  нормально: слепой  соблюдал  установленную  между  ними договорённость  о  том,  что  он  не  будет  болтать  о  своём  происхождении.    Ну, да  ладно,  может  быть,  всё  ещё  обойдётся.  Во  всяком  случае,  он  теперь   знает  что  это  за  гусь  Кузнецов.  Теперь  никакого  сочувствия  у  него  этот  паразит   не  вызывает  и  пусть  его   хоть  к  стенке  прислоняют. Ему  на  это  плевать. С  такими  мыслями  он  и  покинул  совещание у главного  врача. 
Михаил  же Ефимович,  после  его  ухода Савина  предложил  коллективу  свой  проект  переустройства скита  №  17.   Нельзя, - сказал  он,  -  держать  долее больных  в  корзинах.  Это  неудобно  и  тяжело  для  обслуживающего  персонала,  поскольку  для  оправки  их  каждый  раз  приходится  из  корзин  вынимать,  а  потом возвращать  на  место.  К  тому  же  содержание  в  корзинах  непрактично.  Корзины  быстро  ветшают,  портятся,  ломаются,  а  новых  у  нас  нет.   Приходится содержать  в  одной  корзине  по  два  человека,  что  вообще  недопустимо.     И,  наконец, это  не  гигиенично  и  не эстетично.  Корзины  дырявые  и провоняли  экскрементами и мочой.   В  таких  условиях  нормальный  человек  озвереть  может, не то, что  инвалид!  Сказав  эти  слова,  главный  врач  ударил  ладонью  о  свой  письменный  стол,  а,  опомнившись,  спросил  заведующих  общим и психиатрическим  отделениями: -  А что  говорит Кузнецов о  своём  поступке?  - Ничего,  он  молчит, - ответили наперебой заведующие и  покосились  на  уполномоченного МГБ.  Тот  в  этот  момент  сосредоточенно  рассматривал  следы  протечки  на  потолке.  Главный  врач  не  стал  допытываться  у  заведующих,  почему  они  молчат,  а  лишь  печально  суммировал:   - Значит,    мы  теперь  не  узнаем,  когда  обмочился  Мамин:  перед  тем,  как  Кузнецов  его  загрыз,  или  во  время этого,  а,  следовательно,  лишены  возможности  с  большей  или  меньшей  вероятностью  предположить  причину случившегося.    – Какое  это  теперь  имеет  значение,  - вздохнула  Мария  Ивановна.  -  Большое,  Мария Ивановна,  большое.  - Ну,  да  ладно,  пусть  следствие    разбирается.  А  как  отнеслись  в   палате  к  этой  истории? – обратился  он  к  Марии  Ивановне.  -  Расстроены  люди, - вздохнула  Мария  Ивановна, -   Иван  Иванович так  тот даже  заплакал.  Один только  Федька  рассмеялся,  ну, что с   него  возьмёшь.  Шалопай – известное дело.   Михаил  Ефимович развёл  руками  и  спросил  присутствующих:  - Так  что  будем  делать  с   третьей  палатой?    А,  не  получив  вразумительного  ответа,  сказал:  -  Будем  подвешивать.  Все  оживились: -Кого?  Как  подвешивать?  За  что?  На  чём?  -  Обыкновенно, - ответил  главный  врач. - Я  всё  продумал.   Сделаем  железные рамы,  к  ним  подвесим  наших  инвалидов  на  парашютных  стропах.  У  нас ведь  есть  несколько  парашютов.   -Людмила  Васильевна, - обратился  он  к  сестре-хозяйке  Ляжкиной, - на  чердаке,  если не ошибаюсь.  Та  кивнула.   Подмышники  сделаем  из  ваты.  Пол  под  ними  зацементируем  и  склон  сделаем,  а  в  конце  его  жёлоб.  Больные  смогут  оправляться  в  любое  время  суток.  Надо  будет  только    кран  водопроводный  установить и шланг,  чтобы  смывать экскременты  в  жёлоб.  А  потом,  по  жёлобу,  они  будут  стекать  в  трубу  за  стеной  скита.  Летом  инвалидов    можно  будет  за  эти  парашюты  на  яблоню  подвешивать.  И  гигиенично,  и  персоналу  легче. -  закончил  свою  речь  главный  врач и покосился  на  Марию  Ивановну.  Та  сидела  спокойно и  только  плечами  пожимала. - Эта  героическая  женщина  готова  на  всё, - подумал  главный  врач.  Он  помнил,  как  однажды  она  вызвалась  обслуживать  изуродованных.  Есть  в  их  «кефирном  заведении»,  как  называет  их Дом   уполномоченный  Савин, и такой  скит,  называемый  «Друг слепого»  Его,  кстати,  слепые  обычно  и  обслуживали.  Тем,  кто  там  находится,  пищу  подают  через  маленькое  окошко,  а  когда  надо  к  ним  зайти  какой-нибудь  заезжей  комиссии,  приказывают  им  одеть  мешки на  головы:  не  каждому  хватает  сил    смотреть  на  то,  что  война  может  сделать с  человеком.  Но  Мария  Ивановна  три  месяца  назад заявила,  что  человек,  какой  бы  он  не  был,  всё  равно  человек  и  его  бояться нечего,  и  целый  день  обслуживала  этих  несчастных.  Держалась,  держалась, а  вечером  упала  в  обморок.  Больше  её  туда не посылали. 
  Сейчас  Марии  Ивановне  было не до изуродованных. Она  думала о  разговоре  «слепого» с  Кузнецовым,  который  невольно  подслушала,  остановившись  в  сенях  скита.  Рассказать  доктору  об  услышанном, или  нет – вот  какая  мысль  терзала  её  и не  давала  покоя  всё  это  время.  После  совещания  она  вернулась  в  кабинет  главного  врача и выложила  ему  всё, «как на духу»   Михаил  Ефимович  вспомнил  тут о  том, что  «слепого»  держали в строгой  изоляции,  как  он  понял  из  намёков  директора,  по  указанию  МГБ.  Тогда  он  не  придал  этому  значения.  К  тому  же,  как  человек  осторожный и наученный  горьким  опытом,  поскольку  сам  в  своё  время  был  выслан  из  Ленинграда,  понимал,  что  лучше  всего  не  лезть в дела,  которыми  занимается  это  ведомство.  Поэтому  он  посоветовал  Марии Ивановне  забыть  об  услышанном  ею  разговоре  и  никому  о нём  не  рассказывать.  У  Марии  Ивановне  при  этом  ёкнуло в груди,  но  она  поклялась  молчать,  как  рыба.  На  том  они  и  расстались.  А  ёкнуло  у  Марии  Ивановны в груди не случайно:  ведь  это  именно  она,   подслушав разговор  «Слепого» с Кузнецовым,  побежала не к директору  Дома  инвалидов и не к его  Главному  врачу,  а  к  своей  деревенской  подруге, Аграфене  Грушиной  и  рассказала  ей  об  услышанном.  Сейчас  она  ругала себя  за  это,  но  ничего  не  могла  поделать,  и  поэтому  какие-то недобрые  предчувствия  не  покидали  её  до  самого  вечера.
 На  следующий  день  её  предчувствия  оправдались. Ранним  утром  на  колокольне  монастыря  опять  зазвонил  колокол. Проснувшись,  Мария  Ивановна  не  стала  гладить  свой  живот,  а  перекрестилась,  накинула  на  себя  ватник  и  выскочила  во  двор.  По  дороге,  ведущей  из  деревни,  в  сторону  скита,  в  котором  находился   «Слепой»,  шла  толпа.   В толпе  она  увидела  Аграфену  и  бросилась  к  ней.  – Куда  идёте,  зачем?  Но  та  отмахнулась,  мол,  не знает,  все  идут  и  она  пошла.  Мария  Ивановна  поняла,  что  возглавляет  толпу  старик,  ссыльный  священник,  отец  Илларион, в  полном церковном  облачении. Его  седые  пряди,  вылезавшие  из-под  камилавки,  развевались  на  ветру.   В  руках паства  его несла  иконы,  портреты  Сталина и бумажные  цветы. Головы  старушек  были  покрыты  белыми  платками,  а  дети  умыты  и опрятны.  Шли,  как  говорится,  и старые, и малые.  Все  они  что-то  пели  монотонно  и  скучно.  Подойдя к скиту,  стали  кланяться и креститься.  Здесь   отец  Илларион,  встав на  возвышение, простёр  руки  к небу   и   громовым  голосом,  наличие  которого  невозможно  было  предположить в  его  давно  не молодом  теле,  затянул что-то  про  отца, сына  и  святого  духа.   Народ  поддержал  его  пением  молитвы. Закончив  молитву,  он  сказал: - Бедных сталкивают с дороги и лишённые земли  вынуждены  скитаться,  жнут  они  на  поле  не  своём  и  собирают  хлеб  у  нечестивца,  нагие  ночуют  они  без  крова и  одеяния,  а те  отторгают  от  сосцов   сироту  и  с  нищего  берут налог.  Кое-кто  из  женщин  заплакал.  Это  вдохновило  проповедника  и  он, вернувшись  к  сыну  божьему, уподобил  его  сыну  вождя  народов, а    отношения  между  отцом  и  сыном  небесными  приравнял  к  отношениям  между  отцом  и  сыном  земными.  – Воззри  же  отец  на  страдания  сына  твоего,  томящегося  без  вины  в  каземате,  как  когда-то  воззрил  отец  небесный  на  страдания  сына  своего  в  Иерусалиме. Сын  твой, как  и  сын  божий  терпит  поругание от жидов-антихристов, окруживших  тебя  и  замутивших  взор  твой! Взгляни,  отец  наш  кремлёвский, на  Голгофу  страданий  сына  твоего!   После  этого  он  стал  умолять  слепого  сжалиться  над  ними,  простить  грехи  и  заступиться  за  них  перед  отцом  своим и небесным.  -  он  воздевал  руки к небу  и  утирал  слёзы.   - Доколе  будут  мучить  нас?! - возглашал  он, -  Разве  мы  бусурмане  какие,  разве  не  нашей  кровью - потом  полита  земля  русская?!  За что  нас  притесняют,  не  дают  в  храме  молиться?!  За  что  нас  мучают  налогами,  обирают  заёмами?!  Разве  тунеядцы  мы,   разве  не  нашими  трудами  живёт  и  кормится  страна  наша!  Услышь  нас,  агнец  святой,  сын  великого отца,  донеси  до  него, хоть в молитве  своей  наши  мольбы  и  чаяния,  Христом-богом  тебя  молим,  смилуйся  над  нами!  Век  за  тебя  молиться  будем, отречёмся  от  всех  радостей  земных, жизней  своих  не  пожалеем,  служа  тебе  и отцу  твоему!   Дай  нам  надежды  соломинку,  утри  слезы  наши,  оставь  хоть  зёрнышко  с  колосьев поля  твоего! Нет  больше  сил  терпеть  притеснения  местной  власти  и  скудности  жизни  нашей!   После  этих  слов  две  женщины  стали  биться  на  земле в падучей, а у одной  даже  пена  изо рта  пошла. Митинг  грозил  перерасти  в  шабаш. 
 В это  время  в  комнате  для  приезжих  административного  корпуса  проснулся  уполномоченный  Савин.  Посмотрев  в  окно, он  с  удивлением  заметил,  что  в   сторону  скита,  в  котором  сидели    «Слепой»  и  Кузнецов,  один  за  другим  идут  инвалиды.  Идут  довольно  деловито,  о  чём-то  оживлённо  переговариваясь.   Он  быстро  оделся, нацепил  кобуру   и  вышел   из  дома.  У  скита  он  увидел  толпу.  Когда  он  понял,  что  люди   пришли   искать  заступничества   у  «Слепого»,  как  у  сына  Сталина,  ему  стало не по  себе. – Не  хватало  мне  ещё  тут  массового  сопротивления советской  власти! Подумал  он.  Медлить  было  нельзя.  Он  подошёл  к  старику  в  облачении,  взял  под локоть,  стараясь  отвести  в  сторону.  Старик  идти не  хотел,  а  окружавшие  его деревенские  стали  ворчать.  Их  поддержали  инвалиды.  Кто-то  крикнул: - Оставьте  старика,  что  он  вам  сделал?  Савин  в  ответ  крикнул: - Этот  старик  враг  Советской  власти!  И  услышал  в  ответ: - Сам  ты  враг  Советской власти!   Положение  становилось  тревожным.  Савин  искал  в  толпе  знакомые  лица,  ища  поддержки,  но,  как  назло,  никого  из  тех,  кто  его  мог  бы  поддержать,  не  видел.  Наоборот,  он  заметил в толпе Евдокию Морозову,  ссыльную  подкулачницу,   и  решил   пойти в наступление.  - Среди  вас, - крикнул  он,  пытаясь  перекричать  толпу, - находятся  агенты  мирового  империализма.  Старик,  за  которого  вы  заступаетесь,  выслан сюда за  контрреволюционную  пропаганду  и  укрывательство  награбленных  у  народа  ценностей,  а  эта  женщина  (и он указал  пальцем  на  Евдокию  Морозову) – подкулачница  Евдокия  Морозова,  дочь  кулака-мироеда.  Они  нарочно  привели  вас  сюда  для  того  чтобы  скомпрометировать  имя  нашего  великого  вождя  товарища  Сталина.  Они  прекрасно  знают,  что  в  нашем  Доме  инвалидов  никакого  сына  Сталина  нет,  что  сын  Сталина  умер  геройской  смертью.  А  привели  они  вас  сюда  для  того,  чтобы  воспользовавшись  трудностями  послевоенного  времени  и  вашей  доверчивостью,  сбить  вас  с  толку,   настроить  против  партии  и  советской власти.  Не   успел  он  сказать  эти  слова,  как  заголосила  эта  самая  Евдокия.  Устремив  куда-то  вдаль безумные  глаза  свои,  она  исторгала  из  иссохшей  груди  своей   слова,  казавшиеся  не  только  отчаянно  смелыми,  но и безумными.  – Вы  и  Сталин  Ваш  ведут  страну  к   гибели,  Вы  навязали  народу  колхозы,  а  с  ними  голод  и  нищету,  Вы  замучили  народ  налогами,  позакрывали  церкви,  пересажали в тюрьмы верующих.  Бог  он  всё  видит,  он  нас  не  оставит, а  вас  накажет.  Он  пошлёт  на  Вас  и  Вашу  власть  Америку.  Она  разобьёт  Ваш  Советский Союз  и  тогда  откроют  монастыри  и  церкви,  колхозов  не  останется  и  кончатся  наши  муки,  а   коммунисты  Ваши  будут  в аду  гореть!   Кто-то  из  инвалидов,  услыхав  её  слова,  крикнул: - Закрой  рот,  дура,  мы  за  эту  власть,  да  за  Сталина  кровь  проливали!               
- Вот  он  Вас  и  отблагодарил,  безбожники!  - крикнула  Евдокия. Она  хотела  крикнуть  что-то  ещё,  но  деревенские  мужики  оттащили  её  в  сторону.  Савин  потребовал,  чтобы  все  немедленно  разошлись,  иначе  он  будет  стрелять,  и  достал  револьвер.  Толпа  стала  расходиться.  Хотел   уйти и старик-священник,  но  Савин  его  остановил и  предложил    пройти  с  ним  до  конторы,  чтобы  побеседовать. 
Ему было о  чём  с  ним  поговорить  и  что  ему  напомнить.  Он  знал,  что  этот   старик,  по  фамилии  Красовский,  распространял  среди  прихожан  слухи  о  том,  что  жёны  у  колхозников  будут  общие, что  своего  имущества  ни  у  кого  не  будет  и  все  будут  спать  под  одним  одеялом  на  одних  нарах.  Говорил, что  колхоз  это  Антихристова  затея,    что  всех  сделают  рабами,  как  при  крепостном  праве.  Однажды  написал  письмо  от  имени  Иисуса Христа,  в  котором  призывал  к  борьбе  с  Советской властью,  а  в  другой  раз - листовку  о  кончине  мира  через  девять  дней. И  всё  это  для того,  чтобы  сорвать  работу  в  колхозе.  А  ещё   он   болтал  о  том,  что скоро  придёт   избавитель -  Папа  Римский,  и тогда  жизнь   в  стране  станет  нормальной,  такой,  как  была  при  царе. - Его  только  за  одно  за  это  надо  было  расстрелять, - думал  Савин. Но не только  этот  полоумный  старик и эта визгливая  баба  возмущали  его.  Его  возмущало и московское  начальство.    Им, -  думал он, -  конечно  просто:  сбыли  этого  козла  бородатого  с  рук - и  порядок,  а  мне  вот  теперь  расхлёбывать.  А  если  бы  он  тут бунт  устроил,  кровь  пролилась,  что  бы  со  мной  сделали,  самого  бы  в  этот  скит  заперли?
Когда  зашли в помещение,  Савин предложил  старику  сесть  на  табурет, а  сам  устроился  на  детской  игрушке лошадке-качалке  -  другой  мебели  в  комнате  не  было.  Гражданин  Красовский, - начал  Савин, - я  вижу, что  Вы  не  собираетесь  становиться  на путь  исправления.  Вы,  как  я вижу,  тоже -  мрачно  заметил  старик и вздохнул.   Не  обратив  внимания  на  эти  слова,  Савин  продолжал:  - Следовательно,  никаких  выводов  Вы  для себя  не  сделали.  Я Вас  последний  раз  предупреждаю:  если  Вы  не  прекратите  свою  преступную  деятельность,  я  буду  вынужден  привлечь  Вас  к  ответственности. Чем  это  для  Вас  может  кончиться, Вы  сами  знаете.  Старик  молчал,  опустив  голову.  Он прекрасно понимал  чем  это  может  закончиться.  Знал  это  по  судьбам  своих  товарищей,  сгинувших  «на  просторах  нашей  необъятной родины»  Он вспомнил,  как  ещё  в  1935-ом, когда  ему  запретили  служить,  он  по  ночам  обходил   своих  прихожан,  собирая  куски,  чтобы  не умереть  с  голода.   Савин  же,  решив напомнить  ему  о  его  прегрешениях  перед  Советской  властью,  резко и зло  стал  перечислять  их.    -  В  1929 году,  если  не  забыли, Вы,  гражданин  Красовский, распускали  слух  о  том,  что  скоро  будет  война,  что  Япония  и  Германия  выступят  против  СССР и  Советская  власть  будет  свергнута, в 1937 году  Вы  говорили,  что  Советская власть  расстреливает  невинных  людей,  убеждали  родителей  надевать  на  шеи  своих  детей  крестики,  а  в  прошлом  году,  уже  здесь,  Вы  распространяли  среди  жителей деревни  и  инвалидов  «святое  письмо»  Вам   напомнить  его  содержание? Сказав  это,  Савин  соскочил с лошади  и  зашагал  по  комнате.  Старик  слабо  махнул  рукой  и  ничего  не  сказал.  – Так  вот, - продолжал  Савин, - в  этом  письме  Вы  призывали  их  веровать  в  бога,  а  тех,  кто в  него  не  верит и верить не  хочет, - запугивали,  угрожая  тем, что  их  перебьют  на  войне.  Перед  войной  Вы,  чтобы  озлобить  людей,   утверждали,  что  наша  страна  все  товары  отправляет  за  границу, а народ  голодом  морит.  Вы  говорили,  что  мы  таким  способом  откупаемся  от  новой  войны,  но  всё  это  нам  всё равно  не  поможет  и   Америка с Европой  выступят  против  нас  войной. Тем  самым Вы  сеяли  среди  людей  ложь,  сомнения  и  страх. Откуда,  святой  отец,  Вы всё  это  взяли,  может  быть  из  передач   «Голоса  Америки»?   -  Мы  Вашего  бесовского  радио  не  слушаем, -  буркнул  старик, - ни к чему  нам  это,  мы  божий  голос  слышим.  – Божий, - передразнил  его  Савин  и  продолжал: -  А   до  войны,  со своим  другом,   монахом-бродягой    Дианошевым,  Вы  призывали  колхозников  в  пасху  не  выходить на  работу!  Это Вам  тоже  божий  голос  подсказал?
Тут  старик  заёрзал  на  табурете и сказал:  -  Праздник – день  божий.  Ему  его  и  отдай. 
- Вы  призывали не  только  к  тому,  чтобы люди не выходили  в  дни  религиозного  праздника  на  работу.  Вы  призывали  людей  вообще  не  работать  в  советских  учреждениях  и  не  вступать  в  общественные  организации,  призывали  крестьян  не  сеять  озимые,  не  голосовать,  а  в  день  выборов  прятаться  в  землянках,  которые  они  должны  были для  этого  заранее  вырыть в лесу. Ну,  что, не так?
- Так-то  оно  так, -  угрюмо  сказал  старик, - только,  господин  хороший,  Вы  государству  служите,  а  я  Богу.
- Да,  я  служу  государству.  Государство  существует  и  я  знаю,  что  оно  от  меня   хочет,  а  где  Ваш  бог?  Вчера  у  царя за  печкой,  а  сегодня – в Америке.  – Ничего  не  скажешь - выгодное дело:  и в армии  служить  не  надо и  главный  начальник на кресте,  молчит,  как  рыба.
-  Эх, Ваше  благородие,  Ваше  благородие. Бога  Вы не боитесь! - покачав головой, сказал старик, -  А  про  то,  что священнослужители  в  армии  не  служат,  скажу:  не  все  в  ней  служат. Сами  знаете  скольким  людям  бронь  была  дана,  а  у священника  на это  свой  резон,  должен  же  кто-то и во  время  войны совершать  подвиг  духовный.  Сколько  веков  люди на  Земле  воюют,  а  что  толку,  только  злее  становятся, грешат  и  других в грех  вводят.  А  кто  же  все  эти  грехи  пред   Богом  отмаливает?   Священствующие и монашествующие  обязаны не  в  драку  лезть,  а исполнять  свои  прямые  обеты. А  что  их  орденами не  награждают  и  в  газетах  о них  не  пишут,  так  что ж.   В  том- то ведь и  состоит  суть  иноческого  подвига,  чтобы  никто  не  видел  и  не  знал  его.  Для  этого  ещё  древние  иноки  бежали  в  пустыни  и  там  умирали,  безвестные  миру.  Вот  и теперь мы,  страдающие  за  веру  свою,  должны внести  покой  и  утешение  в  души  обитателей  этого  скорбного  Дома  и  вымолить  у  Бога  умаление  страданий  малых  сих.
- Ну,  какой  покой  вы  вносите  в  жизнь  этого  скорбного  Дома  я  сегодня  видел.  Если  бы  стрелять  не  начал,  Вы  бы  тут  погром  устроили.    Может  быть,  ещё  для  пущего  покоя  бог  Ваш  на  нашу  землю  и  фашистов  послал?
- Фашистов  Бог  послал нам  за  грехи  наши. 
- А победу  за  что?
- За  страдания. 
- А ты слышал, что  Евдокия Морозова  кричала  про  Америку?  Ты  знаешь,  что  Америка на нас атомную  бомбу  бросить  хочет?  А?
- Про  атомную  бомбу  не  знаю, не  скажу, а  только  знаю,   если бы  в  двадцать  девятом  кто-нибудь,  пусть  даже Америка,  взяла  нашу  власть  за  руку  да  сказала:  нельзя  деревню  разорять,  людей с земли  сгонять,  гнать  их  в  Сибирь,  морить  голодом,  то  сколько  бы  душ  православных  спасено  было  бы, эх.  И,  не  смотря  ни  на  что,  скажу  тебе,  Валерий,  что  православие  всё равно  победит.  И  помогут  ему  наши  братья-верующие  из  Америки,  Англии,  Франции, Греции,  Голландии,  Дании и других  стран. Слышал я, что в  католических  храмах  Италии организуется  поход  против  коммунистов.  Они  придут  и  освободят  нас.  Сказав  это,  бывший  священник  даже  встал  и  понёс  такое,  за  что  Орехов  мог  бы  поставить  его  к  стенке  и  ему  бы за  это  ничего  не  было. – Скоро  будет  война  с  Америкой, - сверкая  глазами  заговорил  старик, -  Если  Америка  и  Турция  поднимутся  войной  на  Советский  союз,  то  Советская  власть  больше  существовать  не  будет.  В  священном  писании  сказано,  что  перед  концом  света  будет  три  войны,  после  чего  будет  один  царь  по  всему  земному  шару.  А  война  будет  обязательно  согласно  писанию  Библии! – и старик,  сказав  это,  поднял  вверх  указательный  палец  и  погрозил  им.  Савин  же  напомнил  ему,  что  церковь  наоборот,  благословляла  советских  солдат  на  борьбу  с  фашистами и  ни  о  какой  победе  над нами  Америки  не  молится,  на  что  старик  зло  ответил: - Церкви,  которые  сейчас  открыты,  это  бесовские  церкви,  как  и  всё  теперь  у  нас,  а  священники  их -  советские  агитаторы, поставленные  партией,   у каждого них  под  рясой  советские  медали  за  верную  службу,   поэтому  они и  говорят то,  что  им   прикажут.   Только  службу-то они  ведут   неправильно,  сокращённо,  не  так,  как  раньше,  а  потому  и  молитвы  их  до  Бога  не  доходят.  – А  твои  доходят? – разозлившись,  спросил  Савин.  -  Дойдут,  уверенно  ответил  старик.   В  Евангелии вот сказано,  что  перед  концом  света  на  Земле  появятся  антихристы,  они  будут  ставить  печати  на  людей, а  тех,  кто  не  захочет  ставить  печать,  они  убивать  будут.  – Что же  делать? – с издёвкой  спросил  Савин.  -  Молиться  надо  усердно,  молиться,    Савин  заметил, что  старик  даже  покраснел  от  злости  и  подумал,  что  он,  наверное,  не  совсем  нормальный.    Ему  была  неприятна  эта  полная  уверенность  старика  в  себе  и  своих,  мягко  говоря, ненормальных   взглядах.  Он  не  мог  понять,  откуда  взялась  эта  уверенность,  на чём  она  основана?  Может  быть,  это  и  есть  тот  картонный  меч,  с  которым  прижатый  к  стене  изгой,  выходит  на  последний  бой?  Может  быть,  сила  их  веры  и  кроется  в  силе  их  ненависти? Разговор  со  стариком  ожесточил  Савина.  Возмутили  его  и  слова старика о том,  что  жиды  ему  голову  заморочили.   Он  сам,  не  меньше  старика,   ненавидел  евреев  (и  не  потому,  что  они  ему  сделали  что-то  плохое,  а  потому  что  так  был  воспитан) но  он  знал,  что  его  родной  отец погиб   в  гражданскую,  сражаясь  с  бандами Колчака,  что  сам  он  за  Советскую  власть  воевал в  Великую   отечественную  и  что  предан  он этой власти   всей  душой и готов  отдать  за  неё  жизнь,  и  евреи  тут  совершенно не при чём.  Озлобившись на старика,  он   не  сдержался  и  разоткровенничался,  о  чём  потом,  как  это  и  должно  было  быть,  пожалел,  ибо,  как  чекист,   знал:  каким бы  откровенным  не  был   разговор,  никогда  ничего  не  следует говорить о себе  лишнее,  но  он  завёлся и  выпалил:
-   Подвиг,  говоришь.  Так  вот  я  тоже  свой  подвиг  до  войны  совершал,  только  не  в  церкви  кадилом  махал,  а на станке  вкалывал.  Так  меня  в  армию  забрили,  как  миленького.  А сегодня,  ты  думаешь,  мне  сладко?  Да  мне  не  всегда  есть  на  что  пожрать,  сын  мой  в  рваных  ботинках  в  школу  ходит, а жена  шапочки вяжет,  чтобы  хоть  как-то  подработать,   однако я  дебошей  с  иконами  не  устраиваю, а  служу  нашей  стране  верой  и  правдой,  потому  что  знаю,  что  время  сейчас  тяжёлое,  что  оно  от  нас   всех  сил  требует, что  время  это  пройдёт  и  народ  станет  жить  лучше,  что  народу  нашему  сейчас  трудиться  надо  и  чтобы  ему  никто,  в  том  числе  и  такие,  как  вы, не  мешали.  И  для  этого  я  вас,  гадов, как  сорную  траву  в  поле  вырву  с  корешками,   чтобы  не  сбивали вы народ  с  толка, не мутили  воду. Старик  вздохнул  и,  внимательно  посмотрев  на уполномоченного,  сказал: - Наше  дело  христово, а Ваше – антихристово и  ни на  чём  нам  с  тобой  не  сойтись. Над  нами  свет  божий, а над  вами тьма. Вы  за  свой  кусок  готовы  любого  замучить,  а  потому и  жизнь ваша  вам не в радость.   Савин  мотнул  головой  и  решил,  что  разговор  пора  прекратить.    Настроение  у  него было  паршивое.  Хоть  и  считал  он  этого  старика и  эту  проклятую  бабу,  Морозову,  прохвостами и врагами  Советской  власти,  однако  ему,   как  представителю  этой  власти,  было  не по  себе,  ему  хотелось   иметь  других  врагов,  таких,  как на фронте.  А  то ведь  это  всё нищета  какая-то, голь перекатная.  Ему  не  раз  приходилось  делать  у  таких  вот,  как  Морозова,  обыск,  имущество  описывать.  А  что  было  описывать?  Он  помнил,  как  входил  в  эти  убогие  избы  с  земляными  полами  и  соломенными  крышами,  садился на что придётся,  писал  протокол,  состоящий  из  трёх  строчек: «Коза  серая,  картошки  500 килограммов,  койка  железная,  матрац  ватный  и  подушка»  Вот и всё  их  богатство!  Вспомнив  это,  Савин  сплюнул  и  сказал  старику:  - Счастье  твоё,  старый  чёрт,  что  государство  сейчас  церкви  послабление  сделало,  а  то  бы  я  тебя  заслал  туда,  куда  Макар  телят  не  гонял. Иди  с  глаз  моих  и  не  вздумай  народ  мутить, а  то  посажу.  Когда  старик  ушёл,  Савин  задумался:  почему  Сталин  дал  церкви это  самое  послабление. Он   знал,  что  в  народе  на  эту  тему  ходят  разные  разговоры. Одни  считали,  что  сделано  это  потому,  что   церковь  во  время  войны  призывала  народ бороться с фашизмом,  говоря  при  этом, что Красная Армия и начала-то побеждать  с тех  пор как  большевики  стали  поддерживать  церковь, что  сам  Сталин  признал,  что  без  церкви  нельзя  победить  врага  и пр.,  другие, -  что  нынешнее  отношение  государства к духовенству  диктуется требованиями  западных  стран  и  что  Америка и Европа  поворотят  нас  на  старый  лад.  Говорили,   правда, и то,  что  церкви  открыли  лишь  из-за  того,  что  они  приносят  большой  доход  государству.  Савин все  эти  предположения  отмёл,  как  досужие  выдумки,  не  имеющие  отношения  к  делу. Сам же  решил,  что   послабление  церкви  в  конце  войны  находится  в  одном  ряду  с  широкой  продажей  дешёвой  водки,  иностранными  приключенческими   фильмами,  идущим   в  кинотеатрах,   и  весёлой  музыкой,  гремящей  в  ресторанах.  Всё  это  было  надо,  чтобы  облегчить  жизнь  людей,  настрадавшихся в годы  войны, и не более  того.  Придя  к  такому  выводу,  оперуполномоченный  вышел  на двор  покурить и долго  стоял  там,  глядя  в верх.  Над  монастырём  нависло  чёрное,  как  чёрный  занавес,  небо,  усеянное   мелкими  дырочками, сквозь  которые, как  ему  тогда  показалось,  пробивался  тот  самый  свет  божий,  о  котором  болтал  старик. 

  – Любуешься? – услышал  он  вдруг за  спиной и,  обернувшись,  увидел  дворника.
 – Да,  вспоминаю.
– Чего?
–  Не  чего,  а  кого - Ломоносова.
– Какого  Ломоносова? 
- Такого,  который  сказал: «Разверзлась  бездна  звезд полна. Звездам числа нет,  бездне – дна» 
- Красиво  сказано, - заметил  дворник.
– А  скажи,  дед,  - спросил  Савин,  не  отрываясь  от  неба,  бог  есть?  -  Как  не  быть.  Знамо,   что  есть,  как  же  без  Бога  можно? – А ты  его  видел? – спросил Савин. – Нет, не  видел  Его  нельзя  увидеть. От  него  такой  яркий  свет  исходит, что  ослепнешь.   А  вот,  что  он  есть  уже наукой  установлено.  Вот  наука  распознала   электричество,  атомную   энергию, правильно, так  ведь всё  это  было  задолго  до  неё Богом создано.  А  учёные  во  всём  мире,  сколько не бьются,  не  могут даже  живую  муху  создать.  Разве  это  не  доказывает  того,  что  мир  сотворён  Богом? А  вот  возьми ты  те же атомы,  учёные  открыли  в  них силу  энергии. Так  откуда  же  она в  них  взялась,  если  бы  Бог  её  в  них  не  вложил?   Услышав это,  Савин  решил  в  научный  спор  с  дворником  не  вступать  и    подойти  к  этой  проблеме  с другой стороны.    -  Ну,  а  если   бог  такой  всемогущий,   то   почему же  это  он  не  остановил  руку  того,  кто  калечил и убивал  наших  солдат,  как  руку  того Абрама, который  хотел  родного  сына  убить?  На  это  дворник  как-то  презрительно   заметил: - Может  быть,  Богу  вам  ещё  носы  утирать?  Бог  людям  не  нянька,  у  них  на то свои мозги  есть.  Бог  сказал «Не убий!»,  а  они  его  не  послушались – вот и получили.  – Кто  это  они? – возразил  Савин, -  Люди-то  разные.  Есть  коммунисты, а есть фашисты.  Как  же  можно  о  них  о  всех  говорить вообще?   - А я не  обо  всех  вообще, - ответил дворник, -   Я о  жидах,  которые  тебе  голову  заморочили.  Им Россия  для  наживы  нужна,  а   нам,  чтобы  образ  божий  сохранить.   - А что же это  бог  твой  тогда на  еврейке  женился,  другой  бабы,  что  ли,    не  мог  себе  подобрать? – спросил  Савин и услышал в ответ:  - Наш  бог  русский.  Все  апостолы  на  русском  языке  говорили.  Бог  он,  что  хочет  то и делает,  он всё  может. Захочет  - будет русским,  захочет  ещё  кем. Да и сам он с бабами  дела не имел.  Это  Святой  дух  напутал.  У  самого  Бога  члена-то  нет.  Он  ему  ни к чему. 
-  А у человека  есть.
- Есть. 
-Так  почему же у человека  есть,  если  он  по  образу  и  подобию  божьему  сделан?
- Так он и женщину  сделал  не  такую,  как сам. Бог  сказал  людям: «Плодитесь,  размножайтесь»,   а  как  бы  они  могли  размножаться,  если  бы  Бог  не  создал  женщину.
- Интересно,  с  одно  стороны  «плодитесь,  размножайтесь»,  а  с  другой – как  только  они  этим  занялись,  так  он  их  из  рая-то и турнул.
- Он  их не  за  это  изгнал из  рая,  а  за  то,  что  змея  послушались,  а змей  это  соблазн,  а  соблазн – дьявол.    
- Ну, а  зачем было  богу  твоему с  бабой  связываться,  когда  он  людей  из  глины  мог  делать? 
- Так  то  людей,  а  то  собственного  сына.  Сравнил.  Да  из  глины  он  всех   сделал, а  русских  - из собственного  тела.
– А  зачем  богу  твоему  сын  понадобился,  для  какой  цели?
- А  для  такой,  что  самому  богу   на  весь  мир  плевать. Он  его  создал,  он   бы  его  и  уничтожил.  Ему  людей  стало  жалко.  Вот  он и создал  Иисуса Христа,  чтобы  он  людей  к  совести  призвал,  чтобы душу  их  спас.
- Так  за   что же  он  тогда  своего  сына  на  смерть  послал,  а Абраму  своего  сына  убить не  дал? 
- Бог  его  на  смерть  не  посылал,  это  его  жиды-антихристы  убили.  Ты  думаешь  для  чего  жиды  кожу  с конца  члена  срезают,  так,  что  ли?  У  них  на  этой  коже  знак  антихристов  стоит  - вот  они  его  у  младенцев  своих  и  обрезают,  чтобы  никто  не  увидел.   
Желая  поддеть  дворника,  Савин  сказал: -  Иисуса Христа  твоего  не  евреи,  а римский  кесарь  на смерть  послал.  У  римлян  распятие на кресте  было  самым  позорным  наказанием,  а   евреи  своих  приговорённых  к  смерти  камнями  побивали,  так  что   ты  бы  сейчас, если  бы  евреи  Христа  казнили,    на  шее  не  крест  носил, а  камень.  Дворник  раскрыл  рот,  чтобы  ответить,  но  Савин  не  дал  ему  этого  сделать  и  чтобы окончательно     утереть  ему   нос,  добавил: - А  если  бог  твой  всё  может,  то  пусть  он  сделает  так,  что  дважды  два  было не четыре, а пять.  Дворник  помолчал  немного  и  сказал,  не  менее  презрительно,  чем  раньше:  - Бог  сделанного  не  переделывает.  Попробуй,  переделай  ты  со  всей  своей  наукой. Сказав  это,  дворник,  довольный  своей  победой  над  нечестивцем,  махнул  рукой  и  отвернувшись  от  Савина  стал  скалывать  лопаткой  лёд с крыльца  конторы.  Савин  с  неприятным  осадком  в  душе  от  проведённой  беседы,  пошёл  спать. Засыпая,  он  думал  о  том,  как  трудно  говорить  с  людьми,  как  невозможно  объяснить  им  простые  вещи.   Вот  дворник  этот  несёт  какую-то   чушь,  а  он  ничего  опровергнуть  не  может.  Почему?  А  потому,  что  он  живёт  в  мире  сказок.  Для  него  слова – реальность.  А  против  слов  любая  наука  бессильна.   
 
Ночью,  на  окраине  деревни  «Мама  родная»,    в  избе  Морозовых,  тех  самых,  из  которых   была  Евдокия,  что  кричала  днём  на  Савина,  горели  свечи.  Занавески  на  окнах  были  задёрнуты и  было  слышно,  как  в  избе  люди  тихо  и  заунывно  поют. Можно было  подумать,  что  там  отпевают  покойника. На  самом  деле  это было  моление  скопцов.  Дело в том,  что  дед  Морозовой, Морозов Григорий  Тихонович, исчез  из  села Берёзово  Кулешовской  волости  Лихвинского  уезда  Калужской  губернии  накануне  своей  свадьбы, сбежал от  невесты,  которая после  помолвки  сошлась с  ним  и забеременела.  Дед  там  же, в  селе  Берёзове,  был  оскоплён, а  по  оскоплении  сестра  его  Анна  увезла  его в Самарскую  губернию,  где по приговору  окружного  суда он в 1893 году был  сослан  на  поселение  в  Восточную  Сибирь за принадлежность  к  скопической  секте.  После  революции он  вернулся в  своё  родное Калужское село  и   узнал,  что  невеста  родила  ему  сына  Алексея,  а  через  семь лет  умерла.  Он  взял  сына  к  себе.  В двадцать  девятом  он,  вместе с  семьёй  сына,  был  выслан  сюда, на Север,  как  раскулаченный.  Алексей  ещё в  тринадцатом    женился  на  девице  из  скопической  семьи. Но  это  ему  не  помогло.  Тётка Анна  ругала  его  за  женитьбу,  говорила,  что за  неё  он  достоин  по  их  закону  смерти,    Жена хоть и родила  ему  двоих  детей:  Евдокию  и  Дмитрия,  однако,  постоянно склоняла  его  к  переходу  в  их  веру,  а  через  год  разошлась  с  ним  под  влиянием  Анны  и  деда. Алексей  же  в  семнадцатом  подался к красным и пропал.   Брата  же Евдокии,  Дмитрия, с  юных лет  тянуло к женщинам.   Когда,  несмотря  на  сопротивление  своих  родных,  он  женился, Евдокия стала уговаривать  его  разойтись  с  женой,  говорила ему,  что  расставшись  с  женой  и  сделавшись  скопцом,  он  удостоится  царствия  небесного,  что  все, кто  женятся – пропащие  люди.  Говорила,  что  наплодив  «щенят»  он  не  сможет  прокормить  их.   Дед   поддерживал  её,  называя  внука «гузнопоклонником»  Они  тыкали  Дмитрия  носом  в  девятнадцатую  главу  Евангелия  от Матфея, где  говорилось  о  том, что  тот,  кто  оскопит  себя,  тот  попадёт  в  царствие  небесное,  толковали  ему сказанное  в  ней    и  порицали  православную  церковь,  которая,  отступя  от учения  господа,  прокляла  самооскопление. Дед,  тётка и внучка принадлежали  к  скопцам  того  толка, который   назывался  «новоскопичеством»  или  «духовным  скопичеством»,  при  котором  вступавшим  в  братство  не  нужно  сразу оскопляться, а достаточно было дать  обещание  рано  или  поздно  это  сделать  и  соблюдают  заповедь: «Неженатые  не  женятся,  а  женатые  разжениваются»  Оскопленные не  пили  водку,  не  ели  мяса  и не  общались с  православными: не садились с  ними  за  один  стол,  не  ели  и  не  пили  из  одной  посуды.  Впрочем, было  среди  них не мало и таких, которые  дома   отказывались  от  мяса  и  водки,  а  на  стороне  далеко  не  всегда  могли  устоять  от  этого  соблазна. Дмитрий  был  именно  из  таких.  Плотские  соблазны  иссушали его  душу  и  он  был не в силах  совладать  с  ними. Кончилось  тем,  что  незадолго  до  войны  он  сел.  Сколь  не  любила  Евдокия  родного брата,  а   в   глубине  души  радовалась, что  бог  его  наказал  за  то,  что  он  её  совета не послушался.   Жена  Дмитрия, оставшись  соломенной  вдовой,  много  болела  и  дед с тёткой  Анной  не  захотели  держать  ее  дома,  как  не  способную  по  болезни  к  работе. Она  ушла  от  них  неизвестно  куда  и они о  ней  больше  не  слышали. 
Теперь,  когда  дед  стал  совсем  старым  и  не  мог  руководить   сектой,  ночные  бдения  скопцов  стал  вести  Матвей  Шкилёв, их  давний  знакомый  по  Самарской  деревне.  Ещё  до  революции он  привлекался к   уголовной  ответственности  за  скопичество,  но  был  оправдан,  как  уличивший  своего  оскопителя.   Шкилёв поддерживал  связь  со  скопцами  из  Ленинграда  и  вовлекал  в  секту  молодых  девушек.  Поле  войны сделать  это  было  проще.  Уж  больно  много   неприкаянных  и  несчастных  было  кругом. 
Когда   бдения кончились и девицы  вповалку  улеглись на полу,  старик Морозов  очнулся от  дремоты,  в  которой  прибывал  в  течение  молитв,  и подозвал  к  себе  Шкилёва.  Произошедший  между  ними  разговор  мог  бы  очень  удивить  постороннего,  не  сведущего  в  делах  этих  людей  человека.  Но  что  поделаешь,  если  старику  давно  шёл  девятый  десяток  и  последние  годы  он  только  и  думал  о  том  в  каком  виде,  т.е. с  каким  багажом  богоугодных  дел  предстанет  он  перед  создателем.   События  вчерашнего  дня  натолкнули  его  на  мысль,  которой  он  решил  поделиться  со  Шкилёвым.    
- Ты, Матвей,  знаешь  ведь  что  у  нас  тут  вчера  по утру  произошло.   Поп  наш,  тутошний,  из  ссыльных,  Илларион,  затеял  крестный  ход  к  скиту,  где  один  слепой  сидит,  который   за  сына  Сталина  вроде  бы  себя  выдаёт.  А  народ  к  нему  потянулся, как  к  сыну  божьему. Соображаешь,  Матвей, к  чему  я  тебе  это  говорю?  Матвей  опустил  голову, давая  понять,  что  понял,  хотя  на  самом  деле  ничего  не  понял,  а  старик  продолжал:  -  Так  вот  что  я  подумал:  не  создать  ли  нам  для  людей  такого  сына  божьего,  принявшего  страдания  за  людей  и  очистившегося  от  скверны  земной  удоотсечением  и  ставшим   белым  и  кротким,  яко голубь.  Человечка  такого  я  думаю  подобрать  тут,  в  ските  одном,  будет  несложно.  Мария  Ивановна  поможет.  Заодно  и  этого  Иллариона  посрамим  со  всем  его   сонмищем  бесовским. 
Матвей  почесал  загривок  и  одобрил  предложение  старика. – Не  плохо  бы,  добавил  он,  на  стене  подвала  монастырского   такого  безрукого  и  безногого  бога  нацарапать,  да  и   показать  кое-кому.  – Дело  говоришь – согласился  дед.   После  утренней  трапезы  он  отправился  в  Ленинград.

Ну,  а  что  с  оставшимися  в  ските  «самоварами»,  как  они  проводят  своё  свободное  время,  кроме  которого  у  них,  честно  говоря, никакого  другого-то и   нет.  Прошла  неделя  и  они,  вылезши из  своих  корзин,  стали  парить  в  своём   ските  примерно в метре от пола  на  «парашютах»  Они  качались,  кружились,  сталкивались  друг с другом,  смеялись,  шутили.  В  общем,  произошедшей  в  их  жизни  переменой  были  довольны.  Правда,  была в их  новом  положении  и  своя  ложка  дёгтя.  Теперь,  чтобы им  ничего  не  мешало  опорожняться,  возникла  необходимость  держать  нижнюю часть  их  туловищ  обнажённой.  Когда главный   врач,  заведующий  общим  отделением и  Мария Ивановна  взглянули  на  эту  картину,  то  им  стало  не по  себе.  Только  присутствующий  при  сём  Лёха  заржал  похабным  смехом.  Вид у  «самоваров»  был,  действительно,  не  подходящий.  Они  теперь  походили  не  на  самовары,  а    колокольчики. Тогда  решили  обрядить их  в фартучки, чтобы не было видно «язычков»  Сделали их  из  дермантина,  которым  были  обиты  сломанные  стулья,  хранившиеся на чердаке  главного  корпуса. Теперь «контингент»  стал  выглядеть,  скромнее, хотя и несколько смешно.  Одно  было  плохо:  от  холода,  который  постоянно  царил в ските,  инвалиды  наши  стали  болеть  всякими  мочеиспускательными  болезнями.   К  тому же,  фартучки  эти  не  способны  были  скрыть,  наступавшее время  от  времени,   возбуждение  плоти,  а то  и  саму  плоть,   у  этих  совсем  ещё  не  старых  мужчин.
У  Мари  Ивановны  появилась  новая,  вдохновляющая,  дежурная   шутка.  Если  раньше,  когда  инвалиды  находились  в  корзинах,  она,  войдя  к  ним,  спрашивала «Ну,  много  яиц  снесли  за  ночь?»,  то  теперь,  войдя  к  ним,  стала  спрашивать: «Ну, висячие, стоячие, как  дела?»  или, заметив  особое  утреннее  возбуждение контингента,  спрашивала:  «Ну,  колокольчики  мои,  цветики  степные,  что  стоите  на  меня  словно  часовые?»          
Шутки  эти  всем,  кроме,  пожалуй,  Ивана  Ивановича, очень  нравились  и  вдохновляли,  а  сама  Мария  Ивановна  стала  первой  любовью и мечтой «самоварного» скита. Несмотря  на  её  далеко  не  молодой  возраст  и  поблекшую  красоту,  она  своими  формами,  которые  не  мог  скрыть  даже  старый  чёрный  халат,  будоражила мужское  воображение.  Появления её ждали.
Первым же  к  ним  по утрам теперь  стал   приходить  Лёха. Он  смывал  водой  из  шланга  продукты  их  жизнедеятельности,  матерился  и  уходил.  Мария  Ивановна,  придя,  протирала  пол  мокрой  тряпкой,  наброшенной  на  швабру, и  кормила  всех  одой  ложкой.  Она  же  и  брила  их.  При  этом  бедный  мужик,  скося  глаза  старался не  упускать  из  вида  складку  между  её  грудей,  высовывающуюся  из-под  халата,  а при  случае упирался  ей  в  живот  или  в бедро  восставшей  плотью.  Она  делала  вид,  что  не  замечает этого.  Когда  же  действия  «колокольчика»  принимали  слишком явный и агрессивный  характер,  тихо  говорила  нахалу:  «Не толкайтесь, а то я  Вас  порежу»
Всё  это  небольшое  похотливое  стадо  стало  теперь  её  семьёй.  Она  знала  характеры и привычки  каждого,  читала  им  пришедшие  письма  и  писала  под их  диктовку  ответы.  Она  читала  им  газеты и журнал «Кроколил»  Их  было  десять.  Теперь  осталось  восемь.  Ей явно не хватало  Кузнецова и  Мамина.  Она  не  могла   забыть  чёрные и всегда  печальные  глаза  Мамина,  часто  наполненные  слезами.  Она  знала,  что  над  ним  издевается   Федька,  не  раз просила  его  оставить   Мамина в покое,  но  тот  не  унимался  и  говорил,  что  пока  этого  жида  со  света не сживёт – не успокоится.  Сегодня  Федька  был  грустен  и  не  знал  на кого  теперь  распространить  ему  ту  «любовь»,  которую  он  уделял   Мамину.  Марии  Ивановне  показалось,  что  он  хочет  распространить её   на  Ивана  Ивановича.  Она  не  питала  к  последнему  особой  любви,  даже  наоборот,  он  раздражал  её  тем,  что  был  слишком  хорошо  воспитан,  а  это  мешало  ей  чувствовать  себя  спокойно и уверенно,  как  тройное  зеркало в примерочной,  в  одну  из частей   которого  ты  видишь  себя  с невыгодной  стороны.  Кроме  того,  у  Ивана  Ивановича  часто  расстраивался  желудок,  а  это  доставляло  ей  лишние и отнюдь  не приятные  хлопоты.  И,  тем  не  менее,  больше  всех  ей  было  жалко  именно  его,  поскольку  она   не  столько  умом,  сколько  чувством,  понимала,  что  положение   своё  ему  переносить  гораздо  мучительнее,  чем  остальным. Теперь  он  висел  слева, во  втором  ряду.  Перед  ним  висел  Николай Петров – мужчина  лет  тридцати  с  геройской  звездой  на  гимнастёрке,  справа  от  Ивана  Ивановича  висел  Федька-гармонист,  а  за  ним   партизан  Вася.  У   него  не  было не только  рук  и  ног, но и языка, ушей и носа.  Их  ему их отрезали в гестапо  за лишнее  любопытство и антигерманскую агитацию.  Вася  очень  любил   Ивана  Ивановича  и  обожал  слушать  его  рассказы,  а  поэтому не редко  обращался к нему  с  помощью  одних гласных. Произносить согласные  ему было очень трудно.  Так,  например,  вместо  того,  чтоб  сказать  «Иван  Иванович,  расскажите  что-нибудь»,  он  произносил: «И-а-и-а-о-и, а-а-ы-е  о-и-у» и Иван  Иванович  начинал  рассказывать,  потому  что  отказать «Партизану»  он не мог.  Перед  Федькой, в первом  ряду,  висел  немолодой  уже  мужчина  по  фамилии Чиж,  торговавший  когда-то на  Сухаревском рынке  в  Москве  старыми  книгами  и  галошами.  Справа  от него  - Гуськов, бывший  артист и  черноморский  моряк, а справа  от  «Партизана», в углу,  был  подвешен  Слава, совсем  молодой  человек,  которому и  двадцати  лет  не  было.  Перед ним же,  в  первом  ряду, висел  украинец  Моисеенко,  тридцатилетний  шутник. Ему,  кстати,  все  завидовали.  Культя  его  левой  руки  была  такой  длинной,  что  он  мог  дотянуться   ею  до  лица,  а  это  значит,  что  он  мог  почесаться,  высморкаться,  отогнать  мух. Остальным для  этого  нужно  было  трясти  головой  и  дуть.  Помогало  это мало,  к  тому  же,  когда  они  набирали  воздух,  чтобы  дунуть,  то  не  редко  заглатывали  муху.  Их  сюда  слетался   целый  рой.    Так  вот  этот  самый Моисеенко  стал  шутками-прибаутками  подбивать  Марию  Ивановну  на  то,  чтобы  она  показала  им  то,  что  они  так  давно  не  видели  и  по чему  так  соскучились.  Сначала  бедная  женщина  решила не обращать  на  это  внимания,  но  когда  подобные  намёки  стали  делать  другие,  она  возмутилась.  Однако  мысль эта,  повторенная  не  раз,  запала  ей  в  голову  и она стала  сама  себя  спрашивать: - А  что  если?..  На  третий  день  она  решила  поделиться  своими  сомнениями  с  одной  знакомой  из  деревни Аграфеной Грушиной.  Та  подняла  её  на смех.  – Ты  что, - запыхтела  она,  -  на  старости  лет  совсем  из  ума  выжила?  А  если  они  тебя  ещё  о  чём  попросят,  ты  тоже  им  всё  будешь  делать?   Ты  что,    полковая  шлюха?  А  если  тебе  самой  скучно -  заведи  кавалера.   Вон  их  полно  в  общем  отделении,  каждый  будет  рад.  Эта  последняя  фраза  произвела  на  уборщицу  диаметрально  противоположное  впечатление.  Мария  Ивановна  со  свойственной  ей   душевностью,  поняла  её  так:  однорукого  да  одноногого  каждая  полюбить  может,  а  вот  такого, «колокольчика» - то  кто  полюбит?  После  этого  разговора  она  долго не  могла  уснуть  и  всё думала,  как  бы  ей  всё  это  сделать  так,  чтобы  выглядело  невзначай  и  как бы  нечаянно. 
Утром  она  отправилась  на  работу  с  решением,  которое  ей  подсказал   сон. А сон был такой: В белой берёзовой роще она, вся  тоже в белом,  собирала в зелёной траве красные и синие цветы. И вдруг слышит она стон. Осмотрелась – никого, а стоны продолжаются и её как-будто кто-то зовёт.  И так ей стало жалко того, кто стонет, что из глаз её  упали слезинки и так звонко-звонко, будто хрусталь на камень. Она посмотрела вниз и увидела под корнями берёзы Славино лицо. Он, вроде бы, хочет вылезти  из-под берёзы, но не может. Она его, конечно, вытащила, а он взмахнул крыльями, из рук её выпорхнул и улетел. Тут в роще темно стало, поднялся ветер, и деревья застонали, заплакали и стали тянуться к ней, умоляя о чём-то. Испугавшись, она проснулась и снова заснуть не смогла. В груди её что-то сжималось и томило её тревожным ожиданием.  Надо было на что-то решаться. 
На  этот  раз  Мария Ивановна  взяла  на  завтрак  не  одну  ложку,  а  восемь,  чего  раньше  никогда  не делала.  Зато забыла  захватить  газету,  которую  обещала  почитать  своим  подопечным.  Этот  факт,  конечно,  не  остался  без  внимания  и  на  неё  посыпались  упрёки,  так  что  она  даже решила не совершать  для  любителей  чтения  задуманное  ею  доброе  дело.  А   те,  с  подачи  Ивана  Ивановича, за неимением конкретной газеты,  стали  обсуждать  газету, как таковую, как явление общественной и частной жизни.  Иван  Иванович  вообще  любил  провоцировать  своих  соседей  на  всякие  фантастические  разговоры. Бывало, спросит: - А что лучше,  быть без ног,  или  без  рук?  Что лучше, иметь правую руку и левую  ногу,  или  левую руку и правую  ногу, или правую  руку и ногу, или левую руку и ногу? А то задавались таким вопросом: - Что лучше, быть без  рук,  или  без  мужского достоинства?  Кто-нибудь на это, бывало,  скажет:  - Меняю  своё  «достоинство»  на  руку  или палец,  и  услышит в ответ: - Оставь его себе,  нам  самим  его  девать  некуда. В  другой  раз  обсуждали,  как  им назвать свой  скит  и  что  он  за  страна  такая.  Один сказал, что скит – страна воспоминаний  и пустых  мечтаний,  другой,  что  он  страна  нерастраченных  страстей,  а  третий – что  он  страна  без  будущего,  будущего  без  надежды  и  существования  без  жизни.  Федька  добавил,  что  скит  их - страна  неброшенных палок и нерозданных  оплеух, а  партизан тихо  сказал:  «И а – а – ий» (и страданий)
На  сей  раз  Иван  Иванович  спросил:  «На  что  способна  газета  и  как  её  можно  использовать»  Её иногда можно  читать, - сказал  Слава. - Вы  правы,  молодой  человек, -  сказал  Гуськов, - бывает, что газету и читать противно, столько в ней глупости и вранья! – Я  никогда  не  бываю  прав, - скромно заметил Слава, - но  если я  прав,  то  прав,  как никогда.  Иван  Иванович же заметил:  -  Верное замечание, - и  добавил: -  Не  забудем  ещё,  что  Владимир Ильич Ленин  назвал газету не только  коллективным  пропагандистом и агитатором,  но  и  организатором.  -  Это  точно, - заметил  Чиж, -  вот  «Вечёрка»   объявления  о  разводе  печатает, разводы  организует.   Слава,  обратившись  к  Ивану  Ивановичу,  тихо  произнёс:  - Иван  Иванович,  а  ещё  газету  можно  поджечь и использовать как  факел. Тут  посыпались разные  предложения: газету можно  постилать, как  скатерть, ею можно  разжечь  костёр,  из неё можно  шапочку  сделать  от  солнца  или  для   работы,  ею можно  обмахиваться,  когда  жарко,  или  обкладываться, когда  холодно,  подложить в  калошу  или  ботинок, если  они  велики и сваливаются,  можно  её сложить и бить  ею  мух.  А  можно, - сказал  Федька, -  по лысине  треснуть.  – Или женщину по попке  шлёпнуть, - добавил  Иван  Иванович и покраснел.  Все  засмеялись, а  когда  замолчали,  Чиж  сказал – Можно ж… подтирать  и все  снова  засмеялись,  но потом всем стало грустно 
Мария  Ивановна  не  находила  себе  места.  Решиться  или  нет на то, что  так  ждут от неё  эти несчастные, - думала  она.   Не  засмеют  ли  её,  не  станут  ли  оскорблять  и  презирать  за  это? Вспомнила  слова  Аграфены и  уж совсем  было  отговорила  себя  от  этой  глупой  затеи, но   тут   вспомнила  слова  инструктора  Обкома  профсоюза  из  областного  центра,  приезжавшего  к   ним  осенью.  Узнав  о  том,  что  она   обслуживает  «самоварный»  скит,  взял  её  под  руку,  отвёл  в   сторону,  и   как бы  смущаясь,  стал  говорить  ей  о том,  что  эти  люди  нуждаются  в  особом  отношении,  что  им  надо  прощать  то,  что  нельзя  прощать  другим, и  что, вообще,  не  грех  помнить  то,  что  и им  хочется  сладенького.  Теперь  она  поняла,  что  имел  в  виду  инструктор,  а  тогда подумала,  что  он  имеет  в  виду  конфеты. - Где я их  им  возьму! – возмутилась  она тогда  про себя. Теперь  слова  инструктора  стали  для  неё  отпущением  грехов, словно  в  церкви.       
 В  обед  она  снова  захватила  все  ложки  и,  получив на кухне   пол  буханки  чёрного хлеба,  два  бидона: один со  щами,  другой  с манной  кашей и  повезла их на санках в скит.  Пока  кормила,  пока  утирала  рты,  пока всё складывала  и  убирала, прошло  время и  день  завечерел,  солнце  прижалось  к  горизонту   и  свет,  проникающий    в  небольшое   окно  скита,  стал    сиреневым.  Когда же  Мария  Ивановна  совсем  собралась  уходить,  Моисеенко,   облизнувшись  и  повеселев,  сказал:  - Эх,  сей час бы  матушку погладить. А  Федька  добавил мечтательно:  - Что там погладить -  хоть  бы  поглядеть.  У  Марии  Ивановны  сжалось в груди и она  почувствовала  себя  парашютистом  перед  прыжком.  – Не  удержался  всё-таки,  паразит! – подумала  она о Моисеено и,  собрав  ложки,   повернулась  ко  всем  спиной,  сделала  три  шага…   И  вот  тут  произошло  то,  что она  видела  во  сне  к  чему  себя  готовила  и  на  что так  долго   не  могла   решиться:  она  уронила  ложки. Да-да,  уронила,  но не нарочно,  как  планировала, а  совершенно  нечаянно.  - Значит  судьба, - решила  женщина и  стала  медленно  склоняться  к  полу.  Поскольку  в  этот  день  она  не  одела  свои  розовые  трико и  шаровары,  а  одела  платье,  подвязав  его  поясом достаточно  высоко,  чтобы,  наклонившись,  смогла  показать  несчастным  то,  что  они  так  хотели  увидеть.    И  когда  она нагнулась, чуть  ли  не до  самого  пола,  то  услышала  за  своей  спиной  какие-то  странные,   нечленораздельные  звуки,  а  после  них   наступила   тишина,   Тишина  была  такая,  какой   не  бывает и в пустой комнате.  Добрая  женщина  не  торопилась  подбирать  ложки.  Несколько  раз  роняла  их  и  снова  поднимала, а уж  когда  стала  кружиться   голова,  она  с  трудом и болью  распрямила  спину.  Красная  от  волнения  и  напряжения  она  старалась  не  смотреть  на  мужиков.  Те  же,  пережив  большое  душевное и эстетическое  волнение  тоже  не  знали,  что  сказать,  да и вообще,  говорить  ли  что,  поскольку  боялись  спугнуть  женщину,  заронить  в  её  душе  стыд  перед  ними  и  раскаяние  за  содеянное. 
Они  не  сомневались в том,  что  она  сделала  это  нарочно,  пожалев  их,  и  были ей  за  это  благодарны.  Когда  Мария  Ивановна  ушла  Гуськов  с  сожалением  сказал:  - Эх,  жаль  ладоней  нет,  а  то  бы  отбил  их  аплодисментами.  Какая  женщина!  Какая  режиссёрская  находка!   Много в  театры  ходил,  сам  играл,  но  такого   не  видел.  -  Нашёл  тоже  театр,  мы  тут  сами  каждый  день  такой  театр  устраиваем! - возмутился  Чиж.  – Эх,  ничего-то  ты не  понял,  босяк! А  неожиданность,  а  свет,  а  мизансцена,  да  за   это  сталинскую  премию  надо дать!  -  Ну,  уж  так  прямо  и  сталинскую? – проворчал  Иван  Иванович.  -  Не  хотите  сталинскую – дайте нобелевскую!  А  то,  что  мы  тут  играем,  то  это  правда,  ведь  весь  мир  театр,  а  люди в нём  актёры.  Это  ещё  Шекспир  сказал.  – Актёры  мы,  брат,  плохие,  а  роли  наши  дрянь, - заключил  Чиж. С  этого  дня  Мария  Ивановна  не раз  радовала  своих  подопечных  красивыми   видами, и не  роняя  при  этом  ложки. 

Лишённые  радостей  жизни и постоянных  занятий, они  проводили  время  в  воспоминаниях и снах,    обрывки  которых,  пришедшие  из  детства  и   юности  уносили  их  к  далёким  берегам  прошлого.  Чиж,  видел  свой  Сухаревский  рынок,  груды  товара,  заполнявшего  его  прилавки и киоски:    коньёвые  и   байковые одеяла,   бортовые сорочки,  кустарные платки по  2 рубля  за  штуку,  полотенца суровые,  огуречницы фарфоровые, лафетники, полоскательницы,  ручки для  тазов, рубели, толкушки, детские  шарабаны,  конские гвозди, большие  и   средние  решота, баульчики тровяные, сиденья для унитазов, галстуки, бантики,  штанки и  цепки  для воротников,  прихватки  для  галстуков,   гребенки  и  заколки дамские, подпильнички,   шпильки   и  массу  других,  нужных  в   хозяйстве  вещей  и  вещиц.  Он  слышал   голоса  торговцев и покупателей,  речи  начальников  и  как  в 1927-ом  году,  один  из  них,  по  фамилии Боязных  (ему  ещё  запомнилась  его  фамилия), в  конце  своей  речи  предложил  присутствующим  почтить  память  товарища  Ленина, давшего свободную  торговлю,  создавшего  красное купечество и тем  самым  даровавшего  нам  - торговцам  кусок   хлеба.  Тогда    все  под  гром аплодисментов  и  крики   «Ура!»  встали  со своих  мест. А  вскоре  появились  новые  лозунги: «Все  покупай  в  кооперативе»,  «У  частного  торговца  не  покупай  ничего»  Он  вспоминал и  о  том, как   его  «прорабатывали»  на  собрании,  как  обвиняли  в   том,  что  он  обменял  свою  комнату с  «нетрудовым  элементом»,  т.е. нэпманом,  и  тем  самым  позволил  ему  укрыться  от  выселения.  Вспоминал,  как уличали  его  «товарищи»  в  том,  что  он   предлагал  «интимную  связь»  уборщице  Денисовой, а  когда  она  ему отказала,  то  он,  мстя  ей за  это,  стал  распространять  на  рынке  слух о том,  что  она  является  женщиной  лёгкого  поведения.  Вспоминал,  как  обвиняли  его  и  в  том,  что  он приглашал   в  Сокольники уборщицу  Гречишкину,  обещая на  ней  жениться. Приглашение  это  расценивалось  тогда,  как  предложение  вступить  в  связь,  и  не  случайно:  под  многими  кустами  в  этом  парке  культуры  и  отдыха трава  была  помята,  а  гуляющие  не  редко  натыкались  на  окровавленную  вату  и  использованные  презервативы.    Вспоминать  об  этом  ему  теперь  было  весело,  а  тогда  на  душе  у  него  было  очень  противно,  и не  от  того,  что  уборщицы  ему  отказали   (баб  у  него  и  без  них  хватало)  а  от  того,  что  критики  его  по  существу  были  правы.   Правота  других - унижает.  Гордость - рождает   правота  собственная.  Вот  эту  собственную  правоту  он  ощущал  на  собрании  коллектива  в  29-ом  году, когда  обсуждалось  дело  одного  еврея,  которого  обвиняли  в  хулиганстве,  антисемитизме и правом  уклоне. Об  этом  так  прямо тогда  и  было  сказано:  «У  нас, на  Сухаревском  рынке,   появилась  вылазка  классового  врага»  А  «вылазка»  эта  рассказывала  анекдоты  с  еврейским  акцентом  и болтала  о  том,  что  в партии  много  подхалимов,  что  коммунисты  берут  взятки  и  что    в  деревне  коммунист  царь  и  бог. Так  вот,  заодно с этим евреем,  осудили  и  его  за  то,  что  он  сказал   торговцу  Хейфицу  «Ты  что,  жидовская морда,  наехали  сюда  из  Бердичева. Вас  гнать  отсюда  нужно»  А  сказал  он  это  после  того,  как  Хейфиц  назвал  его  «Кумом пожарным»,  что на «сухаревском  наречии»  означало «проститутка»  Один из  тогдашних  начальников,  Зейгерман,  договорился  до  того,  что  заявил:  «Если  человек  выступает  как антисемит,  значит  он  выступает  против  советской  власти»,   а  палаточник  Гусев  сказал,  что  слово  жид,  если  его перевести  на  русский  язык, означает   «предатель»  Где  они  теперь,  небось  всю  войну   в  тылу  отсиживались.   И  всё-таки,  несмотря   на  критику,  на  все  эти  дурацкие  обвинения, он  вспоминал  то  время с  удовольствием  и  представлял,  как  он  пришёл  бы теперь  на свой  рынок с  орденами  на  груди   и  как  бы  эти  сучки,  Денисова  и  Гречишкина,  пожалели  о  том,  что  тогда  ему  отказали.
Ивану  Ивановичу  виделась  его  школа и  как он  водил  своих  учеников  на Пречистенку,  как  предлагал  им  выяснять,  кем  и  чем   заняты  её  особняки и  доходные  дома,  как  однажды  предложил  им  написать  сочинение «Жизнь  в  особняке  прежде»,  и  предложил  им  зарисовывать  эти  особняки.  Ему  тогда  хотелось  приобщить  этих  голодных  и  заорганизованных  детей  к  тихому  счастью  общения  с  красотой  и  уютом.   Тогда,  в  начале  20-ых,  в   их  школе  шла  тяжба  между  учителями  старой  и  новой  школы.  Один  из  них,  «старый»,  утверждал,  что  «новый»  ведёт  уроки  обществоведения  слишком  книжным  языком,  непонятным  многим  учащимся,  с  использованием  большого  количества  иностранных  слов.  «Новый»  же  утверждал,  что  «старый»  не  марксист,  что  у  него  неправильный  подход  к  ученикам  и  что  те  знают  у  него  даже  такие  понятия,   как  «Вторая  империя»,  что  он  много  времени  уделяет  таким  мелочам,  как  жизнь  царей и,  в  частности,  Николая II-ого.  И  всё-таки  детей  тянуло  к  «старому»  учителю  и  ему  это  было  приятно.  А  вот,  что  ему  было  совсем  неприятно,  так  это  то,  что  в  23-ем  году  один  чиновник  из  Наробраза   устроил  руководству  школы  нагоняй  за  то,  что  в  их  школе  среди  учащихся  и  учителей  ещё  ходит  старорежимное  обращение   «господа» и «господин»  Иван  Иванович  припоминал  как  однажды  пятнадцать  учеников  их  школы  написали  письмо  в  Районный  совет  с  жалобой  на  то,  что  учитель  физкультуры  часть  урока  занимает  танцами.  Педагогический  коллектив  школы  тогда  разделился.  Одни  утверждали,  что  танцы  полезны,  они  учат  культуре  движения,  чувству  ритма и  развивают  музыкальность.  Другие  же  утверждали,  что  поскольку  трудовых  и  революционных  танцев  ещё нет,    учить детей   салонным  танцам  это преступление,  что   танцы  оказывают  развращающее  влияние  на  учащихся  и,  наконец, что некоторые   учащиеся  не  могут  танцевать  в силу  подчинения  комсомольской  дисциплине,  воспрещающей  танцы.  Большинством  в  один  голос  педсовет  школы  принял  решение  танцы  запретить.  Взгляды  учителей  резко  различались не  только  на  танцы.  Учителя   старой  школы,  естественно,  считали,  что  ученики  имеют  право  не  посещать  школы в  дни  основных  церковных  праздников.  Родители  многих  учеников  были  в  этом  с   ними  абсолютно  согласны.   А  однажды,  когда  умер  завхоз  школы,  человек  верующий,  в  школе   возник   спор  о  том  следует  ли   коллективу  провожать  покойного  для  отпевания  в  церковь.  Было  принято  решение  принять  участие  в  гражданских  похоронах,  а в церковных – нет.
Вспоминал Иван  Иванович, кроме школы, и свою  маму. Вспоминая  эту  добрую,  безмерно  любившую  его  женщину,  называвшую  его  ангелом,  он  с  ужасом  думал  о  том,  что  бы  с  ней  стало,  если  бы  она  увидела  его  теперь,  висящем  без  рук  и  без  ног  в  этом  мрачном склепе.
Гуськов  вспоминал  море,  свою подводную  лодку,  а  Петров  -  авиабой   у  Белгорода,  в котором он  был  сбит.  Тогда  с  неба   падало  так   много  сбитых  самолётов,  что  это  напоминало  звёздный  дождь.  Моисеенко  вспоминал  свою  «ридну  Украину» и  молодой  месяц  над   селом,    «партизан»  - леса  под   Брянском, а Федька свой двор в провинциальном городке, где под его гармошку вечерами танцевали парни и девчонки.   

Командировка  следователя прокуратуры  Орехова  подходила  к  концу.   Вина  Кузнецова  в  убийстве  Мамина  сомнений у  него  не  вызывала.  Кузнецов  вину  свою  не  отрицал. Оправдывался  лишь  тем,   что  не  помнит,  как  это  сделал.   Так  обычно отговариваются убийцы, не потерявшие  человеческий  образ,  кому  приятно  рассказывать  о  себе  такие  вещи?  Да и  как  может он отрицать  свою  вину?  Кто,  кроме  него,  мог  загрызть  находившегося с ним  в  одной  корзине  человека?    Не  мог  же  кто-нибудь  из  этих   безруких  и  безногих  доползти  до  этой  корзины  и  совершить  убийство.  А  как  мог  это  сделать  посторонний  человек,  чтобы  ни  он, и  никто  другой   этого  не  заметил. Да  и  дежурила  в  этот  день  Мария  Ивановна,  у  неё  были  ключи  от  скита. Ну, не  она  же  загрызла  Мамина.  Лёху  же  в  то  утро  около  скита,  да  и  в  самом  ските  не  видел.  Где-то,  в глубине  его души,  а,  вернее,   мозга,   затерялась  в   извилинах  мыслишка  о  том,  что  надо  бы  кусочек  маминского  мозга  послать  на  исследование,  однако  сделать это было  довольно  сложно.  Экспертизу  надо  было  проводить  в  областном  центре,  а  то  и в Москве  или  Питере,  что на  долго  бы  затянуло  следствие  и,  к  тому  же,  по  его  глубокому  убеждению,  ничего  не  дало.  Портило  ему  настроение  ещё  и  то,  что,  несмотря  на  всю  кажущуюся  простоту  данного  дела,   в  нём,  если  вдуматься,  были  какие-то  несуразности: ну, во-первых,  как  мог Кузнецов  загрызть  Мамина  так  тихо,  чтобы  никто  не  слышал. Неужели  все  так  крепко  спали?  А,  может  быть,  Мамин  лишился  голоса  от  испуга,  такое  тоже  может  случиться  с  человеком  в  такой  ситуации,  – успокаивал  он  себя.  Когда  он  проводил  освидетельствование  Кузнецова,  то  долго  и  внимательно  осматривал  его  рот,   который  ему  так  хотелось  назвать  в  протоколе  пастью,  но  ничего  особенного  в  нём  не  нашёл.  Наоборот,  во  рту  этом  не  хватало  нескольких  зубов,  да  и те,  что  были,  совсем  не  были  похожи  на волчьи  клыки.  И  всё-таки  именно  этот  рот  был  испачкан  кровью.  Тут  Орехов  испытал  какое-то  неловкое  чувство,  какое  возникает  у  человека,  допустившего  какую-нибудь  промашку.  -  Надо  было,  на  всякий  случай,  осмотреть  Лёху и вообще  всех  здешних  мужиков.    А  вдруг?  -  мелькнуло  у него  в  мозгу,  но  он  тут  же  отказался  от  такого  фантастического,  как  ему  показалось,  предположения.  Так  ведь  можно  весь  Дом  инвалидов освидетельствовать,  ведь  мог  же   кто-то  из  его  обитателей  достать  ключ от  скита  и  войти  в  него  ночью.  Тогда,  вернее  всего, все,   находившиеся  в  нём,  должны  были  знать,  кто  приходил.  Так  почему  они   молчат? – Боятся  расправы?  А  мне  что  делать,  бить  их,  что  ли?  Да  и  зачем  вообще  кому-то  могло  понадобиться  убивать  Мамина,  что  он  мог   сделать   без   рук  и  ног  такое,  за  что  убивают?    Что ж теперь  их  всех  снова  допрашивать,  задавая всем  один и тот  же  дурацкий  вопрос: «Какие  отношения  были  у  Вас  с  потерпевшим?»  Ну,  скажут  они «Нормальные»,  или  «Никаких» и что  дальше?  Опровергнуть-то  мне  их  будет  нечем,  ведь   нет  ни  одной  улики  против  этого,  никто  из  окружения  Мамина и Кузнецова  не  сказал  о  враждебных  отношениях  Мамина с кем-нибудь.  Да  и  сколько  это  займёт  времени – страшно  подумать,   а  начальство  и  так  торопит:  работать некому.  У   него  самого   ещё  десять  дел  в сейфе  ждут,  надо  над  ними  работать.  Взять что  ли  этого Кузнецова  с  собой,  потом,  не торопясь,  с  ним  по  душам  поговорить  А  только  кто  его  там  примет?  Кому  он  там  нужен?  «У  нас  нянек  нет  за  Вашими  «самоварами»  ухаживать» скажут.  И  будут  правы.  Надо  не  голову  самому  себе  морочить,  а  определиться   с   квалификацией,  получить заключение  экспертов и  ставить  точку.    Если  квалифицировать как  убийство  в  состоянии   психологического аффекта, тогда  суду  легче  будет   ограничиться  содержанием  его  в  ските,  как  в  строгой  изоляции,  и  всё.  В  стремлении  Орехова  скорее  закончить  командировку  и  вернуться  домой  была  ещё  одна  причина  совсем  не  юридическая. О  ней  следователь  сам  себе  ничего  не  говорил,   он  её  чувствовал,  поскольку  какая-то  непреодолимая сила,  которой  он  не  мог и не  хотел  сопротивляться,  постоянно тянула  его  домой  и  рождала  в  его  сердце   щемящее,    томительное  чувство  из-за  которого  он  не  находил  себе   места. Причина  эта  была  проста:  его  мучили  сомнения,  рождённые  ревнивым  чувством  к любимой  женщине,  своей  жене, оставшейся  в  городе.   Мысли  о  ней не  выходили  у  него  из  головы.  В воображении  своём   он  видел её  улыбающейся  другому,  целующейся    с  другим.  Он  тряс головой  и  моргал глазами,  когда  воображение  начинало  рисовать  перед  ним  картины ещё  более  откровенные. Теперь  он  боялся  одного:  вдруг  откроется ещё какой-нибудь  факт,  который  придётся   расследовать.  К  счастью,  ничего  подобного  до  сего  момента  не  произошло,  всё  было  спокойно. Орехов  шёл  монастырской  берёзовой  рощей,  утопавшей  в  синеющем  снегу,   и  думал  о  своей  любимой.  Вдруг,  какое-то  непонятное  чувство,  неизвестно откуда  появившееся,   заставило его  замедлить  шаг.  Он  осмотрелся  и  увидел  вдали, за  деревьями,  то  самое,  что  заставило  его  испугаться.  – Горилла, - мелькнула  мысль,  и  тут же  Орехов  прогнал  её,   устыдившись  собственной  глупости.  Но  кто  это?  Это,  конечно,  человек. Да,  это  был  человек,  но  такой,  каких  нет  ни в  городах,  ни  посёлках, таких,  каких  не  рисуют,  не  показывают  в  кино. И,  тем  не  менее,  на  просторах  нашей  великой  родины  нет-нет,  да  и  появится  в  какой-нибудь  глубинке, в  каком-нибудь  «медвежьем углу»  нечто  подобное.        Про  таких  рассказывают  в  сказках,  но  и то  редко.  Орехов,  во  всяком  случае,   о  таких и в сказках  не   слыхал и теперь,  находясь  в  одиночестве, в  белой,  как  саван,  роще,  он  почувствовал  страх, а, вернее,  какое-то  неприятное  чувство,  которое  заставило  его  остановиться  и,  постояв  немного,  повернуть  назад.  Он  не  оборачивался,  он  боялся   снова  увидеть  глаза  этого  существа,  глаза гориллы:  маленькие,  внимательные,  смотревшие  из  глубины  глазниц  и  нависших  над  ними  надбровных  дуг.  Только  выйдя  из  рощи  и  подойдя  к  главному  корпусу,  Орехов  успокоился.  Тут  ему  стало  стыдно  за  самого  себя.  _ - Псих, - подумал  он, -  Чего  испугался?  Стоит  человек,  никого  не  трогает.  Прошёл  бы  мимо,  он  бы  и  слова  не  сказал.  Если,  конечно,  он  говорить  умеет.  Пытаясь  самому  себе  объяснить  причину  своего  страха,  Орехов  пришёл  к  выводу  о  том,  что  человек  его  профессии,  да  ещё  начитавшийся  всяких  детективов,   способен  вообразить   себе   чёрт  знает  что!  Если  бы  люди  видели  столько  трупов,  сколько  видит  следователь, или  судебно-медицинский  эксперт,  они  бы  бережнее  относились  хотя бы  к  своей  жизни.  А  насколько  бы  осторожнее  стали  водители  и  пешеходы,  если  бы  их  водили в морги и показывали  бы  им  жертвы  автоаварий!  Не  имея  причин  не  согласиться  в  данном  вопросе  с  Валентином  Кузьмичом,  заметим  здесь,  что    он  был,  действительно,  впечатлительным  человеком.  Началось  это  у  него ещё  в  детстве.   Однажды  ему  попался  на  глаза   «Курс  судебной   медицины»  с  фотографией  трупа,  изъеденного  крысами  и  он  стал  бояться  темноты,  а  вечером,  ложась  спать,  стал  заглядывать  под  кровати  с  тем,  чтобы  проверить,  не  затаился  ли  под  ними  какой-нибудь  злоумышленник,  чтобы  ночью  вылезти  из  своего  укрытия  и  наброситься  на  спящих.  Теперь  Орехову  хотелось  скорее  увидеть  директора,  чтобы  выяснить  у  него  личность  субъекта,  встреченного  им  в  берёзовой  роще.  Директор  был  у  себя     кабинете.  Он   читал  газету.  Когда  следователь описал  ему  незнакомца,  директор  улыбнулся  и  сказал:  -  Это  наш  Митя,  микроцефал.  Да-да,  у  него  объём  мозга  слишком  мал  для  того,  чтобы  называть  его  homo sapiens.  В  деревне,  у  его  матери,  ещё  четыре  таких  сына  было,  но  те  все  умерли,  а  этот  вот   жив.  Вы  его  не  бойтесь,  он  смирный.  А,  вообще,  мы  без  него, как  без  рук.  Сами  понимаете,  кто у нас  тут  есть:  инвалиды,  да  женщины,  а  он  силищей  неимоверной  обладает,  так  что  он  тут  у нас  не только  за   мужика,  но и  грузоподъёмник.  От  всех  этих  слов  Орехову  стало  ещё стыднее  за  самого  себя.  – Как  плохо  мы  думаем  о  людях,  однако,  -  подумал  он,  а  директор,  всё  говорил  про  Митю,  видя  в  нём  одну  из  главных  достопримечательностей   своего  учреждения.  – Он, т.е. Митя,  почти  не  говорит,  но  всё  понимает,  правда  по-своему.  Вот,  например,  дают  ему  мальчишки  куриный  помёт  и  говорят: - Вот, Митя,  поешь,  очень  вкусно.  Тот  ест,  а  эти  стервецы  хохочут,  да  похваливают.  А  как-то  увидели,  что  он  хлеб  ест,  так  стали  кричать  ему:  - Фу,  какая  гадость,  не  ешь,  отравишься.  Ну, Митя  хлеб,  конечно,  бросил,  а  они  его  подняли и съели.    Тут  Орехов  задумался  и   невпопад  спросил  директора:  - Пётр  Валерьевич,  а  Вам  не  кажется,  что  такой  сильный  и  такой  внушаемый  человек  может  быть  опасен?  Директор  вздохнул, внимательно  посмотрел  на  свои  растопыренные  пальцы,  и  сказал: - Не  думаю,  да  и  внушать ему  что-либо  плохое  некому.  К  тому  же  за  ним  наш  психиатр  присматривает.   Да  и  Митя,  к  счастью,  не  злой,  а  тем  более  не  злопамятный,  а  вот  симпатии  имеет.  Он,  в  частности,  очень  Славу  любит,  того,  что в  ските,  где  всё  это  произошло.  Да  Вы  его  знаете,  молоденький  такой,  симпатичный.
Поделившись с директором  своими  мыслями  по  поводу  перспективы   расследования  дела, Орехов  откланялся  и  собрался уходить,  отказавшись  от  чая  и    водки, которые  ему   были  предложены.   – Выходя  из  кабинета, он  попросил  его  не  провожать,  а  перед  тем  как  закрыть  за  собой  дверь,  сказал – Пусть  всё-таки  присматривают  за  Кузнецовым,  мало  ли  что.       -  Вы  наше   богоугодное  заведение  постепенно  в  тюрьму  превращаете,  надо  будет  поставить  вопрос  о  выделении  нам  штата  конвоиров, - пошутил   директор  и сам  засмеялся  свое  шутке. 
Выйдя  на  улицу,  Орехов  снова   увидел   человека-гориллу.  На  этот  раз  ему  не  стало  страшно.  Он  даже  разглядел  его.  На  огромном  туловище,  почти  без  шеи,  сидела  маленькая  лысая  головка  со  скошенным  маленьким лбом.    Плоский  нос,  заметно  расширяясь к низу,  почти  доходил  до  большого  губастого  рта, под  которым  почти  не  было  подбородка.  Орехов  не знал,  как  поступить,  как  отнестись к  нему:  как  к  человеку,  или  как к животному:  кивнуть  ему,  или  нет. На  всякий  случай  кивнул,  и  Митя  заулыбался и также  стал  кивать.  Это  развеселило и обрадовало  Орехова. – Плохо  мы  думаем  о  людях, - снова  подумал  он.  В  тот  день  он   обнаружил  у  себя  пропажу  перочинного  ножа.  – Вернее  всего, - подумал  он, -  я  потерял  его  в  берёзовой  роще,  где  встретил  этого  динозавра.  Однако,  снова  идти  в  рощу  для  того, чтобы  искать нож,  он  не  решился.  Мешало  этому  неприятное  чувство,  которое  он  испытал  в  ней.  Это  был  не  только  страх,  но  и  недовольство  собой,   стыдом,  вызванным   за   собственной  трусостью.
На  следующий  утро,  когда  он  стоял  со  своим  чемоданчиком  около  конторы  Дома  инвалидов, ожидая  шофёра    «Вилиса»,  который  должен  был  отвезти  его   в  местный   аэропорт,  в  морозной  тишине,  нарушаемой   лишь  хрустом  его  собственных   валенок,  раздался,  хоть  и  отдалённый,  но  какой-то  страшный,  нечеловеческий   вопль,  от  которого  у  Орехова  пробежал мороз  по  коже.   -  Что  это  могло  быть? – спросил  он  себя  и подошедшего  к  нему  в  этот  момент  шофёра. Шофёр  стряхнул  варежкой  снег  со  своих  сапог  и,  прищурившись,  сказал,  глядя  в  сторону: «Говорят,  что  так  кричит  Митя,  когда  кончает»

Кузнецов и  «Слепой»  - узники  монастырского  каземата  были  лишены  единственной  радости  заключённых -  мысли   о  побеге.  Нормальным  людям  эта  мечта  хоть  как-то  освещает  будущее.    Для  них же  и  это  единственное  чудо  было  заказано.  Возможно,  поэтому  они  мало  разговаривали,  а  больше  молчали.  Роскошь  обсуждения  плана  побега  им  была  незнакома.  Так,   в  молчании,  они  проводили  часы.  Но  однажды «Слепой»  оживился  и  приник  ухом  к  полу.  -  Я  слышу  голоса, - сказал  он  Кузнецову.  – Там  люди.  -  Откуда? – удивился  его  сокамерник.  – Не  знаю,  но  я  ясно  слышал  их  голоса  и  не  первый  раз. Думал  ещё,  что  почудилось. «Слепой»  стал  стучать  по  каменной  плите  пола,  но  никто  не  отзывался.  Они  долго обсуждали,  что  это  могло  быть  и  решили,  что  надо  вынуть  хоть  одну  плитку  из  пола  и  заглянуть  вниз.  Но  чем  можно  было  расковырять  пол,  чтобы  выцарапать  цемент и  отвалить  плитку? – Нечем. Помог  случай.  Мария  Ивановна  вскоре  забыла  у  них  железную ложку.  Они  её  спрятали  и,  несмотря  на  все  старания  своей  кормилицы,  найти  её,  не  отдали.      

Этап  готовили  три  дня.   Шутка  ли,  почти  двести  человек  отправить  на  «Большую  землю».  Надо  было  подготовить  судно,  конвой,  запас продовольствия,  документы  на  этапируемых,   провести  их  медицинский осмотр   для  того  чтобы  отбраковать  нетрудоспособных и больных. В  общем,  начальник  лагпункта Кочетов  от  всех  этих  дел  устал,  как  собака,  и проклинал  тех,  кто  затеял  это  срочное  этапирование.   И  подавай  им  не  только  УБЭ  (уголовно-бандитствующий  элемент)   но  и  врагов  народа,  «контрреволюционеров»! А  кто  не  знает,  что  с  этими  самыми  «контрреволюционерами»  больше  всего  хлопот.  То  их  бык   обсерит,  то  плетнём  придавит, как  говорили  у  него  в  деревне,   то  они  болеют,  то подыхают,  то  объявляют  голодовки.  Да и кому  они  нужны?  Они  ведь  больше  болтать  умеют,  чем  работать.  Вот  какой-нибудь  Петров  или  Рабинович  сидел  у  себя  в  конторе,  валял  дурака и анекдоты  рассказывал.  Нашёлся  добрый  человек,  сообщил  куда  следует  и  вот  этот  любитель  анекдотов,  став «контрреволюционером»,  прибыл  в его  лагпункт,  в  котором  надо  не  штаны  протирать  и  нарукавники,  а  брать в  руки  пилу  или  топор  и  идти  лес  валить,  или  мыть  золото.  Да,  наприсылали   сачков,  а  ведь  ты  с  ними  ещё   план  давай.  А  какой  с  ними  можно  план  дать?    Нет, с  уголовниками  проще.  Сейчас бы, не глядя,  набил  ими  трюм и все дела. Одно  хорошо:  избавлюсь  от  этого  балласта.  Подбодренный   этой   мыслью,  Кочетов  вышел  на  высокий берег,  с  которого  по  широкой  тропе  спускался  к  пристани  контингент  его  лагпункта.  Впереди,  перед  ним,  куда  только  хватало  глаз,  простиралось,  покрытое белой  простынью  тумана,  холодное  серое  море.  У деревянной  пристани,  увешанной  старыми  автомобильными  покрышками  тихо  покачивался  ржавый  буксир.    Конвоир,  стоявший     недалеко  от  пристани,  повернул  к  зэкам  обветренное  злое  лицо  и  хриплым  простуженным  голосом протяжно крикнул:  - Подтянись!  В  берег  ударила  последняя волна  прибоя  и   колонна  заключённых  всколыхнулась,   как-будто  по  ней  пробежала  дрожь. -Пошёл! – крикнул  начальник конвоя  и  по  качающемуся  трапу,  под  остервенелый собачий  лай    застучали   зэковские  коты.   Капитан  бросил за борт  окурок  «Беломора»,  плюнул  в  тяжёлую  свинцовую  воду и ушёл в  рубку.   Погрузка  контингента  началась.   
Кочетов  вместе со своим помощником по режиму и фельдшером  наблюдал за погрузкой.  - Скорее  бы, - думал  он. - Может  быть  всё  обойдётся.  Хорошо бы.  В  конце концов,  если  что,   можно   будет  сослаться  на  недостаток  времени  и  большой  объём  работы  при  отправке  этой  партии.  Проглядели, мол, человечка  одного,   прощенья просим.  А  если в пути  кто  богу  душу  отдаст и его  за борт выбросят,  то  совсем  хорошо  будет:  по  количеству  всё  сойдётся.  Так  успокаивал  себя  начальник лагпункта,  хотя  душа  его   трепетала,  как  пойманная  птица  за  пазухой.   Он,  конечно,  многим  рисковал.  Выпустить политзаключённого  из  лагеря  без  всякого  оформления,  пусть  даже   под  конвоем,   дело  серьёзное  и  схлопотать  за  него  можно  от  души.  Кочетов  это понимал.  Однако  алчность,  которая  помогала  ему  бороться  с   чувством   страха,  в  минуты  сомнений   нашёптывала  ему:  - Не  волнуйся,  всё  обойдётся,  всё  будет  хорошо,  и  он  верил  ей,  как  верит  неизлечимо  больной  неграмотной  знахарке.  Да  и  как  не  обойтись,  если все  обстоятельства  складывались  так  удачно.  Во-первых,  к  нему  в  лагпункт  попался  племянник  его  жены  Морковкин С.В., а во-вторых,  в  том  же  лагпункте находился  другой  Морковкин   В. В. того же года рождения,  только  звали  его  не  Север, как племянника,  а  Владимир.  Мало  того,  он в  этот  день  подлежал  освобождению   и его вместе с тремя  такими  же  освобождёнными  погружали  теперь  на  эту  ржавую  посудину,  чтобы  отправить на большую  землю.  Так  вот с  этим  племянником,  освобождаемом по заранее  спланированной  им  ошибке,  отправлял  Кочетов  своей  жене,  в  Москву,  золотой  самородок,  который  весом  своим мог  обеспечить  ему  безбедную  старость.    В  минуты  сомнений  он  ругал  себя  за  это,  упрекал  в  трусости,  в  перестраховке. Ведь  спокойно  мог  бы  вывести  этот  самородок  сам, - говорил  он  себе.   Кто  меня  обыскивать  будет?  А  теперь  надейся  на этого племянника.  А  вдруг  он  сам  попадётся,  или  сбежит  с  этим  самородком.  Парень  он,  конечно,  отчаянный,  не  пропадёт,  и  доверять ему  вроде бы  можно – надёжный,  но  ведь  в  душу то его не влезешь,  и  что  у  него  на  уме  только  один  бог  знает.   И  всё-таки,  не  смотря   ни на что,  он,  как  ему  казалось,  поступил  правильно.  Какая гарантия,  что  на  него  не  донесут  или  не  похитят  самородок.  Самородок  этот  ведь не  с  неба  упал. Ему  его  человек передал  и  хоть  человек  этот   вскоре  умер,  но  мог  же  он  кому-нибудь  о  нём  протрепаться.  Его   пом  по режиму,  например,  мог  об  этом   пронюхать  - тот  ещё  гусь.  В  это  время к ним  подошёл  начальник  конвоя  и  сказал,  что  партия   уйдёт,  как  только  рассеется  туман.   Кочетов  приказал  ему  находиться  на  пристани  до  самой  отправки  и  пошёл в  контору  своего  лагпункта.
В  трюме   буксира было  холодно,  тесно и  воняло  тухлой  рыбой.  Конвоиры  задраили  люки,  ударили по ним  прикладами автоматов  и  зашагали  над  головами  заключённых  тяжёлыми,  упрямыми  шагами.  Свет  проникал  в  трюм через   четыре (по два с каждого  борта)  грязных  иллюминатора.  Слышно  было,  как  небольшая волна  стучит в  левый  борт,  покачивая  судно  у  пристани.  Потом   заработала  машина.  Засопела,  заурчала,  застучала.  С  палубы  послышались  крики,  кто-то  быстро прошёл  вдоль  правого  борта,   буксир  раз  ударился  о  пристань,  потом  другой  и,  подавшись  влево,  дрогнул,  напрягся  и   направился  к  выходу  из  бухты  чтобы  выйти в  море.  Сколько  и  куда  он  будет  плыть - никто не  знал,  однако  опытные  люди  полагали,  что  плыть  он  будет  не  менее  трёх  суток в направлении  Сахалина  или  Владивостока.  О  целях  отправки  партии  говорили  разное.  Кто-то считал,  что  везут на Сахалин  обживать  отнятый у японцев  остров,  другие,  что  везут не  обживать,  а   на  каторгу,  которую  восстановят  на  острове,  как  было  когда-то.  Другие   полагали,  что  везут их  во  Владивосток,  чтобы  пересадить  в  вагонзаки   и  гнать в  Читу,  на  БАМ,  а,  может  быть, и дальше.
   Выйдя  из  бухты,  буксир   «ГБ – 28» дал  гудок,  прощаясь  с    портом  своей  приписки  и  всем  каторжно-золотым магаданским краем,  и  пополз  по  шарику вниз,  к  экватору,  таща  в  своём  брюхе  самый  никчёмный  и  дешёвый  груз, который  когда-либо  ему  приходилось  возить –  советских    зэков.
Услышав гудок  буксира,  Кочетов  остановился,  оглянулся   на  бухту  и  вздохнул.  Подошедший  к  нему  сзади  заместитель  по  режиму  тоже  остановился и  тоже  смотрел  на  выходящий из  бухты буксир,  а   потом  спросил Кочетова:  -  А  знаешь,  Михалыч,  куда  наших  повезли?   - Мне  не  докладывали,  - не  оборачиваясь  ответил  Кочетов.  -  Мне  тоже, - ответил  помощник.  – Мне  об  этом  один  человек по секрету  сказал. – Ну и куда? – спросил Кочетов. – Да, на  полигон  какой-то,  то ли в Казахстан,  то  ли  в  Сибирь.  Бомбу  там  будут испытывать.  Кочетов  почувствовал,  как  у  него  задрожали  колени.  _- Бомбу? А они-то причём?    -  Они-то,  ну,  наверное,  для  эксперимента.  Надо  же  знать,  как  она  на  людей  действует.  -  А  что,  неизвестно?  За  войну  что ли не насмотрелись?  -  Да  бомба-то не простая,  а  атомная,  такая,  как  у  американцев.  -  А  зачем  было  людей  отсюда  для  этого  тащить,  поблизости,  что  ли,  найти не  могли?  -  Значит  так  надо,  начальству  виднее.  Наверное,  решили,  чтобы  поблизости  никто  пропавших людей  не  хватился,  да и разговоров  чтобы  меньше  было.  -  А  как же  наши  освобождённые?  - спросил  Кочетов,  невольно  выдав  свой  интерес. -  неужели  их  тоже  на  полигон  загонят?  - А  то  как же,  кому  же  нужны  лишние  свидетели? – мрачно  ответил  помощник.   Такого  оборота  Кочетов  не  ожидал.  Казалось,   что  всё  предусмотрел,  всё  устроил,  а  тут  такой  сюрприз.  Что  же  теперь  с  самородком  будет?  Вот  тебе,  Иван  Михалыч,  и  обеспеченная  старость,  вот  тебе,  дураку  старому,   и  домик  в  Крыму.  А  не  остаться  ли Вам, уважаемый,  в  этих  местах,  ставших  для  вас  родными,  доживать  свой  век  в  качестве  зэка,  изменив,  так   сказать,  профиль  Вашей  деятельности?  Проклиная  всё  на  свете  и  не  обращая  внимания  на  своего помощника, Кочетов  зашагал  к конторе,  опустив   голову  и  заложив  руки  за спину.
Дмитрий  Морозов ещё  в  лагпункте  накинул   петельку  из  тоненькой  нити на  один  из  своих нижних  зубов,  а  другой её  конец  продел  в  ушко маленького напильничка  с  заострённым  кончикиком.  Этот  напильничек  он взял  рот,  проглотил  и  тот  повис  у  него в пищеводе.   При  обыске  перед  отправкой  на  судно  напильничек  этот  у  него   не нашли.  Довольный  этой  удачей  он  находился в хорошем  настроении  и  подбадривал  своего  приятеля,  Толика,  которому  вместе с ним  предстояло  в  пути  провернуть  одно  весьма  рискованное  дельце.  У  приятелей  было  много  общего.  Они  были  ровесниками,  родились и выросли в деревни,  перед  войной  получили  сроки: Дмитрий  за убийство, Толик – за  кражу,  оба  служили во  время войны  полицаями   при  немцах,  а  после  войны  получили  по четвертному  и  были  отправлены  в  Магадан  добывать  для  страны   золото.   Сегодня  же  их  должна  была  ждать  удача.  Дело в том,  что  им  доподлинно  было  известно  о  том, что  один  из  их  попутчиков,  некий  Север  Морковкин – племянник  жены  начальника  лагпункта,  освобождённый  из  заключения  стараниями  своих  московских  родственников,  везёт на  континент  огромный  золотой  самородок.  Да,  не  зря  Кочетова  мучили  сомнения:  действительно,  о  самородке  в  лагпункте  знал  не  он  один,  потому  что  умирающий  зэк  успел   о  нём  кое-кому  рассказать.  Теперь  судьба  самородка  находилась  в  руках  трёх  пассажиров  грузового  буксира  «ГБ-28»  Днём  его  изрядно   потрепала  качка  и многие  заключённые,  страдавшие  «морской  болезнью»,  заблевали  трюм.  Конвоирам  пришлось тогда открыть  на  время  часть  иллюминаторов.  Вечером  море  успокоилось  и над  ним  взошла  неестественно  большая  луна.  Морковкин  ослаб  от  качки  и  заботившиеся  о  нём  Дмитрий  Морозов и Толик  подтащили  его  к  открытому  иллюминатору. Он  откинул  голову  и  наслаждался  проходившим  сквозь  щель  в  иллюминаторе  свежим  воздухом.  Все  зэки,  умаявшись за день, крепко  спали,  когда  Дмитрий  Морозов,  потянув    ниточку,  извлёк  из  своей  утробы  напильничек,  снял  петельку  с  зуба  и,  изловчившись,  точным и  резким  ударом  проколол  сонную  артерию  Северу,  а  Толик  зажал  ему  рот.  После  этого  они  обыскали  его,  нашли,  привязанный  к  мошонке,  самородок,  а  труп  спустили  в  иллюминатор.  Всплеск  воды  был  последним  звуком,  свидетельствовавшим  о  пребывании  на  Земле  Севера  Морковкина -  бывшего  студента,  бывшего  осуждённого  по  ст. 58-10 УК РСФСР,  бывшего  заключённого  и  племянника  жены  начальника лагпункта Кочетова.  Уходя  из  этого  мира,  люди  произносят  какие-то последние  слова,  храпят,  хрипят, стонут,  икают, а  то  и  просто молчат.  Звук  же,  с  которым  Север  ушёл  из  этого  мира, люди  обычно  обозначают  буквосочетанием «бултых»,  словом  не говорящим  ничего,   кроме  подобия  звука,  вызванного  падением  тела в воду. На  следующее утро  никто не заметил  исчезновения  человека, или не  хотел  замечать,  зная  нравы  бывших полицаев. Когда  прибыли на место,  то  всё  сошлось, лишних не было.  Узнав  об  этом,  Кочетов  потирал  руки  и  говорил  себе: - Ай да  Север,  ай да сукин  сын!  Да,  ловкий  малый, как  это он  их, а?  А  этап,  тем  временем,  погрузли  в  товарный  вагон  вместе с конвоирами и  погнали на  Запад. На  оправку  два  конвоира  по  утрам выводили  желающих   на  тормозную  площадку.  В  первую  же  ночь  Дмитрий  и  Толик  распилили  пополам  самородок и поделили.  Надо  было  решать  кому  бежать  первому.  Выкинули  пальцы – досталось Дмитрию.  В  это  время  поезд  подходил  к  мосту  через  какую-то  реку.  Друзья  переглянулись  и  мысль  одобрили.  Попросились  оба  сразу.  Поскольку поезд  шёл  очень  быстро и подходил к   одноколейному  мосту,  то  решили  рискнуть  и  вывести  обоих,  чтобы  скорее  закончить  оправку.  Держась  за  поручень, Дмитрий  и  Толик  спустились  на  нижнюю  ступеньку  лесенки,  ведущей на площадку.  Замелькали  редкие фермы  моста.  Дмитрий,  незаметно  перекрестившись, отпустил  руку,  оттолкнулся,  что  есть  силы,  от  лесенки  и  полетел  вниз.  Вслед  за  ним  полетел  и  Толик. Конвоиры  открыли  огонь. Мост  кончился,  несмотря  на  выстрелы,  эшелон  не  остановился.  Сделать  это  на  мосту  машинист  не  имел  права.  Дмитрий летел  вниз,  зажмурив  глаза,  ожидая гибели.  Наконец,  ощутил  сильный  удар  и  на  мгновение  потерял  сознание.  Когда  пришёл в себя  и  осмотрелся,  то  понял,  что  на нём  нет  штанов,  что  вода  очень  холодная  и  что  из  носа  его  течёт  кровь.   Мимо  него  проплывали  льдины.  На  одной  из  них  он  заметил  что-то  похожее  на человека.  Когда  льдина  подплыла  ближе, он  понял,  что  это  был  Толик.  Он не двигался и не отвечал  на  его  крики.   Погиб,  бедняга – подумал Дмитрий  и  поплыл к льдине.  Ему  удалось  забраться  на  неё.  Обыскав  друга,  он достал  привязанный  у него  за  пазухой  узелок  с  самородком,  а  труп  сбросил  в  воду  чтобы,  когда  будут  искать,  не  нашли.   По  льдинам и воде  он, наконец,  добрался  до  берега.  Здесь,  как ему  сообщил  один  зэк,   где-то совсем  близко,  должен  быть охотничий  домик.     Вскоре  он  заметил  прибитую  к  дереву  стрелку,  указывающую  на  юг.  Он  быстро  зашагал  туда,  и  вскоре  увидел  нечто  вроде  шалаша  или  маленькой  избушки.  Это и  был,  как  он  понял,  охотничий  домик.  Выдернув  из  петель  продетый  сквозь  них сучок,  Дмитрий  открыл  дверь….

Тем  временем  в   «самоварном»  ските  произошло  довольно  неожиданное  событие.  Сюда,  буквально  на  два – три  дня,   пока  не  оборудуют  специального  места,  поместили  молодую  красивую  женщину,  тоже  «самовара»,  или  «самовариху»  Это  была  медсестра  Люба  Соседова.  Зимой  сорок  третьего  она была  ранена,  потеряла  сознание   и, оставшись в  поле,  отморозила  себе  все  четыре конечности. После  того как  их  ампутировали,   отправили  её  в  деревню,  к  матери.   Недавно  мать  умерла  и  ухаживать  за  Любой  стало  некому.  Тогда то  и  пришлось  привести  её  сюда,  чтобы  висеть оставшуюся  жизнь.  В  скит  её  занесли  ночью Мария  Ивановна и Михаил  Ефимович,  когда  все  спали.  Подвесили к раме,  отгородив  простынёй,  пожелали  спокойной  ночи  и  ушли.   
Утром,  проснувшиеся  самовары,  не  придав  большого  значения  висевшей  простыне,  стали оправляться.  Пришёл  Лёха  со  шлангом,  ругаясь  и  матерясь,  выполнил  возложенные  на  него  обязанности,  и  удалился.  Вскоре  после  него  в  помещение  вошли  главный  врач  и  Мария  Ивановна.  Михаил  Ефимович,  обратившись к контингенту,  сказал: - Товарищи,  с  сегодняшнего дня в вашей палате, совсем  непродолжительное  время,   будет  находиться  женщина.  Прошу  любить и жаловать,  Любовь  Ивановна  Соседова.  При  этих  словах  Мария  Ивановна   сняла  простынь  и  перед  взором   «палатных  висельников»,  как  назвала  их  сестра-хозяйка  Ляжкина,  предстала  женщина.  Она  была  молода и красива.  У  неё  были  золотые  волосы  и  голубые  глаза.  На  ней  был  короткий  белый  халатик,  а  на  шее  голубые  бусы.  Было  заметно, что  и  губки  у  неё  были  подмазаны.  Ах,  Мария  Ивановна,  Мария  Ивановна….  В  палате  стало  тихо, У Славы  глаза  раскрылись до  бровей,  противно  заржал  Федька,  а  за  ним  Иван  Иванович, ставший  краснее  кремлёвских  звёзд, затянул,  заикаясь:  «К-к-как  же  н-на-ас   н-не  п-предуп-п-редили…..» А,  действительно,  почему не предупредили?  Может  быть  решили  окунуть  сразу  всех  в   ту  обстановку,  которую  не  имели  сил  изменить? - Возможно.  А,  может  быть,  просто  не  подумали?  - Может  быть и так.  Теперь  осталось  только  извиниться  и  развести  руками,  что  Михаил  Ефимович и сделал,  пообещав  сразу,  как  только  будет  устроено  место для  женщины,  она  будет  переведена  туда. 
Три  дня,  в  которые  скит  был  удостоен  присутствием  женщины,  изменили  жизнь  его  обитателей  до  неузнаваемости. Почти не стало матерщины,   Мария  Ивановна  оставила  свои  обычные  шутки  и  стала приходить в палату  раньше  Лёхи,  чтобы  вынести  Любу  в  соседнее  помещение.  После  обеда  мужики,  чтобы  как-то  развлечь  даму,  попросили  Ивана  Ивановича  рассказать  что-нибудь  интересное про  любовь.  Иван  Иванович  засмущался,  но  вскоре справился с  застенчивостью  и  начал  рассказ  в  своей  обычной  манере  чуть ли не  участника  происходивших  событий,  хотя  знал  о  них  из  газет  своей  молодости. Рассказ  свой  он начал  издалека.
             
 «Парижские рассказы  Ивана Ивановича»
 -  И так,  друзья  мои,   жил  я  тогда в Париже.  В  конце 19-ого  века  прекрасный  город этот  узнал  о  судьбе  одного  молодого  человека  по  фамилии  Мистраль.  Вы  должны  знать  его  двоюродного  брата,  поэта  Фредерика  Мистраля,  которого  Малларме  назвал  «Брильянтом  млечного  пути»    (никто из присутствующих  о таком  поэте не слыхал,  но  вида не подал) Но  дело сейчас не в нём,  а  в его  кузене,  то есть двоюродном  брате. Оказалось  тогда,  что  он  просидел  в  сумасшедшем  доме  почти  пол века  и  упрятал  его  туда  ни  какой-нибудь  тиран,  а  собственный  отец  из-за  того,  что  он    влюбился  в  польскую  певицу  и  решил  на  ней  жениться. Причина,  по  которой  вздорный  отец  решил  во  что  бы  то  ни  стало  воспрепятствовать  этому  браку,  состояла  в его банальной  алчности.  Этот жестокий   скряга  больше  всего  на  свете  боялся,  что  его  огромное  состояние  достанется какой-то певичке.  Ради  того  чтобы  разлучить  влюблённых  он  был  готов  на  всё.  Сначала  он   лишил  сына  средств  существования,  перестав  давать  ему  деньги.  Однако,  это  не  помогло  и  сын всё-таки  женился.  Но  как  жить   с  молодой  женой,  на какие  средства, то есть?  Тут    не  выдержал и спросил: - А  что,  на  работу  нельзя  было устроиться,  комнату  в  общежитии  получить?  - Комнаты  были  заняты. -  раздражённо  ответил  Иван Иванович,  который  не  любил  когда  его  перебивали,  и,  откашлявшись,  продолжал: - Пришлось   молодым,  чтобы  не  умереть  с  голоду,  петь  за  гроши на  улицах.   Узнав  об этом,  отец  совсем  рассвирепел. – Он  ещё  и  позорит  меня!  - кричал  он  и  топал  ногами.  – В  сумасшедший  дом  его,   в  смирительную  рубашку! А   следует  Вам  заметить,  что в  то  время  упрятать  человека  в  сумасшедший  дом,  в  тюрьму и даже в   Бастилию  было  совсем  не  трудно,  а   всё  потому,  что  у  какого-нибудь    полицейского  за большие  деньги   можно  было  купить заполненные  бланки,  т.н.  "летр   де  каше",  в  которых  оставалось  только  проставить  фамилию  несчастного.   Бывало,  родители  пользовались  этими  бланками,  чтобы  разлучить  сына  с невыгодной  невестой.  В  тюрьме  они  держали  его до  тех  пор,  пока  он  не  выкинет  дурь  из  головы.  Когда  свершилась  Великая  французская  революция,  из  Бастилии  были  выпущены  и  правые  и  виноватые,  а сама  Бастилия  была  разрушена.  Мистраль  же продолжал находиться  в  сумасшедшем  доме,  поскольку  сумасшедшие  дома  революция  не  разрушила. Продолжал он  там  находиться   и  после  смерти  своего  отца.  О нём  просто  забыли.  Родственники  его,  в  том  числе  и  его  кузен, о  котором  мы  говорили, не  очень-то хотели  его  освобождения,  ведь  они   пользовались  его  наследством,     В конце  концов,  за  бедного  влюблённого  вступился  журналист  одной  парижской  газеты  и  его  заточение  кончилось.   Что  стало  с  польской  певичкой  я  не  знаю.  Рассказывали,  что  её потом  видели  поющей  в  каком-то  кабаке…
Иван  Иванович  замолчал.  Кто-то  вздохнул,  а  «Партизан»  снова  стал  просить Ивана  Ивановича,  чтобы  он  рассказал  ещё  что-нибудь.  Народ  его  поддержал. Рассказчик опустил  голову,  помолчал  и  заговорил  снова.  -  Любовь  в  жизни  парижан  вообще  играла  огромную роль.  И  чаще  всего  это  была  не  та  любовь, которую  освещает  церковь,  а любовь - приключение,  любовь  игра,  а  то  и любовь - сумасшествие.  Одна  такая  сумасшедшая  любовь  случилась  в  Париже  задолго  до  моего  приезда  и   о  ней  мне  поведал  мой  старый  приятель.  Вот  что  он  мне  рассказал: В  Парижском  оперном  театре тогда      танцевала  прекрасная,  юная  девушка,  которую  звали  Нанин  Дорваль.  В  неё  безнадежно влюбился  юный  танцовщик  того  же  театра, Жан Лаваль.   Но  юной  Нанин  нравился  офицер  Петен.  Он  возглавлял  тогда команду,  охранявшую  театр.  Бедный  танцовщик  невыносимо  страдал  от ревности,  и  однажды,  не  выдержав,  подстерёг  Петена  около  театра  и,  набросившись  на  него,  схватил  за  горло.  Офицер  был  гораздо  сильнее  мальчишки-танцовщика,  а  поэтому  легко  оторвал  его  от  себя  и,  бросив  на  землю,  приказал  солдатам  связать  сумасшедшего  и  оставить  у  входа,  чтобы  все  видели,  как  он  с  ним  расправился.  Танцовщик  был  опозорен  перед  людьми,  а  главное,  перед  Нанин.  Он  не  смог  пережить  унижения  и  сильно  заболел.  Перед  смертью  Жан  попросил  театрального  доктора     оставить  в  театре  его  скелет.  Доктор  сначала  очень  удивился  и   попытался  успокоить  юношу,   отговорить  его  от  такого  решения,  но  под  давлением  его  слёзных  просьб,  в  конце концов,  сдался  и  пообещал  исполнить  его  просьбу.  А  причина  такой,  казалось  бы,  нелепой  просьбы  несчастного  юноши  состояла в том,  что  в  одном  из  спектаклей  Нанин   танцевала  около  скелета  и   бедному  юноше  очень  хотелось   быть  в  эту  минуту  на  сцене  рядом  с  ней.   Доктор  исполнил  его  просьбу.   Так  он  вновь,  вместе  с  Нанин,  появился  на  сцене,  только  теперь  в  виде  скелета…    Иван  Иванович,  сказав  это, замолчал.
- А от моего  скелета  одни  рёбра  останутся.  Половина его  в  Польше  – сказал  Петров,  - А  моего – под  Одессой,  - добавил  Гуськов.   
- Да,  кости  человеческие,  не  дают  людям  покоя, - вздохнув  сказал  Иван  Иванович. - Возьмите  вы  Наполеона, -  он  держал  у  себя голову  герцога  Ришелье,  в  шкафу   английской  королевы  Елизаветы  хранился череп её  любимца лорда  Эссекса, а наш знаменитый  путешественник  Миклухо - Маклай  сделал  настольную керосиновую  лампу  из  черепа  своей любимой  девушки  с  Новой  Гвинеи.
- Интересно, а  из нас можно наделать  что-нибудь? – задумчиво спросил   Мешков. – Пельмени  - сострил Чиж. Все засмеялись. – А я  бы,  задумчиво  начал  Гуськов, -  наши  скелеты  оставил  в  музее  войны,  чтобы  все  видели,  что  война с людьми делает.  И  почему только её  «великой»  называют? «Великая  отечественная»! Чем  она  велика? -  количеством  смертей,  безмерностью страдании? – Победой,  дура,- ответил  Чиж.  – Вот  победу  и  называйте  великой, - отрезал Гуськов, а  партизан  стал снова  просить  Иван Ивановича  рассказать  что-нибудь «о ю-о» - «Про  любовь» - перевёл Гуськов.  Но  не  успел  Иван  Иванович  начать  новый  рассказ,  как  пришла Мария  Ивановна  гасить свет  в  ските.  Было  уже  поздно  и  пора  было спать.  Все  стали  её  уговаривать  не спешить,  лучше  послушать  ещё  один рассказ  Иван  Ивановича  «о юо»  Она,  конечно,  согласилась и села  на  табурет,  а  Иван  Иванович  начал  рассказ: - История  эта  произошла  с  одним  русским  повесой,  приехавшим  в  Париж  развлечься  и  погулять. Для  русского  человека  тех  лет  слова «когда  я  был  в  Париже»  имели  просто  магическое  значение.  Все  мечтали  побывать  в  этом  романтическом  городе,  к  тому  же  законодателе  мод.   
- А  повеса, это кто  такой? – спросила  Мария  Ивановна.
- Ну,  как  Вам  сказать,  это  вроде  как  балбес  того  времени, - разъяснил  Иван Иванович  и  продолжал: - Так  вот, балбес  этот  кутил  с себе  подобными  бездельниками   в  ресторанах  и  кафе,  сорил  деньгами,  менял любовниц,  играл  в  карты  на  деньги  и.  в  конце  концов,  промотал  всё,  что  у  него  было.  А  поскольку  делать  он  ничего  не  умел  и,  следовательно,  заработать  на  жизнь  не  мог,  да  и,  честно  говоря,  не  хотел,  то  стал  занимать  деньги у  знакомых и не только. Сначала  ему  деньги одалживали,  но  потом,  когда  он  не  стал  их  возвращать,  перестали.    Тогда  он  попытался  жить  за  счёт  женщин,  но  тем  это  не понравилось, ведь они  сами  искали  состоятельных  кавалеров  для  того  чтобы  пожить  за  их  счёт. Короче  говоря,  послали  они  его  ко  всем  чертям.  – И правильно  сделали! – добавила  Мария  Ивановна.  -  Тогда, - продолжал  Иван  Иванович, не обращая  на  неё  внимания, - он  стал   распродавать  всё,  что  у  него  было. Когда  остались  одни  брюки и один пиджак,  появляться  в  обществе  ему  стало  неудобно,  потому  что  одежда  его с  каждым  днём  становилась  все  грязнее  и  неопрятней.  Кончилось  тем,  что  он   опустился,  ходил  в  лохмотьях, попрошайничал.  Все  знакомые  от  него  отвернулись  и он  остался  один.    Пробовал  найти  работу,  но  найти  её  в  Париже  не легко  было  тогда  даже  французу,  не  то,  что  иностранцу.  Голодный  и  нищий  слонялся  он  по  Парижу,  не  имея денег  на  то  чтобы  вернуться домой, в  Россию.   Наконец,  потеряв  все  надежды,  он  попытался  покончить  с  собой,  но  не  смог  этого  сделать,  силы  воли  не  хватило. И  вот   однажды,  когда  он  шёл  вдоль  Сены  - Сена, - тихо  поправила  его Мария  Ивановна. Не  обращая  на  неё  внимания,  Иван  Иванович  продолжал: -   ему  улыбнулась  удача:   он  встретил  московского  приятеля,  такого  же,  как  он,  разорившегося  бездельника  и  тот  предложил  ему   устроиться  в  команду, в  которой  служил  сам.  Команда  же  эта  занималась  тем,  что  отыскивала  в  трущобах  города  трупы  умерших  и  хоронила  их.  Работёнка,  конечно,  не  очень  приятная,  но  она  позволяла  нашему  оболтусу  хоть  как-то  прокормиться  и  купить  приличную одежду.  В один  прекрасный  день,  в  одной  из  трущоб,  он  встретил  обнищавших  женщин:  пожилую  мать  и  юную  прекрасную  дочь,  в которую  сразу  влюбился.  Он  стал  опекать  их,  помогая,  чем  мог.  Женщины  нуждались в  помощи,  особенно  девушка,  страдавшая  чахоткой.     Девушка эта  была не только  красива,  она  оказалась  к  тому  же  доброй, искренней  и милой.  Вскоре  умерла,  простудившись,  её  мать. Молодой  человек  поставил  перед  собой  цель  отвести  девушку  на  юг лечиться  от  чахотки.  К  тому  времени  они  решили  пожениться.  Для  того,  чтобы  заработать  больше  денег,  он  целыми  днями  бродил  по  трущобам  в поисках   покойников,  оставляя  девушку на  целый  день  одну.   Однажды, после  очередного  обхода  трущоб,  он  вернулся  к  девушке  и  нашёл  её  мёртвой  в  своей  жалкой,  убогой  комнатке.   Не  выдержав  такого  потрясения,  несчастный  сошёл  с  ума.  Я  как-то  встретил  его,  бродя  по  одной  из  окраин  Парижа,  это  было  жалкое  зрелище
Заметив  на  глазах  Любы  слёзы.  Мария  Ивановна  стала  упрекать  Ивана  Ивановича в  том,  что  рассказ  его  больно  жалостный  и  что  он  им  девушку до  слёз  довёл.  Иван  же  Иванович,  терпевший  и  всеми  силами  удерживавший  себя  весь  день,  наконец,  не  выдержал  и,  как  говориться,  опростался.  Мария  Ивановна  убрала за ним, а  коллектив  решил  потребовать  у  администрации  перевода  Ивана  Ивановича  в  другое  помещение  на  то  время,  пока  в  их  палате  находится  Любовь  Ивановна.  Просьба  коллектива  была  удовлетворена,  и  Иван  Иванович в  тот  же  вечер  был  перенесён  в  другое  помещение. На  следующий  день  раньше   всех  в ските  проснулся  Слава.  Присутствие  женщины  не  давало  ему  покоя.  Он  мог  часами,  не  отрываясь,  смотреть  на  неё.   Сейчас,  поскольку  было  очень  рано  и  темно,  он  не  видел  её  лица,  а  мог  любоваться лишь  отсветом    уличного  фонаря  на  её  золотых  волосах. Вдруг,  в  тишине,  он  услышал  звук  капель,  падающих  на  цементный пол. Кап,  кап…  Что  это? – думал  Слава  и не  находил  ответа. Когда  стало  светлее,  он  заметил  на  полу,  под  женщиной,  пятно, в которое  время от времени  капала  новая капля.  Тогда  Слава,  видя,  что  проснулся  Чиж,  позвал  его: - Дядя  Саша,  чего  это,  может  быть,  у  неё  рана  открылась? Чиж  вздохнул,  повернул  голову  в  его  сторону  и  сказал:  -  У  неё  эта  рана  давно  открылась,  до  войны.   Дурак ты,  Славик,  баб,  что ли,  не  знаешь?  Течка  у  неё.  Славе  стало  стыдно  за  свою  тупость  и  неграмотность.  Когда  о  произошедшем  событии  узнали  остальные  мужики,  то  оно  произвело  на  них  сильное  впечатление.  Не  умом,  а  каким-то  чувством,  зарытом  под  толстым  слоем  жизненной  грязи,  страданий  и  житейской  суеты,  осознали  они  всё  великое  значение  сего очищения,  без  которого  невозможно  зарождение  новой   жизни. Всем  им,  пожалуй,  кроме  Федьки,  захотелось самим стать  чище и  лучше,  смыть  с  себя  всё  плохое  и  жестокое,  что  зародила в них  злого  и жестокого эта  война.  А  Гуськов  стал  мечтать  о  том, как  летом,  когда  их  вынесут  на  волю,  он  попросит  Марию  Ивановну  посадить его  под  яблоню,  а  потом  станет  кататься  по  поляне и рвать  зубами  цветы.  Нарвёт  букет  и  подкатит к  ней  в  репьях и  листьях,  как  леший  с  букетом  в  зубах  и  положит  их  возле  неё.  Иван  Иванович заплакал,  вспомнив  жену.  Всем  им  было до  боли  обидно  то,  что они,  не  старые, а  в большинстве  своём  молодые  мужчины,  лишены  возможности,  болтаясь  на  парашютных  стропах,  дотянуться  до   женщины,  чтобы  продолжить  свой  род,  а не одного  удовольствия ради. 
С  этим их  естественным желанием,  ежедневно  сталкивалась  Мария  Ивановна.  Теперь,  когда  в  палате  появилась  женщина,  в   ней  пробудилось  естественное,  свойственное  её  возрасту,  желание - желание  стать  свахой,  и  она  решила  поженить  Славу  и  Любу.  То,  что  Люба  постарше – не  страшно,  думала  она,  зато  какие  у  них  будут  дети  красивые! На  следующее  утро  она  приступила  к  выполнению  своего  намерения.  Первое,  что она  сделала,  это  перевесила  Славу  на  место  удалённого  на  время  Ивана  Ивановича.  Потом  помыла  Славу,  подстригла   и  причесала  его.  К  юноше  этому она  испытывала  особые  чувства.  Во-первых потому,  что  он  напоминал  ей  сына,  во-вторых,  тому,  что  никогда  не  позволял  себе  никакой  грубости  или  пошлости  и,  наконец,  потому, то она  сделала  для  него,  как  женщина,   больше,  чем для  других.  А  виноват  в  том  был  опять  этот  прохвост  Моисеенко.  Последние дни  он  не  раз  просил  защитить  его  от  торчащего  «перца»  Славы.  -  У  мэнэ  вся  спина в синяках,  - жалобно  говорил  он,  не   сегодня-завтра  проткнёт  мэнэ  насквозь!  Она  стыдила  его  и  просила  не  смущать  бедного  парня.  Правда,  по  утрам  сама  замечала  у  Славы  оттопыренный  фартук.  Моисеенко  же  подтрунивать  над  Славой  по  этому  поводу  было  мало,  он  стал  уговаривать  Марию  Ивановну,  чтобы  она  помогла  ему  облегчить  душу.  Она,  конечно,  сначала  отмахивалась  и  стыдила  этого  заводилу  Моисеенко,  но  однажды,  перед  уходом,  когда  стемнело,  подошла  к  Славе  и  спросила  его: -  Ну  что,  малец,  правда,  что ли,  помочь  тебе?  Он  покраснел  и  опустил  голову.  Она  огрызнулась  на  обернувшихся   любопытных  и  взяла  дело  в  свои  руки.  Стало  тихо  и  завидно и  так  до  тех  пор,  пока  Слава  не  застонал. И вот тогда  Моисеенко  взмолился: -  Ратуйте,  братцы,  караул,  быть  мне  галушкой  в  сметане!  Все  дико заржали,  а  Мария  Ивановна  обмыла  Славу,  вытерла  его  и, пристыдив  охальников,   ушла.   
Думая о Славе,  Мария  Ивановна  совсем  не  думала  о  Любе.  Ей  казалось, что  в  её  положении  брезговать  молодым  красивым  и  добрым парнем  было   бы  просто  нелепо.  Впрочем,  она  была  недалека  от  истины.  Люба  была  женщиной,  познавшей  радости  жизни  и  лишиться  их  было для  неё  равноценно   уходу  из  жизни  вообще.  Была  у  неё,  конечно,  любовь,  но  теперь  она  о  ней  и  думать  не  смела. Какая  из  меня  теперь  подруга  жизни, - говорила  она  себе.  – Я  теперь  только  в  подруги смерти  гожусь. Ах,  мама,  мама,  как  ты  была  права, когда не  пускала  меня  на  фронт! При  таких  Любиных  мыслях,  договориться  с  ней  о  будущем  союзе  со  Славой   для  Марии  Ивановны  не  составило  труда.  Идею  эту  поддержали  главный  врач  и  директор Дома  инвалидов.  – А  что, - сказал  он, - и свадьбу  сыграем,  чтобы всё,  как  положено.  С  помещением,  правда,  сложнее  было,  но  Ляжкина  помогла  отыскать  закуток  для  молодых.  Свадьбу  назначили  на  третий  день,  сообщили  в район,  попросили  приехать  представителя  ЗАГСА.  Наварили  картошки,   в  деревне добыли  сало,  солёных  огурцов и кислой  капусты.  Лёха  раздобыл  самогон.   Свадьба  удалась.  Пышная рыжая дама  из  ЗАГСА  сказала  речь,  Мария  Ивановна и Ляжкина  повернули  молодожёнов лицом  друг  к  другу,  чтобы   поцеловались,  а  потом и  тот  и  другая приложились  губами  к  журналу  бракосочетаний. 
За  столом,  как  водится,  кричали  горько,  говорили  тосты  и  пели.  Дама  из  ЗАГСа  разомлела  и  стала  чесать  свои  груди.  Ляжкина  поняла,  чего  ей  надо  и,  подсев  к  ней,  заговорила о  любви.  -  Хороший  мужик  теперь  редкость, - сказала  она  в  покрасневшее  веснущатое  ухо опьяневшей  дамы. -  Поистрепались  за  войну,  да  и  мало  осталось-то  тех,  стоящих,  всех ведь  почти  повыбило.  Рыжая  обратила  к  ней  помутневший  взор  своих  зелёных  кошачьих  глаз и простонала: - Эх,  сейчас бы…  - Это  можно  устроить,  всё  в наших  руках, -  прошептала  ей  в  ухо  Ляжкина.  – Тут  в   одном  ските  один  отличный  мужик  есть, останетесь  довольны, хоть  он  и  самовар. Не  сомневайтесь, его  …  любых  рук и ног  стоит,  да и не  разболтает, я его  знаю. Рыжая  кивнула, икнула  и простонала: - Когда  выпью…     Ляжкина   пробралась  сквозь объятия  танцующих  пар    к  Марии  Ивановне   и  упросила  её  дать  на  время  ключ  от  скита,  где  находился  Кузнецов.  Опьяневшая  обладательница ключа  поняла,  для какой  цели  он  нужен  и  не  смогла  отказать.  Ляжкина  перетащила Кузнецова  в  мед. изолятор,  протёрла  спиртом  его  тело  и  оставила  на  топчане  голого,  укрыв  простынёй.  «Для  храбрости»  Ляжкина  влила  в  него  стакан  самогона.
 Рыжая  дама,  покачиваясь,  вошла  в  полутёмное  помещение  и,  подойдя  к  Кузнецову,  спросила  его: - Скучаете?  Кузнецову не  раз  приходилось  играть  эту  роль.  Его  и  раньше, по знакомству,  Ляжкина  подкладывала  изголодавшимся  дамочкам  из  центра,  так  что  ему  не  составило  труда  поддержать  светскую беседу  с  новой  искательницей  приключений.  Слово  за слово,  намёк  за намёком  и  вот  уже  рыжая бестия  оседлала нашего  затворника  и,  обдав  его  запахом  самогона  и  кислой  капусты,  засопела  и  застонала    над  ним,  как   обжора  над  лоханью. Она  полоскала  о  его  лицо  свои  мягкие  сиськи,  прижимала  его к  себе  так,  что  у  него  кости  трещали,  взваливала  его на  себя,  каталась  с  ним  по  полу,  потом  опять  бросала  его  на  топчан и снова  вскакивала  на  него,  пугая  его  воображение  быть  задушенным   нависшим  над  ним  телом.    Угомонилась  рыжая  бестия  на  рассвете.  Свернувшись  калачиком,  легла  внизу,  положив  голову  ему  на  живот,  а  прощаясь, сказала,  что любит  его  и непременно  приедет  к  нему ещё.  Потом, одевшись  и  встав  на  колени  перед  его  топчаном,  целуя  его  туловище,   сообщила,  что  знает  одного  человечка  из  ссыльных,  хирурга,  который  делает  чудеса. - Он  тебя   на  ноги  поставит, - сказала она, - я  уговорю  его  это  сделать,  хотя  ему  и  запретили  заниматься  врачебной   практикой.     Сергей  не  придал  значения  её  словам:  мало  ли  что  болтают  благодарные  женщины  в  обмен  на  доставленные  им  удовольствия, однако  поблагодарил  ночную  фею  за заботу  и  пообещал  не  забывать  её.  Вскоре,  после  того  как она  ушла,   его  отнесли  обратно   в  скит и заперли.  Тут  он  вспомнил  как  однажды,  когда  после  такого  «ночного  дежурства»  его  занесли  в  скит, Моисенко  спросил  Гуськова:  - Слухай,  Мыкола,  а  что  такое  «Без рук,  без  ног на  бабу скок»  Гуськов  задумался,  а  Моисенко продолжал: -  Кажут, шо  цэ  коромысло,  так  ты  не  верь,  то  ж  наш  Серёга -  ходок без  ног,  туды  его  в  качель.  Вспомнив  это,  Сергей  улыбнулся, потянулся лёг  на  бок  и   уснул  с  чувством  выполненного  долга.  - Жить  всё-таки  можно, - это  была  последняя  мысль,  промелькнувшая  в его   почти  совсем   уснувшем  мозгу.
Славу  с  Любой  от свадебного  стола  унесли  в  изолятор  и  положили  углом  на  два  топчана,  ножки  которых  связали,  чтобы  не  разъехались.   По  утрам  Лёха  выносил  Славу на  оправку  в  другое  помещение, а   потом  приходила  Мария  Ивановна и  обслуживала  Любу.  Молодые   были  счастливы  и  наловчились находить  друг  друга  без  посторонней  помощи.  Все  были  рады  за  них,  кроме  Лёхи.  Тот   матерился  и  грозился  удавить  обоих.  Однажды  утром  он  вошёл  в  изолятор  и  увидел  спящую  Любу  обнажённой.  Одеяло сползло  с неё  и  лежало на полу.  Лёха  взял полусонного  Славу и вынес  его  в  соседнюю  комнату.  Тот  решил, что на  оправку, и  молчал.  Негодяй  же,  вернувшись  в   изолятор,  снял  штаны,  трясясь  от  желания  и  прыгая  то  на  одной, то на  другой  ноге,  приступил к Любе.  Проснувшись, та  сразу  не  поняла,  что  происходит и,  увидев  Лёху,  даже  улыбнулась,  потянувшись.  Поняв  же,  стала  кричать  и  звать  на  помощь.  Услышав  крик  любимой  женщины,  Слава  тоже  стал  кричать и  звать  на  помощь.  Лёха  же,  сделав  своё  дело,  удалился,  а  уходя,  сказал,  чтобы  они  заткнулись,  а  то  им  будет  хуже.    Мария  Ивановна,  придя  в  изолятор,   сразу  всё  поняла,  но  не  знала  что  делать:  говорить  начальству  о  происшествии,   или  промолчать.  Слава  просил  сказать,  а  Люба  говорила не  надо,  что  она  не  хочет  позора. 
Мария  Ивановна  решила промолчать  и  поговорить с Лёхой. Вскоре  она  встретила  его,  остановила,  попыталась  поговорить  с  ним по  душам, но   разговора не получилось.  Лёха,  поняв,  что  она  от  него  хочет,  послал  её,  как  говориться, подальше,  грязно  оскорбил,  показав свою  осведомлённость  в  её  «добрых  делах»  в  ските и  заявил,  что  Любка его  сама  просила и  он  будет  делать  с  ней  всё,  что  захочет. Мария  Ивановна  чуть не задохнулась  от  возмущения.   Со  всей  очевидностью  она  поняла,  что  ничего от  него не  добьётся,  потому,  что  у  него  абсолютно  отсутствует  совесть.   Перед  ней  стоял  законченный  негодяй,  пользующийся  своей  незаменимостью  в  стенах  данного  заведения,  злой,  моральный  и  физический  урод. Она   махнула  на него  рукой, плюнула и  пошла  своей  дорогой. Ей  было  до  слёз  обидно  то,  что  этот  подонок  мог  так  оскорбить  её,  что  он  знает  её  тайну  и  пользуется   этим.  Мария  Ивановна  как  человек  совестливый  не   могла  не  чувствовать  себя  виноватой,  ведь  в ожидании    порочного   поступка,  тело  её  наполнялось  томительной  сладостью. Сладость  эту  она  презирала  и  даже  ненавидела,  но  поделать  с  ней  ничего не могла.

У  оставшихся  в  ските  мужиков  после  того  как  из  него  вынесли Славу  и  Любу,  настроение  стало  мерзким. А  тут  ещё  Лёха  с утра  расхвастался  тем,  как  отделал  Любу.  Иван  Иванович  стал просить, чтобы  ему  заткнули  уши, а Петров  рявкнул: «Заткнись, сволочь!» От  всего  этого,  от  утренней  сырости  и  весенней  тревоги   заныли  у  «самоваров»  ампутированные  члены,  пропал  аппетит  и  вообще  все  они  с  особой  болью  ощутили  весь  ужас  и  безнадежность  своего  положения.  Мимолётное  явление  женщины  со  всей  силой  естества  напомнило  им  о  существовании  другой,  доступной  миллионам  людей,  жизни,  о  тех  простых радостях,  которых  они,  замурованные  в  этом  склепе,  были  лишены.  Из-за  всего  этого  они  стали  более  нервными,  нетерпимыми и злыми.  Бывало  и  раньше  между  ними  вспыхивали  ссоры.  Они  матерились,  оскорбляя  и  проклиная  друг  друга, плевались,  норовя  попасть  в  лицо.  Потом  успокаивались,  просили  друг  у  друга  прощения  и  жизнь  начинала  возвращаться  в  свою  обычную  колею.  Они  понимали,  что  беспомощные  и  никому  не  нужные,   они  никогда  не  смогут  послать  всех  к  чёрту,  хлопнуть  дверью  и  уйти,  куда  глаза  глядят.  В  то  утро  всё  началось,  как  обычная  ссора.  Гуськов  и  Чиж  заспорили  о  достоинствах  флота  и  пехоты.  Никто даже  не  обратил  внимание  на то, с  чего это  у  них  началось.  Споры  на  подобные  темы  не  редко  возникали  и  раньше и всё  кончалось  более  или  менее   нормально,  но  теперь, выбитый  из  колеи  исчезновением  Любы Гуськов   не  мог  совладать  с  собой  и  всё  больше  и  больше  нападал  на  Чижа,  который   уступал  ему  в  агрессивности,  но  не  в  злобе.  Оскорблений,  угроз    и  плевков   оказалось недостаточно  для  того, чтобы  висевшие  по  соседству  мужчины  могли  излить  друг  на  друга  всю  желчь.  Гуськов и Чиж  стали  раскачиваться  и  стараться  ударить  друг  друга  головами,  а  потом  и  укусить.  Попытки  эти  увенчались  успехом  и  люди,  совсем  ещё  недавно  считавшие  себя  товарищами  по несчастью,  готовы  были  загрызть  друг  друга.  Они  не  обращали  внимания  на  крики  окружающих,  только  злобно  хрипели  и  лязгали  зубами.  По  лицам  их  текла  кровь  и  капала  на  пол.  В  конце  концов,  они  почти  одновременно  сорвались  со  своих  парашютов  и  упали.  Оказавшись  на  полу  и  разбив  при  этом  головы  они  стали  сползаться  чтобы  продолжить  борьбу. Когда  же,  наконец,  сползли,  долго  пытались  перегрызть  друг  другу  глотки.  Не  в  силах  остановить  драки  те,  кто  смог,  стали  писать  на  них,  чтобы  хоть  как-то  охладить  их  пыл.  В  конце  концов,  враги  выдохлись  и,  откинувшись  на спину,  хрипели,   матерясь  и  кусая   воротники  своих  халатов. Потом  они  и  этим  утомились,  и   устав,   уставились  глазами  в  потолок.

Слава  весь  день лежал с  закрытыми  глазами,  от  которых  к  ушам  пролегли  следы  его  слезинок.  Он  отказывался от  еды,  сколько  ни уговаривала  его  Мария  Ивановна  съесть  «хоть  ложечку», и  молчал.  Голубое   небо,  которое  только   что  сияло  над ним  огнями  любви  и  ласки,  померкло  и  затянулось   грязной  тучей,  ещё  более  тёмной  и  грязной,  чем  та,  что  стояла  над    скитом  до  того  как  в  нём  появилась  Люба. Люба  тоже  переживала  случившееся.  Она   понимала,  что  больше  никогда  между  ней  и  Славой  не  будет  тех   светлых человеческих  отношений,  которые  были  до  этого.  Призрак  общения  её   с  этой  грязью  навсегда  будет  стоять  между  ними.  Однако,  самым  неожиданным  и  неприятным  стало  для  неё  то,  что  она  почувствовала  тягу  к  этому  уроду,  её  влекло  к  его  грубому  и  властному  отношению  к  ней,  к  его  сильным  рукам   и   хищному  темпераменту.  Утром  она  почувствовала,  что  ждёт  его  и  когда  он  вынес  Славу  из  комнаты, даже  не  стала  кричала.  Близости  между  молодожёнами  не  стало.  Однажды  Слава  спросил  Лёху,  за  что  он  так  его  обижает,  на  что  тот  ответил: - А  что я тебя бесплатно  должен срать носить?   

В следующую  ночь  Люба  неожиданно для  себя   проснулась,  ей  показалось,  что  что-то  скрипит  или  кто-то  храпит.  Она  думала,  что  Слава,  но  его  рядом  не  было.  Она  посмотрела,  повернувшись на бок,   вниз  и  увидела,  что  Слава   лежит  на  полу,  а  горло  его  на  перекладине  табуретки.  Она  закричала,  скатилась  с  топчана, подползла  к  Славе и стала  тащить  его  зубами  за  ворот  рубашки.   Голова  его,  как  бильярдный  шар,    стукнулась  о  кафель.  Она  стала  целовать  его,  умоляла  простить  и  плакала.  Он  пришёл  в  себя,  понял,   что  она  спасла  его,  и  тоже  заплакал.  Утром  они  решили  расстаться.  Место  для  Любы  было  уже  готово.
В  ските  после  возвращения  Славы  у  многих  отлегло  от  сердца:  мужики  увидали  разбитые  мечты  их  молодого  друга,  укрепились  в  мыслях  о  призрачности  и  невозможности  земного счастья,  продажности  баб  и понемногу  успокоились.   

Аграфена  Грушина  забежала  к  Марии  Ивановне,  как  всегда,  на  минутку   и  проболтала  целый  час.  А  разговор  их  был  о   том,  что  в  деревне  есть  добрые  люди,  готовые  взять  себе  какого-нибудь  «самовара»  на  кормление и уход. Вроде  для  того,  чтобы  таким  путём  грехи  свои  перед  богом  замаливать.  Марию   Ивановну  это  сообщение  очень  взволновало. Последние  дни  она  не  находила себе  места  из-за  чувства  вины  перед  Славой,   проклинала  Лёху  и  очень  недовольна  была  этой  вертихвосткой  Любкой.   Она  не  могла  понять,  как  могла  она  променять  такого  парня,  как  Слава,  на  этого  поддонка  и  урода.    А   Аграфена  рисовала  перед  ней  райские  условия  для  её  «самовара»   в  деревне.  И    питание-то  не  сравнить,  и  уход,  да  и  девки  молодые,  незамужние  есть,  авось  и  пара  ему  найдётся.  Мария  Ивановна,  постоянно стремящееся  делать  людям  добро  и  испытывающая  чувство  вины  перед  Славой,  ухватилась  за  это  предложение  и  сказала  подруге,  что  такой  человек  у  неё  есть,   и  она  поможет  устроить  его  в  хорошую  семью.  Аграфена  же, тише  обычного, сказала:  - Только  сделать  это  надо   по-тихому,  не  официально. Сама  же  знаешь,  как  у  нас  всё.  Бумажками,  комиссиями  да  налогами  замучают.  Люди  сами  будут  не  рады  тому,  что  доброе  дело  делают.  От  этих  слов  у  Марии  Ивановны  аж   сердце  упало:  - Вот  тебе  и  сделала  доброе  дело,  -  подумала  она,  а  Аграфене  сказала: - Как  же  это,  что ж,  его  красть  придётся?  -  Зачем  же  красть? – удивилась Аграфена, -  просто  взять  и  перенести  в  другое  место,  где  ему  лучше.  С  его  же  согласия  всё  будет  делаться,  а  он  ведь  тут  не  арестованный.  Хочет -  живёт,  не  хочет  - ушёл.  Мария  Ивановна  почувствовала,  как  у  неё  в   голове  всё  перепуталось.  С  одной  стороны  начальство, ключ  и  материальное  обеспечение  контингента,  с  другой -  желание  человека,  лучшая  жизнь  для  него  и  сэкономленные  Домом  инвалидов  средства. Мария  Ивановна  не  сказала  Аграфене  ни  «да»,  ни  «нет»,  а  казала, что  подумает,  да и  с  человеком  переговорит.  Нельзя  же  без его  согласия. -  А  что  за  человек? -  на  всякий  случай  поинтересовалась  Грушина.  – Да  Слава, ты ж  его  знаешь, я  тебе  про  него  сколько  раз  говорила,  красивый  такой,  хороший.  И  Мария  Ивановна  рассказала  подруге  о  последних  событиях  и  постигшем  Славу  ударе  судьбы.   Обо  всём  этом  Грушина  в  тот  же  день  рассказала  старику  Морозову  и  его  внучке.  Рассказ  этот  пришёлся  как  нельзя  более  кстати.  Старик  Морозов  затевал создание  нового  толка  в  скопичестве.  Ему  хотелось  внести  в него  культ  бога живого,  лишённого  греховных  деталей.    Судя  по  рассказам  Грушиной,  Слава  прекрасно  подходил  на  это  место, а  его разочарование в  любимой   женщине  только  облегчало   достижение  намеченной  им  цели.
Дед и внучка  решили  отрядить  на  это  дело  Матвея  Шкилёва  и  его  приятеля,  ходившего  в   военной  форме. В  деревне  наступала  весна  и  сделать  дело  надо  было  до  весенней  распутицы,  поскольку  им   после  этого  предстояла  довольно  дальняя  дорога.

Сестра-хозяйка  Ляжкина   к  этому  времени переспала  со  всем  контингентом  общего  и  значительной  частью  психиатрического  отделений  Дома  инвалидов.  Достойного  кандидата  на место  любовника  (если  не  считать  Сергея  Кузнецова)  она себе  не  нашла,  но  Сергей  был  «самоваром»,  а  потому,  как  она  считала,  не  мог  справно  исполнять  столь  ответственный  пост.  Об  остальных  она  и  слышать  не  хотела:  мало того, что  от  них  толку  мало,  так они  ещё  постоянно  у  неё  спиртное  клянчут: - Александровна,  купи  четвертинку,  - Дорогая,  поднеси  стопаря. -  Любимая,  налей  стаканчик  и  пр. И  вот  однажды,  разочарованная  и  томящаяся,  она  положила  глаз  на  Митю.  – А  что,  говорила  она  себе,  он  здоровый,  бабами  не  испорченный, а,  следовательно,  не  заразный,  болтать не  будет,  поскольку  говорить  не  умеет,  да  и  на  водку  просить не  будет,  поскольку  не  пьёт.  К  тому  же,  он  послушный:  что  скажу,  то и будет  делать.  С  того  дня  стала  Ляжкина  оказывать  Мите  знаки  внимания:  то  улыбнётся  ему,  то  угостит  чем-нибудь,  а  то  пройдётся   перед  ним,  виляя  задом, да  ещё  нагнётся  до  земли  что-нибудь  поднимая.  Однако  Митя  эти  её   подвиги  не  оценил.  Он  лишь  выполнял  её  указания:  поднимал,  подносил,  переносил  всё,  что  она  ему  велела.   Поняв  его  психологию,  сестра-хозяйка  решила  действовать  прямо.  Однажды  летом  она  велела  ему  зайти  на  бельевой  склад,  предварительно  отослав  кастеляншу Клаву  по  делам  в город.  Ещё  утром  она  высчитала,  что  сегодня  она  не  может  забеременеть,  а  потому  была,  как  говориться,  во  всеоружии.  Скинув одежду,  она  накинула  на  голое  тело  белый  халат,  забыв  его  застегнуть,  и  когда  Митя  вошёл,   предстала  перед  ним  во  всём  своём  великолепии.  Ляжкина,  мягко  говоря,   не отличалась  особой  красотой,  однако, что  касается  прелестей  её  тела,  фигуры,  то вряд  ли  у  неё  нашлась  бы   достойная  конкурентка  в  районе и не только. Женщины,  подобные  Ляжкиной,  с  удовольствием   одевали бы паранджу  на  голое  тело, жаль  только,  что  моды  такой  не  существует.  В  своих  расчётах  она  не  ошиблась,  вид  её произвёл  сильное  впечатление  на  неразвитый  Митин  мозг  и  он  потянулся  руками  к  тому  месту,  которым  умел  только  писать.    Кому-то может  показаться  странным,  что  на мозг  кота  или  кобеля,    не  уступавший  по  своим  размерам  мозгу  Мити,  вид  обнажённого  женского   тела  впечатления  не  производит, а  вот  на  Митю  произвёл. Тут,  наверное,  сказалась  не  только  сила  эстетического  воздействия,  но  и   причастность  Мити  к  роду  человеческому.  Поэтому  когда  Ляжкина  изобразила  испуг  и  упала  на  кучу  грязного  белья, закрыв  лицо  руками,  Митя  знал  что  делать.   Когда  кастелянша  вернулась  из  города,  она  застала  Ляжкину  лежащей   на  куче  грязного  белья  в  одном  халате.  На  вопрос  «Что  случилось?»  она  не  отвечала,  а   только  спрашивала: - Он ушёл?    Кто  «он»  кастелянша  Клава  понять  не  могла. 
На  следующий  день  она,  да и не только,  заметили,  что  у  Ляжкиной  изменилась  походка,  и  она  стала  как-будто  тише.  Теперь  она  перед  тем  как  куда-то  идти  спрашивала: - А где  Митя,  его  там  нет?  Митя  же стал  ходить  за  ней  по  пятам.  Другими  женщинами  он  не  интересовался,  поскольку,  надо  полагать,  считал  источником  наслаждения  не  женский  пол,  а  конкретно  сестру-хозяйку  Ляжкину.  В  присутствии  людей  он  вёл  себя  вполне  прилично,  но  горе  было  бедной  женщине,  если  она  попадалась  ему  в  роще  или  в  каком-нибудь  другом  уединённом  месте.  Здесь,  обнажившись,  он  нападал  на  неё  со  всей  страстью  юного  зверя. Оттащить  его  от  неё  ни  у  кого,  конечно,  сил  не  было,  да  и, честно  говоря,  желания,  даже  наоборот.  Однажды,  перед  тем  как  пройти  рощу,   она  попросила  Лёху  посмотреть,  нет  ли  в  ней   Мити.  Он  пообещал,  а  вместо  этого,  нашёл  Митю,  привёл в  рощу,  спрятал за  деревьями,  показав  известным  жестом  ему  его  ближайшую  перспективу,  а   сам  сообщил  Ляжкиной,  что  путь  свободен.  После  этого  она  к  нему  с  подобными  просьбами  не  обращалась. Начальство  сочувствовало  ей,  но  помочь  не  могло,  поскольку  считала,  что  она  сама  виновата, так как   развратила  Митю,  к  тому  же  он  был  незаменим,  как  работник,  и  в  отношении   других  жителей  монастыря и деревни  агрессии  не  проявлял.   Поэтому,  наверное,  когда   следователь  Орехов,  перед  отъездом  в  город,  услышал  дикий  вопль,  никто,  услышав его,  не  насторожился  и  не  побежал  никого  спасать.  Орехову  это  показалось  несколько  странным,  но  значения  он  этому  не придал, да  и  не  до  того  ему  тогда  было.
Теперь,  вернувшись в город  и  не  застав жену  дома,  он  испытал  какое-то неприятное  чувство,  похожее  на  обиду.  Она  ведь  знала,  что  я  приеду, - думал  он,  -  и  вместо  того  чтобы  встретить  меня  с  обедом,  ушла,  не  оставив  даже  записки. Куда?  Орехов  ждал  жену  весь  вечер, потом  ночь,  но  она  не  появлялась.  Не  пришла  она  домой  и  утром.  Соседи её не видели  и,  вообще, она  к  ним  не  заходила  и  ничего  передать  ему  не  просила.  Он  забежал  к  своим  родителям,  обегал   родственников,   знакомых,  но  всё  было  напрасно. Спасительная  мысль  каждого  мужа,  у которого  пропала  жена, «А  не  уехала  ли  она  к  маме?»  его  не  посетила,  поскольку  он  знал,  что  мама  её,  как  и  отец,  погибли  во  время  войны  и  ехать  ей  было  некуда.  Да и уехать  из их  города  не  так-то  легко.  Железной  дороги  нет,  а  взять  билет  на  самолёт  не  так-то  просто.  Он  и  это,   на  всякий  случай  проверил,  но  оказалось,  что  билет  на  самолёт  она  не  брала. В  милиции,  куда  он  на  всякий  случай  зашёл,    тоже   ничего  о  ней не  знали.  Во  всяком  случае  трупов  за  это  время  в  городе и его  окрестностях,  если  не  считать  трупов  пары  пьяниц,  обнаружено не  было,  в  больницу  гражданка  с  такой  фамилией  тоже  не  поступала.  Он  сидел  на  своём  стуле,  опустив  голову,  и  жалел  себя. По  лбу  его,  казалось,  как  сонная  осенняя  муха,  проползла  скучная,  безрадостная  мысль  о  бренности  и  нелепости  человеческого  существования.  Он стал рисовать свою  жизнь в  самых  мрачных  тонах,  не  считаясь  с  её реалиями.  И  получилось  такая  картина:   жил  на   свете  добрый,  хороший  человек,  которого  все  любили.  Но  вот  он  женился на  стерве,   которая  ему  постоянно  изменяла,  а  сама  закатывала  скандалы,  обвиняя  его  в  супружеской  неверности.  Однажды,  во   время  очередного  скандала,  когда  эта  стерва  дошла  до  рукоприкладства,  он  не  выдержал  и  убил   её.   И  вот  из  доброго,  хорошего  человека  он  превратился  в  арестанта  и  пропала  вся  его  жизнь  вместе   со  всеми  мечтами  и  планами.  – Неужели,  спрашивал  он  себя, - она  так  жестока,  что  может  сейчас  с  кем-то  наслаждаться  жизнью  и  смеяться  над  ним?  Если  так,  то  он  застрелит  её,  пусть  даже  его  самого за  это  расстреляют.   Однако  фантазии  фантазиями, - думал   Орехов, - но  надо же и рассуждать  здраво.  Сначала  он  попытался  подойти  к  случившемуся,  как  криминалист. - Дома  всё  в  порядке, - думал  он, - значит  нападения на квартиру  не  было  и  жена  покинула  квартиру самостоятельно,  в нормальном  состоянии,  во  всяком  случае,  не  убежала  из  неё,   бросив  всё. Об  этом  говорит  и  обстановка  в  квартире  и то,  что дверь в  ней  была  заперта. Это  раз.  Каких-либо  записок,  фотографий,  писем,  которые  говорили  бы  о  связи  жены  с  каким-нибудь  мужиком,  он  не  обнаружил,  хотя  и  перерыл  всё. Это  два.  Правда,  он  обратил  внимание  на  то,  что  жена,  уходя  из  дома,  одела  своё  любимое   платье,  которое  берегла.  Случайно  ли  это?  Зачем,  куда  она  пошла, к  кому?  На   улице  он  два  раза  чуть  не  кинулся  навстречу  женщинам,  показавшимся  ему  его  женой.  Разочарования,  которые  постигли  его  вслед  за  секундами  счастья,  чуть  не  свели  его  с  ума.  Прокурор  Евсюнин,   к  которому  он  зашёл  для  того  чтобы  отчитаться  о  результатах  командировки,  как  мог,  его  успокаивал,  но  что  такое  слова  по  сравнению  с  фактом? – пустяк,  мелочь и  поэтому  прокурор,  понимая  это,  решил  разговором  о  деле  отвлечь  своего  подчинённого  от  страшных  мыслей.   Выслушав  рассказ  следователя,  он  спросил? –  А  задний  проход  у  трупа  ты  смотрел?  - Ну,  как, - замялся  Орехов,  специально  не  разглядывал,   необходимости  не  было,  поскольку  телесные  повреждения  в  этой  области  отсутствовали.  А  что?   - Да то,- ответил  прокурор, -  что,  может  быть,  у  них  конфликт  возник на фоне  педерастии.  Ну,  представь,  сидят  здоровые  молодые  мужики не первый  год  в  одиночке,  да  ещё  вдвоём  в  одной  корзине.  Ни  погулять,  ни  онанизмом  заняться  не  могут,  а  организм  требует  разрядки.   Что  им  делать?  - Орехов пожал  плечами,  и  в  голове  его  мелькнула  мыль  о  похотливости жены. - Она  могла  с  кем  угодно  на  улице  познакомиться  и  пойти  куда  угодно,  если  бы  приспичило,  решил  он,  вспоминая,  как  она  уводила  не  раз  его  с  работы  домой. Прокурор  же,  совсем  не кстати,  заговорил  о  гомосексуалистах.  Он  рассказал,  что  когда,  после  победы,  он   служил  в   Прокуратуре  оккупационных  войск  в  Германии,  то   узнал о  том,  что  в  этой  развитой  и просвещённой  стране  ещё  в  60-тые  годы  прошлого  века  страшно  развилась  пидерастия,  как  среди  штатских,  так   и  среди  военных.  Дошло  до  того,  что  гомосексуалисты  стали  устраивать  специальные  балы  своих  единомышленников,  а  вернее,  «единожопников»,  как  он  выразился.  Не  зря  же  Гитлер  разделался  с  вождём  штурмовиков  Ремом  и  его  парнями  не  только,  как  с  конкурентами,  но  и  как  с  гомосексуалистами.   - Балы  в  Европе  обычное  дело, - заметил  Орехов, - увлёкшись  разговором, - я  где-то  читал,  что в Англии  раньше  устраивались  балы  воров.  Правда,  их  устраивала  полиция  с  благотворительной  целью  для   того  чтобы  помочь  ворам  вернуться  к  нормальной  жизни.  Англичанам,  наверное,  было  стыдно  от  того,  что  французы  называют  их  ворами.  – Неужели? – удивился  прокурор,  с  чего  бы  это,  англичане  вроде  бы  народ  культурный.  -  Культурный-то  культурный,  да  на  большие  праздники  в  Париж  в  том  же  девятнадцатом  веке  съезжались  все  английские  воры,  чтобы  шарить  по  карманам  зевак,  толпящихся  на  какой-нибудь  площади, -  заметил  Орехов.  Наступила  пауза,  во  время которой  Орехов  спросил  себя: - О  чём  это  я, разве  мне  до  этого.  Мне  бежать  надо,  но  куда?  Как это  страшно  потерять  любимого  человека  и  не  знать,  что  с  этим  делать.  Более  того,  чувствовать,   что  за  спиной  над  тобой  посмеиваются:  жена к  любовнику  сбежала,  а  он  рогами  землю роет. Прокурор  не  дал  ему  возможности  углубиться  в  мрачные  мысли  и  спросил:  - Так  что  думаешь  делать  с  этим  Кузнецовым? – Думаю  направлять  в  суд  по  136-ой – ответил  Орехов.  Прокурор  задумался,  погнул  руками  линейку,  почесал  ею  за  ухом  и  сказал:  - На   последнем  совещании  представитель  Гулага  очень  возмущался  тем,  что  мы   шлём  ему  стариков,   детей  да  инвалидов,  а  ему  надо  план  выполнять,  а  не  богадельню  устраивать,  и секретарь  райкома  его  в  этом поддержал. – сказал прокурор,  ударив  линейкой  по  столу,  – представляю,  как  он  будет  материться,  когда  мы  ему  этот  «самовар»  преподнесём! -  Что  же  делать? -  спросил  Орехов.  – Делать? – повторил  прокурор. – Надо  бы  ему  психэкспертизу  провести,  да   и  оставить на  принудительном  лечении  в  том  же  учреждении.  Куда  он  денется.   На том  и  порешили.  Надо  было  только  Кузнецова   доставить  в  областной  центр  на  экспертизу,  а  это  было не просто.

Поезд,  с  которого  спрыгнул  Дмитрий  Морозов,  несмотря  на  выстрелы  конвоиров,  не  остановился.  Он  продолжал  гнать  полным ходом  до  разъезда,  находящегося  в  двух - трёх  километрах  от  моста.  Дмитрий,  зайдя  в  охотничий  домик,  осмотрелся,  и,  увидев  печку  с  рядом  лежащими  сухим  дровами,  успокоился: всё  складывалось для  него  как  нельзя  лучше.
В  охотничьем  домике,  куда  зашёл  Дмитрий,  было  всё,  что  нужно,  чтобы  сохранить  жизнь:  печка, спички, дрова,  одежда, еда. Он  развёл  в  печке  огонь  и,    не  дожидаясь  пока  она  согреет  помещение,  разделся,  растёр  тело  вафельным  полотенцем,  висевшим у  рукомойника,  и оделся  в  новую  одежду.  Потом  порылся  в  шкафчике,  отыскал  в  нём  какую-то  крупу и,  набрав  на  улице  ведро  снега,   поставил  его  на  печку.  После  еды  его  потянуло в сон, и он  уснул  розовым  сном  младенца.  Сквозь  сон  он  слышал  какие-то  шаги,  ему  казалось,  что  кто-то  отряхивает  валенки  от  снега,  ходит  по комнате,  но  проснуться   не  мог:  усталость  и  нервное  напряжение  последних  дней  сковали  его,  как  тяжёлые  доспехи,  вес  которых  он  был  не  в  силах  преодолеть.  Когда   же,  наконец,  он  смог  пошевелиться  и  застонать,  то  услышал  сказанные,  как  он  понял  в  его  адрес,  слова: -  Не  годится   спать  при  горящей  печке.  Эдак  можно совсем сгореть.  Дмитрий  каким-то  чужим,  хриплым  голосом  стал  извиняться  и  объяснять,  что очень  устал  и  не  смог  справиться со  сном.  Рядом  с собой  он  увидел  собаку,  по  всей  вероятности,  помесь  лайки с овчаркой. Тщательно  обнюхав   его,  она  села  у ног  хозяина, сидевшего на табурете,  и  бросала на  Дмитрия  время  от  времени недобрые  взгляды.  Он  же  старался не  смотреть  ей  в  глаза,  а  на  человека  старался смотреть  так, как  учили  немцы, чтобы  не  было  видно,  что  он нарочно на него  смотрит. Это был вполне  равнодушный взгляд.  В разговоре  с незнакомцем   он  не  стал  отрицать  того,  что  это  он  бежал  с  поезда,  и того,  что это  его  теперь  разыскивают  вохровцы.  Отрицать  это  было  без  толку – человек  всё равно  бы  ему  не  поверил.  Единственное,  что  он  скрыл, так  это  то, за  что  получил срок.  Сказал,  что  за  анекдот.  Оба  они  понимали,  что  встреча  их  может  быть   чревата  самыми  мрачными  и,  увы,  не  человеколюбивыми  последствиями.  Дмитрий  не  мог  быть  уверен  в том,  что  незнакомец  не  выдаст  его,  а  тот,  в  свою  очередь,  опасался  за  свою  жизнь, т.к. понимал,  что  «беглому  каторжнику»  свидетели  не  нужны.  Поэтому  он  не  выпускал  из  рук  охотничье  ружьё.  Единственным,  что  удерживало  Дмитрия  от  кровавой  развязки,  была его  надежда  добыть  через  этого  человека  хоть  какие-нибудь  документы.  Он  об  этом ему  так и  сказал.   Незнакомец  долго  молчал,  поправляя правой  рукой  дрова  в  печке, а  левой  держа  ружьё,  а  потом,  махнув  рукой,  сказал:  - Дам  я  тебе  документы.  Тут,  в  тайге,    о  прошлом  годе  я  одного  мужика  нашёл.  Замёрз  он что  ли,  или  так  помер, - не  знаю. Только  когда  я   его  нашёл,  то  обыскал  его  одёжу  и  документы  взял,  на  всякий  случай. Думал  в  милицию  отдать,  да не  отдал,  видно  милиции не  до  них  было,  ну, а мне тем  более.  Так  они  у меня  и  остались.  Ты  посиди  здесь  маненько,  а  я  их  тебе  с  Рексом  пришлю,  они  у  меня  хранятся  в  другом  месте.  С  этими  словами  незнакомец  встал  и,  не  сводя  глаз  с    Дмитрия,  направился  к  выходу. У  двери  он  остановился  и  хитро  прищурившись  сказал: - Расскажи  анекдот-то  этот,  за  который  тебя…   Дмитрий  вздохнул  и  ответил: -  Я  тот   анекдот,  как  только  мне  срок  объявили,  сразу  забыл,  должно  быть  с  непривычки. Ну,  если  вспомню,  расскажу.  Когда  человек ушёл,  Дмитрий  никакого анекдота  вспоминать,  конечно,  не  стал, а  вспомнил  почему-то,  как  немцы учили  его  пользоваться  партизанскими  методами,  а  именно:  делать засады  и  при  этом   не разговаривать,  а  объясняться  знаками, врага  подпускать   поближе и только  тогда стрелять  в  него, стараться  сначала уничтожать командира отряда и политрука,  которые обычно  шли  впереди  отряда и т.д.   Это  он не  забыл. Ему,  вообще, всё  плохое  с  детства  прилипало  на  всю  жизнь.
 Утром  он услышал,  как кто-то  скребётся  когтями  в  дверь и   скулит, и понял,  что  это  Рекс.  За  ошейником  у  него  он  увидел  паспорт.  В  благодарность  он  потрепал  Рекса  за  ухом  и отпустил.   Лицо  на  фотографии  в  паспорте  чем-то  походило  на  его  собственное,  разве  что  было  покруглее,  да  волос  на  голове  побольше,  одним  словом,  не  зэковским  было  это  лицо.    Но  что  бы  там  ни  было,  выбирать  ему  было  не  из  чего.  Теперь  он  должен  был  навсегда  запомнить  и  зарубить  на  своём  носу,  что  он  теперь  не  Дмитрий  Дмитриевич   Морозов,  а    Фёдор  Елизарьевич  Голубев  1921 года  рождения,  уроженец  города  Лысьвы  Пермской  области.  Переночевав  в   охотничьей   избушке,  Фёдор  Голубев  отправился  в  путь. 

В  деревне  дед  его,  Морозов,  готовил  «обретение  бога  живаго»  Шкилёв,  во  исполнение   воли  «святого  старца»  вместе  со  своим  приятелем,  носившим  военную  форму,  приобретённую  им  на  барахолке,  зашли  как-то  утром в  кит,  который  днём  не  запирался и не  охранялся,  поздоровались с  контингентом»  и   объявили,  что  явились  за  Славой,  чтобы  перевести  его,  согласно  распоряжению  Облздрава,  в  госпиталь  для  прохождения  специального  лечения.   Какого  и  от  чего,  правда,  не  сказали.  Сообщением  этим  они  очень  расстроили  Гуськова  и  Ивана  Ивановича,  которые  особенно  любили  Славу.  Они  даже  потребовали  предъявить  им  документ,  на  основании  которого  они  забирают  Славу.  Шкилёв  на   это  ответил,  что  документ  передан  директору  Дома  Инвалидов  товарищу    Гырымову,   с  которым  перевод  их  товарища  согласован.  После  этого,  обратившись  к  своему    напарнику  в  военной  форме,  сказал: - Преступайте,  товарищ  лейтенант.  Тот  подошёл  к   Славе, освободил  его  от  «парашюта»  и  понёс  к  выходу.  Увидев  это,  Гуськов  и  Иван  Иванович  стали  так  кричать,  что  «товарищ  лейтенант»  остолбенел  и  не  мог  двигаться.   По  требованию  палаты  ему  пришлось  поднести  Славу  к  Ивану  Ивановичу,  Гуськову,  а  так же к Чижу и  «Партзану»  для  того,  чтобы  они  могли    поцеловать  его.  Все,  кроме  Чижа  и  Федьки,   плакали.  Сам  же  Слава  был  в  каком-то  отвлечённом  состоянии  и  создавалось  впечатление,  что  он  не  понимает  что  с  ним  происходит.   Когда  Мария  Ивановна  не  обнаружила Славы,  она  всё  поняла,  однако  сообщить  о  своей  догадке  начальству  не  решилась,  надеясь  в  душе,  что  Славе  у добрых  людей  будет  лучше.  Директор  приказал  немедленно  приступить  к  поиску  пропавшего,  а  Митя,  узнав  об  исчезновении Славы,  заревел,  вырвал  из  стены  скита  два  кирпича  и забросил  их  за  монастырскую  стену.

      В  кабинете  Сталина,  похожем, как  две  капли  воды,  на  известную картину,   было  тихо.  Его  хозяин  склонился  над  столом,  почёсывая  иногда  правую  ногу  повыше  щиколотки.  На  столе перед  ним  лежали  стихи.  Они  предназначались  для  исполнения  контаты-ноктюрна  «Кремль  ночью»   «Не  слыхать  дневного  гула  стынет  камень плит. Тишина,  Москва  уснула,  только  Кремль  не  спи»  -  Не  плохо, - подумал Сталин,  хотя и несправедливо. «Весь  огнями  изукрашен  стрельчатый  фасад,  девятнадцать  башен  грозных  время  сторожат»  Сталин  задумался: - Какими  это  огнями  фасад  изукрашен?   Освещён – другое  дело,  да  и  не  башни  время  сторожат,  наоборот  «девятнадцать  башен  грозных  время  бережёт» - так  будет  правильней. Вот  взял  бы  Гитлер  Москву  и  не  стало  бы этих  твоих  «грозных»  башен.   Следующая  фраза  Сталина  просто  возмутила. «Вдоль по  каменной  зубчатке ветер  босиком…»  он  даже  откинулся в своём  кресле.  – Что за  чушь,  почему это ветер  босиком, а  он  что  обычно в сапогах  бегает? А дальше « … то  опустится  к  царь-пушке  ядра  перечтёт…»  - Сколько  этих  ядер:  три,  четыре – чего  их  пересчитывать?  Ты  лучше  яйца  свои  «перечти»,  или  извилины,  может  каких  не  хватает – разозлился  Сталин.  Вот  бог  поэтов  послал!  И вот  такие меня  славят,  стараются,  хотят,  чтобы  я  их   заметил,  чтобы  им  премию  дали,  лизоблюды …  А  что  пишут? - Или  вот  такие  глупости,  или  слова  надоевшие, как «о Сталине  мудром,  родном и любимом…»   Слова,  конечно,  хорошие – слов  нет,  но  вдохновляют ли  они    народ,  доходят  ли  до  души  его?  Что-то  мне  не верится,  а  ведь  русским  нужен  вождь,  они  веками  при  царях  да  при  боге  жили.  Это не англичане  какие-нибудь.  На  этой  мысли  Сталина  прервал  секретарь,  сообщив,  что  пришёл  Лаврентий  Павлович  Берия.  - Пусть заходит, -  ответил Сталин. Когда  Берия  сел  около  его  стола,  Сталин  спросил  его: - Слушай,  Лаврентий,  ты  когда-нибудь  стихи  писал,  ну,  в  молодости  хотя  бы?  -  Стихи? – переспросил  Берия, - Кому?  Зачем? – А я  писал, - сказал Сталин,  - правда,  со  своими  стихами  не  лез  к  царю  и  не  думал получить за  них премию.  Мы  скромнее  были,  а  теперь  напишет  какой-нибудь  недоучка  о  том,  что  ветер  по  Москве  гуляет  босиком  и  думает,  что  он  поэт.  Да  ещё  за  то, что  славит  товарища  Сталина,  хочет  премию  получить.  Берия поинтересовался, что  за поэт.  Сталин назвал  фамилию.  Берия  блеснул  своим пенсне и сказал,  что  у  него  на  него  ничего  нет. А  Сталин  продолжал читать  просебя  текст про  себя  и  вдруг,  ударив  по столу  ладонью,   воскликнул: - Вах!  Ты  послушай, что  пишет: - «Кто-то, где-то  очень  глухо  прозвенел  в  ночи,  то  история-старуха  достаёт  ключи»  и   смотри, что  дальше: «Сразу  связку  вынимает  кованцев  больших и со  связкою  шагает  мимо  часовых» - Как  тебе  это  нравится, а? Берия  ухмыльнулся  про себя.  Он  что-то  слышал  про  эту  поэму,  но  не  это  заставило  его  ухмыльнутся,  а  то,  о  чём  он  не  решился   говорить  своему  шефу,  а  именно,  о  похабной  пародии  на  неё.  Были  там  такие  слова: «Раз  история-старуха к Сталину  зашла  и  невинностью  своею  хвастать  начала…/ Сталин  слушал,  ухмылялся,  трубку  закурил,  а  потом  старуху-врунью  за  ноги  схватил./  Заупрямилась  старуха: - Хоть  умри не  дам,  ну а Сталин  тащит  дуру  прямо  на  диван./ - Прокляну! – кричит  шалава,  - коль  войдёшь  в  меня/ И  убийцей, и тираном  назовут  тебя./ Будешь  партией  своею  ты  разоблачён/  И  словами  «Культ» и «Личность»  к   стенке  пригвождён./  Но  не верит  вождь  угрозам,  он  упрям  и  зол  и  на  голову  старухи  натянул  подол»  Заканчивалась  пародия  так: «И  хоть  обыщите  вы  весь  белый  свет/ Паскудней  историй  с  Истории  нет» Ну,  мог  ли  он  показать  это Сталину,  не  рискуя  своей  жизнью?  - Конечно,  нет  и  он  промолчал.  Сталин  же,  увлечённый  нелепым  текстом,  обращаясь  к  нему,  сказал: - А вот дальше,  слушай: «Прямо к Сталину в рабочий  кабинет  идёт. Подошла к нему,  взглянула,  строго вслух  произнесла: - Отдохнул бы хоть  немного,  встал  из-за  стола»  Прочитав  эти  слова,  Сталин  встал  из-за  стола  и  стал  ходить  туда-сюда  по  кабинету.  -  Эта  старая б…  меня  что,  на  пенсию  хочет  отправить?  Взглянув  искоса  на  Берию,  он  заметил  хищный  огонёк  в  его  глазах,  и  злые,  невесёлые мысли,  которые  и  раньше  не  давали  ему  покоя,  вновь  вернулись  к  нему. – Все  они (он  имел  в  виду  своё  ближайшее  окружение)  случись  что-нибудь,  предадут  меня. И Вячеслав, и  Клим, и  Лазарь, и  Гога,  и Никита,  и  этот  вот  Лаврентий  откажутся  от  него,  как  Пётр от Христа,   а  вот  какой-нибудь  Иван  из  Курска  его  не   предаст,  умрёт  за  него,  а  заодно  и  за  родину  и  выходит,  что  если  воспитать  в нём  любовь  к  нему, Сталину,  то  тем  самым  воспитается в  нём  патриотизм   и  он  Родину  не предаст. Эх,  был бы  Пушкин  жив,  он  бы  написал  о  нём,  не  то,  что  эти,  и,  обратившись  к  Берии,  казал: - Как  думаешь,  Лаврентий, Пушкин  написал  бы  поэму  о вожде  советского  народа?   - Если бы  не написал,  то  мы  бы  ему  подсказали  это  сделать.  Его можно  было  бы  в  какой-нибудь  санаторий  поместить.  Там  бы  он  стихи  писал  и  рядом с  ним  никаких  иностранцев,  вроде  Дантеса,  не было бы.  Для  Дантесов  у  нас  специальные  учреждения  есть.        -  Ты,  Лаврентий,  конечно, прав,  для  Дантесов  у  нас  учреждения  всегда  найдутся,  потому  что  их  много,  а  вот для  Пушиных  и  санатории  строим,  и  дачи  им  даём, и премии,  а написать  о  товарище  Сталине  поэму,  как  Пушкин  о  Петре  «Полтаву»  написал – не  могут.   Его бы,  конечно,  подправить  кое в чём  не  мешало. Ну,  вот,  возьми  ты  его  «Памятник» - «Я памятник  воздвиг  СЕБЕ  нерукотворный»  Ну, скажи,  Лаврентий, кто  сам  себе  памятники  ставит?  Памятники  ставят  потомки.  У  нас  бы  он  написал:  «Я  памятник  ТЕБЕ  воздвиг  нерукотворный»,  это  было  бы  естественно  и  с  политической  точки  зрения  своевременно.  А  наши  лизоблюды  и  такого  сочинить  не  могут.  Ну,  что  с  ними  делать?    Наказать - руки  отобьёшь,  вообще  писать  перестанут,  а  награждать  - не  за  что.  Тут  к  нему  явились Маленков,  Хрущёв  и  Щербаков,  которых  он  разрешил  впустить  в  кабинет.   В  ходе  разговоров,  не  имеющих  отношения  к  вопросам  государственного  управления  Сталин,  раскуривая  трубку,   обратился   к  Хрущёву: - Скажи,  Никита,  почему  в  стране  голод,  а  товарищ  Маленков  пополнел?  Хрущёв  замялся,  но  тут  же  нашёлся и сказал: - Он  не  пополнел,  Иосиф  Виссарионович, это он с голода  опух.  Все,  кроме  Маленкова  и  Сталина  засмеялись.  Правда,  Маленков  изобразил  на  своём  одутловатом  лице  кривую  улыбку.   Сталин  же,  обратившись  на  этот  раз  к Кагановичу,  сказал: - Лазарь,  я  слышал  тебе  из  Палестины  мацу  прислали,  а  ты  никого  не  угостил.  Каганович   стал  оправдываться,  говоря,  что  мацу  его  сестра  в  московской  синагоге  купила.  В это  время  вошёл  секретарь  с  подносом,  на   котором  стояли  стаканы  с  чаем  в  подстаканниках.  В  так  его  шагов  тихо  позвякивали  ложки.  Поставив  стаканы  на  длинный  стол,  секретарь  удалился.  Сталин  кивнул  в  сторону  двери  кабинета, в которую  вышел  секретарь,  и,  обращаясь  больше  всего  к  Кагановичу,  тихо   и  как-то  хитро,  сказал: - Обиделся.  У  него  недавно  брата  арестовали.  Что же  обижаться?  У  меня  тоже  кое-каких  родственников  арестовали.  Что  же  мне  теперь  тоже  обижаться?  И  на  кого?  На партию,  на  государство?  Все    его  в  этом  поддержали,  а   Хрущёв  сказал: - Сейчас  время  такое,  что  строгость  нужна.  На  Украине  народ  за  войну  разболтался,  отвык  работать  в  колхозной  упряжке.  Колхозы  и  совхозы  из-за  этого  план  не  выполняют.  Надо  меры  принимать.  -  Какие? – поинтересовался  Сталин.  – Простые, - ответил  Хрущёв,  те,  что  мы  в  29-ом  к  кулакам  применяли. Выселять  надо  саботажников и лодырей  куда  подальше,  чтобы  другим  неповадно  было  от  работы  отлынивать.  – Ну,  что ж,  мысль  правильная,  готовь  Указ  Никита.  Если на  Украине   эта  мера  себя  оправдает,  то  применим  её  и  в  других  местах.  Да,  за  время   войны  некоторые  наши  граждане,  оказавшиеся  на  территории, оккупированной  врагом, подверглись  тлетворному  влиянию враждебной  нам буржуазно-фашистской пропаганды,  они  забыли  нормы морали,  которыми должен руководствуется  в  своей  жизни  советский  человек.  Говоря  это,  Сталин  прохаживался  около  стола,  за которым  сидели  члены политбюро,  держа  в  руке  трубку,  и  движением   её  акцентировал внимание  слушателей  на  отдельных  словах.      Закончив  излагать,  он  обратился  к  собравшимся с обычным  в  такой  ситуации  вопросом: -  Какие  будут  предложения,  товарищи?  Среди  высказанных  Сталин  обратил  внимание  на  предложение  Щербакова, касающееся  мер  по  отношению  к  инвалидам,  среди  которых  не  мало  одиноких  и  нуждающихся  в  уходе. Главный  коммунист  Москвы,  кроме  того,  стал    жаловаться  на  то,  что  среди  инвалидов  есть  не  мало  таких,  которые  работать  не  хотят,  несмотря  на  то,  что  городская   партийная  организация  приняла  ряд  важных  и  неотложных  мер  для вовлечения  инвалидов  в  учёбу  и  трудовой  процесс.  Инвалиды,  пользуясь  предоставленными  им льготами, - отметил  Щербаков, - занимаются спекуляцией,  торговлей  краденого,  продажей  самогона,    они  постоянно пьянствуют  и  своим  видом  и  поведением  уродуют  лицо  столицы  нашей  родины.   В  конце   Щербаков  предложил  создать подальше от  Москвы  большой   центр,  в  котором  сосредоточить  подобных  лиц,  лишив  их  возможности  вернуться   назад.  Он  ещё  добавил,  что  для  этой  цели уже  используется  один  заброшенный  монастырь  на  Севере  и  опыт  такого  сосредоточения  инвалидов,  по  его  мнению,  себя  оправдал. – Ты  что же,  концентрационный  лагерь  предлагаешь создать  для  инвалидов?  - спросил,  прищурившись, Сталин. - Никак нет, Иосиф  Виссарионович, я предлагаю  создать  для  них  Дом  отдыха.  – И  для  тех,  кто при  немцах  работал?  Щербаков  побледнел. - Не  волнуйтесь,  товарищ  Щербаков, нет  таких  вопросов,  на которые  большевики  не  нашли  бы  ответ. Вот  я  слышал,  что  у  наших  юристов  есть  такой  вопрос:  засчитывать  или  не  засчитывать  в  трудовой  стаж  учителям  время  работы  на  оккупированной  территории?  Одни  считают,  что  надо,  потому  что  они  в  школах и  гимназиях,  которые  существовали при немцах  для  наших  детей,  учили  их  и  тем  самым  давали  образование будущим советским  людям.  Они  говорят,  что  все  эти  учителя  верили в нашу  победу.  Другие  считают,  что  учителя  эти  предатели,  что  они  учили  детей  для  работы  на  немцев,  воспитывали в них фашистские  взгляды,  а  о  победе  советских  войск над  фашизмом и не  думали.  Собравшиеся  заворчали,  запыхтели,  завозмущались,  а  Каганович  сказал: - Что это  за  юристы,  откуда  у  них  такие  взгляды?  Остальные  его  поддержали.  Поддержал  его и Сталин.  Заключил же  вождь  дискуссию так: - Инвалиды  войны не  могут  оставаться без  помощи  государства.  Мы  обязаны позаботиться  о  них  и  я  думаю, что  предложение  товарища  Щербакова  безусловно  правильное  и  своевременное,  а  что  касается  тех,  кто  запятнал  себя  сотрудничеством  с  фашистами, то  для  них  мы  дома отдыха  создавать  не будем,  несмотря на мнение  товарища  Щербакова.  Щербаков  открыл  рот, но  ничего  не  сказал.  Все  заулыбались,  а  Берия  похлопал  его  по  плечу  и  сказал: «Не  переживай, Саша,  у  нас  к  тебе  вопросов  пока  нет»  Через  неделю  Щербаков умер. Вопрос  же  об   открытии  «дома  отдыха – концлагеря»  для  инвалидов  остался  открытым.  Надо  было,  прежде  всего,  найти   для  него  место. 
           Просмотрев  этот  сон,  «Слепой»  снова  оказался   в  темноте.  Он  не  раз  видел  подобные  сны,  однако,  сколько не  старался,  не  мог  объяснить  себе,  почему  их  видел.
        Поезда  на  этом  повороте  снижали  скорость,  и  Дмитрий  рассчитывал  именно  здесь  забраться  в  товарный  вагон.  Сесть  надо  было  ночью,  стараясь,  чтобы  не заметили    сторожа.  Во  втором  часу  вдали  засветились  рельсы, и  стало  слышно  пыхтение  паровоза.  Дмитрий  лёг  около  рельсов.  Вскоре  они  стали  вздрагивать  и  грохот  железа  обрушился  на  его  голову.  Он  приподнялся  и  увидел  проплывающие  мимо  себя  закрытые   товарные  вагоны,  потом  пошли  платформы  с  лесом.  На  концах платформ  были  лесенки.  Надо  было  схватиться  за  одну  из  них, а  потом  повиснуть,  поджаться на руках,  запрокинуть  ноги  и  заползти по  лестнице  на  платформу.  Надо  было  решаться. Дмирий  прыгнул.  Лестница  больно  ударила  его  в  грудь,  перебив  дыхание,  но  он  не  выпустил  ступеньку из  рук,  хотя  ноги  его  ещё  тащились  по  гравию.  Он,  как  мог,  поджал  их  и  зацепившись  левой  рукой  за  вторую  ступеньку,  подтянулся,  оторвавшись  от  земли.  Взобравшись на площадку  долго  лежал,  слыша  стук  собственного  сердца.  Вдруг  услышал,  как  кто-то,  над  его  головой,  сказал: - Вставай,  оглох,  что  ли?  Дмитрий  поднял  голову  и  посмотрел  вверх.  Рядом  стоял  пожилой  вохровец,  державший  в  руках   карабин.  Он   медленно  встал,  отряхнул  одежду  и  тут  почувствовал  боль в  правой  ноге. Нога  была  до  крови  разодрана  о  гравий.  Вохровец  тоже  заметил  кровь  на   ноге   и  пожалел  Дмитрия. – Эх, парень, - сказал  он, - угораздило  тебя,  хорошо  ещё,  что  тебе  поезд  башку  не  отрезал,  – и полез  в  карман.  Оттуда   он  достал  платок  и протянул  его  Дмитрию.  Тот  взял его  и  стал  пытаться  перевязать  им  раны.   Делал он  это  крайне  неловко. Заметив  это,  вохровец   положил  карабин  на пол  и  стал  сам  делать  ему перевязку.  Дмитрий,  не  думая,  подчиняясь  одному  звериному  чувству,  сильно  ударил  склонившегося к его  ноге  старика,  который  от  удара отлетел  к  краю  площадки.  Дмитрий  сильно  ударил  его  кулаком  в лицо и тот  полетел  вниз  по  насыпи,  успев  оставить  в  памяти  Дмитрия  свой  испуганный  и  удивлённый  взгляд  широко  открытых  глаз.  Вслед  за  стариком  Дмитрий  выкинул  его  карабин.  Не  желая  оставаться  на  ветру,  бушевавшем на платформе,  он  решил  пробраться в  вагон.  Забравшись  на его  крышу,  он  нашёл  люк,  пролез  в него, зацепившись  за  край  руками,  повис  на  руках,   а  затем   прыгнул  в низ,  упав  на  мешки  с  чем-то  мягким. Мука,  наверное,  подумал  он.  Продырявив  один  из  них,  он  отсыпал  на  ладонь  содержимое.  Это  оказался  сахар.  Он  ел  его,  пока  не  надоело.  Хотелось  пить,  но  пить  было  нечего.  В  вагоне    было   темно.  Он  решил  потерпеть  до  утра  и  поспать.  Когда  проснулся,  в   люк  на  потолке  проникал  дневной   свет.  Он  осмотрелся.  К  его  удивлению  в  конце  вагона,  на  мешках,  лежал  человек.  – Сейчас  его  прирезать,  или  подождать? – подумал  Дмитрий  и  взял в руку  нож,  которым  разжился  в  охотничьем  домике.  Тут  он  заметил,  что  человек  проснулся  и  смотрит  на  него.    Оказалось,  что  это  служащий  какого-то  министерства  из  Москвы,  который   не  смог  достать  билет  на  поезд  и  теперь  добирался  домой   «на  перекладных»,  надеясь в Красноярске  пересесть  на  самолёт.  На  одной  из  станций  этот  служащий   сбегал  в  лавку  и  принёс  жратвы  и  пива.   Наконец-то  Дмитрий  смог  первый  раз  за  столько  лет отвести  душу  и  ощутить  вкус  давно  забытой  еды.  В  разговоре  служащий  поинтересовался  стариком-вохровцем,  пустившем  его  в  вагон,  на  что  Дмитрий,  зевнув и потянувшись,  сказал, что  старик,  наверное,  сменился. До  Красноярска,  как  он  понял  со  слов  служащего,  оставалось  ехать  ещё  сутки.  Дмитрий  понимал,  что  у  его  попутчика  есть  деньги,  которые  ему  так  нужны.  Не  пойдёт  же  он  где  попало  самородок  продавать.  Сначала  устроиться надо.  Когда  ночью  он  услышал  храп  соседа,  то  встал,  подошёл  к  нему  и всадил  нож в  горло.  Обыскал  его,  вынул из карманов  документы,  кошелёк с деньгами,  расчёску,  ключи, из  портфеля  - батон  колбасы,  пол буханки  хлеба,  штопор,  перочинный   нож,  соль,  завёрнутую  в  кусочек  газеты.  Труп  завалил вещами  и  лёг  спать.  Не  доезжая  Красноярска,  спрыгнул  с  поезда  и  пошёл  в  сторону  города.          
       
В  избе  Морозовых  всё  было  готово  к  отъезду.  Смазаны  дёгтем  колёса  телеги,  накормлены, «стоящие под  парами»,  как  сказал  Шкилёв,  лошади.  Славу  встретили  поклонами  до  земли,  посадили  за  стол,  подперев  подушками,  выставили  угощение:  варёную  картошку,  солёные  огурчики,  кусочек  мяса,  хлеб  ржаной,  масло  постное,  какая-то солёная рыба  и  то-то ещё,   чего  Слава  никогда  не  видел и не ел. Ел  он  всё  это,  конечно,  с  удовольствием,  но  торчащий  у  него  в  сердце  кол  не  позволял  ему  всему  этому  радоваться.  Вот  если бы  рядом  сидела  Люба,   было   бы  другое  дело.  Какое  счастье    было  видеть  её,  видеть,  как  она  тоже  радуется  угощению  и  радушию  хозяев. Как  было  бы  здорово,  если  бы  хозяева  и  её  взяли  к  себе,  и  мы  бы  с  ней  здесь  жили. И  не  было  бы  никакого  Лёхи, привычной  вони,  холодных  казённых  стен.         

Утром  Аграфена Грушина,  вставив  голые  ноги  в  стоявшие  в  сенях  валенки,  взяв  коромысло  и  два  ведра,   отправилась  за  водой.  Подойдя к колодцу,  она  отвалила  деревянную   дверцу  над  ним,  сняла с крючка  цилиндрическое цинковое ведро  и  отпустила  его,  придерживая  рукой  гладкое  тело  барабана,  с  которого  всё  быстрее  и  быстрее  сходила  цепь,  увлекаемая  ведром.  Гаркнув  что-нибудь  в  эту  тёмную  таинственную  бездну,  пахнущую  сыростью,  можно было  услышать  эхо.   Дойдя  до  середины,  ведро  ударилось  о  стенку  и  полетело  дальше,  пока  не  достигло  воды.  Здесь оно  перевернулось и вверх  дном ушло  под  воду.  Почувствовав это,  Аграфена  схватилась  за ручку  и  стала  медленно  вертеть  её, поднимая ведро.  Когда  ведро  появилось  у  края  колодца,  качая  серое  небо  на   поверхности  ледяной,  как  полюс,  воды,  Аграфена потянула  его к  себе,  вытащила из  колодца  и  стала  переливать  воду  в  своё  ведро.  После  воды  из  ведра  выпали  красные  коралловые  бусы.  Аграфена,  принеся  воду  домой,  сразу,  перед  зеркалом,  одела  бусы  и  стала вертеться  до  тех  пор,  пока  окончательно  себе не понравилась.   Однако,  из  головы  у  неё  не  выходила  одна  мысль:  откуда в колодце  могли  оказаться  такие  бусы,  когда  в  деревне  ни  у  кого  таких   не  было.  Решила  спросить у  Марии  Ивановны,  может  быть  такие  были  у  кого-нибудь в  Доме  инвалидов. 

В  этот  же  день  Орехов  тоже  собрался  с  утра  в  Дом  инвалидов.  К  этому  его  обязывало  указание  начальства  о  проведении  Кузнецову  судебно-психиатрической  экспертизы.  Доехав  до  монастыря,  он   вышел  из  машины  у  его  ворот  и  направился  в  контору.  По  дороге  он  встретил  женщину,  на  шее  которой,  как  капельки  свежей  крови   аллели  на  солнце  бусы  его  жены.  Орехов  сначала  остолбенел,  потом  кинулся  к  женщине, не на шутку  её  испугав. -  Откуда   у  Вас  эти  бусы?  - чуть ли не  закричал  он.  -  Тебе  то  что? – ответила  женщина.  – Мне  это  очень  надо  знать! – воскликнул  Орехов. – Сегодня  из  колодца  вытащила, - слегка смутившись,  сказала  женщина.  Орехов,  потащив  за  собой  женщину, кинулся  к  колодцу.  Вскоре,  узнав  об  этом,  подошли к колодцу  ещё  несколько  деревенских.  Принесли  фонарь,  долго  светили  пока,  наконец,  Орехов  не  увидел  торчащую  из  воды  ручку.  Он  сразу  понял,  что  это  ручка  его  жены.  Когда  труп,  наконец,  достали  из воды  и  уложили  на  снег,  ужас  охватил,  стоявших у  колодца  людей.  У  женщины  было  разорвано  горло,  как-будто  его  грыз волк.  Когда  труп  осматривали  в  морге,  то  выяснилось,  что  на  нём  нет  нижнего  белья,  вернее  трусов и трико,  а на  безымянном  пальчике  левой  руки - перстенёчка  с  синим  камушком.  – Леночка,  Леночка,  ну  зачем  ты  только  приехала  за  мной,  ведь  я  был  бы  уже  вечером  дома! -  повторял  про себя  Орехов  в  морге  и  в   санитарной  машине  Дома  инвалидов   когда  вёз  в  город  труп  жены  и  живого  Кузнецова.  Мысли  его  путались  и  рвались.  Он  проклинал  себя   за  то,  что  подозревал   жену  в   измене,  за  о,  что ругал  её  последними  словами,  когда  она  исчезла.   Теперь  у  него  не  было  сомнений  в   её  искренности  и  верности.  – Она,  конечно,  в  монастырь  ко   мне  приехала,   соскучилась, в  этом  не  может  быть  сомнения, - думал  он  и  тут  вспомнил  этот  страшный,  нечеловеческий  крик.  – Неужели  это  она?  А  я,  тупица,  стоял  и  о  какой-то  ерунде  думал,  и  не  спас  её. Она,  конечно,  заблудилась  и  на  неё  напал  этот,  тот  самый,  который  загрыз  Мамина.  Значит  Мамина  не  Кузнецов  загрыз,  а  я  везу  его  на  экспертизу.  Для  чего?   Был  бы  он  с  ногами,  его  можно  было  бы  из  машины   высадить и пусть  идёт  на  все  четыре  сторон.  А  что  с  ним  делать  теперь?   Да если  бы  не  пошёл  по  пути  наименьшего  сопротивления,  то,  может  быть,  нашёл  этого  выродка  и  он  бы   не  убил  её.  А  я,  халтурщик  проклятый,  старался побыстрее   отделаться,  чтобы  домой  поскорей  вернуться. Мне не до  работы  было – вот  бог и наказал.  Так  мне  и  надо.   Когда,  наконец,  добрались  к  вечеру  до  города,  труп  отдали в морг,  а  Кузнецова  Орехов  отвёз  к  себе  домой.  Скудный  холостяцкий  ужин  и  бутылка  самогона – это  всё,  что  Орехов  мог  предложить  своему  подследственному.   
Они  проговорили  всю  ночь.  Больше  говорил  Кузнецов. После   монастырского  каземата,  с  его  холодом  и  мраком  обычная  комната,  сохранившая  запах  женщины  и  созданный  ею  уют,   согревала  ему  душу  и  позволяла  почувствовать  себя  человеком.
Орехов,  из  деликатности,   решил  не  касаться  в  разговоре  убийства  в  ските,  а  Кузнецов,  естественно, на  этом не настаивал.  Ему  достаточно  опротивел  и  этот  скит,  и  заброшенный  монастырь  и  сама  память  о  нём. Согретый  едой  и  выпивкой,  домашним  уютом  и  человеческим  к  себе  отношением  он  отдался  задушевной  беседе,  той  беседе,  в  которой   люди  не  ищут  интереса,  не  боятся  лишнего слова  и  не  ограничивают  себя  во  времени.  Орехов  же  смотрел  на  Кузнецова  сквозь  пелену своего  горя,  но  постепенно,  незаметно,  приобщался  к  беседе.
«Рассказ  Сергея Кузнецова  о  бегстве от немцев  из  Белгородского  госпиталя  в  марте  1943  года»
  Когда  мы сдали  Харьков,  в  Белгороде  началась  паника.  Если  вы  бывали  в  тех  краях,  то  знаете,  что  от  Харькова  до  Белгорода  всего  час  езды  на  поезде.  О  приближении  немцев  начальство  знало,  однако  никаких  мер   для  эвакуации  из  города   гражданских  лиц  не принимало. Я  тогда  лежал  в  госпитале,  где  мне,  в  связи  с  ранением,   ампутировали  левую  руку.  В  ночь  на  9  марта  кто-то  в  штабе  фронта  заметил  движущуюся  в  сторону  города  колонну  немецких  танков.  На  следующее  утро  в  городе  не  осталось  ни  одного  партийного  и  советского  служащего.  Все  сбежали.  В  девять  утра началась  бомбёжка   и  население  города  тоже побежало,  кто  куда.  Основная его  часть  двинулась  пешим  порядком  по  дороге  к  Новому  Осколу.  Колонна  беженцев  растянулась  вдоль  шоссе  на  несколько  километров.  В  колонне  находились  и  бывшие  заключённые.  Они  оказались  на  свободе,  поскольку  охранники  покинула  город  и  всех  их  выпустили.    Часть  заключённых,  сидевшая  за  сотрудничество  с  оккупантами: старосты,  полицаи,  правда,   осталась.  Не  идти же  им  было со  всеми,  чтобы  угодить  в  новую  тюрьму.  Начальство    нашего  госпиталя  сбежало  из  города  одним  из  первых.  Что  нам  было  делать,  не  оставаться  же  для  того  чтобы  фашисты  прикончили.  Решили  идти  вместе  со  всеми.  И  вот,  представьте  себе,  сотни  раненых  людей,  кто в чём,  многие  без  обуви,  перевязанные окровавленными  бинтами,  ослабевшие  от  ран  и  болезней,  плетутся по грязной  разбитой  дороге  на   восток,  а  пройти  им  надо  не  много, не  мало  25 – 30  километров!  Кто-то   опирается  на  костыли  и  палки,   кто-то  тащит  за  собой  на  детских  саночках  тяжело  раненого, кого-то  тащат  на  носилках.  От  всего этого,  а  ещё  из-за  того,  что  в   последние  дни  никто  практически  не  получал  медицинской  помощи,  у  некоторых  началась  гангрена.  Многие  просто  выбились  из  сил  и  не  могли  идти.  Местные  крестьяне разобрали  их  по  хатам,  ухаживали  за  ними  и  кормили  их.  А  вот  шофёры,  гады,  на  пустых  полуторках  и  трёхтонках   мимо  нас   проезжали и  не  останавливались,  даже  женщин  и  детей  не  брали,  а  если  кто  пытался  остановить  их,  то  они  нарочно  на  них  машины  направляли  чтоб  испугать. Раненые наши,  видя  такое  дело,  говорили: «В  бою  так мы  нужны,  а  как  ранили – никому,  подыхай,  как  собака!»  Был  тогда  налёт.  Немец  прошёлся  над  нами  на  бреющем  полёте,  поливая  свинцом.  Все  легли и я  тоже,  а  встать  уже  не  мог,  он  мне  из  пулемёта  ногу  прошил.  Тогда  меня товарищи  понесли на  оставшихся  руках  и  вынесли,  но  от  гангрены  меня  это  не  спасло.  В  медсанбате  мне  правую  ногу  ампутировали.  Вот  таким,  одноруким  и  одноногим  я  тогда,  в  мае  сорок  третьего,    и  прибыл  в  Москву»
Выслушав  рассказ  Кузнецова  о  бегстве  из  Белгорода,  Орехов  решил  рассказать  ему  об   оставлении  Курска.
«Рассказ  Орехова  об   оставлении   Курска  в начале ноября  1941-ого года»
Весной  41-ого я  закончил  4-ый  курс  юрфака  Курского университета. В  августе  меня  мобилизовали  и  я  попал  в  истребительный  батальон.  В  октябре  немцы  подошли к городу.  Начались  обстрелы  и   частые  налёты.  Техники  было  мало.  Оборудовали  на  заводе  гусеничные  трактора  под  танки.  1 ноября  жизнь  в  городе  остановилась.  Закрылись  магазины.  Всё,  что можно:  продовольствие,  спирт,  шерсть,  промтовары,  короче  говоря,  всё,  вплоть  до  медных   трамвайных проводов,  было  вывезено. За два  дня  до  подхода  немцев  в  городе  была  прекращена  выпечка  хлеба  и  людям  выдавалась  мука,  так  как  хлебозаводы  были  подготовлены  к  взрыву.  Защищать  город  остались  полки  народного  ополчения.  Рано  утром  второго  ноября  враг  появился   на  окраинах  города.  У  нас  было  много  убитых  и раненых. Медслужба  была  организована  плохо.  Чтоб  выносить  раненых  женщины  и  старики  выносили  ополченцам   верёвки  для  того чтобы те  могли  связывать  верёвки  и  делать  из  них  носилки,  на  которых  выносить  раненых.  Бой  в  городе  продолжался  до  девяти  вечера второго  ноября. В  десять  наши  части  оставили  город.  Перед  тем, как  уйти,  наши  многое   взорвали  в  городе,  в   том  числе    электростанцию.  Телефонную  же  станцию,  через  которую  велась  координация  боя,  не  взрывали.  Взрыв  её  должен  был  произойти  после  того  как  наши  части  переправятся  с  того  берега  реки  на  этот. Однако,  у  уполномоченного  НКВД  Миронова  не  выдержали  нервы  и  он  отдал  приказ  о  взрыве  моста  тогда,  когда  часть  наших  войск  была  на  той  стороне.  Связь  между  войсками  на  той  стороне  и  полками  ополчения  на  этой была  нарушена.  Более  того, взрыв  телефонной  станции,  как  и  было  задумано, послужил  сигналом  к  взрыву  моста,  через  который  должны  были  отходить  наши  части.  Командир  дивизии  не  выдержал  и  застрелил  лейтенанта,  взорвавшего  мост,  как  предателя.  Миронов  был  предан  суду  военного  трибунала.  Воска  переправлялись  на  лодках.  Много  людей  погибло  тогда. Меня   легко  ранило,  но  уйти  я успел» 
Они  говорили  ещё  и  ещё.  Им было,  что  рассказать  друг  другу.  И  тот  и  другой,  не смотря на  свою  молодость,  многое  повидал  и  испытал. 
Утром,  когда  Орехов  пришёл к прокурору,  тот,  как  водится,  выразил  ему  своё  искреннее  соболезнование,  а  потом  сказал,  что  просит  его,  не  в  службу,  а  в  дружбу,  провести  Кузнецову  психиатрическую  экспертизу,  поскольку  он  уже  привёз  обвиняемого,  а  потом  (тут  прокурор  просмотрел  листки  настольного  перекидного  календаря)  разрешил  ему до  понедельника  не  выходить на  работу.  Потом  они  заговорили  об  убийстве.   Не  заговорить  о  нём  они  не  могли.   Узнав,  что  убийство  в  бывшем  монастыре  совершено  аналогичным  способом,  прокурор  задумался.  – Что ж  получается, там  какой-то  человек-волк  завёлся?  Странно. Откуда?  А  ты  уверен,  что  травма  нанесена  зубами?  -  Нет.  Вскрытия  ещё  не  было. Подумав,  прокурор  спросил  Орехова,  читал ли  он  роман  «Тиль Уленшпигель»,  потом  сказал:  -  Есть  в  нём  один  негодяй,  называемый  «рыбником»   В  конце  романа  оказывается,  что  этот  самый  «рыбник»  был  маньяком-убийцей,  рядившимся  в  волка.   Фантазия,  конечно,  но  любопытно.   
Привезя  Кузнецова  в  областную  психиатрическую  больницу,  Орехов  оставил  его  в  приёмном  покое  и  пошёл  разыскивать  Зиновия  Ефимовича  Кошкера,   младшего  брата  главного  врача  Дома  инвалидов,  который  служил  в  этой  больнице  врачём-ординатором  и  был предупреждён  своим  братом  о появлении  Орехова.  Кошкер-младший  оказался  похожим на  Кошкера- старшего,  как  гепард  на  леопарда.  При  общих чертах  лица  что-то  неуловимо  особенное  отличала  одного  брата  от  другого. Зиновий  встретил  Орехова  очень  радушно  и  сазу  повёл  его  на  экскурсию  по  больнице,  о  чём  Орехов  его  совсем не просил.  Однако,  врачу-ординатору,  видно,  хотелось  представить  ему  поле  своей  деятельности   и  поделится  собственными  впечатлениями.    В  отличие  от  своего  малоразговорчивого  брата  он  говорил  не умолкая.  Говорил,  когда  они  шли  по  коридорам,  когда  заходили в палаты  и  даже  в  туалет. – Представьте,  говорил  он,  - ещё  в  двадцатые  годы  в  наших больницах  лечили влажным обёртыванием в простынях, намоченных в горячей воде. Современные  лекарства  не  очень-то помогают,  так  что  основное  наше  лечение  это   трудотерапия. Больные  делают коробки,  конверты, обтягивают  материалом пуговицы. Больным с двигательным возбуждением поручаем  натирку полов, уборку. В женском отделении  делали  шапочки  для освобождённых красной армией районов. Теперь они  наматывают пряжу, набивают  ватой  туловищ кукол, вяжут  носки. Говорят – когда вяжешь – мягче лежать.   Мужчины разматывают  «путанки». Это  успокаивает  нервы.  Тут  Орехов  подумал,  что  от  такой  трудотерапии  он бы сошёл с ума, представив,  как  раздражала  бы  его  размотка  такой  «путанки»  Думая  об  этом  он  прослушал   какие-то  слова  своего  собеседника  и  включился в разговор  тогда,  когда  Кошкер  сказал: - А  один конгенитальный сифилитик - лектор планетария,  прочитал лекцию  на тему «Возможна ли жизнь на других планетах»   Потом  Кошкер  рассказывал о  покушениях  больных  на самоубийство,  как  они пытаются    задушить  себя обрывками  белья, простыни, халата,  как пытаются повеситься на полотенце, ударяются с разбега головой о стену,   выбрасываются из окна, стараются  перервать артерии  на шее  куском железа.  И  ещё  он  рассказал,  как  один шизофреник,  желая покончить  с  собой,  поставил  себе   на горло  ножку железной кровати.
Тут Орехов  поймал  себя  на  мысли  о  том,  нормальным  людям  трудно  понять  сумасшедших,  вернее,  трудно  понять  их  страдания.  Для  них  слова  «сумасшедший»,  «психически  больной»  делают  людей  какими-то  куклами,  лишёнными   настоящих  чувств. Психически  больные  люди  для  них  скорее  какие-то  музейные  экспонаты,  чем  такие  же,  как  они,  способные  страдать,  люди.   - Суицидального больного, - нахмурив  брови,  продолжал говорить  Кошкер, -  следует держать отдельно и следить, чтобы он не украл что-нибудь острое.   Нельзя  забывать,  что  они  очень искусно прячут  острые  предметы.  Порой  они даже  настаивают  на  том,  чтобы  их  обыскали. Прячут  они эти  предметы  не  редко в чужую постель, под пол или выбрасывают через форточку  во двор  с намерением, когда всё утихнет, его  подобрать.  Особенно  искусно прячут такие вещи женщины.  Они могут вколоть  чужую иголку  в  шов  своего  или чужого платья, в  тапки, в стол  под клеёнку, в землю цветочного горшка на окне или в обои  и  попробуй,  найди  её,   а  свою  иголку  они  сдают,  и  к  ним,  поэтому  нет  никаких    претензий.  Вообще,  заключил  врач-ординатор,  есть  интересные  больные  и  интересно  их  восприятие  окружающей  жизни.  В  начале  войны, представьте,  наши  шизофреники  не  хотели  думать  о том,  что  началась  война.  Утверждали,  что  это  маневры.  За  годы  войны  у  людей  изменились  страхи.  Если  раньше  они  боялись  НКВД,  раскулачивания  и  доносов,  то  теперь  их  стал  преследовать  страх попадания  в  плен,  шпионажа.  Изменились  и их фантазии.  Раньше  они предлагали проекты переустройства  мира,  а  потом  - уничтожения  фашизма и скорейшего окончания войны.  Один,  например,  предложил  вооружить  миллион  китайцев  и  под  видом  японцев  отправить   на фронт  под  японскими  знамёнами.  Фашисты  бы  испугались  такого  предательства  со  стороны  своих  союзников и  сбежали бы. Другой  предложил  выставить  по  линии  фронта  большие  портреты   Гитлера  и  немцы   стрелять  бы  не  стали.   Третий – зарывать  наших  убитых  солдат  в  землю  ногами  так  чтобы  они  стояли.  Немцы  испугаются,  что  нас  так  много  и  сдадутся. В  конце  войны,  да  и  теперь, - продолжал Кошкер-младший,  -  стали  поступать   больные  с  обострившейся совестью,  даже с  тягой к самобичеванию,  я  бы  сказал.  Они  слышат голоса, называющие их дезертирами,  немцами, фрицами,  они говорят, что едят  чужой хлеб,  а  поэтому часто отказывались от  еды,  один  из  них  называет  себя  вором,  говорит:   «я ем чужой хлеб», «я виноват в гибели своей семьи» Откуда  это  у  них? – думал  я  и  интересовался  их  прошлым,  но  ничего  такого,  что  могло  бы  внушить  им  эту  мысль,  не  находил.  Возможно,  это осталось  за  пределами моей  осведомлённости,  ведь  каждый  человек  это  тайна.   
Слова  Кошкера  о  виновности в гибели  семьи  больно кольнули  Орехова.  Он  вдруг  почувствовал  себя  виновным  в  гибели  жены. Ведь  это  он  не  взял  её   с  собою  в  старый  монастырь,  хотя  она  его  так просила   об  этом  и  вот  теперь  нет-нет  да  и услышит  её  голос  и  слова: «Я с тобой, я с тобой!»  Поэтому он задал  вопрос  доктору  о  современных  галлюцинациях,  на  что  тот  ответил: -  Порой  у  них  возникает   ощущение  «несовместимости» головы  и  туловища  и  тогда  их охватывает  ужас.  Им  кажется,  что  их  хотят  расстрелять.  Они  видят  толпы  людей,  родных,  медведей  на занавесках.  Алкоголики,  побывавшие  на  фронте,   вместо пауков,  тараканов  и чертей, видят  теперь трупы убитых,  различные фронтовые картины из пережитой  ими боевой обстановки,  слышат разрывы снарядов. Часть их во время войны стала пить  меньше, а некоторые  вовсе  перестали.  Тут  они  подошли к ординаторской  и  Кошкер,  извинившись,  попросил  его  подождать  пока  он  пригласит  двух  своих  коллег  для  образования комиссии. 
Занятый  Кошкером  и  его  беспрерывной  лекцией,  Орехов  не  имел  возможности  воспринимать  в  полной  мере  окружающей  обстановки. Теперь,  оставшись  один,  он  приглядывался  к  окружавшим  его  людям  и  открывал  для  себя  новую, отличную  от  большинства,  их  разновидность.  Люди  эти  были  в  халатах  и  пижамах какого-то  тёмного,  полинявшего  цвета.  Одни  расхаживали  по  коридору,  сложив  руки  за  спиной,  другие  сидели  на  стульях  и  подоконнике.    Кто-то  трясся,  кто-то  сидел  без  движения,  тупо  глядя  перед  собой,  были и такие,  что  беседовали,  и  такие,  что  напевали,  бормотали  или  повторяли  одно и то же,  как  один, например,  который  неустанно  повторял: «Передайте Лиге  наций: завтра  будет патефон!»    Был  больной,  который  делал  два  шага  вперёд  и  один  в  бок  и  больной,  державший  в  руке  картонку,  на  которой  были  выведены  карандашом  три  буквы: ЖКТ.  Орехов  заметил  женщин,  бросающих  на  него  многообещающие  взгляды  и сам отвёл, на  всякий  случай,  от  них  взгляд.  В  этот  момент  к  нему  подошёл  больной  с  измученным  взглядом  и  стал  умолять  его  о  том,  чтобы  он  что-нибудь  сделал,  а то  врачи  поят  его  водой,  которой  обмывали  трупы.  Орехов  не  знал,  что  ему  ответить   и  растерялся.  В   это  время  подошёл    Кошкер  и  жалобщик,  сделав,  поднеся  палец  к  губам,  ему  знак  «молчать»  удалился.   
Экспертиза  не  заняла  много  времени (не  зря  же  её  называют  «пятиминуткой»)  Результат  поразил  Орехова:  шизофрения.  – Не  может  быть,  - думал  Орехов, - или я совсем  ничего  не  понимаю  в  судебной  психиатрии. Прощаясь  с  Кошкером-младшим,  он  всё-таки  поинтересовался  у  него  больными,  которых  видел в коридоре.  Оказалось, что  тот,  что  ходил  необычной  походкой  вообразил  себя  шахматным  конём,  а другой,  с  картонкой  с  начертанными  на  ней  буквам  Ж, К и Т,  считает  себя  «жертвой  коричневой  тени»,  т.е. лицом,  преследуемым  за  связь  с  фашистами.   Сделав  шаг  к  выходу,  Орехов  остановился,  обернулся и позвал  доктора.  Они  сошлись  и  Орехов,  несколько  смущаясь, сказал:  -  Доктор,  Вы,  конечно,  читали  чеховскую  «Палату  № 6»  Как  Вы  считаете,  её  сюжет  реален,  может  врач-психиатр  сойти с ума?  -  Как  любой  человек,  но  Вас,  наверное,  интересует  другой  вопрос:  может  ли  нормальный  человек  под  влиянием  обстановки,  существующей  в  психиатрическом  лечебном  учреждении,  лишиться  рассудка? – Да,  да,  именно  это  я  и  хотел  спросить, - подтвердил  Орехов.  Кошкер-младший  покрутил  пальцами  у  лица  и  сказал: -  Человеку  вообще  свойственно  подражать  другим и перенимать  их  особенности и привычки.  Нас  всех  в  детстве  родители  обвиняли в подражании  кому-нибудь.  Взрослые  перенимают  меньше,  но  тоже  перенимают. Возьмите  Вы  милиционеров.  Откуда  среди  них  так  много  грубых  и  жестоких  людей?  Не  всех  же  так  мама  воспитала.  Что-то  они  заимствуют  у  тех,  с  кем  ведут  борьбу. А  вальяжность  наших  академиков  и  профессоров?  Вы  замечали?  Они  перенимают  её  у  своих  старших  товарищей.  Так  что  и  психиатры,  вращаясь  среди  больных,  тоже  кое-что,  не  осознанно  конечно,  но  у  них  перенимают.  Но  я  не  думаю,  что  это  влияние  настолько  сильное,  что  может  помутиться  разум.  Во всяком случае, такого профессионального заболевания  психиатров в науке не зафиксировано.  Так что   это  художественный  вымысел,  хотя  какой-нибудь  конкретный  факт  с  каким-нибудь  психиатром  мог  иметь  место,  ведь  психика  многих  из  нас  так  лабильна!    
Из больницы   Орехов решил  заехать с  Кузнецовым  в прокуратуру. Когда  подъехали,  Кузнецов  попросил  вынести  его  из  машины  и посадить  на  скамеечку  возле входа. Орехов,  не  опасаясь  побега  обвиняемого,  исполнил  его  просьбу.  Каково  же  было  его  удивление,  когда  он,  вернувшись,  не  застал  его  на  скамеечке.  Он,  конечно,  сразу  доложил  о  случившемся  прокурору, а  тот  позвонил  начальнику  милиции,  однако  результатов  это  не  дало.  Обвиняемый,  как  в  воду  канул.

Дмитрий  Морозов,  наконец-то,  добрался  до  своей Самарской   деревни.  Вид  её  ему  не  понравился.  Стало  в  ней   грязней  и  неопрятнее  прежнего.  Однако  волнение  от  встречи  с  детством,  охватившее  его  при  виде  родной  деревни,   так  его  захватило,  что  он  ни  о  чём,  кроме  своего  детства,  думать  не  мог.  Здесь  они  играли,  здесь  дрались,  здесь  купались….   Не  будь  этого проклятого раскулачивания,  этой  проклятой войны,  - думал  он, -  был  бы  я  теперь  нормальным  человеком,  имел  бы  семью,  ходил  бы  и  ездил,  куда  хотел,  и  не  был бы  ни изменником, ни полицаем, ни бандитом ни убийцей,  ни  беглым  каторжником.  При  таких  мыслях  сердце  его  наполнялось  злобой   на  весь  этот  мир,  на  всю  эту жизнь,  делающую  по  прихоти  своей  из  одних людей героев,  а  из  других  -  врагов  рода  человеческого.   Он  не  очень  опасался  того,  что  его  узнают:  всё-таки  прошло  много  лет,  да  и  о  том,  что  он  служил  оккупантам  здесь  тоже  никто  знать  не  мог,  ведь  то  было  в  Калужской  деревне,  однако,  он,  на  всякий  случай,  натянул  на  лоб  пониже  кепку  и  ссутулился. Долго  ходил  по  деревне,  расспрашивая  встречных  о   прошлом  и,  наконец,   ему  удалось  разговориться  с  бабкой,  помнящей  его  семью. Ею  оказалась  подруга  его  матери.  Она-то  и   сообщила  ему  о  том,  куда  выселили  его  семью.  Об  этом  написала  ей  в  письме  его  мать.  У  неё  даже  сохранилось  это  письмо.  В  жалком  жилище  старухи,  в  старой  коробке  из-под  печенья,  возможно  съеденного  ею  когда-то единственный  раз  в  жизни,   хранились  слова  его  давно  умершей  матери.  Он  читал  письмо  и  злоба  снова  наполняла  его сердце.  – За  что  этой  простой  деревенской  бабе  выпало  столько  страданий? – спрашивал  он  себя и не находил  ответа. Старуха  же  плаксивым  голосом  несколько  раз  повторяла  ему  рассказ  о  гибели  на  войне  своего  единственного  сына.  За  вечерним  чаем,  который  он  организовал,  оставшись  у  неё  ночевать, она рассказала     ему  о  сегодняшнем  дне колхозного крестьянства.  Оказалось,  что  недавно  вышел  Указ  о  выселении  лодырей  и    тунеядцев   в отдалённые  места  и  снова  потянулись  на  Восток,  в  Сибирь  крестьяне  Украины  и  России.     – Старых  выселяют, -  говорила  старуха, - больных.  От  неё  он  узнал  о  том,  то  в  пылу  исполнительского  задора  «слуги  народа» одного  выселили    за  то,  что он ругался  с  бригадиром  и  председателем,  а  другого - за  то,  что  с  работой  не  справился.   А на  общем  собрании,  когда  колхозники  не  захотели  голосовать  за  выселение  двух  своих  односельчанок,   председатель  велел  проголосовать  не  за   выселение,  а,  наоборот,  против  выселения.  Народ,  конечно,  побоялся и в  результате  единогласно проголосовали за  выселение.   - Трусы  ничтожные, - думал  Дмитрий  о  жителях  деревни. – так  вам  и  надо.  Если  сами  своих  предаёте, то  кто  за  вас  бороться   будет? А  ведь  были  среди вас и  такие,  которые требовали  вывезти «лодырей»,  ваших  же товарищей,  пасти  белых  медведей!  Вас  бы  самих  туда  вывезти! А  после  слов  хозяйки о  том,  как  председатель  колхоза вызывает  ночью  в  контору  деревенских  и  избивает  за  то,  что  они не  подписались  на  заём,  у  него  сжались кулаки.  Женщина  же,  обрадовавшись  внимательному  собеседнику,  вошла в раж  и  поделилась  с  ним    чувствами,  которые  ему  были  не  очень  близки  в  силу  ряда  обстоятельств,  связанных  с  его  собственной  деятельностью  на  оккупированной  территории.  Она  с  возмущением  заговорила об  одном  своём  односельчанине,  сотрудничавшем с немцами,  и  теперь  во  всю  поддерживающим  политику  партии  в  деревне.   «..Паразит, - говорила  она, - он  ведь при  немцах  выгонял  людей  на  работу,  забрал  себе  весь  колхозный  инвентарь.  Он  всё  Гитлера  хвалил,  все  стенки  его  портретами  облепил.  Сам  часами  обвешался.  Носил  их  не только  на  руках,  но и на  ногах.  Каждый  день  патефон  накручивал «Тру-ля-ля да тру-ля-ля»  и  жену  в  гамаке  качал  под  музыку,  а  я  в  это  время  нужники в Гестапо  мыла. Он  всё кричал  про  меня: «Повесить  её!»  Если  бы  турки  пришли,  так  он   и  туркам  бы  служил.  Соседка  моя,  Пелагея  Воронова,  просила  его: - Дай  хоть  клочок  земли,  чтобы  с  детками  с  голоду  не  пропасть,  а  он  в  ответ: - Иди,  говорит,  и  проси  землю  для   своих  байстрюков  у  Сталина.  Пусть  он  их  кормит. Она  его  тогда  обругала  и  говорит: - Ну,   подлюка,  подожди,  вот  нас  вызволит  от  немцев  Сталин,  тогда  узнаешь,  как  над  нами  измываться.  Теперь  он  сам  кормит  байстрючат,  которых  ему  его  дочка  из  Германии  привезла.  - А он  сейчас где? – на  всякий  случай  поинтересовался  Дмитрий.   -  Выслали, - ответила  старуха.  Рано  утром  Дмитрий  Морозов  покинул  покосившуюся  избу.  Перед  уходом  он  остановился  над  мирно  спавшей  хозяйкой и подумал,  не  прикончить  ли  её.  Мысль  об  убийстве  в  нём  всегда  подталкивали  два  обстоятельства:  лёгкость  его  совершения и уверенность в безнаказанности.  Убийство в деревне не редкость.  На его  глазах взрослые  резали  кур,  поросят,  закалывали  бычков,  мальчишки  убивали  собак и кошек.  Бывало,  в праздники,  напившись,  мужики и парни  затевали  драки,  в которых, случалось,  кто-нибудь  погибал.  Первое  своё  убийство  он  совершил  в  17  лет.  Встретил  среди бела  дня  на  окраине  деревни,   у  речки,  пьяную  бабу  с  синяком  под  глазом.  Сначала  захотел,  пользуясь  тем,  что  пьяная,  использовать её.  Она  поняла  его  желание.  Не  возражая,  легла  на  траву  у  воды,  повернулась  к нему  спиной и,  что  называется,  подставилась,  оттопыря  зад.  Ей,  видно,  не  хотелось    показывать ему свою  избитую  морду.  Он  сделал,  что  хотел,  а    она  на  четвереньках  подползла  к  реке  и,  опустив  голову,   стала  пить  из  неё  воду.  Он,  ни о чём  не  думая,  повинуясь  какому-то  затаившемуся  в  нём  чувству,  подошёл  к  ней,  встал  на    колени,  потом  взял  её за  голову и   целиком  погрузил    в воду.  Баба  стала  брыкаться,  но  он  навалился  на  неё  всем  телом,  давя  рукой  на  затылок.  Самого  его стала  пробивать  дрожь,  но  головы  её  он  не  выпускал. Она  ещё  подёргалась  немного  и  затихла.  Он,  наконец,  отпустил  её.  Она  не  поднимала  головы  из  воды. Руки  её  болтались  в  воде.  Он  понял,  что  совершил  убийство.  Смесь  испуга  и   довольства  собой  овладела  им.  Можно  было  встать  на  четвереньки  и  завыть,  как  волк,  на   Луну,  но  Луны  не  было,  ярко  светило  солнце и  он  был  такой  же,  как  всегда  и  совсем  не  оброс  шерстью.  Он  почувствовал,  что  теперь  он  не  такой,  как  все, что  он  способен  на  большее,  чем   его  друзья.  Чтобы   скрыть  следы  преступления  он  скинул  бабу  в  речку  и  оттащил  за  волосы  подальше  от  берега.  На  следующий  день  он  слышал  в  деревне  разговоры  о  том,  что  в  реке  нашли  утонувшую  женщину.  В  груди  его  зашевелилась  гордость.  Теперь  он не  только  почувствовал  удовлетворение  от  власти  над  человеческой жизнью,  но  и  тайную  сладость  от  знания  тайны, доступной  только  ему  и  недоступной  простым  смертным его окружающим.  И  всё  же,  когда  началась  война,  и,   казалось  бы,  для  познавшего  радость  убийства  открылись  широкие  возможности, он    загрустил.   Он  понимал,  что   убийство  на  войне  не  является  таинством,  а  потому  не  щекотит  нервы. К  тому  же, - думал  он, - когда  все  кругом  убивают  друг  друга  и  чем  больше  убьют – тем  лучше,  тем  выше  награда  их  ждёт,  пропадает  острота  чувств,  свежесть  восприятия. Ну,  что  может  чувствовать  пилот  бомбардировщика,    кинувшего  на  жилой  дом  большую  фугасную  бомбу? – Ничего.   Он  лишь  тупая  гайка  в  машине   массовых  убийств. Морозов  лютой  ненавистью  ненавидел всех  этих  участников  войны,  защитников   «нашей  необъятной  родины»  Ему было  ясно,  что  на  войну  они  пошли,  боясь  наказания  за  дезертирство,  что  воевали  они,  боясь  трибунала  и заград-отрядов,   что  они  не  меньше  его  грабили  и  насиловали,  что  спасали  они  не  Родину,  а  жидовскую  власть  в  ней.  Он  уверял  себя  в  том,  что  если  бы  победили  немцы,  то  жизнь  в  стране  стала  бы  в  тысячу  раз  лучше, чем  теперь,  а  заодно   она  бы  избавилась  от  жидов,  цыган и коммунистов.  И  вот,  в  результате  этой  чёртовой   победы  его  загнали  на каторгу,    инвалиды    торгуют  на  рынках  папиросами,  а  воры  гуляют в ресторанах!
  Теперь  он  стоял  около  спящей  старушки  и  думал:  а  не  прибить  ли её,  ведь  разболтает,  старая,  по деревне  о  том,  что  он  был  у  неё   и взял  письмо  с  адресом  сестры.  Останавливала  его  только  мысль  о  том, что   в  деревне  его  вчера  многие  видели и запомнили. Поэтому он, немного постояв  над  старушкой,  вздохнул  и  вышел  из  дома.  Самородок,  лежавший  во  внутреннем  кармана  пиджака,    жёг  ему  грудь.  Нужно  было,  наконец,  с  ним  что-то  делать.  Он  решил  ехать  в  Москву  и  там  его  продать.

Отец  Илларион,  он  же бывший  священник  Красовский,  собрал  у  себя  в  избе  народ   послушать  странницу  Домну  Чмырёву.  Прежде  чем предоставить  ей  слово  он обратился  к  собравшимся  и  сказал: - Дорогие  братья  и  сестры,  власть  душит  нашу  православную  церковь  налогами,  отдаёт  храмы  под  склады и клубы  и  даже  случные  пункты  для  скота.  Но  им  всего  этого  мало.   Местное  начальство  глумится  над  святынями  и  оскорбляет  наши  религиозные  чувства.  Доходят  до  нас  известия  о  глумлениях  и  богохульствах  этих  слуг  антихристовых.   Один  из  них  приказал  духовому  оркестру  заглушать  пасхальную  службу  в  храме,  другой  велел  поставить  в  церковной   ограде  патефон  с  усилителем звука  и  заводить  бесовскую  музыку во  время крестного  хода.  Начальница  в  другом  месте  забрала  из  церкви  иконостас,  хоругви,  сняла  двери и  всё  изрубила  на  дрова.   Нашёлся  ещё  такой  пёс,  который  на  водосвятие,  когда  у  колодца  собрались  верующие  для  того,  чтобы  свершить  молитву,  никого  не  постеснявшись,  испражнился   в  колодец.  Речь  священника  сопровождались  охами,  вздохами  и   плачем  женщин,  а  после  последних  слов  с  одной  из  них  сделалась  истерика  и  её  вынесли  из  избы.   
Небольшого  роста,  в  белом  платочке,  морщинистая  и  некрасивая  Домна  Чмырёва  начала  свой рассказ  со  своих  рано  умерших  родителей  и  с  деревни,  в  которой  жила.  Сообщила  о  болезнях  и  хворях  своих  и  о  том,  как  с шести  лет  пасла  коров.  «Когда  мне  было  10 лет, - рассказывала  она, - я, а это  было  в  субботу,  перед  Троицей,  часов  в  8  утра,  подметала  пол  и  вдруг  в  глазах  помутилось  и  я   упала.  Меня взяли,  положили  на  лежанку,  где  я  и  уснула.  Сон  мой  продолжался  десять  суток.  Во  сне  я  видела  большую  дорогу,  по  которой  двигался  крестных  ход  с  иконами  чудной  живописи,  священство  было  одето  в  зелёных  ризах с  пальмовыми  ветками  в  руках.  Во  главе  ехали  три  всадника  на  белых  лошадях.  После  этого  сна  я  решила  стать  странницей.  Ходила  по  монастырям.  Была в Киеве,  где  поклонилась  Печерским  угодникам,  была в  Макарьевом,  в  Арколабском  монастырях,  посетила  Почаев  и  много  других  святых  мест.  Однажды  вечером,  зазвонили  в  церковь и  я  стала  собираться,  чтобы  поспеть  к  чтению  деяний  апостольских  у  плащаницы.  Сидя  на  стуле,  я  одевалась  и мне  оставалось  надеть  последний  башмак,  который  я  держала  в  руках,  и  вдруг  я   услышала,  что  вокруг  меня  словно  как  бы  ветер  поднялся  и  чудный  голубой  свет  наполнил  комнату. Я  испугалась»  В  этот  момент,  слушавшие  Домну  женщины,  как  по  команде,  перекрестились,  а  странница  продолжала: «…  стала  молиться  и  вижу  себя,  как  бы  на  воздухе и  мне  12  лет,  с  распущенными  волосами,  в  какой-то чужой одежде  и  в  голубом  свете,  который  не  позволял  мне  видеть  саму  себя  и  окружающие  предметы,  но  я  ощущала  стул,  на  котором  сидела.  Я  подняла глаза  кверху  и  увидела  всё  тот  же  свет  голубой,  цвета  неба  воздух  и  красивую  огненную  лестницу,  по  которой  спускалась  владычица  в  длинном  хитоне  и  по  всему  хитону  - множество  звёзд.  На  голове  её  была  корона  и  вокруг неё  был  венец  славы.  Сама  она  была  светлее  молнии.  Она  спускалась  по  лестнице  и  вдруг    остановилась,  а  я  силилась  ухватиться  за  неё.  Грудь  её  была  открыта  и  вся  в  ранах. Я  в  испуге  стала  громко  читать «Святый  Боже, святый Крепкий,  святый  Бессмертный,  помилуй  нас!» и  «Пресвятая  Богородица,  спаси  нас!» и  тогда  Владычица  благословила  меня  обеими  руками  и  склонила  голову  с  выражением  глубокой  грусти  и  печали  и  стала  подниматься  по  лестнице,  удаляясь  от  меня  наискось  вправо.  И  вот  с  той  минуты,  как  я  увидела  матерь  божью,  я  забыла  всё  земное  и  смотрела  на  неё,  пока  она  не  скрылась. И  тут  передо  мной  явился  святитель  Николай  с  крестом  в руках  и  говорит: - Следуй  за  мной,  времени  очень  мало,  я  иду  совершать  пасху.   Мы  подошли  к  лестнице  светящейся,  солнечной  и  поднялись  по  ней,  а  сошедши  с  неё, пошли  по  воздуху,  всё  поднимаясь  выше.  Вскоре  я  заметила  вдали  город  и  вдруг  увидела  его  прямо  перед  собой.  Он  был  великолепный,  чудный,  неизреченной  красоты,  которая  уму  человеческому  непостижима  объяснить.  Ворота  входа  были  из  жемчуга  и  других  драгоценных  камней.  На  правой  половине  их  изображён  архангел  Михаил,  а  на  левой – архангел  Гавриил.  Над  воротами  сияла  радуга  и  на  ней  греческими  золотыми  буквами  написаны  слова,   прочитанные  мне   святителем  и  гласящие  так:  «Приидите  благословении  отца  моего,   наследуйте  царство,  уготованное  вам  от  создания  мира  и  дам  вам  престол  свой,  пойте  и  веселитесь  яко  аз  с  вами  есть  во  веки  веков.  Блажен  человек,  чья  нога  станет  в  городе  сем»  Когда  вошли в  город,  то  я  увидела,  что  улицы  в  нём  устланы  мрамором,  жемчугом,  разнообразными  фигурами  и  рисунками,  дома  украшены  иконами,  а  между  домов  множество  церквей,  сияющих краше солнца,  украшенных  драгоценными,  разноцветными  камнями,  на столько  сильно  светящими,  что  если  бы  взять  один  камешек  величиной  с  горошину,  то  и  то  бы  осветил  он  пол  мира,  а  их  там  было  очень  много.  А  от  города  шёл  очень  приятный  аромат,  а  над  городом,  как  бы   в  воздухе,  я  увидела  церковь.  Она  сияла,  словно  солнце,  яснее  чистого  золота,   а  вокруг  неё  была  золотая  ограда  с  колышками  и  на  каждом  колышке  человеческая  голова,  а  на  каждой  голове  сияющий  венец  и  в  нём  имя  человека.  Я  спросила  святителя,  что  это  за  город  и  он  ответил: «Это  Иерусалим»  А  что  это  за  церковь? – спросила  я.  -   Смотри  и  узнаешь, - ответил  он.  Я  стала  смотреть  внимательно  и  увидела,  что  церковь это  сам  господь  Иисус Христос,  а  вокруг  него  это  те,  которые  сложили  свои  головы  за  имя  господне  и  за  истинную  веру»  На  этих  словах  отец  Илларион  предложил   сделать  перерыв,  дав  Домне Чмырёвой  отдохнуть,  а,  заодно,  и  промочить  горло  чаем.  Когда бабы, у  которых  после  рассказа  странницы  всё  светилось  перед  глазами, как  после  долгой  и  сладкой  случки,  разошлись по  домам,    священник  налил  из  самовара  себе  и  гостье  в  кружки  кипяток,  поскольку  чая у него давно не было.  Когда  же  он  блюдце  поднёс ко  рту,  в  избу  его  ввалилась  Аграфена  Грушина  и,  ничего  не  говоря,  бухнулась  ему  в  ноги.  Она  просила  прощения  и  ругала   себя  всеми  доступными  в  присутствии духовной  особы,  словами.     Старик  не  сразу  понял,  что  случилось,  настолько  несуразны  и  путаны  были  слова  свалившейся  ему  на голову,  полоумной  бабы.  Постепенно  до  него  стал  доходить   смысл  её  слов.  Он  понял,  что  скопцы  выкрали  из   «самоварного» скита  какого-то  молодого  парня  и увезли   в  лес.  Красовский давно  хотел  прижать  этих  богоотступников и сообщение  Грушиной  пришлось  как  нельзя  более  кстати.  Не  допив  чая,  священник  быстро  оделся  и  большими  шагами  направился в контору.  За  ним  мелким  шажочками,  огибая  колдобины  и  ямки,  бежала  Аграфена   Грушина. Директор,  узнав  о  случившемся,  велел  снарядить  спасательную  экспедицию  на  санитарном  автобусе  Дома  инвалидов,  в  который  посадить и Грушину,  чтобы  она  показывала  дорогу.  Аграфена,  пока   заводился  автобус,  успела  позвать с  собой Марию  Ивановну.    Тарахтя,  завывая  и  кое-где  застревая  в  снегу,  автобус,  наконец,  достиг  конечного  пункта  экспедиции  - небольшой  избы,  скрывавшейся  среди  деревьев.
В  избе  же  в  это  утро  произошли  следующие  события.  Старик завёл  со  Славой  очередную  душеспасительную  беседу.  Словами на  этот  раз  он  не  ограничился.  Для  убедительности   спустил  штаны  и  показал  ровное  место,  отгороженное  от  живота   венчиком  поседевших волос.  – Избави  себя от уда греховного и  душой  станешь чист  и  непорочен,  аки  голубь  белый! – сказал  он  многозначительно,  одевая штаны.  -  А  как  же,  дедушка,  ты  сделал  это? - поинтересовался  Слава.  – А  просто,  голубок,  - ответил  дед, -  взял  я  всё  своё  хозяйство  в  левую  руку,  а  в  правую  взял  косу  вострую-вострую,  да и  махнул  этой  косой  свой уд  под  самый  корень.  Так  в  руке  у  меня  всё  и  осталось.  -  Ну, и что?  - испуганно  спросил  Слава.  -  Да  ничего, - ответил, -  малую  нужду  только  стоя  не  справляю,  приседать  приходится,  а  в  остальном  никаких  проблем.  Ну,  а   тебе,  милок,  и  это  не  помеха. Скажу  тебе  ещё,  что истинная  вера  чудеса  делает.  Сказывают  у  первых христиан,  отрубленные  руки и ноги  вырастали. Вот  какие  чудеса  с  человеком  истинная  вера  делает!  Это  тебе не  в  церкви,  в которой  такие  вот,  как  отец  Илларион,  служат.  У  них  и  Бог  и  порок
 - всё  вместе:  и  вера и разврат – бабы  и  водка.  У  них «не согрешишь – не покаешься»,  они с неверными  из  одной  лохани  жрут. Тьфу!  И  старик  сплюнул и перекрестился. – Прости,  господи!   А  ты, я  вижу,  душой  чист  и  коль  верить  будешь  по-настоящему,  у  тебя  и  ноги и руки  вырастут.      Ну,  что,  согласен? – тихо  спросил  дед.  Слава  молчал. – Ну,  что  молчишь?  Не  бойся,  мы  это  тихо  сделаем,  не  заметишь.  Зато  потом  не  будет  в  твоей  жизни  никаких  мук  душевных,  не   свалишься  ты  сердцем   в  пропасть  похотливую,  не  станут  тебя  больше  терзать  ни  любовная  жажда,  ни  ревность,  ни  зависть, ни  боль  унижения,  ни  желание  мстить – всего   того,  что  связано  с  пагубой  любовной.  Зато  в  царствие  небесное  войдёшь!  Ты,  я  знаю,  познал  в  жизни  бабью  измену,  и  теперь  за  минуты  удовольствий  платишь   и  будешь  платить  до конца  жизни  муками  душевными.  Женщину  дьявол  нарочно  наделил  соблазнами  для  того,  чтобы  человека  с  пути  истинного  сбивать.  Женщина – посланец  ада, гостиница  бесовская!  - заключил  старик и выжидательно  посмотрел  на   Славу.  У   того  в  голове  образовалась  путаница  из  божьих  слов,  собственных  радостей, мучений  и  стариковских   аргументов.   Он  устал  от  страданий   по  Любе,  от  сомнений   и  боязни   сделать  то,  на  чём  настаивал  старик,  наконец,  от  борьбы  с  самим  собой,  а  поэтому  на  последнее  стариковское  «Ну!» ответил  «Да» 

Когда  вся  компания,  покинув  автомобиль,  подходила  к  дому,  Евдокия  Морозова  замывала  кровь  на  полу  горницы.  В  избе  царила  торжественная  обстановка.  Можно  было  подумать,  что  в  ней  родился  Иисус  Христос.  Несколько  девушек,  одетых  в  белое,  пели  молитвы.  Избушка  была  украшена  бумажными  цветами  и  еловыми  ветками, иконы – белыми полотенцами с вышитыми на них красными петушками. К  тому  же  из-за  туч  на  небе  выглянуло  солнце.  Когда  представители  Дома  инвалидов  вошли  в дом,  Мария  Ивановна  отворила  дверь  в горницу  и  увидела  Славу,  лежащего  на  койке,  покрытого  белой  простыней.   Лицо  его  было  бело,  как  мел,  а  внизу,  сквозь  простыню,  проступало кровавое пятнышко.  «Он  потерял  много  крови»  и  «Опоздали»!  - сразу  мелькнули в  голове  её  две  страшных  мысли.  В  этот  момент  к  ней  подошла  Грушина с ведром  в  руке.  Заглянув  в  ведро,  Мария  Ивановна  увидела  то,  от  чего  у  Славы  осталась  только  кровь  на  простыне. Мария  Ивановна  кинулась  к  Славе. – Что же  ты  сделал  с  собою,  дурачёк?! – прошептала  она.  Он  не  ответил.  Не  смотря  на   сопротивление  скопцов,  команде  Дома  инвалидов  всё  же  удалось  забрать  Славу  и  увести  его  с  собой.  Он  лежал  в  изоляторе и  Мария  Ивановна  ухаживала  за  ним.  Любке,  как  она  её  теперь  называла,  она  о  Славе  ничего  не  сказала.   

Как  человек  никогда  не  знает,  что  с  ним  может  случиться  буквально  через  минуту!  Не  зря  говорят: «Человек  предполагает,  а  бог  располагает»  Орехову,  когда  он  получал от прокурора  новое  дело,  связанное  со  смертью  человека,  всегда  было  интересно  узнать,  с  чего  начался  день   человека,  не  дожившего  до  его   окончания. Орехов  с  каким-то  суеверным  страхом   всматривался  в  то,  что  погибший  человек  делал  в  день  гибели,  о  чём  он  думал,  какие  дела   планировал  на  ближайшее  время  и  как  в  тот  злополучный  день   его  первый  шаг  с  постели   стал  первым  его  шагом  на  пути  к  смерти.  Теперь  он  сам вспоминал  тот  день,  когда  приехал  в  Дом  инвалидов  расследовать дело  об  убийстве  Мамина.  Каким  счастливым  был  этот  день  и  как  не  ценил  он  его  тогда!  А  что  теперь?  Теперь   он   остался   один,  жена  убита,  обвиняемый,  без  рук и без  ног,  сбежал  и  он  должен  за  это  ответить.    С  такими  мыслями  он  и пришёл   на  работу  в  тот  злополучный  понедельник.    Прокурор,  встретив  его  в  коридоре,    сказал,  что  приехал  старший следователь  областной  прокуратуры  Медведев,  который    спрашивал  про  него.  Расположился  он в 11-ом  кабинете. Орехов  постучал  в  дверь этого  кабинета  и,   не  дождавшись    ответа,   вошёл.  За письменным  столом  сидел  незнакомый   ему  человек  в  очках,  причёской  «заём»  и   оттопыренными  ушами.   Узнав,  кто вошёл  следователь  указал  Орехову  на  стул  у  стола, а сам  продолжал  читать   какой-то  протокол.  Закончив  чтение,   он  внимательно  посмотрел  на  сидевшего  перед  ним  Орехова и  спросил: - Вы,  товарищ,  давно  следователем?  - Третий год, - ответил  Орехов.  – Тогда  объясните  мне,   как  Вам  удалось  потерять  подследственного.  Орехов  объяснил.  Старший  следователь  посмотрел  на  него  сощурив  глаза.  -  Ну  что ж,  это  весьма  правдоподобно,  если  учесть,  что  подследственный  перед  этим  чуть  ли  не  сутки  жил  у  Вас  дома,  на  правах,  так  сказать,  гостя.  Скажите  Орехов,  Вас  что,  влечёт к  убийцам?  Зачем  Вы  притащили  его  к  себе  домой?    -  А  куда  я  его  мог  деть, он  же  совершенно  беспомощный.- ответил  Орехов.  -  Как  куда,  удивился  старший  следователь, -  в  КПЗ,  в  больницу,  наконец,  выставив  там  пост.  – Мы  поздно  приехали. – Не  говорите  чепухи,  они  обязаны  были  его  у  Вас  принять  в  любое  время  дня  и  ночи.  Орехов не  знал, что  ответить.      Конечно,  если  бы  дома  была  жена,  то  он, конечно  так бы  и  потупил,   как  говорит  следователь,  но  тогда,  когда  вместе с Кузнецовым  он  вёз  в  машине  труп  своей  жены,  ему  было  не  до  этого.  К  тому  же,  он  боялся  одиночества  и   не  хотел  оставаться  один.  Объяснять  следователю  он  это  не  хотел, считая  эти  обстоятельства  сугубо  личными,  не  имеющими  отношения   к  делу.  Он  сидел,  опустив  голову,  и  молчал,  как  нерадивый  школьник. В  этот  момент в  кабинет  зашёл  знакомый  опер  из  угро  и  положил  перед  следователем  лист бумаги  с  напечатанным  на  ней  текстом.  Следователь  прочитал  и внимательно  посмотрел  на  Орехова.  - Послушайте,  Орехов,  среди  Ваших  связей  и, вообще, знакомых,  есть рыжая  женщина.  _ Н-нет,  не  помню, - ответил  Орехов. – Поступили  данные  о  том,  что  Кузнецова  похитила  женщина  с  рыжими  волосами. Чёрт  знает  что,  «Союз  рыжих»,  конандойлевщина  какая-то! -  возмутился  следователь,  и,  почувствовав  своё  интеллектуальное  и  стратегическое  превосходство  над  своим  собеседником,   приступил  к  главной  цели  своего  допроса:  изобличению  Орехова  в  убийстве  собственной  жены.  -  Скажите,  Валентин  Кузьмич,  Вы  один  приехали  на  машине  в  Дом  инвалидов? – спросил  он.  Один, - ответил  Орехов,  и  тут же  оговорился,  сказав,  что   недалеко  от  монастыря  в  машину  села  женщина,  «проголосовавшая»  на  дороге. Следователь  стал  допытываться,  что  это  за  женщина,  знал  ли  он  её,  как  она  выглядела и пр.,  а  потом  спросил  Орехова,  глядя  ему  в  глаза: -  Это  была  Ваша  жена?   -  Нет, - ответил  Орехов. Далее  беседа  потекла, как  река по  порогам,  спотыкаясь  и  журча.– А как  тогда  она  попала  на  территорию  Дома  инвалидов? – Не  знаю.  -  А  какие  у Вас  были  отношения  с  женой? – Хорошие.  – А  Вы не  преувеличиваете.  Есть показания  Ваших  соседей,  которые  говорят,  что  Вы  угрожали  ей  убийством. – У  нас  происходили  ссоры  на  почве  ревности,  и  в  ходе  одной  из  них  я   мог  сказать какую-нибудь  глупость,  но  это  всё  не  серьёзно.  -  Ваши  сотрудники  рассказали, что  Ваша  жена  приходила  не  раз  к  Вам  на  работу  и  уводила  Вас  на  какое-то  время.  Она  ревновала  Вас  к  кому-нибудь  из  Вашего  служебного окружения?  -  Не  знаю,  возможно.  – Скажите,  Орехов,  а  к  гражданке  Ляжкиной  она  Вас  ревновала?  -  Нет,  она  не  знала  о  её  существовании. -  Есть  сведения  о  том,  что  у  Вас  с  Ляжкиной   были  близкие  отношения.   Вы  признаёте  этот  факт?  -  Признаю,  только  они  были  такими  до  моей  свадьбы.  После  свадьбы  я  интимные  отношения  с  указанной  Вами  гражданкой  прекратил  и  повода  для  ревности  жене  не  давал. Я  очень  любил  свою  жену  и  мне  никто,  кроме  неё  был  не   нужен.  Посмотрев  внимательно  на  Орехова,   следователь  неожиданно  убрал  со  стола  газету  и Орехов  увидел   свой  перочинный  нож, пропавший  несколько  дней  тому  назад. -  Узнаёте? – спросил  следователь.  -  Узнаю  -  ответил   Орехов. -  Этим  ножом,  уважаемый  Валентин  Кузьмич, -  ехидно  и  излишне  подробно  сказал  следователь. -  неделю  назад  была  убита  Ваша  жена,  Орехова  Людмила  Александровна.  Услышав  это,  Орехов чуть  не  потерял  сознание, а  следователь, поднеся  нож  к  глазам  Орехова,    прошипел – На  нём  кровь  Вашей  дрожайшей  супруги,  милейший  Валентин  Кузьмич. Если  Вас  не  затруднит,  расскажите   мне,   Вашему  сослуживцу,  хотя  бы  вкратце,  как  и  за  что  Вы  убили  свою  любимую  супругу.  Орехов,  ошарашенный  произошедшим,  молчал,  не  в  силах  сказать ни  слова.  Следователь  же,  начитавшийся  Достоевского,  довольный  собою,  чтобы  окончательно  раздавить  своего  сослуживца,  сиречь процессуального  противника, стал  рисовать  картину  совершённого  им  преступления,  не   жалея  для этого  самых  ярких   красок  из  скудного  арсенала своего  воображения.  -  В  тот  день,  -  упивался  он  своим  красноречием,  -  Вы,  уступив  настоятельным  просьбам  своей  жены,  взяли  её  с  собою  в  Дом  инвалидов.  Находясь  там,  Вы  вступили  в  интимную  связь  с  гражданкой  Ляжкиной и  были  застигнуты  супругой.  Во  время  выяснения  отношений  с нею,  Вы,  с  целью  сокрытия  своего   аморального  поведения  и  пресечения  угроз  с её стороны,  несколькими  удами  перочинного  ножа  убили  её,   тело  с  целью  сокрытия  совершённого  преступления,  бросили  в  колодец,  а  сами,  как  ни  в  чём  не  бывало,  вернулись  домой.  Скажите,  Орехов,  Вы  признаёте  себя  виновным?  Вместо  ответа  Валентин  стал  биться  головой  о стол  и  кричать: - Вы  что,  с  ума  сошли?   Мне  жизни  без  неё  нет,  да  как  Вы  смеете,  я  Вас  самого  убью!  Старший  следователь  выбежал  в  коридор  и  стал  звать  на  помощь.  Пришёл  прокурор  и  другие  сотрудники  прокуратуры.  Они  успокаивали  Орехова,  поили  водой,  бегали  за  валерьянкой.    Спустя  пол  часа  его,  по  постановлению  приехавшего  старшего  следователя,  утверждённому  прокурором,  отправили  в  КПЗ.            

И  как  же  хорошо,  как  приятно,  после   всех  этих  вонючих  казённых  стен  оказаться  на  лавочке  тихого  и  уютного   садика.   Сергей  с  аппетитом  вдыхал  чистый  холодный  воздух  и  разглядывал  ворон  и  воробьёв.  Его  заинтересовала  ворона. - Интересно, - думал  он, - почему  ворона  не  преследует  воробья,  утащившего  у  неё  из-под  носа  какую-нибудь  крошку.  Ведь  она  могла  его  убить  одним  ударом  клюва.  Так  нет  - принимает  его  дерзость,  как  должное,  и  снова  ищет  что-нибудь,  чтобы  сожрать.   За  этим  глубокомысленным  занятием  его  и  застала,  подъехавшая  на  чёрном  автомобиле,  «Рыжая  бестия»  Подойдя  сбоку,  она  сгребла  его  в  охапку  и  потащила к  машине.  Он  оказался  на  заднем  сидении,  Рыжая  прыгнула  на  переднее  и  машина  резко  рванула  с  места, выпустив  в  проходившую  мимо  старушку  струю  выхлопного  газа.  – Здравствуй,  любимый!  -  сказала  Рыжая,  уложив  его  на  диван,  вот  я  и  выполнила  своё  обещание.  – Какое? – удивился  Сергей,  позабыв  о  разговоре   в  изоляторе.  -  О  том  самом.  У  тебя  скоро  будут  и  руки,  и  ноги!  - сказала  Рыжая  и  стала  раздеваться.   Когда она,  наконец,  насытилась,  Сергей спросил: -  А когда  это  будет?  -  Когда донора найдут.   -  Какого  донора?  - А  такого,  которому  руки-ноги  не  нужны.  – Где же  такого  найдут?  Найдут,  мало,  что ли  народу  гибнет?  Ну,   а  если  не  найдут,  мы  его  сами  сделаем.  – Как  это?  -  Очень  просто,  у  меня  есть  знакомые,  которые  всё  устроят. -  Ну,  ты  это  забудь, - сказал Кузнецов, -  мне  запчасти,  снятые  с  убитых,  не  нужны.  Я  их  носить  не  смогу,  они  мне   сердце  жать  будут.  -  Не  волнуйся, дурачёк,  я  пошутила, -  ответила  Рыжая. -  А  пока  поживёшь  здесь.  За  тобой   женщина  будет  ухаживать,  ну, а я пошла,  до  встречи,  любимый!  -  Неудобно  перед  следователем,  - опустив  голову,  сказал  Сергей, -  он  ко  мне  отнёсся  по-человечески,  а  я  его  подвёл.  Сообщить  бы  ему  надо.  -  Сообщим,  сообщим,  не  волнуйся.  И,  подойдя  к  Кузнецову,  Рыжая  протянула  к  нему  свои руки.  Не  желая  новых  объятий, Кузнецов,  чтобы   её  отвлечь,  спросил: - Что  за  колечко у тебя,  прошлый  раз  я  его  не  видел.  Рыжая,  повертев  перед его глазами руку  с  перстенёчком  с  синим  камушком,  ответила: - Это  мне  Ваш  этот,  ну,  как  его,  Лёха  подарил,  думал  купить  меня.   А  что,  хороший  перстенёк,   мне  нравится. – А  Лёха? – Фу,  я  с  ним  и  за  миллион  не  стану  и  Рыжая,  послав  Сергею на  прощанье  воздушный  поцелуй,  удалилась.   – Дурацкое  положение, - думал  Сергей, -  Рыжая  эта  играет  мной,  как  игрушкой,  а  я  не  могу  ничего  сделать  и,  главное,  не  знаю,  что  меня  ждёт.  Вполне  возможно,  что  не  мне  пришьют  чужое,  а  у  меня что-нибудь  вырежут.  А,  действительно,  если  бы  мне  собирались  пришить  руки    и  ноги,  то  зачем  было  меня  похищать?  Сделали  бы  на  мне  этот  эксперимент  с  моего  согласия официально и всё.  А  теперь  вырежут  мне  почки  или  печень,  а  остальное  выбросят,  вот  и  будут  мне дальняя  дорога – пиковый интерес.  Ну,  а  зачем  тогда    меня   шизофреником  признали?  Ну,  какой  я  шизофреник?  Значит,  я  нужен  буду и после  операции.  И  как  это  Рыжая  всё  пробивает,  неужели   этим  местом?  Не  думаю,   что  оно  в  наше  время  так  дорого  стоит,   баб  кругом  полно  и  никого  им  не  удивишь.  А  что,  если  диагноз  у  меня  не  фальшивый,  а  правильный?   И он стал  вспоминать  первые  бои,  окружение,  как  выходили  из  него,  как  был  ранен  первый   раз.  Он  помнил,  как бежал  от  танка,  как что-то грохнуло  позади и стало темно,  и  вообще ничего  не  стало. Постепенно  к  нему стало  возвращаться  сознание.  Он  мог  говорить  сам  с  собой,  но  что  было  вокруг – не  знал.  Его  окружала  сплошная  тьма.  Он  вспомнил   слова «Я  мыслю – значит  я существую»  Но  где,    как?  Если  бы  я  был  без сознания,  то не мог бы  думать,  а  если  я  могу  думать,  то  почему  ничего  вокруг,  ни  меня  самого  нет?  Может  быть,  я  потерял зрение  и  слух  и  теперь  валяюсь  в  поле,  а  по  нему  идут  танки  и  какой-нибудь  балбес  проедет  по  мне.  Если я  лишился  зрения и слуха,  то  почему я не могу  кричать, звать  на помощь?   А  может  быть  я  превратился  в  мировой  разум  из  какой-нибудь  научно-фантастической  книжки  и  теперь  летаю  над  землёй? -  подумал  тогда он и эта  мысль  развеселила и испугала  его.  Он  не  знал,  сколько  прошло  времен  пока,  наконец,  не  услышал   журчание  воды,  а  потом  и  белый   свет.  Прошло  ещё  какое-то  время  и  оказалось,  что  он в госпитале,  вода  журчит  в унитазе,  а кругом  него,  как  снег  в  поле,  белеют  простыни.   Он  узнал,  что  его,  контуженного,  подобрала  медсестра,  случайно  заметив, что  он  живой.  После  госпиталя  снова  бои и не просто  бои,  а  бои  рукопашные.  Ничего  более  страшного  он не  знал.  Когда-то,  ещё  в  школе,  он  читал  «Спартак» Джованьоли.  Там  описывались  бои  гладиаторов - артистов   кровавого  жанра.  Но  то  был  древний  Рим,  далёкий  и  фантастический.  Тут  же  было  всё  до  отвращения  реально:  и  кровь,  и  чужие  сопли,  и  грязь,  а,  главное,  невозможность  остановиться  пока  не  убьёшь,  или  не  убьют  тебя  самого.   Потом  он  вспоминал  ранение, госпиталь,  бегство от  немцев,  гангрену,  ампутацию…  Можно  было  свихнуться  от  такой  жизни? Запросто.  Так  что  же  удивляться,  что он  загрыз  человека,  что  он  помнит, как  хрустели  у  него  на  зубах    сухожилья  и  хрящи,  или  что  там  ещё.  И  это  был  он,  культурный,  можно  даже  сказать,  интеллигентный  человек  и  недоучившийся  студент,  ставший,  по  чьей-то  вине  не  «павшим  героем»,  а  человеческим  обрубком,  игошкой   и, к  тому  же,  убийцей.

Следователь  Орехов,  перед  которым Сергею было неудобно,  оказался  в  камере  предварительного  заключения  и  вот  ему-то  в  ней  было  действительно  не  удобно.  Помимо  него, в  ней  оказалось  два  негодяя.  Неизвестно  откуда   они  узнали,  что  он  следователь.  Унижения,  обиды,  издевательства,  моральные  и  физические  страдания,  пережитые  человеком,  попавшим во  власть  подонков, ужасны  и  Орехову пришлось их познать,   а  потому  Орехов  до  того, как  попал  в камеру  и  Орехов,  выпущенный  из  неё,    оказались разными  людьми.  Первый  Орехов  был  человеком  любопытным,  любящим,  весёлым,  не  лишённым  склонности  к  философии.  Орехов, вышедший  из  КПЗ,  - человек  ограниченный,   скучный,  пугливый.   Когда  к  нему  кто-нибудь  приближается,  он  весь  как-то  съёживается  и  закрывает  голову  руками.  Он  перестал  шутить  и  сам не  понимает  шуток. Он  всё  понимает  буквально  и  как-то  односторонне.  А  следователь  из  областной  прокуратуры  выяснил, что  в  машине  с  Ореховым  находилась  не  его  жена,  а  шеф-повар  Дома  Инвалидов,  Татьяна  Николаевна  Журкина,  что  никаких  встреч  у  Орехова  с  Ляжкиной  в  тот  раз  не  было   и,  наконец, что Орехов  действительно  потерял  свой  перочинный  нож  и   искал  его  в  Доме  инвалидов. Короче  говоря,  его  версия  об  убийстве  Ореховым  своей  жены  не  подтвердилась  и  он,  разочарованный и  потерявший  интерес  к  Орехову,   уехал,  не  простившись  с  ним.

Узнав  о  возвращении  Мити, скитские  «самовары»  обрадовались.  О  том,  что   с  ним  случилось  в  лесной  сторожке,  они  не  знали.  Зато  Мария  Ивановна  не  находила  себе  места.  Ей  было  стыдно  и  больно.  Во  всём  она  винила  себя,  свою  глупость  и  доверчивость.  В  ските  это  её   состояние  заметили  и   не  раз  спрашивали о его  причине.  Она  отговаривалась  плохим  самочувствием.   Настроение  Марии  Ивановны   не  могло  не  отразиться  на  её  подопечных.  Одни  погрустнели,  другие  стали  задумчивее,  а  Федька   стал  особенно  зло  насмехаться  над  Иваном  Ивановичем.   -  А  жидов  в  Париж  разве  пускают? – спрашивал  он. – А  засранцев?  Они  ведь  весь  Париж  засрут!   Эй, Ваня,  расскажи  про  Париж,  как  ты  там  обосрался.  Иван  Иванович   молчал,  опустив   голову.  Наконец,  хамство  это  всем  надоело  и  Петров  резко  оборвал  его,   рявкнув на  Федьку: «Заткнись!»    Федька  заткнулся,  не  решаясь  послать  подальше  Героя  Советского  Союза,  однако, затаил  злобу и  когда  на  следующий  день  пришёл  Лёха,  он  мимикой  дал  ему  понять,  чтобы  он  повесил  его  позади  Ивана  Ивановича. Тот  это  и  сделал.  Никто  не  придал  этому  значения. После  обеда,  когда  многие  дремали,  покачиваясь  на  своих  парашютах,  Иван  Иванович  вдруг  громко  и  испуганно  стал  спрашивать: - Что  такое, что  такое?  Все  посмотрели  в  его  сторону  и  увидели,  что  Федька  писает  ему  на спину.  – Ты  что  делаешь,  паразит? – закричал  Гуськов.  -  А  тебе  какое  дело? – огрызнулся  Федька.  – Ну,  и  гад же  ты! – закричали  все. 
В  тот  вечер  Мария  Ивановна   пришла   особенно   нервная  и  расстроенная.   Узнав  о случившемся,  пригрозила Федьке   переводом в  «тюрьму»  Долго  и  тщательно  убирала  помещение.  Когда  собралась  уходить  и  с  трудом,  опираясь  на  щётку,  распрямила  спину,  с  Иваном  Ивановичем  случился  грех.  Его  пронесло  на  только  что  вымытый  пол.  Мария  Ивановна молча вытерла пол  под  Иваном  Ивановичем,  немного  постояла,  опершись на  швабру  и  тут  разум  её  помутился.  Все  прошлые  обиды  и несчастья,   все   переживания  последних  дней  соединились  в  её  голове.  Она  сняла  со  швабры  тряпку  и  с    размаха  ударила  ею  Ивана  Ивановича по  лицу. Первые  секунды  после  этого  в  ските  стояла  тишина,  скучная,  как  в  покойницкой.  Потом  было  слышно,  как  Иван  Иванович  давился  воздухом,  который  отказывался  помещаться  у  него  в  груди.  И  лишь  после  этого  всё  живое,  кроме  Федьки,  слилось  в  длинном  и  горестном  крике.  Можно  было  подумать,  что  грязной  тряпкой  ударили  по  лицу  не  только  Ивана  Ивановича,  но  и  всех.  В  крике этом  было  бесконечное  горе  изуродованных  человеческих  тел,  горькая  обида  беспомощных  существ,  лишённых  в  жизни  всего,  кроме  осознания  своей  беспомощности.  Особенно  больно  было  им от  того, что  сделала  это  Мария  Ивановна,  самый  близкий  им  человек.  К  оплеухам  Лёхи  они  уже  привыкли, но  никак  не  ждали   ничего  подобного  от  доброй  женщины. Заикаясь  и  задыхаясь,  Иван  Иванович  кричал  Марии Ивановне: - Как  ты  смеешь,  дрянь,  я  тебя   презираю!   Мария  Ивановна не  шевелилась.   Раскрыв  рот  и  вытаращив  глаза  она  смотрела  на   эти  стенания  и  не  понимала,  почему  под  ней  не  разверзлась  земля.  Она  заслужила  это  и  хотела  этого.  И  она,  наконец,  разверзлась.  «Самовары»   стали  рваться  из  своих  парашютов.  Прошла  минута и все,  кроме  Федьки и Петрова,  валялись  на  полу,  крича  и  содрогаясь.  Мария  Ивановна  упала  на  колени  и  стала  молить  у  всех  прощения,   целуя  и  гладя  каждого.  Слёзы  текли  по  её  щекам.  Она  их  не  утирала.   Жуткую  картину  эту  увидела  судомойка  Соня,  заглянувшая  в  скит  в  поисках  Марии  Ивановны.  Испугавшись, она  побежала  к  главному  врачу,  а  тот,  ничего  не  поняв  с  её  слов,  но  испугавшись,    прибежал в  скит.  Успокоившись и  повиснув  снова  в  своих  «парашютах» мужчины  сразу  стали  ругать Федьку,  требуя  выкинуть  его  из  скита.  Главный   врач  пообещал подумать,    а  пока  что  велел перевесить  его  подальше  от  Ивана Ивановича,  что  и  было  сделано.   Перед  тем  как  покинуть  скит  Михаил  Ефимович подошёл  к  Ивану  Ивановичу,  положил  руку  ему  на плечо  и  спросил,  не  пора  ли   им  встретиться  у  него  в кабинете - что-то  давно  они  не  беседовали.  Иван  Иванович  с  ним  согласился.

Дмитрий   Морозов  вышел из  вагона  поезда  на  Киевском вокзале.  Площадь,  на  которой  он  оказался,  была  заполнена  трамваями, автобусами,  автомашинами  и  людьми.   К  нему  то и дело  подскакивали  какие-то  мужики и спрашивали «Кому  на  Казанский?»,  «Кому на Курский?», а  один  даже  спросил: «Хомут не трэба?» Другие тоже приставали,  предлагая  всякую  дрянь.  Дмитрий,  зло  матерясь, гнал  их  прочь.  Он  понимал,  что  на  вокзалах  ничего  стоящего  ему  не  найти  и  решил  поискать нужное  ему  на  какой-нибудь  «приличной»  улице.  Об  одной  такой  улице  он  слышал  ещё  в  лагере.  Улица  эта  называлась  Арбат.     Он  нашёл  её.  Дойдя до  ювелирного  магазина, остановился  и  осмотрелся.  Заметил  двух  мужчин и даму.  По  напряжению  глаз  понял,  что  они  кого-то  высматривают,  ищут.  Один  из  мужчин,  походя  мимо  него,  спросил: «Стучишь?»   Дмитрий  кивнул.  – Золото,  серебро? – спросил  мужчина. -  Золото, - ответил  Дмитрий.  – Иди  за  мной.  Дмитрий  пошёл.  Через  железную  калитку ворот  прошли  во  двор  и  зашли  в  подъезд  старого  деревянного  дома.  Дмитрий  сразу  занял  место  в  углу. – Покажи,  - сказал  мужчина.  Дмитрий  полез  во  внутренний  карман  пиджака  и тут  заметил,  что  кто-то  спускается  со  второго  этажа.   Он  сделал  вид,  что  ошибся  карманом и  стал  ощупывать   другие   карманы  своей  одежды.   Тут  к  нему  подошёл  второй  мужчина,  тот  который  спустился  по  лестнице  и,  достав  нож,  скомандовал: «Гони,  что  есть»  Дмитрий  полез  в  карман  и  достал  самородок.  Увидев  его,  мужики  обалдели.  Дмитрий  воспользовался  этим  и,  выхватив   нож,  ткнул  им  одного  и  другого.  Мужчины  скрючились,  матерясь  и  проклиная  его,  а  он,  раскидав  их  в  разные  стороны,  вышел  на  улицу.   Да,  -  подумал  он,  -  этот  способ  продажи  отпадает.  Развелось  этих  крыс  за  войну!  Пойду-ка  я  другим  путём.  И  он  отправился  на  Тишинский  рынок.  Надо  было  потолкаться  среди  народа,  послушать  разговоры,  что он  и  сделал.  Рынок  оказался  тесным и шумным. Между  его  деревянными  павильонами  и  прилавками  суетился  народ  со  свёртками,  сумками,  мешками  и  авоськами.  Торговали  отрезами  материала,  сапогами,  кусками  мыла,  о  котором  в  народе  говорили,   что  оно сделано  из  человеческого  жира,  солью  или  каким-то  порошком  на  неё  похожим,  трясли  в  руках  брюки,  солдатские галифе,  пиджаки,  платья  и  кофточки.  Предлагали  пластинки  Лещенко  и  Вертинского,  трофейные  часы,  радиоприёмники и фотоаппараты,  самовары,  статуэтки,  театральные  бинокли,  целлулоидные  пупсы  и  многое,  многое  другое.  Прислушиваясь  к  разговорам,  Дмитрий  обратил  внимание  на  двух  евреев,  обсуждающих  довольно  горячо  вопрос  о  создании  организации  объединённых  наций.   - Была   Лига  наций, - говорил  один, - и где  она  теперь?  Нет,  Вы  скажите,  где  теперь  Лига  наций,  где  решение  палестинского  вопроса,  я  Вас  спрашиваю. Я  уверен  на  1000%,  что  эту  Вашу  ООН  ждёт  то же  самое.  Ну,  скажите  мне  раз  и  навсегда:   Вы  хотите  объединить  Европу  с Африкой, а Азию с Америкой? Так объедините  сначала  северный  полюс с южным  и  посмотрите  что  получится. На  это  другой  еврей  предложил  соединить лучше серебро с золотом.  Золота  станет  больше,  а  гешефт  выгоднее.   Упоминание о золоте  Дмитрия  заинтересовало.  Он  решил  проследить  за  евреем.  Через  некоторое  время  он дошёл с ним до  ювелирной  лавочки  и  зашёл  в неё.    Ювелир  оказался очень  осторожным  и  долго  делал  вид, что  не  понимает,  что  от  него  хочет  Дмитрий.  Наконец,  он  предложил  ему  показать «вещь»  Дмитрий  развернул  перед  ним  части  самородка.  Он  заметил,  как  у  еврея  затряслись  руки.  – У  меня,  молодой  человек,  нет  таких  денег, -  сказал  он, - но  если  Вы  зайдёте  завтра  в  это  время,  я  постараюсь  для  Вас  кое-что  сделать.  Теперь  Дмитрию  осталось  найти    женщину,  чтобы  прилично  провести  ночь. Выйдя  с  Арбата,  он пошёл  по  бульвару,  где  сел  на  лавочку.  Вскоре  к  нему  подсела  девушка. Худенькая,  светленькая.    Она  попросила  папиросу   и  сразу  стала  уверять  его  в  том,  что  она  не  такая,  как  он  о  ней  думает,  что  ей  просто  нечем  кормить  мать  и  сына  и  что если  они  будут  встречаться,  то она  вернёт  ему  деньги,  когда  найдёт  работу по  специальности.  Он  поинтересовался  её  специальностью. Оказалось,  что   она  балерина.  В   переулке,  выходящем  на  бульвар,  они  зашли  в  невысокий  дом  и  по  длинному  коридору они  прошли  в  её  комнату,  вернее,  в две  комнаты,  вторую,  запроходную,  занимали  её  мать  и  маленький  сын,  что  понял  он  по  ворчанью  и  бормотанию  за  дверью.  Здесь,  в  этом  маленьком  мирке  этой  маленькой  женщины  он чувствовал  себя  неуютно.  Всё  казалось  ему таким  хрупким  и  жалким,  что  он  боялся  сделать  лишнее  движение.  И  эта  полочка  с  фотографиями  в  рамочках,  и  это  зеркало с фацетом  и слоники  на  комоде,  и  эта  железная  никелированная  кровать   с подзорами,  накрытая  кисеёй,  -  казались  ему  давно  знакомыми,  как  будто  он  видел  их  во  сне  о  своём детстве. Она  попросила  его  отвернуться, и  когда  он  сделал  это,  юркнула в постель.  Он  не  спешил  ложиться.  Курил  и  молчал. Самое  неприятное  было  то,  что он  боялся  этой  маленькой  женщины. За  годы  лагеря  он  отвык  от женского  пола  и теперь не был  уверен в себе.  Смешно, - думал  он, - лагерных  урок не  боялся, а  этой  фитюльки…    Утром  он оставил  ей  сто  рублей  и  ушёл  в  паршивом  настроении.  Ювелир,  когда  он  пришёл  в  лавочку,  познакомил   его  с  каким-то  кавказцем (то ли с грузином, то ли с армянином)  Тот  повёл  его  по   Пресне,  деревянные  домишки  которой  были  похожи  один  на  другой.  В  одном   таком  домике  они  поднялись  на  второй  этаж  и  кавказец  три  раза  постучал  в  квартиру.  Дмитрий  на  всякий  случай  взял  в  руку  нож.  В  квартире  находился  ещё  один    кавказец  и еврей,  толстый  и  лысый.  Кавказцы  представили  его  как  покупателя.  Перед  ним  стоял  накрытый  белой  скатертью  стол.  На  столе  стояли  бутылки  коньяка,  водки,  тарелки с закуской: салатом,  селёдкой,  икрой, крабами,  колбасой.  Сначала   говорили  о  деле.  Толстый  еврей  достал  аптекарские  весы  с   гирьками  и  взвесил  части  самородка.  Сговорились  о  цене и  толстый  достал  деньги.  Перед  тем  как  отсчитывать  их,  он  предложил  Дмитрию  положить  самородок  в  ящик  стола.  Когда  самородок  был  положен,  толстый  закрыл  его  на  ключ,  а  ключ  отдал  Дмитрию.  После  этого  он   отсчитал  и  передал  ему  деньги.  По  окончании   сделки  кавказцы,  как  положено,  предложили её  отметить.  Выпили,   закусили. Кавказцы  спели  «Сулико»  после  чего  Дмитрий  перестал  воспринимать  окружающее.  Когда очнулся,  денег  при  нём  не  оказалось, вернее,  осталось  несколько  сотен  на мелкие  расходы.  Не  было и самородка, а  заодно и стола,  в  ящике  которого  самородок  был  заперт.  Дмитрий  кинулся в лавку  ювелира,  но  лавка  была  закрыта.  Он  сел  на  какой-то  ящик  и  ударил  себя   кулаком  по  лбу. – Идиот, фраер  вшивый,  как  же  это  я!  Тут  он  вспомнил  рассказ  одного  зэка,  тоже  грузина,  или  армянина  о  том, как  тот   с  друзьями  проводил  подобные  операции.  Они   использовали  при  этом складной  столик  с   ящиком,  запирающимся  на  ключ.  Вот  почему  пропал  тот столик, понял  он.  Но  было  поздно.   Надо  было  что-то  делать.  Но  что?   Не  бежать  же  в  милицию.  Она  его  и так  ищет.  Остаётся  пробираться на Север, к  сестре  и деду.  На  Ярославском  вокзале  он  сел  в  поезд.    Ночью  его  мучили  кошмары.  Он  видел  тех,  кого  убил, пробираясь  по  стране   с   этим  чёртовым  самородком  и  тех,  кого  хотел  убить,  но  не  убил.  Ему  было  до  слёз  обидно,  что  его, прошедшего  огонь  и  воду,  имеющего  руки  по  локоть  в  крови,  так  облапошили  какие-то  фраера,  рвань  нерусская. - И  как  это  у  них   всё  гладко  получается, - думал он.  Как  они  умеют  мозги  запудрить.  Как  сыпят  они  такими  словами,  как «Дорогой»,  «генацвали»  и  как  умеют  обнять  за  плечи,  посмотреть  любящим открытым  взглядом  тебе  в  глаза,  какие  тосты  произносят  и  какие  златые  горы  обещают, если  ты  когда-нибудь  заедешь  в  их  город  или  село.       Общаясь с  немцами,  и  с  русскими    он  никогда  не  слышал  от  них  ни  подобных  слов,  ни  подобных  обещаний.  Может  быть,  потому  не  могу  я  быть  таким,  как  эти  гады,  что  меня  в  детстве  мать  врать  не  учила? – спрашивал  он  себя  Нам,  русским,  легче  убить, чем  вот  так,  как  эти,  комедию  разыгрывать. Да  и  лень  нам  выдумывать  что-то.   Душа  горит и результата  требует.  Терпения  нет.  Гоп-стоп  - наше  призвание,  а  для  тех,  кто  постеснительнее – кража.  А в  преступном  мире  евреев,  кавказцев  и  цыган  существуют  «изобретатели»  Это  они  придумывают  всякие  мошеннические  комбинации  такие,  как со  столиком,   с   разменом  денег,  со  сбытом  стекляшек  под  видом  драгоценностей  и  множество  других  хитрых  комбинаций,  требующих  располагающей  внешности  и  артистических способностей.   Что ж,  каждому  своё,  а  гадов  этих  я  всё-равно  найду -  подумал  он, - и,  повернувшись  к  стенке,  уснул.

Тайна   оскопления  Славы  сохранялась  не долго.  Повариха  Татьяна в  разговоре  с  посудомойкой Соней    как-то  брякнула  об  этом,  не  обратив  внимания  на  Лёху, пожиравшего  из  лохани  баланду.  Нечего  и  говорить,  что  через  пол  часа  об  этом  знал  весь  монастырь  и  прилегающая к нему деревня.  Мария  Ивановна, встретив  во  дворе  Лёху,  стала  ругать  и  стыдить   его.  Лёха  же    обвинил  её  в  содействии  оскопителям  и  пригрозил    «накостылять»  ей  и даже  замахнулся  на  неё.  И  надо  же  такому  случиться,  что  в  этот  момент, совершенно  неожиданно,  появился  рядом  Митя.  Заметив,  что  Лёха  непочтительно  разговаривает  с  Марией  Ивановной  и  даже  пытается   её  ударить,  Митя,  подойдя  сзади,  взял  Лёху  за  шиворот  и  поднял  над  землёй.  Лёха  заорал  и   задрыгал  ногами.  Мария  Ивановна  стала  просить  Митю  отпустить  Лёху.   Тот   нехотя  поставил  его  на землю.  Лёха,  отбежав  на  несколько  шагов, зло  поглядел  на  Митю  и  что-то  злобно  пробормотал.   Мария  Ивановна  после  обеда  зашла к  Славе.  Он   всё  так же  лежал,  глядя  гладью  голубых  своих  глаз  в   белый  потолок.  Она  пыталась  как-нибудь  отвлечь  его  от  печальных   мыслей,  но  у  неё  ничего  не  получалось.   И  тут  она  вспомнила  Николая  Островского,  про  которого  слышала  ещё  до  войны.  Этот  Николай  Островский  ослеп,  не  мог  двигаться,  но  не  сдался,  не  превратился  в  бревно  бесчувственное,  а  стал  писать  книги  про  Павку  Корчагина,  то есть  про  себя.  Она  рассказала  о  нём  Славе  и  уговорила  его  сочинять  что-нибудь,  а  она  будет  его  рассказы  записывать.  Когда  она  пришла  к  нему  на  другой  день,  он  продиктовал  ей  начало  своей,  как  он  её  назвал,  «Повести  о  печальной  любви»  Повесть  начиналась  так: «Льются  звуки,  нежно  осыпаются  лепестки  музыки,  вянет  свет  электрических  лампочек,  а  прямо  перед  окнами  остановились  загадочные  зрачки  осеннего  вечера.  Я  знаю,  в  этой  темноте  полощутся  голые  ветви  осинника,  грустно  развеваются  длинные  пряди  берёз,  по-девичьи  рдеют  красные  ягоды  рябины   и  старый  дуб  монотонно  машет  небу  своими  последними  листьями.  Там  в  синеющих  сумерках   застыли  хороводы  звёзд,  бросая  на  землю  горсти  лучей.  Звёзды  дышат,  звёзды  любят,   улыбаются,  звенят  и  напевают  свои  неуловимые   для  нас  напевы.  Вдалеке,  словно  голуби,  посматривают    тускло  освещённые  деревни,  контуры  леса,  верстовые  столбы.  Я  о  чём-то  думаю.  Пробегают  одна  за  другой  картины  прошлого.  Вот  набежало  настоящее.  И  грустно,  и  безотрадно,  и  неопределённо…  Что  я  есть?…  Что  кругом?  Что  в  каждой  точке  земли?  Чем  там  живут?   Глаза  мои  устают от безответной  темноты.  Что  это  такое?  Неужели  пришла  осень?»  У  Марии  Ивановны  застучало  сердце.  Славины  слова  о  таких  простых,  знакомых  и  совсем  непримечательных  для  неё   вещах и явлениях,  показались  очень  красивыми  и  значительными.  Она  не  жалела  на  них  своих  каракуль  и   даже  забыла   о  своих  обязанностях,  ждавших  её  с грязной  тряпкой в руках.  Она  с  упоением  записывала  Славины  фантазии, и  мир  открывался перед  ней  совсем  в  другом  свете и цвете.  «Догорают  последние  краски  заката,  жухнут  и  словно  обугливаются.  В  далёкой  глубине   затрепетали  крупные  искрящиеся  звёзды.  Я  не  перестаю  думать  о  Любе,  не  перестаю   ей  желать  счастья…»   От  слова  «Люба»  Марию  Ивановну  передёрнуло.  Уйдя от  Славы,  она  не удержалась, чтобы  не  зайти к  ней  и не  поделиться  своим   впечатлением  от  Славиной  повести.  На  Любу  её  восторженные  слова  не  произвели  никакого  впечатления.  Заметив  это,  Мария  Ивановна  повернулась,  чтобы  уйти  и когда  открыла  дверь,  услышала, как  Люба неуверенно  и, как  бы  стесняясь, прошептала: «Скажите  Лёхе,  чтоб  зашёл»   Мария  Ивановна  плюнула  и  вышла   из  палаты,  хлопнув  дверью.

Когда  стало  вечереть,  Михаил  Ефимович  Кошкер  попросил  Лёху  принести  в  его  кабинет  Ивана  Ивановича.  «Интеллигенция»  Дома  инвалидов  №17  была  немногочисленна.  Иван  Иванович, Михаил Ефимович,  два   инвалида  из  общетерапевтического и один из  психиатрического  отделения, а,  бывало,  что  и   погибший  Мамин – он  был  музыкантом и вносил  в  разговор  лирическую  струю.  Иногда  их  посиделки  посещал и бывший священник  Красовский.    Говорили обо  всём,  в том  числе  и  о  том,  о  чём  обычно  говорят  русские  люди,  когда  думают,  что  их  никто  не  подслушивает.  Бывало  Иван  Иванович  скажет, хитро  прищурившись: -  А всё-таки  нет  более атеистической  интеллигенции; чем  русская!  И  тут  же  Михаила Ефимовича  прорвёт: -  Ну,  что  Вы, Иван  Иванович,  а  кто  же  такие  все  эти  Соловьёвы,  Булгаковы,  Леонтьевы,  Ильины,  как не интеллигенты?  А  Толстой,  а Достоевский?  -  Человек,  придерживающийся  тоталитарного  учения, каким  является  учение  церкви, - вступив в  беседу, скажет  третий, - не  может  быть свободен  в  мыслях,  а  без  этого    не  может  быть  интеллигента.     И  тут  пойдёт  у  них  дискуссия,  от  которой  они, то  соглашаясь, то  не  соглашаясь друг  с  другом, получат  удовольствие не столько  от  смысла  сказанного,  сколько  от  удачного   интересного  словца  или  образа, смелости  мысли.    И  вот,  в  продолжение начатого  разговора,  один, ели  дождавшись  окончания  тирады  другого,  скажет: -  Позвольте,  да  как  же  это,  ведь,   начиная  с  Белинского,  атеизм  стал  непременным  признаком  интеллигентного  мировоззрения. 
- Да  это  всё поза,  - кто-нибудь  скажет, -  это  ему  диктуют  правила  хорошего  тона,  которые  он  заимствовал   у  европейцев, а сам,  как прижмёт  болезнь,  так  бога  вспоминает.   
-Это ни о чём не говорит, - ответят ему, - ведь  приверженность  интеллигенции  к  просвещению  само  по себе  делает  её  безразличной  к  вопросам  веры. 
- Нет, батенька, - закатив глаза,  встрянет кто-нибудь третий в разговор, - суеверные страхи живут во всех. Да и поверить чему-то потустороннему легче,  чем живому человеку. Возьмите Вы Шекспира. Поверил Отелло Яго, задушил любимую женщину, а оказалось, что враньё, а Гамлет узнал об убийстве своего отца от его тени и не ошибся. А ведь Гамлет реалист, а тут вдруг поверил, и все поверили. Почему? Не потому ли, что тень соврать не могла. А сказал бы ему об этом Гильдестерн, или Розенкранц или даже Горацио,– как можно было бы поверить?
И  тут все заговорят  наперебой,  так,  что     посторонний  наблюдатель  не  сможет понять,  кто  какую  позицию  занимает  и  против какой  возражает.   
-  Но  ведь  тем  самым  интеллигент  отдаляет  себя  от  народа,  а  своими  «научными»  проповедями,  как справедливо  считали  наши  православные  мыслители,  он  только  разлагает  душу  народа и  сдвигает  её  с  незыблемых  вековых  традиций. 
-  Вы  называете  «вековыми  традициями»  рабство?  Чем  же  Вы  отличаетесь  от  Достоевского,  который  призывал  русскую  интеллигенцию  во  имя  высшей  святыни  к  духовному  самоотречению,  к  пожертвованию  своим  гордым  интеллигентским «я», а  что  это,  за  высшая  святыня,  ради  которой  люди  должны   сносить  и  нищету,  и  несправедливость,  и  варварство, - не  объяснил. 
- Они  понятны  каждому  человеку,  почитайте  Нагорную  проповедь,  в  ней  всё  сказано. 
-  Не  всё.  В  том-то  и  дело,  что  не  всё - выпалит  Иван Иванович, -  В  ней ничего  не  сказано  о  подвиге  самого  Иисуса  Христа,  выступившего  против  лжи  и  жестокости.  Заметьте, не  против  веры и пророков,  а  против  косности и  ограниченности  священнослужителей!  Его  поддержит  представитель  нервно-психиатрического  отделения,  которого  после подобных  бесед в кабинете  главного  врача,  не  раз  приходилось  фиксировать,  привязывая  к  койке, - Посмотрите, - скажет  он, - какую  он интеллигенцию в «Бесах»  вывел! Это карикатура  на  интеллигенцию! Он  сравнил  её  с  евангельским  бесноватым, а  сам  то  он и  был  первым бесом, как  Победоносцев и  ему подобные.  Это  они  своей  тупой  и  варварской  политикой  толкали  людей  на  путь борьбы  и  террора! 
И тут  Михаил Ефимович,  спохватившись,  бывало, закричит: - Господи,  заговорились мы,  а  я  Вас  ещё  чаем  не  напоил!  И  начнёт  угощать  гостей  чаем,  а  Ивана Ивановича – поить,  то  и  дело  отстраняя  кружку  от  его  рта,   поскольку тот  ни на минуту не  умолкает.    
– Да  русская  интеллигенция, - примирительно  скажет  представитель  общесоматического  отделения, - предпочла  путь  борьбы не  ради  всеобщего  равенства,  поскольку  в  большинстве  своём  жила лучше, чем  жил  народ Возьмите  вы  того  же  Герцена,  Плеханова, Лаврова,  Ленина  - все  они  выходцы из  дворянского  сословия и жили  отнюдь не  бедно, а  потому,  что  их  привлекала та  же  личность  Христа  своей  жертвенностью.  Героизм -  вот  то слово,  которое выражает  основную  сущность  интеллигентского  мировоззрения  и  идеала,  а  до  чего  этот  героизм  довёл,  мы знаем.  Тут у  нас не  мало  тех,   которых   его  плодами  пришибло. 
-  Вы  не  правы. -  скажет на это  Михаил  Ефимович, -  Конечно,  путь  борьбы  не  всегда  приводит  в  сады Эдема,  но это  не  значит,  что   человечеству  этот путь заказан  и  если    мы  говорим,  что  дети за  грехи  отцов  не  отвечают,  то  почему бы  не  сказать  и  то,  что  не  могут  за  все  художества  детей  отвечать    родители! 
  Подобные разговоры  длились  часами,  оттачивая  языки  и  углубляя  извилины.  К тому  же  они  стимулировали  участников дискуссий  к  чтению,  а  для  этого  в  заброшенном  монастыре  была  неплохая библиотека,  оставшаяся  в  наследство  от  прежних  времён.  Правда,  большинство  книг  в  ней  принадлежало  к  т.н. духовно-нравственному  жанру,  а  поэтому  они  не  вызывали  интереса  у большинства  обитателей  Дома  инвалидов.  Возможно  для  них   самоограничение,  бедность и  сопротивление  похоти  не   имели  той   привлекательности,  которую   бы  они  могли  иметь  для тех,  кому земные  радости  были   доступны.  Они  не  понимали,  наверное,  почему  жизнь  впроголодь  и  «связь  с  кулаком»  являются воплощением  высокой  духовности  и  отказывались  это  понимать. 
На  этот  раз  в  кабинете  главного врача  их  было  двое: Иван  Иванович и Михаил  Ефимович.   Мамина  не  стало,  Красовский,  запуганный  Савиным,  сидел у себя в деревне,  один из представителей  общесоматического  отделения  уехал,  другой  - умер, а  тот,  что  находился  в  психиатрическом  отделении, совсем  свихнулся и  стал  утверждать, что  через 50  лет, хоть и не навсегда,  в  Россию,  как  Дед Мороз на новый  год,  придёт  демократия.  Иван  Иванович  и  Михаил  Ефимович   отводили  на  подобные  перемены  в  Союзе  более  длительный  срок,  порядка  300  лет.  На этот раз  им  особенно  хотелось  спокойно побеседовать,  чтобы  отвлечься  от  неприятностей. Они,  увлечённые  разговором,  не  знали,  что  их,  приложив  ухо к  замочной  скважине,  подслушивает  Лёха.  Ему это было  необходимо, ведь  не  зря  же  он  предложил  Савину  свои  услуги,  а Савин,  хоть  и  не  принял  его  предложение всерьёз,  всё  же  не  оттолкнул  его,  не  прогнал,  посчитав, что  в  его  деле  всякий,  даже  самый  ничтожный  человечек  может  пригодиться.  Поэтому-то  так  внимательно,  несмотря  на  неудобство  позы  и  опасность  быть застигнутым  за  этим  гнусным  занятием,  Лёха,  не  отрываясь  от  замочной  скважины,  слушал  разговор  двух  презиравших  его  людей,  практически  не  понимая  смысла  сказанного,  а  улавливая лишь  те  слова, которые, по  его  мнению,   могли  быть  признаны  антисоветскими.  Иван  Иванович  же  и  Михаил  Ефимович  сначала  много   смеялись,  видно  шутили,  перебрасываясь  какими-то  дурацкими  фразами как,  например: «Знаете, ну,  что  Авраам  родил   Исаака,  я,  как  исключение,  допускаю,  но  чтобы ещё  Исаак  родил   Якова,  то   это  уж,  извините,  полный  нонсенс»,  или  «Женщина  любит  мужчину  в  себе,  а  не  себя в мужчине»     Перестав  шутить «интеллигенты»  перешли  к  «учёному»  разговору.   На  этот  раз  их  интересовали  проблемы  либерализма  и  тоталитаризма.   Один  из  них  сказал,  что  все  мы  бываем  и  либералами  и  тоталитаристами  и  зависит  это  от  того  на  какие  доходы  живём.  Человеку  на  жаловании  проще  быть  тоталитаристом,  а  крестьянину,  которому  нужна  свобода  торговли, – либералом,  и  что  доброта  и  мягкость  к  людям,  и  даже  к  преступникам, свойство  не  либерализма,  а  натуры  человека.  Потом   они  заговорили  о  каком-то священнике  по   фамилии  то ли Лоронский,  то  ли Форенский. Лёха  слышал  своими  ушами,  как  они  говорили  о  том,    что   для  того,  чтобы  руководить  таким  великим  государством,  как  СССР,  нужно  лицо  пророческого  склада,  что  лицо  это  должно  видеть  будущее  и  быть  таким,  как  Гитлер  и  Мусолини, что  появление  таких,  как  Гитлер,  отучит  массы от  демократического  образа  мысли, от  партийных,  парламентских  и  прочих  либеральных предрассудков и  даст  им  понять,  как  много  может  сделать  воля  властителя,  не  отягощённая веригами права.  Они  говорили,  что  священник  этот  учил  тому,  что  такой  вождь должен  не  бояться     выбросить  все  эти  избирательные  права  и  право  народа  на  представительство,  как  старую  ветошь,  которой  место  в крематории  и  что   как  бы этот  деятель  ни  назывался:  диктатором,  правителем  или  императором,  люди  должны  считать  его  истинным  самодержцем  и  подчиняться  ему  не  из  страха,  а  в  силу  трепетного  сознания,  что  пред  нами  чудо  и  живое  явление  творческой  мощи  человечества.  Сказанные кем-то  из  собеседников  слова  «Бред  какой-то»  Лёха  пропустил мимо  ушей,  они  были  ему  не  интересны.  То,  что  услышал Лёха  дальше,  вдохновило  его  на  донос  сверх  всякой  меры.  Упоминая  всё  того же Форенского  наши  собеседники  стали  говорить о том,  что  сделать  такую  власть  можно  только  с помощью  Германии, пообещав  ей  златые  горы,  и что Германия,  поверив  этим  обещаниям,  согласится  на  это  с  целью  подчинения  себе  СССР.
Когда  Лёха  нёс Ивана Ивановича  обратно  в  скит,  то  боялся уронить  его  или  упасть  и  нечаянно  прибить  этого  «интеллигента»,  понимая,  что в этом  случае  донос,  который он  теперь  предвкушал,  утратит  половину  своей  прелести.

Дмитрия  Морозова  не  покидало  мрачное  предчувствие.  Иногда   ему  казалось,  что  за  ним  следят.  Невозможность,  как  он  не  старался,  выявить  слежку,  его  раздражала  и  он  ругал  себя  за  то,  что,   наверное,  выдумал  её.  Успокаивая себя,  говорил: -  Ну, зачем  им  за  мной  следить?  Взяли  бы  давно  и  дело  с  концом. И  всё-таки  тревога  и  страх  не  покидали  его.  Он  понимал,  что  надо  «рвать  когти»  из  Москвы.  В  большом  городе,  где  столько  людей,  столько  углов, окон,  подъездов, подворотен,  столько  стеклянных  витрин,  зеркал,  застеклённых  газетных  стендов,  в  отражениях которых  ему  мерещились  волчьи  глаза  агентов  службы  наружного  наблюдения,  он  мечтал  об  одном:  оказаться  в чистом  поле,  чтобы  всюду,  куда  хватает  глаз,  было  пусто.  Однако,  на  его пути  к  чистому полю   стояла  одна проблема:  деньги.  Бежать  из  города  с  пустыми  руками  было  невозможно  и  глупо.  Но  что  было  делать,  не  нападать  же  с  ножом  на  прохожих,  у  большинства  из  которых  в   карманах  денег  не  больше,  чем  у  него.  Пойти на  ограбление  какой-нибудь  государственной   службы  (почты, сберкассы)  одному,  почти с  голыми  руками,  было  глупо.  Однажды,  когда  он  сидел  на  скамейке   какого-то  бульвара,  ему  захотелось  курить и  он  полез  в карман  за  «Беломором»  Вместе  с  пачкой  папирос  он  вытащил  из кармана  какую-то  записку.  Он  стал  разглядывать  её.  Текст  на  ней,  видно  записанный  карандашом,  почти  стёрся,  однако  он  смог  прочесть «Морковкина  Лидия  Александровна  Молчановка  дом 8 квартира 54»   Это  была  бумажка,  в  которую  был  завёрнут  самородок.  Сомнений  быть  не  могло.  Это  был  его  единственный шанс  и  он   отправился  на  Большую  Молчановку.  Дверь ему  открыла  девочка  лет  восьми.  Тут  же  в  переднюю  вышла  пожилая  дама  и  велела  девочке  идти  к  себе.  Та  ушла.  Дама  спросила,  что  ему    нужно  и  он  ответил,  что  он  от  Севера.  Она  предложила  ему  пройти в комнату.  Обстановка  комнаты  произвела на  него  впечатление. Он  решил,  что  здесь  должны  быть  деньги.  Книги  в  шкафах,  картины  в  золочёных  рамах  на  стенах,  пианино  с  канделябрами,  ковры – всё  говорило  о  состоятельности  хозяев  этот  «буржуазного  гнёздышка»  Дама,  войдя в комнату,  села  в  кресло,  а  ему  указала  на  стул.  Он  сел.  Тогда  она  достала  платок  и,  вытирая  повлажневшие  глаза,  сообщила  ему,  что  Северчик,  как  она  его  назвала,  убит.  Он  сделал  вид,  что  это  известие  поразило  его  своей  неожиданностью,  и  стал  рассказывать о  том,  как  они  дружили  там  и  каким  Север  был  хорошим  другом.  Дама  качала  головой  и  время  от  времени  прикладывала  платок  к  глазам.  Когда  он  поинтересовался тем,  почему  его  назвали  Севером,  дама  сказала,  что   так  захотел  его  отец,  один  из  первых   полярных  лётчиков  Советского  Союза.  Когда  он  собрался  уходить,  дама  предложила  ему  чай.  Он  отказался  и  встал,  направившись  к  двери.  Проходя  мимо  дамы,  которая  ещё  не  успела  встать,  он  достал  нож  и   всадил  его  ей  в шею.  Дама  подалась  вперёд,  захрипела и  выплеснула    изо  рта  кровь.  В  это  время  в  комнату  вошла  девочка.  Поняв,  что   даме  плохо, она закричала  и  подбежала к  ней.  Дмитрий   заколол  и  её.  Трупы  накрыл  ковром  и  стал  шарить  по  шкафам.  «Улов»  был  не  плохой: более пятнадцати  тысяч  рублей  и  кое-какие  ювелирные  изделия.  Он  запер  квартиру  на  ключ.  Ключ  выбросил  в  мусорную  урну  и  пошёл на  вокзал. 

«Слепому»,  наконец,  удалось  отковырять  цемент  и  вынуть  плиту.  Ощупав  образовавшийся  лаз, он понял,  что  может    пролезть  в  него.   Однако  сделать  это  решил  после  того,  как  уйдёт  Мария  Ивановна  после  вечерней  кормёжки  и  на  улице,  как  он  понял  с  её  слов,  будет  темно.   Со  слов  этой  женщины, не  подозревавшей  для  чего  он  говорит  с  ней  о  монастыре  и  его  постройках,  ему  стало  известно   местоположение  его  каземата  и  направление  движения  из   монастыря  на  дорогу  в   город.  Когда  на следующий  день  Мария  Ивановна  пришла  в  скит,  каземат  или  склеп,  как  его  ещё  называли,   то  слепого  в   нём  не  оказалось.  Поняв,  что  он  сбежал  через  лаз в  полу,  она   с  испугу  поставила   плиту  на  место,  и  побежала к  директору.  -  Ищите! – кричал  директор, - он не  мог далекой  уйти! 

Дмитрий  Морозов, сойдя с поезда,   сговорился  на  вокзальной  площади  с шофёром грузовика  за  тысячу  рублей  доехать  до  монастыря.  Добрался  он  до  него,  когда  стемнело.   Метров  за  двести   до  монастыря  он велел  водителю  остановиться.  Кода вышел  из машины,  подошёл    какой-то  слепой  и  попросил  довести  его  до  города  бесплатно.  Шофёр  махнул  рукой  и  сказал   «Садись!» После   убийств   на  Большой  Молчановке  чувство  страха  в    Дмитрии Морозове разрослось  ещё  больше.  Он  даже  не  пошёл  через  монастырь,  опасаясь,  что  появление  в  нём  в  такое  позднее  время  постороннего  человека  может  вызвать  тревогу.  Он  решил  идти  в  обход.  Стало  совсем  темно.  Дорога  была  плохая,  он  часто  спотыкался,  падал или  утопал  в   снегу  и  порядком  устал.  Вдруг  впереди  запрыгали  какие-то  огоньки.  – Деревня,  - мелькнуло  у   него  в  голове, -   однако,  почему  эти  огоньки  движутся,  неужели  волки?  Да,  это  были  волки,   голодные  весенние волки.  Он  достал  нож.  Волки  окружили  его  и  бежали  рядом,   принюхиваясь  и   присматриваясь.  Наконец,  один  из  них,  молодой  и  нахальный,  подбежав  к  нему,  цапнул  за  ногу.  Дмитрий  махнул  ножом  и  порезал  ему  холку.  Почуя  запах  крови,  волки  осмелели.  Один  из  них  набросился  на  него  сзади,  вцепившись  в  воротник.  Дмитрий   попытался   ударить  его  ножом,  но  поскользнулся и  упал.  Волчица  вцепилась  ему  в  горло.

Утром  не  только  весь  Дом  инвалидов,  но  и  вся   деревня были  подняты  на  поиск  «Слепого»,  но  его  нигде  не  было.  Зато  недалеко  от  монастыря  был  найден  труп  мужчины  с  перерезанным  горлом. Труп  отнесли  в  морг.  За   последнее  время  это  был  уже  третий  случай  подобной  смерти.  По  деревне  прошёл  слух  о  том,  что  в  округе  появился  оборотень.  Бабы  заголосили  и  перестали  выпускать  детей  из  дома,  мужики  стали  вооружаться.  Вот  в  этот - то  момент  Лёха  и  вспомнил  о  Мите.  -  Это  Митька,  Митька  всё,   кто  ж  ещё,  кроме  него?  -  болтал  он,  шлясь  по  деревне и  монастырю. Вскоре  у  конторы  Дома  инвалидов  собралась   толпа  деревенских.  У  мужиков  в  руках  были  колья,  вилы  и  грабли.  На  крыльцо  вышел  директор  Гырымов.  – Что  Вам надо? – спросил  он.  - Митьку,  Митьку  давай! -  закричала  толпа.  -  У  меня  его  нет, - ответил  директор  и  продолжил: - Органам  власти  сообщено  о  найденном  человеке.  Скоро  приедет  следователь  и  во  всём  разберётся. – Знаем  мы,  как  он  разберётся!  Уже  третий  покойник,  а  следователя  и  след  простыл. Давай  Митьку!  Узнав  о  толпе,  ищущей  Митю,  Ляжкина испугалась,  но  не  только за  Митю,  но и за  себя. Она  хотела  найти  Митю, предупредить  его,  спрятать,  но  боялась  выйти  на  улицу.  Лёха  вспомнил  о  ней,  когда   толпа  была  готова  громить  контору  Дома  инвалидов,  и  чтобы  отвлечь  её  от  этого,  крикнул:  -  Он  у  Ляжкиной!  - и  повёл  толпу  к  её  квартире.  Мужики  сначала  материли  её  грязно  и зло,  а  потом  стали  бить  стёкла  её  окон.  Она  залезла  под  кровать  и  кровать  затряслась  от  её  озноба.  Видя,  что  она  не  отвечает,  они  ворвались  в  её  комнату  и  стали  бить  всё,  что  попадалось   им  под  руку.  Били  и  её  саму.  Били   зверски,  не  обращая  внимания на  её  мольбы  и  слёзы.  Когда  она  потеряла сознание,  мужики  бросили  её  и ушли.  Обыскав  барак  и  не  найдя  Митю,  они  вышли  во  двор  и  снова  направились  к  конторе,  и  тут  увидели  шедшего  им  навстречу  Митю.  – Бей  душегуба! – крикнул  кто-то,  и  толпа  кинулась  на  Митю.  Он,  видно,  не  понимая,  что  происходит,  сначала  заулыбался  бегущей  ему  навстречу  толпе,  но  когда  первый,  подбежавший  к  нему,  замахнулся  на  него  палкой,  он  вырвал  её  у  него  из  рук  и  закинул  за  монастырскую  стену. В  этот  момент  на  него  обрушился  град   ударов.  Он  отбивался,  как  мог,  но  ударов  было  так  много  и  они  были  такими сильными,  что  некоторые  палки  даже  сломались.   Вилы  и  грабли  намокли  от  крови.   Наконец,  кто-то всадил  ему  в  шею  заострённый  обломок  палки.  Хлынула  кровь.  Митя  встал  на  колени  и  захрипел,  обводя  толпу  озверевших  людей  ничего  не  понимающими  глазами.  Его  ещё  несколько  раз  сильно  ударили  по  голове,  он  упал,  уткнувшись лицом  в  снег,  и  затих.  Тут  прибежала  его  мать и  с  криком  кинулась  к  нему.  Кто-то  крикнул – Бей  ведьму! -  но  на  этот  призыв  никто  не  откликнулся.  Люди,  совершив  убийство  и  опохмелившись  кровью,  притихли  и  успокоились.  Подобрав  свой  сельскохозяйственный  инвентарь,  они  стали  расходиться   по  домам.      Когда  почти  все  ушли,     на  территорию  монастыря  въехал  санитарный  фургон,  на  матовых  окнах  которого  краснели  красные  кресты.  Фургон  остановился  у  морга.  Два  дюжих  санитара  вошли  в  морг  и  вынесли  из  него  на  носилках  найденный  в  этот  день,    труп.  Погрузив   его  в  фургон  и,  не  сказав  никому  ни  слова,  они  уехали. 

Вечером  в  монастырь  пожаловал  Савин с молодым  помощником.  Чувствовалось,  что  терпению  оперуполномоченного  пришёл  конец.  Он  кричал  на  испуганного  директора,  перечисляя  цепь  странных    и  безобразных  происшествий,  произошедших  в  его  «кефирном»  заведении  в  последнее  время:  прослушивание  по  радио  «Голоса  Америки»,  убийство  Мамина,  антисоветский  митинг  у  каземата,  убийство  Ореховой,  оскопление  «самовара»  и,  наконец, новый  труп  в  поле,  побег  «Слепого»  и  убийство  Мити.  Не  много  ли?   Директор  заикался   и  дрожал  от  страха,  он  уже  видел  себя  не  в  своём  уютном  кабинете,  а  в  лагерном  бараке  и  ощущал задом,  не  мягкость  кресла,  а  жёсткость    нар,  а  поэтому был  готов  на  всё,  лишь  бы  чаша  сия  его  миновала.  Он  каялся,  угощал  Савина  чаем  с  печеньем,  клялся  найти  «Слепого»,  однако  ничто  не  действовало   на  уполномоченного. События  явно разворачивались не в его  пользу.  Осматривающий  скит,  в  котором  находился  «Слепой»,  молодой  помощник  Савина  заметил  отсутствие  цемента   вокруг  каменной  плиты.  Он  отодвинул  плиту,  спустился  в  подземный  ход  и  нашёл  в  нём  ложку,  которой  «Слепой»  ковырял  цемент.  Узнав  об  этом,  Савин  велел  найти  Марию  Ивановну,  а  когда  её  привели,  стал  требовать  у  бедной  женщины  ответа  на  вопрос  «Почему  она  помогла  «Слепому»  бежать,  передав  ему  для  этого  металлический  предмет  в виде  ложки,  и  где  теперь  находится  «Слепой».  Мария  Ивановна  божилась  тем,  что  ложку  не  передавала,  а нечаянно забыла  в  ските,  что об  этом  она говорила  поварихе  Татьяне,  а  где  находится  теперь  «Слепой»  понятия   не имеет.  Савин ей  не  поверил  и  её  арестовал,  заперев  в  скит,  из  которого  сбежал  «Слепой»,  а  ключ  от  него  взял  себе.   У  скита  его  поджидал  Лёха,  который  сообщил  ему   о  разговоре  Ивана   Ивановича  с  Михаилом Ефимовичем.  Савин  велел  написать  ему  заявление   на  имя  начальника  районного  КГБ.  Поскольку  Лёха,  мягко  говоря,    слогом  не  владел,  Савину  пришлось  самому  бессвязные  и  косноязычные фразы своего  нового  помощника  облекать  в   более-менее  понятную  форму.   В  этот  момент  его  позвали в  кабинет  директора,  к  телефону.  Начальник   приказал  ему  выяснить,  не   появлялся  ли  в  деревне  брат  ссыльной  Евдокии  Морозовой -  Дмитрий,  и,  если  он  там,  то  немедленно  его  арестовать.  Савин  вместе с помощником,  бросился  в  дом  Морозовых,  захватив  с  собой  Лёху.  Недалеко  от  дома  он  велел  Лёхе  пойти  проведать  соседку  и  посмотреть,  нет  ли  у  неё  кого.  Лёха  вернулся  ни  с  чем.  Дом  оказался  заперт.  Удалось  выяснить,  что  ещё  два  дня  тому  назад  Евдокию  и  деда  забрал  следователь  прокуратуры и  увёз  в  город.  Оказалось,  что,    действительно,  в  деревню  приезжал  следователь   Орехов с прокурором  района  и  они  арестовали  Морозовых  за  оскопление  одного  из  «самоваров».  Савин  вспомнил  о  найденном  за   монастырём  трупе  и  кинулся  в  морг,  но  там,  кроме  трупов  старухи  и  безногого  мужика,  других  трупов  не  было.  Где  загрызаный? -  взревел  Савин.  -  Сегодня  в  город  увезли – ответил  санитар  морга.   – Кто? -  Приезжали  какие-то  на  санитарной  машине.  От обиды  и  бессильной  злобы  Савин  готов  был  перестрелять  всех  в  этой  обители  тупости  и  разгильдяйства.  В  голову  его  даже  полезли  совсем  не  патриотические  и  не  партийные  мысли,  но  делать  было  нечего,  пришлось  доложить  начальству  то,  что  есть   и  с пустыми  руками  возвращаться  в  город.  Впрочем,  не  совсем  с пустыми.  У  него  имелась  в  руках  группа  заговорщиков,  которые,  по  словам  Лёхи,   восхваляли  Гитлера и готовили  в  стране  переворот  с  помощью  немцев. Разведя  Михаила  Ефимовича и Ивана  Ивановича  по  разным  кабинетам,  Савин  с  помощником  преступили  к  их  допросу.  Особое  рвение  при  этом  проявил  молодой  помощник,  которому  достался  допрос  Ивана  Ивановича.  После  его  не  совсем  понятных  объяснений  по  поводу  либеральной  и  тоталитарной  форм  устройства  общества  и  философских  воззрений  ряда  лиц и,  в  частности,  некоего    священника   Флоренского,  молодому  помощнику  стало  ясно,  что  задержанный  темнит  и  пытается  увести  разговор  в  сторону,  пользуясь  познаниями  в  области,  не  имеющей  отношения  к  настоящему  делу,  а  поэтому  он   записал  в  протоколе   такую  фразу:  «Перестаньте  хитрить  и  уходить  от  ответов  на  поставленные  перед  вами  вопросы.  Следствию  всё  известно  о  ваше  преступной  деятельности,  приступайте  к  даче  правдивых  показаний»  Иван  Иванович  видно  не   понял,  что  от  него  ждёт  следователь,  и  стал  повторять  то,  что  уже  не  раз  говорил.  Молодой  помощник,  которому  надоело  возиться  с  этим  старым  ослом,  мотавшим  ему  душу  своей  дурацкой  болтовнёй,  не  сдержался  и  сильно  ударил,  сверху  вниз,  Ивана  Ивановича ладонью  по  лицу.  У  того   брызнула  кровь  из  носа  и  он  крикнул: «За  что!»  Этот  крик  услышал  Савин.  Он  вбежал  в кабинет,  чем  спас  Ивана  Ивановича  ещё  от  одного  удара.  Допрос  был  прекращён.  Савин решил  оставить  этот  старый  «самовар»  в  монастыре,  а  Михаила  Ефимовича  толкнул в машину  и  уехал.         
         
Операция  прошла  успешно.  Кузнецов  под  хлороформом  видел  сны  о  своей  московской  жизни.  Он  приехал  в  столицу,  потому  что  ехать  ему  был  некуда.  То,  что  было  его  домом,  его  близкими,  навсегда  исчезло  с  лица  Земли.  В Москве  же  легче  было  приспособиться  к  жизни,  найти  какое-нибудь  занятие,  чтобы  прокормиться. Он  решил  продолжить  образование  и,  приехав  в  Москву,  стал  подыскивать  подходящий  институт.  Нашёл. Там сказали  «Приходите  в  августе»,  а  это  был   февраль.  И  жизнь  закружила  его,  однорукого  и  одноногого  в  своих  объятиях.  Жил  с  такими  же,  как  он  сам, убогим  в  подвале  какого-то  большого  дома  на  Трубной.  Днём  торговал  папиросами  на  Цветном  бульваре, ставшем частью Центрального рынка ночью  пьянствовал.  Костыли его были грязные и ободранные. Клеёнка, которой была обтянута вата на их верхней перекладине, порвалась и  из-под неё торчала вата. Стоя на рынке, он устраивал культю ноги на нижней перекладине костыля. Бывало, напившись, дрался с такими же, как он,  зло и безотчётно, упиваясь боем, как воспоминанием о своём героическом прошлом.  После драки  ползал по земле, подбирая костыли. Он чуть было не свыкся со всем этим тоскливым и заунывно-драчливым бытом, однако, жизнь пощадила его и свела  его  с  одним  стариком,  поведавшем  ему  перед  смертью  о  каких-то  сокровищах,  награбленных  фашистами,  и с  женщиной  по  имени  Тоня,  спившейся  актрисой.  Бывало,  скажет  ей: - Актрисуля,  трахнем  ещё  по  маленькой,  и  она,  хитро  посмотрев  ему  в  глаза,  ответит: - Ну,  разве  что  по  маленькой. Сокровища  он, подобно графу Монте-Кристо  искать  не  стал,  не  до  того было,  а  женщину  эту,  самую  любимую  из  всех  его  самых  любимых,  как-то  по  пьянке,  зарезал  один  псих.  С  горя  он  бросился  под  поезд  после  чего  и  оказался  в  ските.
Пока  Кузнецов  смотрел  сны  о  своём  прошлом,   Рыжая  бестия нервничала.  Когда же,  наконец,  влюблённый  в  неё  хирург   стянул  со  своих  рук  резиновые  перчатки  и  вытер  пот  со  лба,  она  спросила  его: -  Ну  как?  И  он  ответил: - Нормально. Будем  надеяться  на  лучшее.  Для  такой  надежды  были  основания. Во-первых,  у  Кузнецова  и  его  донора  была,   к  счастью,  одна  группа  крови и,  во-вторых,  у  хирурга  было  какое-то  заграничное  средство,  способствующее  приживанию   тканей.    Когда Кузнецов  пришёл  в  себя   после  наркоза,  то  увидел  над  собой  лицо  влюбленной  женщины.  – Хорошее  начало!  -  подумал  он.   
Радоваться  жизни  Рыжей  долго  не  пришлось.  Савин  установил  на  чьей  машине  вывезли  труп  из  морга  и  кто  всё  это  организовал.  Через  день  после  операции  Рыжая оказалась  за  решёткой.  Хирург  же,  предвидя  такой  сценарий,  заранее  подготовил  фальшивые  документы  на Кузнецова  и  уложил  его  в  клинику  под  чужой  фамилией.  Оставалась  одна  проблема:  куда  девать  остатки  трупа  донора?    Выход  был  один:  сдать его,  как  обычно,  на  кладбище  вместе с невостребованными  трупами.  Но  были  ли  такие?   Оказалось,  что  один  такой  был.  Хирург  исправил   единицу  на  двойку  и  велел  сегодня  же отвести  трупы  на  кладбище.  Савин  запретил  привлекать  хирурга к  работе в районной  больнице,  а  Рыжую  выпустил  по  указанию начальника,  решив,  что  у  неё  во  власти  есть  большая  мохнатая лапа.

В  Дом  инвалидов,  несмотря  на  все  жуткие  события  последнего  времени,  всё-таки  пришла  ленивая и  сонная   северная  весна.   Запели  кое-какие  птицы,   закапала  вода  с  крыш,  на  дорогах  затемнели  проталины.  Коллектив  сотрудников  и  контингент  его  обитателей  стали  готовиться  к  праздникам:  Первомаю   и  Дню  победы.  Как-то  в  ските  заговорили  о  будущем  концерте  и  стали  обсуждать   кто  с   каким  номером  может  выступить.  – Федька  спляшет, - сказал   Чиж, - А  Моисеенко  фокусы покажет – А  Ваня  обосрётся – сострил  Федька.  Иван  Иванович  на  эти  слова  никак  не  реагировал.  Он,  вообще,  после  того  допроса,  перестал,  как  говориться,  участвовать  в  жизни  коллектива.  Всё  молчал  и,  не  смотря  на  уговоры  «Партизана»  рассказать  что-нибудь,   так  ничего  и не  рассказал. Незадолго  до  1-го  мая,  когда  утром,  теперь  под  конвоем  Лёхи,  Мария  Ивановна  пришла  кормить    своих  подопечных,  никто  не  услышал  обычного  «Доброго  утра»  Иваныча.  - Просыпайтесь, Иван  Иванович,  -  сказала  Мария  Ивановна,  завтракать  пора.  Но  Иван  Иванович  не  просыпался.  Он  продолжал  тихо    висеть на  своём  парашюте,  опустив  голову.  – Спит? – Тихо  и  испуганно спросила  Мария  Ивановна.  Все  молчали  и  тут  Петров  грустно  сказал:  «Он  умер»  «Партизан»  заплакал,  Федька  заржал,  в  глазах  Марии  Ивановны  скит  накренился  и  поплыл  куда-то  влево,  вниз.
Когда   хоронили  Ивана  Ивановича,  был  тихий  ясный  день.   Сводный  оркестр  общесоматического  и  психиатрического  отделений,  немилосердно  фальшивя,  играл  что-то  похоронное,  за  гробом,  впереди  всех,   шёл  «Дружок»,  время  от  времени  отбегая  в   сторону,  чтобы  обнюхать  какую-нибудь  кочку  и  поднять  над  ней  заднюю  лапу.  Лёха  нёс  венок,  состряпанный   из  подручного  материала  с  лентой  из  чёрного сатина,  на  которой  белой  краской  было выведено  «Ивану  Ивановичу  Усыкину  от  коллектива  Дома  инвалидов  №17» Заведующий  нервно-психиатрическим  отделением  нёс  на  маленькой  подушечке  медаль  «Отличнику  народного  образования» На  деревенском  кладбище  секретарь  партийной  организации Дома  инвалидов  и  бывший  поп  Илларион  сказали  речи,  помянув  недобрым  словом  вылазки  империалистов  США  против   мира  и  нашей  солнечной  страны.  Когда   гроб  опустили  в  могилу,  директор  Гырымов  первым  бросил  в  неё  ком  холодной  земли.  На   холмике,  выросшем  над  могилкой,  поставили  крест,  на  котором  один  однорукий  художник  белой  краской  вывел: «Господи,  прими  дух  его  с  миром»

После  смерти  Ивана  Ивановича  жизнь  осталась  прежней, только  чуть  грустнее  и  не мешали  этой  грусти  ни  весна,  ни  праздники.  1-ого  мая  был  концерт,  на  котором  Гуськов  в  тельняшке  сплясал  «Яблочко»  Помог  ему  в  этом,  встав  сзади,  один  постоялец  нервно-психиатрического  отделения,  надевший  на  руки  брюки  и ботинки.  Лёха и Федька  изобразили  диалог  Павла Федотова с  фашистом  Штюбингом  из   кинофильма «Подвиг  разведчика»,  а  Мария Ивановна  спела  очень  душевно «На  позицию  девушка  провожала  бойца»   9-го  мая  в  скит  приходили  пионеры,  приехавшие  из  города.  В  этот  день   «контингент»  одели  в  белые  халаты  и     нацепили  ордена. Петров  поделился  с  пионерами  воспоминаниями  о  войне,  а  вечером  всем  были  поднесены   фронтовые  сто  грамм.  «Хорошо,  но  мало» - таково  было  общее  мнение.  Потом  вспоминали  Мамина,  Кузнецова,  Ивана  Ивановича,  рассказывали  анекдоты,  думали о прошлом.

Очнувшись  от  наркоза,  Кузнецов  не сразу  понял,  что  ему  пришиты  руки  и  ноги.  Он  их  просто  не  почувствовал.  Когда, наконец,  осознал  это,  то  не  смог  пошевелить  ни  тем,  ни  другим. На  следующий день  руки  и  ноги  ему  также  не  подчинялись.  Хирург  его  успокаивал, говорил,  чтобы  он  подождал  дня  три-четыре,  а  он  думал: -  На фиг  мне  такие  конечности – лишняя обуза.  Когда,  наконец,  проснувшись  на  пятый  день,  он,  неожиданно  для  себя,  почесал  себе нос,  то  сначала  испугался,  подумав,  что  нос  ему   почесал  кто-то  другой  и  машинально  отдёрнул  руку.  Успокоившись,  он  тихонько   поднёс  руку  к  лицу,  пошевелил  пальцами.  Рука  ему  не  понравилась.  Она  была  какая-то  жилистая,  грубая  и  в  татуировках.  На  первых  фалангах  четырёх  пальцев   красовались  буквы: «д», «и», «м», «а».  Дима – дошло  до  него.  Что  за  Дима?  Кто  он,  хороший  человек,  или  подонок?  Что  он  делал  этой  ручкой:  работал  на  станке,  лазил  по  карманам,  убивал?  Судя  по  татуировкам  (звёздам, кинжалам и прочей  чепухе)  по  узловатости  сосудов,  грубости  кожи,  вросшим в  кожу  ногтям,  мозолям  и  шрамам,  ручке  этой  пришлось  немало  потрудиться  и  отнюдь  не за  письменным  столом.  Эта  рука  не привыкла  держать  смычок  скрипки,  или  ручку,   ей,  были  привычны  кайло  или  кирка,  лопата.   Что ж,  такие  руки  всё-таки  лучше  изнеженных  ручек, - думал  Сергей, -  с  ними  я  не  пропаду:  и  работу  найду и,  если  надо,  в  морду  дам.  Когда  он  откинул  одеяло  и  поглядел  на  ноги,  то  они  его  удивили  больше,  чем  руки.  Как  и  на  руках,  на  них  были  ссадины  и  шрамы,  особенно  на  правой.  И  опять  те же  звёзды,  те же  кинжалы,  те  же  кресты.  Но  больше  всего  его  потрясли  слова  на  ступнях,  чуть  выше  пальцев:  на  левой  ноге  было  написано: «шли к любимой», а на правой: «а пришли в зону»  - Что  за  чушь? -  подумал  он,  что  они  мне  подсунули?  А  если  бы  этот  ваш  донор  оказался  каким-нибудь  извращенцем,  то  я  бы  его  вывеску  на  себе  таскал  и  меня  бы  в  бане  шайками  закидали?  С  такими  руками  и  ногами  в  приличной  компании  и  раздеться-то  неудобно,  о  дамах  и  говорить  нечего.  Никому  не  объяснишь,  что  они  не  твои – не  поверят.  Но  всё  это  были, конечно,  мелочи.  Он  не  верил  сам  себе,  что  всё  это  не  сон,  не  бред,  а  настоящая  реальность  и  что  теперь  он  такой  же,  как  все,  человек.   Он  смотрел  на  свои  руки  и  ноги  и  спрашивал  себя: -  Почему  все  эти  люди  не  пляшут,  не  хлопают  в  ладоши  и  не  резвятся,  сознавая  то,  что  у  них  есть  ноги  и  руки,  что  глаза  их  видят,  а  уши  слышат.  Они  приходят  в  уныние  только  тогда,  когда  у  них  не  стоит.  Им  бы  в  моей  шкуре  побывать,  узнали  бы  тогда,  что  самое  ценное  в  жизни!   От  счастья  ему  хотелось  целовать  свои  новые  руки,  но  что-то,  в  глубине  души,  мешало  ему  это  делать.  Он  хотел  встать  на  ноги,  но  боялся.  Тут  вошёл  хирург. Велел  встать.  Он,  держась  за  спинку  кровати,  поднялся.  Хирург  велел  отпустить  кровать. Он  отпустил  и  стоял,  боясь  сделать  шаг.  Хирург  взял  его  под руку  и  они  сделали    несколько  шагов.  Потом   они гуляли  по  коридору  и  хирург  просил  его  никому  не  говорить  о  том, кто  сделал  ему  операцию  и  где.  Перед уходом  он  протянул  Сергею  бутылочку  с  таблетками  и  сказал,  что  он  должен  ежедневно  принимать  по  одной  для  того,  чтобы  лучше  приживались  новые  ткани.  - Только  каждый  день! – подчеркнул  Хирург. 
На  следующий  день  в  палату   влетела  Рыжая  бестия  и,  вытаращив  глаза,  выпалила,  что  он должен  немедленно  бежать,  что   хирург  арестован  и  ищут  его.  Быстро  одевшись,  он,  вместе  со  своей  спасительницей,  бежал  из  больницы. Но  не  успели  они  выйти  на  улицу  и  сделать  несколько  шагов,  как  Кузнецов  на  мгновение  остановился  и  Рыжая,  повернув  к  нему  удивлённое,  встревоженное  лицо,  спросила: - Что с тобой?  - Следователь, - ответил  Сергей.  И  он  был  прав,  навстречу  им  шёл  Орехов.  Бежать  было  поздно,  да  и  Сергей  не  мог  ещё  бегать.  Он и так  шёл  нетвёрдой  походкой.  Когда  они  оказались  в  трёх  шагах  от  Орехова,  Кузнецов  машинально,  а,  может  быть  от  растерянности,  сказал  ему  «Здрасьте».  В  ответ  Орехов  кивнул  и  тоже  что-то  сказав,  прошёл  мимо.  Кузнецов с Рыжей  свернули  в  первую  же  попавшуюся  подворотню.  Пройдя  несколько  шагов,  Орехов  остановился.  – Это  же  Кузнецов! – сказал  он  самому  себе  и  не  поверил  сам  своим  словам. - А  может  быть  двойник? Он  оглянулся,  но  сзади    никого  не  было.  – Показалось.  Конечно  показалось! Последнее  время  мне  от  этой  чёртовой  жизни  всё  время  что-то  кажется:  то  голос  Лены,  которая  меня  зовёт,  то  хвост собаки,  забежавшей  за  угол,  а  теперь  вот  Кузнецов  на   своих  двоих.  И  до  чего  же  ноги   преображают  человека!  Подумав,  он  всё-таки  решил  об  этой  встрече  никому  не  говорить,   потому  что,  во-первых,  встанет  вопрос,  почему  он  не  задержал  преступника,  и,   во-вторых,  никто  этому  не  поверит,  и,  мало  того – засмеют.

Вернувшись  из  монастыря,  Савин  три  дня  занимался,  в  основном,  Кошкером,  и  не  зря:  он,  наконец,  стал  давать  показания.  Теперь  надо  было  провести  очную  ставку  между  ним  и  тем  монастырским   «самоваром»,  с  которым  так  невежливо  обошёлся  его  помощник.   Савин  снял  трубку  и  позвонил  Гырымову с тем,  чтобы тот  доставил  к  нему  в  город  И.И.Усыкина.   Гырымов  ответил  не  сразу,  пару  раз  откашлялся,  а  потом  сообщил,  что  Иван  Иванович  Усыкин  27  апреля  скончался  от  острой  сердечной  недостаточности  и  похоронен  на    кладбище  деревни  «Мама  родная»,  вторая  аллея,  могила  74.   Что  за  странное  название  у  деревни,  - подумал  Савин,  положив  трубку, - кто  его  выдумал?  Он  не  знал  тогда,  что  название это дали  первые  ссыльные  поселенцы.  Когда  их  привезли  сюда,  на  голое  место,  то  одна  из  баб  воскликнула: - Мама родная,  как  же  мы  тут  жить  будем!?  С  тех пор  так  и  пошло  «Мама родная»  да  «Мама родная» с ударением на «о»  Что  же  касается  самого  Савина,  то  у  него,  после  того  как  он  узнал  о  смерти  этого  безрукого и безного  старика,  на  сердце  заскребли  кошки.  Он  стал  неприятен  сам   себе,  а  этого  Лёху,  который  подтолкнул  его  на  всё это  дело,  просто  возненавидел.  А  какое  мне  дело  до  того,  что  Кузнецов  пропал? – спрашивал  он  себя. – Пропал и чёрт  с  ним,  пусть  об  этом  прокуратура  думает,  к  нашей  конторе  он  отношения   не  имеет,  да  и  того  загрызанного  на  пустыре  пусть  милиция  ищет.  Моё  дело  только  хирурга проверить,  чтобы  запрет  соблюдал и никаких  медицинских  экспериментов не устраивал.  С  этой  мыслью  он и отправился  в  больницу,  где  своим  появлением  поднял  тихую  панику   и вынудил  Кузнецова  раньше  времени  подняться  с  койки. 

Паровоз,  пыхтя  и  выпуская  пар,  подтаскивал к платформе Ярославсого  вокзала состав  пассажирских   вагонов,  в  одном  из которых  ехал  Кузнецов.  Ему  не  верилось,  что  он,  с  ногами и руками,  возвращается  в  город,  из  которого  его  абсолютно  беспомощного  год  назад  увезли  на  Север.  Он  не  мог  усидеть  на  койке  и  пробрался  сквозь  людей,  чемоданы и мешки к выходу.  На  ступеньках   вагона  сидели  люди, очевидно,  те,  у  которых  не  было  денег  на  билет.  Не  доезжая  до  вокзала,  они  побросали  свои  мешки и сами,  вслед  за  ними, спрыгнули  на  землю.  Каланчёвская  площадь показалась  ему  огромной.     Трамваи,  автобусы,   телеги,  лошади,  люди,  автомобили – наши и трофейные,  носильщики,  чистильщики  обуви,  пьяные,  готовые  упасть и упавшие,  женщины  с  синяками  на  лицах,   мальчишки  в  ватниках  для  взрослых,  милиционеры,  узбеки и таджики с Казанского  вокзала  в  своих  полосатых  халатах,  чиновники  из  Ленинграда -  с  Ленинградского.   Вся  эта  пёстрая  масса  людей  куда-то  спешила,  что-то  тащила,  на  что-то  таращилась  и  то и дело  спрашивала  друг  у  друга  как  пройти,   как  проехать  или  с  какой  платформы  поезд на  «Пыжмаш»  или  Таратутовку,  и  отвечала,  размахивая  руками,  что-то  невнятное  или    пожимала  плечами  в   ответ.  На  трамвайной  остановке,  к  которой  подошёл  Сергей,  было  полно  народа.   Он  попытался   пробраться  поближе к рельсам,  но  властный  женский  голос  отбил  у  него  желание  это  сделать. Услышав  давно  забытое  «Куда  прёшь?»,  он  остановился,  посмотрел  на  хмурое  небо и вдруг  услышал  голос.  Первый  раз  он   услышал  его  тогда,  после  контузии,  второй  - тогда,  на   станции  «Перхушково»,  когда  он  бросился  под поезд,  и последний  раз   в  ските,  перед  тем,  как  он  загрыз   Мамина.  Теперь  этот  голос  сказал  ему  «Рви!»  и  он  бросился  на  мешок  этой  бабы  и  стал  рвать  его  зубами.  Баба  завизжала  и  тогда  несколько  мужчин  схватили  его  и  еле-еле  оторвав  от мешка,  оттащили  в  сторону.  На  губах  у  Сергея  выступила  кровавая  пена.  Глаза  блуждали.  Он  скрипел  зубами  и  хрипел.  - Видать  навоевался, -  сказал  кто-то.  -  Да,  теперь  этих  контуженых  хоть  пруд  пруди.  У  этого  хоть  руки-ноги  целы.  Повезло  человеку.  Постепенно  Кузнецов  пришёл  в  себя.  Встав  с  асфальта,  отряхнул  одежду,  стёр  пот  с  лица  и  шеи,  и  снова  подошёл  к  остановке.  – Что  это? – думал  он, - Кто  это  отдаёт  мне  эти  приказы?   Неужели  Савин?  Возможно,  у  МГБ  есть  какое-то  новое  изобретение,  передающее  мысли  на  расстояние.  Я  что-то  читал  об  этом  ещё  до  воны.  Но,  если  так,  то  почему  он  не  даёт  мне   приказа  вернуться в скит?  Что  ему  от  меня  надо?  С  такими  мыслями  он  доехал  до  цента.  Здесь,  в  Столешниковом  переулке,   жил   один  его приятель  по  имени  Борис.  Пройдя  табачный  магазин,  он  зашёл  во  двор и поднялся   по стёртым  в  середине  ступенькам  на  второй  этаж    старого  московского  дома.  Из  шести  звонков  на  дверной  раме  он  выбрал  звонок   с  фамилией   Гудима.  Дверь  ему  открыл  сам Борис.  Спросил – Вы к кому?  - К  тебе,  старый  чёрт. -  Невозмутимо  ответил Сергей.  По  лицу  Бориса, как  облака  над  озером,  пронеслись  воспоминания.  Он  широко  открыл  глаза  и пролепетал: - Серёга. -  Он  самый.  Тут  начались  объятия,  междометия  и  вопросы: - Где  был?, Где  пропадал?,  Почему не писал?  и  т.д и т.п.   Наконец,  Боря  сказал: - А  мне  Вовка  Кокичков  сказал,  что  ты  на  войне  руку  и  ногу  потерял.  _- Это  он  преувеличил.  Ранения  были,  это  факт,  но  всё,  как  видишь,  обошлось – руки  и  ноги  на  месте.  И  Сергей,  вспомнив  о  том,  какие  у  него  руки,  постарался  спрятать  их  подальше  в  рукава.  Потом  они  вспоминали  прошлое  под  бутылку  «Перцовки»  и  селёдочку с  варёной  картошкой  и  Боря  предложил  Сергею  пожить  у  него.  Брюки  Сергей  снял  только  после   того  как  Боря  погасил  свет  в  комнате.  Утром  Анатолий  потащил  его  на   собрание  в  свой  институт.  - Будет  интересно, -  сказал  он. 
В  большом  зале института,  когда  они  пришли, было  многолюдно.   Ряды  стульев   пестрели  лысинами,   шевелюрами,  причёсками   «полубокс»,  перманентами,  газетами,  журналами,  шляпками  и  тюбетейками.  Смотря  на  всё  это человеческое  обилие  скучающее,  читающее, мирно   беседующее,  Сергей   думал  о  том,  как  много  на  свете  здоровых  людей,  занятых  своими  небольшими,  а  то  и  совсем  мелкими  делами  и  делишками,   как  мало  им  дела   до  жизни  других:  беспомощных,  жалких  и  вонючих,  таких,  каким  совсем  недавно  был он.   Им  гораздо  важнее  указания  партии,  тон  начальника,  взгляд  посторонней  женщины,  счёт  футбольного  матча,  цена  картошки…  Закончить  своё  рассуждение  по  поводу  окружающей  публики  он  не  успел,  так  как  Боря  подвёл  к  нему  изумительную  женщину.  Она  напомнила  ему  Тоню.  Вместо  писаной  красоты  в   ней  была  бездна  женского  обаяния.   – Клава, -  назвалась  она,  протянув  ему  тонкую  ручку.  Ну, как  имя  может  опошлить  такой  прекрасный  образ! – подумал  Сергей. - Назвалась  бы  ещё  Зиной  или   Раей.  Знал  я  одну   Клаву,  буфетчицу  в  Доме  офицеров,  так то  действительно Клава – было  за  что  подержаться,  а  эта:  дунешь – улетит.  Она  села  рядом  с   ним,  справа,  между  ним  и  Борисом.  Ощущение  близости  её  трепетного  тельца  и  аромат  каких-то  невинных  духов   вскружили  ему  голову.  Ему  до  тошноты  захотелось  эту  женщину.  Он  чувствовал,  что  может  потерять  контроль  над  собой.  С  ним  такое  случались.  На  сей  раз  он  постарался  взять  себя  в   руки,  и  когда  его  правая   бандитская,  вся в  татуировках,  рука  потянулась  к  её  ножке,  он  схватил  её  левой  и  оттащил.  Сознавая,  что  эта  женщина  не  его,  а  его  друга,  он  старался  занять  себя  выступлениями  ораторов.   На  трибуне  в  это  время   уборщица  института   клеймила  позором  каких-то евреев,  продавших  американцам  секрет  борьбы  с  раком.  После  этого  с  трибуны  стали  совершенно  открыто  читать какое-то  «закрытое   письмо»   о  том,  как  эти  евреи,  при  попустительстве  бывшего  министра  Здравоохранения  Митерева  и  при  активной  помощи  американского  шпиона  - вывшего  секретаря  Академии  медицинских  наук   СССР   Парина,  передали  американцам   важное  открытие  советской  науки  - сыворотку  от рака.  «Будучи  сомнительными  гражданами  СССР,- говорилось  в  письме, -   руководствуясь  соображениями  личной  славы  и  дешевой  популярности  за  границей,  они  не  устояли  перед  домогательствами  разведчиков  и  передали  американцам  научное  открытие,  являющееся  собственностью  советского государства,  советского  народа…  лишили  советскую  науку приоритета (первенства)  в  этом  открытии  и  нанесли  серьезный  ущерб  государственным  интересам Советского  Союза.   
- Почему? – тихо  поинтересовался  Сергей  у  Клавы. -  Что «почему»? – переспросила  она. – Ну,  почему  нельзя  было  передавать  американцам  это  лекарство,  у  них  ведь  тоже  люди  раком  болеют. -  Потому,  - ответила  Клава, - что   в  руках  капиталистов  это  лекарство   будет  не  достоянием  широких  масс,   а  источником  прибыли  для  небольшой  кучки  капиталистов. И  добавила: - Так у нас  считают. – А  как  думаете  Вы?  - спросил  Сергей. – Я  думаю,  что  вы  правильно  удивляетесь.   Когда  она  это  говорила,  личико  её  было  так  близко  и  губки  шевелились  так  сладко и нежно,  что  у  Сергея  закружилась  голова.  Ему  стало  не  до  собрания.   Из  дальнейших  речей  до  него  долетали  только  отдельные  фразы.  Он  слышал,  как  кто-то  напомнил  аудитории   слова Сталина  о  том,  что   даже  самый последний  советский  гражданин,  свободный  от  цепей  капитала,  стоит  головой  выше  любого  зарубежного  высокопоставленного  чинуши,  влачащего   на  плечах  ярмо  капиталистического  рабства,  что  согласно  учению  Сталина  нет  ни  одного  поступка  человека,  который  не  имел  бы  политического  значения, что  все  великие  открытия  принадлежат  русским  ученым, а  заграница  только и  делает,  что  присваивает  их  и  выдаёт  за  свои.  Следующий  выступающий      цитировал  слова  Сталина о  необходимости  в  кратчайший  срок  превзойти  достижения  науки  в  зарубежных  странах.  Последовали  аплодисменты.  Ораторы  изощрялись  в  патриотических  чувствах  и  клеймили    позором  тех,  кто,  по  их  мнению,  такими  чувствами  не  обладал.  Одного  ругали за  то,  что  он  утверждал,  что  русский  язык  произошёл   от  церковно-славянского,  другого – за то,  что  он  любит  западноевропейские  танцы,   третьего -  за  то,  что  он  верит  в  бога,  четвёртого  за  произнесённую  им  фразу «Если  бы  союзники  не  открыли  второго  фронта,  нам  бы  Германию  не  победить»  Но  больше  всего  собравшихся  возмутило  то,  что  один из студентов  на  слова   военрука о  необходимости им,  защитникам  родины, изучать  военное  дело, брякнул: «На  это  дело  есть   Иваны,  а  наше  дело  изучать  интегралы» 
Выступавших  это  замечание  особенно  задело, и они  с  новым  пылом и  жаром  заговорили  о  патриотизме  и  преклонении  перед  иностранщиной.  -  Ведь  до  смешного  доходит,  товарищи, - говорил  начальник  транспортного  цеха. -  Вот  на своём  заводе  наши  шефы  делали  плохие  шлифовальные  круги. Вы  их знаете (по залу  пробежал  одобрительный  шумок) - так   их  все  брать  отказывались.  Тогда  на  них  наклеили  этикетки  фирмы  «Нортон»  и  они  пошли  нарасхват. (Смех в зале) После  начальника  транспортного  цеха  к  микрофону вышел  доктор  наук и,  то ли  в  шутку,  то  ли  всерьёз, заявил:    - Если  некоторые  разделы  микробиологии  в  Америке  сильнее,  чем у нас,  например,  вирусология,  то  зато  идеологически  мы  их  выше  и  сильнее.  Бурные  аплодисменты  вдохновили  его  ещё на один,  не  менее  интересный  пассаж, а  именно: «Существует  поговорка «Муха  садится на  сладкие  места»  - так  вот наше  государство    для  иностранцев  и  является  «сладким  местом»  Тут  Сергей  вспомнил  сколько  мух  было  в  их  ските  и  подумал: - Муха  садится  не  только  на  сладкое.  А  доктор  наук  тем  временем вспомнил  какого-то  Пищука,  возглавлявшего  КБ (конструкторское  бюро) созданное  из  пленных  немцев,  и  работой   которого  он  восхищался,  называя её «образцом  высококвалифицированного  труда» - Так  вот  этот  самый  Пищук, - продолжал  доктор  наук, -  считает,  что  наши  люди  бездарны,  что  любой  немец  заменит  5  человек  наших. Кто-то из  зала крикнул: - Пусть  выйдет на трибуну и скажет!  Выступавший  успокаивающе  поднял руку  и  крикнул  в  микрофон: - Да   наш  Саша  Скворцов  даст  20  очков   каждому из  этих  немцев! – и   под  бурные  аплодисменты  ушёл  с  трибуны.  Когда  собрание  стало  клониться к  закату,  вспомнили  о  разлагающем  влиянии  на  молодёжь  кинофильма  «Девушка  моей  мечты»  с  Марикой Рёк  в  главной  роли.  Один  из  выступавших  заявил  даже,  что  это  любимый  фильм  Гитлера и в нём  снималась  его  любовница  Ева  Браун,  а  представитель  студенчества  призвал   фильм  этот   бойкотировать,  утверждая,  что  демонстрация  его  на  советских  экранах  является  оскорблением  нравственных  чувств  нашей  молодёжи,  воспитанной  в  духе  коммунистических  идей.  Студента этого  до  глубины  души  возмутили  и огромные  очереди  за  билетами  на  этот  фильм  у  московских  кинотеатров, и  происходящие  в  этих  очередях  безобразия, и спекуляция  билетами. – Я  не  могу  понять, - сказал  этот  представитель  студенчества, -  почему  студентам этот  глупый  фильм  «Девушка  моей  мечты»  нравится  больше,  чем  фильм  «Клятва». Понять это  ему  попыталась,  выступавшая после  него, представитель  профессорско-преподавательского  состава.  Она   говорила   о  необходимости      объяснять,  особенно  молодым  девушкам  с  еще  не  окрепшим  мировоззрением,  что  такой  фильм  как  «Девушка  моей  мечты»,  несмотря  на  хорошее  техническое  оформление,  по  содержанию своему пустой,  что  он  не  обогащает  зрителя  духовно, а  проповедует  пошлость  и  грубость,  сопутствующие  современной  германской  буржуазной  культуре.  Закончила  своё  выступление  она  предложением  о внушении  студентам  мысли  о необходимости  побольше  читать  классиков  марксизма-ленинизма в  подлинниках,  чем  вызвала  жидкие  аплодисменты.   
Когда,  наконец,  собрание  закончилось,  Сергей  обнаружил,  что  ручка его  соседки  находится  в  его  руке-ручище.  – Неужели  я  не  властен  над  собственными  руками? – подумал  Сергей  и  ему  стало  как-то не по  себе.   Однако,  то,  что  Клава  не  убрала  свою  ручку,  было  ему  приятно.  Боря,   спросил  его: - Ну,  как  тебе? – На  что  он,  поморщившись,  процедил: - Тыловые  крысы  упражняются  в  патриотической  риторике.  Надо  же  им  как-то  себя  проявить  в  качестве  защитников  отечества.    Боря с  ним согласился  и  заторопился  куда-то,  сказав,  что  вечером  ждёт  его  у  себя. Клаве  он  только  кивнул. 

Не смотря  на  разруху,  причинённую   войной,  Москва   была  прекрасна  своим  уютом, разнообразием, весенним  пробуждением,  когда  небо  становится   особенно  синим,  солнце  особенно  ярким, а  люди  откровенней  и   впечатлительней.  Сергей  с  Клавой  шли  по  бульварам,  где  высохли  ещё  не  все  лужи,  и   чтобы  женщина  не  промочила  ножки,  Сергей  брал  её  на руки  и  нёс,  не  обращая   внимания  на  прохожих  и  милиционеров.  Какое  это  было  счастье  для  него,  ещё  недавно  лишённого  такой  возможности!  От  ощущения  этого  счастья  ему  хотелось  не  идти,  а  прыгать  с  дерева  на  дерево,  как  Тарзан,  летать и  кричать: - Люди,  я  такой  же,  как  вы!  Почему  же  вы   не  носите  на  руках  своих  женщин,  если  можете,  почему   не  бродите  по  свету  и  не  управляете  парусами  кораблей,   имея  руки  и  ноги?  Клава  смеялась,  слушая  его,  и,  лёжа у него  на руках,  запрокидывала  голову.  В  переулке,  куда  они  свернули,  было  тихо.  Каждый  шаг  его  ботинок и её  каблучков  звонко  отдавался  в  стенах  окружающих  домов.  Вдруг,  позади  них  зашуршали   и  застукали  чьи-то чужие,  торопливые  шаги  и  тут  же  их  окружили, прижав  к  стене,  пять  здоровых   парней.  Они  достали  ножи  и  тот,  кто  был  к  ним  ближе  всех, грубо  сказал: - Раздевайтесь.  Пришлось  раздеться.  Сергей,  оценив  обстановку,  решил,  что  другого  варианта  нет.  С  кем  бы  из  них  он  не  затеял  драку,  любой  другой  всегда  имеет  возможность  всадить  ему  нож  в  бок  или  в  спину.  Когда   он  отдавал  грабителям  одежду,  то  заметил  перемену  в  лице  их  главаря.  Тот,  ни  с  того,  ни  с  сего,  приказал  своим  приятелям  вернуть  ограбленным  все  вещи  и  стал  извиняться  перед  Сергеем.  Сергей  не  понял  с  чего  это  ему  взбрело в голову,  но  вещи  взял.  Они  с  Клавой  быстро  оделись  и  пошли  дальше.  Её  трясло.  Ему  же  было  стыдно  перед  ней,  ведь  он  же  не  защитил  её  от  бандитов.  У  подъезда  её  дома  они  простились. Сергей  спросил  её – Тебя  Борис  любит? – Говорит,  что  любит,  -  ответила  она.  -  А  ты  его? – Нет.  -  Ты,  вообще,  никого  не  любишь?  - Нет. Сергей опустил голову,  вздохнул и они простились.
На  обратном  пути  до  Сергея  дошло,  почему  грабители  вернули  вещи:  они  же  увидели  татуировки  на  его  ногах  и  руках!  Конечно!  Всё  так  просто.    – Вот  и  татуировки  пригодились  - подумал  он, - что  мне  от  них  ещё  ждать?   Ему  не  хотелось  идти  к Боре,  т.к. было  неудобно  перед  ним. Он  сознавал,  что  поступил по  отношению  к  нему, по-хамски,  не по-товарищески,  уйдя  с  его  женщиной.  Оправдывал  же  он  себя  тем,  что  Борька сам  ушёл  первым,  оставив  их  одних.  Ноги  его  от  этих  мыслей  шли  всё  медленнее  и  медленнее  и,  наконец,  остановились. Он  стоял  и  прислушивался  к  самому  себе,  чувствуя, как  догорает  в  нём, вспыхнувшее  в  институте,  желание  иметь  женщину.   Правда,  после   Клавы  ему  ни  на  кого  и  смотреть-то  не  хотелось.    Однако,  стыд  перед   ней  и  чувство  неудобства  перед  Борькой,  подталкивало  его  к  такому   отвлекающему  варианту, как  ночёвка  у  случайной  женщины. Он  уже  было  направился  бодрым  шагом  к  Метрополю,  как  вдруг   неприятная  мысль  поразила  его:  Борька  подумает,  что  он  остался  ночевать  у  неё.  А  как  это  отразится  на Клаве,  на  её,  так  сказать,  репутации? Нет. – решил  он, -  никаких  случайных  связей  с  возможными  мерзкими  последствиями. И  он  отправился  в  Столешников  переулок.
Дверь  ему  открыл  Борис.  Сначала  они  долго  молчали.  Потом  Сергей не  выдержал  и  сказал: - Ты   не  думай,  у  нас  с  Клавой  ничего  не  было.  Но  должен  же  я  был,  чёрт  возьми, - добавил он,  пытаясь  обратить  всё  в шутку, -  проводить  бедную  девушку,  если  её  кавалер  куда-то  пропал  в  последнюю  минуту.  - Да,  кстати,  нас  ограбили  какие-то  негодяи,  правда,  потом  вещи  вернули.  -  Всё  правильно, - ответил  Боря,  -  у  меня  к  тебе  никаких  претензий,  ты  не  думай,  да  и  отношения  у  нас  с  ней  скорее  платонические,  она  ведь  слишком  хороша  для меня.  Я  это  понимаю,  а  поэтому  не  будем  больше  касаться  этой  темы.  И  они  легли  спать. 
Утром  Сергей    слонялся  под  Клавиными  окнами.  Она  заметила  его  и  поманила  ручкой. Он  взлетел  на площадку  третьего  этажа,  где  она  его  уже  ждала.   Дальнейшие  события  разворачивались  с  быстротой  любовной  горячки.  Опомнился  Сергей  тогда,  когда  Клава  лишилась  чувств. Он  набрал  в  рот  воды  из  чайника  и  прыснул  ей  в лицо.  Придя  в  себя,  она  сказала: - Тебе  надо  насиловать  мёртвую  женщину.  – Я  люблю  тебя,  - ответил  он.  -  Заведи  себе  конюшню. – Мне  никто,   кроме  тебя,  не  нужен.  – Тебя  мне  слишком  много,  но  я не  смогу  без  тебя.  Ты  слышишь,  как  стучит  моё  сердце? – вдруг  спросила  она, -  Оно  стучит  по  тебе. И  она  прижала  его  руку  к  своей  груди. 
Счастье,  сколь    бы   не  было оно  большим, не  длится  долго. И  им,  наконец,  пришлось  оторваться  друг  от  друга,  встать,  одеться  и  отправиться  в  консерваторию,  где  Клава  училась  играть  на   скрипке.  Он  упросил  её  разрешить  ему  нести  её  скрипку  и   поэтому  всю  дорогу  находился  в  страшном  напряжении,  опасаясь  за  ценный  груз.  Ему  постоянно   казалось,  что  прохожие  так  и  норовят  задеть  её,  выбить  у  него  из  рук,  проткнуть  её  какой-нибудь  железкой,   а  в  трамвае  раздавить  её  своей  массой.  Наконец,  они  оказались  в  Консерватории,  где  Клава  оставила  его  в  холле,  а  сама  отправилась  в класс.  Скучать  Сергею  не  пришлось. К  нему  подсел  какой-то  разговорчивый   господинчик,  которому  было  необходимо  излить  душу,  вспаханную  последними  событиями  музыкальной  жизни.  В  ответах  Сергея он не  нуждался.  Он  отвечал  на  них  сам.  – Представляете, - говорил  он,  идёт  съезд  композиторов  в  Колонном  зале,  а в зале  почти  никого  нет.  Все  гуляют  по  фойе,   торчат  в  буфете.  Композитору  Захарову ,  сидевшему в президиуме,  прислали  «Пропуск  для  проезда  его  автомашины  на  кладбище»,  а  Хренникову – ругательную  записку  со  словами:    «Хренниковы и Ковали  проходят,  а Шостаковичи  и Прокофьевы остаются  в истории»  Представляете,  как  это  возмутило  наше  партийное  начальство!   Они  это  так  не  оставят!  Вы  думаете  они  простят  Неждановой  её  слова  о  том,  что  певцу  марксистско-ленинская  теория  не  нужна  и  что  он  от  этого  лучше  петь  не  будет,  а  Юдиной   -  её высказывание  о  том,  что   в  ЦК  ни черта не понимают  в  искусстве  и  что  она  никогда  не  работала по их  указке  и  работать  не  собирается.   -  А Вы  слышали, что  сказала  Елена  Фабиановна ?  А? – Ну,  как  же!  Она  ведь  на  последнем совещании  заявила,  что  Хачатурян  никогда  не  изучал  марксизма-ленинизма  в  таком  объёме,  как   это  поставлено  в  её  училище,  а,  между  тем,  он  прекрасный композитор. Представляете? Но  этого  мало, старуха   возьми  и  скажи: «Зачем,  например,  обременять  этим  студента  Светланова ,  ведь  он  же  Рахманинов.  Уверяю  вас – Рахманинов,  а  здоровье  у него  слабое.  Ну,  заставим  мы  его  изучать  марксизм  и  другие ещё  науки,  так  это же  будет  во  вред   главному  делу!  Разве  от  этого  выиграет  наша  культура и страна?» Один  товарищ,   из  проверяющих,  решил,  наверное,  поддеть  её  и  спрашивает: - Может  быть  этот  Ваш  студент  просто  не  способен  усваивать  материал?  Старуха  на  это  ему: «Боже  мой,  да  это  же  способнейший  человек,  если  его  заставить,  он  за  один  день  весь  ваш  марксизм  изучит. Но нужно ли это делать?  Можно  ведь сделать  некоторое  исключение  в  отношении  таланта»  Каждому  ясно, - продолжал  господинчик, -  что студенты  в  консерватории  не  тупее,  чем  в  других  институтах  и  что  страна  ничего  не  выиграет  от  того,  что  они  вместо  занятий  музыкой  будут  конспектировать «Что  делать?»  Ленина,  но  разве  могут  они  допустить,  чтобы   студенты  не  изучали  марксизм?  Разреши  это  консерваторским – захотят  другие.   Вот и всыпали  преподавателям,  чтобы  студентов  не  портили. -  Под  Вашим  разлагающим  влиянием,  говорят,  студенты  совсем  разложились,  заявляют,  что марксистская  теория   к  скрипичному  мастерству  никакого  отношения  не имеет,  что   скрипка   существовала  и до  появления  марксизма,  однако  звуки  производила  не  хуже,  чем  теперь  и  что  они  готовятся  стать  музыкантами,  а  не  преподавателями марксизма-ленинизма,  а  сами  не  знают  ни  одной  работы  Сталина,  не  знают, что происходит в  Китае,  ни черта не знают о плане  Маршала,  газет  не  читают  и,  вообще,  считают  Белинского,  Герцена,  Добролюбова  и  Чернышевского  учениками  Гегеля  и  Фейербаха.   Уловив  на  лице  Сергея  после  этих  слов  крайнее  удивление,  господинчик  с  тем,  чтобы  довершить  удар,  покачивая головой  и  сощурясь,  хитро  произнёс: - А  вот  на  торжественное  заседание по  поводу  30-ой  годовщине  революции  в Консерватории  пришли  уборщицы,  истопники,  гардеробщицы,  а  вот  преподаватели  и  студенты  не  явились  за  очень  редким  исключением. 
На  вопрос - Как  Вы  думаете,  будут  такое  положение  терпеть  в   ЦК? Сергей  решительно  ответил:   -  Думаю,  что  не  будут.   -  И  я  так  думаю. – вздохнул  господинчик.   А  что, по-вашему,  является  главной  причиной  такого  отношения?  - Не  знаю, - вздохнул  Сергей.  -  А  я  знаю,  - решительно  сказал  господинчик. – Дело  в  том, - прищурившись сказал  господинчик, - что   на  65  русских  преподавателей у  нас  приходится  50  инородцев,  а  каких,  Вы  сами знаете! - И  он  сощурился  ещё  больше.  Сергей  сочувственно  покачал  головой,  но  ничего  не  сказал,  услышав  стук  Клавиных   каблучков  в  глубине коридора. Он  встал  ей  навстречу,  извинившись  перед   своим  собеседником.   
Когда  он  проводил  её  до  подъезда,  она  стала  прощаться  с  ним.  Ей,  оказывается,  надо  было  заниматься – скоро  экзамены,  концерт. – У  меня  после  тебя  весь  день  трясутся  руки.  Я  не могу играть.  Что же мне,  со  скрипки на балалайку переходить? – сказала Клава и  засмеялась.  Сергею,  отвыкшему  за  последние  годы,  от  всяких «надо»,   казалось  чем-то  противоестественным  ради  них  отказываться  от  своих  желаний  и   страстей.  А,  главное,  он  не  хотел  даже  думать  о  том,  чтобы  отпустить  свою  любимую  женщину  и  женщина  сдалась.  Уходя  от  Клавы,  он  чувствовал  себя  самым  счастливым  человеком  на  свете.  В  трамвае, сидя  на  скамейке  и  закрыв  глаза,  он  думал  о  ней  и   чувствовал,  как  по  всему  его  телу  разливается  сладость,  какой  он  никогда в жизни  не  испытывал.  Он  понимал,  что  столь  сладостное  чувство  нашло  на  него  благодаря  близости с любимой  женщиной    и  радовался  ему,  как  ребёнок.       
С  Борисом он о Клаве  не  говорил.  Расспрашивать  его  о  её  прошлом  ему  было  неприятно.  Как-то  Боря  сказал,  что  у  неё  была  любовь,  но  он  погиб  на  войне.    Услышав  это,  он   почувствовал  душевную  боль.  Он  же  не  мог  не  понимать,  что  овладев  ею,  он воспользовался  гибелью  на  войне  другого,  ни чем не хуже  его,  человека,  не  понимать,  что  превзойти  этого  человека  ему  никогда  не  удастся,  потому  что  нельзя  живому  бороться  с  памятью  о мёртвом.  Ясно  было  ему  одно:  память  эту  могут  победить  только   время  и  его  любовь.  В  любви  своей  он  не  сомневался,  а  вот  во  времени….   Как  жить  дальше?  Ведь  у  него  не  было  документов,  а  без  документов  он  не  существовал.  Сколько  можно  отсиживаться  у  Бориса,  сколько  можно  ходить  по  московским  улицам,  где  так  много  милиции  и  военных  патрулей,  без  документов?  Ложась  спать,  он  вспомнил  последние  свои  впечатления  от  разговоров  с  людьми,  от  выступлений  на  собрании  и  спросил  Бориса -  Что,  зажимают  демократию?  - Да,  - ответил  тот,  -  поначалу,  в  конце войны,  да  и  первое  время  после  неё,  вроде  ничего  было,  а  сейчас  снова  стали  гайки  закручивать.  Одного  моего  приятеля  из  института  вышибли.  – За  что?  - Да,  за  какую-то  ерунду…  он  стихи  писал.  Прочитать  тебе?  Сергей  изобразил  внимание  на  лице,  хотя  самодеятельные   стихи  наводили  на  него  скуку.  Борис  же  взял  тетрадку  со  стола,  раскрыл  её  и  стал  читать:
Как-то сидя в кафе поздней ночью
Я сказал  забулдыжным друзьям,
Что недавно  увидел  воочью
Чудный мир – без страданий и драм.

Без  вражды,  без  грызни,  без  печали,
Без  воров,  без  убийств,  без  войны,
А  друзья  мне  на  это  сказали,
Что я вижу  чудесные  сны.

Да, - сказал я, - мне  кажется  тоже,
Но, однажды,  в  лесу под сосной
Я  увидел  на  глобус  похожий
Пень  огромный  обросший  травой.

Глядя в щели  его  за  травою
Мир  увидел  я  дивный,  как сон,
Жизнью  терпкой,  рабочей,  живою
Весь  кипел,  переполнившись, он.

Там  работали дружные  семьи,
Отдыхали и  ели  там  всласть,
И царила там, чтимая   всеми, 
Материнская  нежная  власть.

Коридоры  вели  в  подземелье,
Там  для всех  сохранялась  еда,
А  над  ними  цветочки  пестрели
И  коровок  резвились  стада.

Всем,  друзья,  муравьи  нам  знакомы,
Пьём за  них и да скроется  тьма!
Чтобы  люди  пример  с  насекомых
Брали  впредь,  если  хватит  ума!

Сергей  молчал. Им  владела  сладостная  мечта  о  жизни  в  таком  человеческом  муравейнике, однако,  посидев  некоторое  время,  охватив  голову  руками,  он  встал,  прошёлся  по  комнате,  и  сказал  Борису: -  Отказаться  от  разума  ради  жизни  в  дисциплинированном  стаде?  Нет,  это  не  по  мне.   
Рано  утром  в  квартире  на  Столешниковом  переулке   захрипел  один  из  звонков. Проснувшись,  Сергей  почувствовал,  как  у  него  от  волнения  застучало  сердце. Он знал,  что  обычно  так  рано  в  квартиры  наведываются  милиционеры  и  посыльные  от  военкоматов. Борис  тоже  проснулся  и  вышел  в  коридор,  а,  вернувшись,  сказал:  -  Идиоты,  они  всё-таки  вызвали  милицию.   Я  же  им  говорил… -  О  чём? – спросил  Сергей.  Да  ходит  тут  к  соседке  её  муж,  не  прописанный  в  квартире.  Он  артист,  ты  его  знаешь,  он  ещё  Миронова  играл  в  фильме  «Яков  Свердлов»  и  ещё  каких-то  «врагов  народа»  и  шпионов.  Так   вот  этим  чудакам  его  физиономия  не  понравилась.  Они забыли,  наверное,  что  в  кино  её  видели в отрицательной  роли,  и  решили,  что,  если  он  приходит  на  ночь,  то  он  шпион,  и  донесли  на  него.  Когда  Сергей  выглянул  в  коридор,  то  мимо  него  прошёл  артист,  за  ним  милиционер,  а  за  ним  возмущённая  жена  артиста.  – Разберёмся – сказал  ей  милиционер  и  закрыл  перед   её  носом  дверь.  – Сматываться  надо, - сказал  Сергей  и  стал  одевать  брюки.  -  Ничего, - успокаивал  Борис, - пришли  и ушли  и  больше  не  придут,  им  тут  делать  нечего.  Однако,  не  прошло и пяти  минут,  как  в  дверь  снова  позвонили  и  в  квартиру  вошли  два  милиционера.  Один  из  них  сразу   постучал  в  дверь  комнаты  Бориса,  а  войдя,  сказал: - Проверка  документов,  граждане.  Прошу  предъявить  ваши  документы.  Сергей  пытался  объяснить,  что  документы  он  оставил  дома,  в  деревне,  что  привезёт  их  и  предъявит.   Милиционера  это   не  убедило.  Он  предложил  Сергею  пройти  с  ними  в  отделение  милиции. 

В  отделении  на  Пушкинской  было  не  до  него.  Воры,  спекулянты,  свидетели,  потерпевшие  отвлекали  внимание  от  него  внимание  милиционеров.  Наконец,  дошла  очередь  и  до  него.  Присмотревшись  к  нему, узнав  фамилию и имя, капитан  милиции  спросил: - Чем  занимаетесь?  -  Выгуливаю  бродячих  собак, - ответил  Сергей.  – А  в  свободное  от  этого  благородного  дела  время?  -  Устраиваюсь  в  институт,  который  не  успел  закончить  перед  войной.  -  Значит  студент.  Ну,  а  как  с  судимостями?  - Вот  чего  нет того  нет.  Капитан  прищурился,   изобразил  на  своём лице  нечто  ироническое  и  вдруг  резко  сказал:  -  Руки  на  стол.  Увидев  собственные  руки,  Сергей  испугался.  Перед  ним  были  руки  убийцы,  иначе  их  воспринимать  было  трудно.  Узловатые,  грубые,  хищные,  все в татуировках.  -  А  это  что?  - спросил  капитан,  указывая  на  синие  буквы и  рисунки  на  руках,  шпаргалки?  - Ошибки  молодости, - буркнул  Сергей.  – Раздевайтесь,  - приказал  капитан.  Когда  осмотр  закончился,  он  сказал:  -  Длинный  ты  мужик,  Кузнецов,  или  как  там  тебя.  Отпустить  я  тебя,  сам  понимаешь,  без  подарков  не  могу.  Вот  сдашь  нам  свои  пальчики,  мы  узнаем,  кто  ты  такой  и  откуда  взялся,  а  вот  тогда  и  решим,  что  с  тобой  делать.  Кузнецова  обыскали,  отняли  расчёску,   галстук, ремень, вынули  из  туфель  шнурки,  а  также  отняли  таблетки,  которые  ему  дал  хирург.   Он  просил  не  забирать  их,  но  его  не  послушали  и,   лишив  таблеток,    отвели в камеру.
В  помещении этом  не  было ничего,  кроме  пола и тусклой лампочки  под  потолком.  На  полу,  в  углу,  спал  какой-то  парень.  – Вот  тебе и свобода,  вот  тебе и руки-ноги, - подумал  Сергей.  Он  ещё  не  знал  тогда,  какие  сюрпризы  готовит  ему  жизнь.  Узнал  он  о  них  через  неделю,  когда  пришёл  ответ  из  картотеки  об  отпечатках  его  пальцев.  В  тот  день  его  ввели  в  кабинет  начальника  отдела  уголовного  розыска,  где  помимо  допрашивавшего  его  капитана,  находились  ещё  два  работника  милиции в звании  полковника  и  подполковника.  Капитан  предложил  ему  сесть  и  сказал: - Назовите  своё  настоящее  имя и фамилию. – Сергей  Кузнецов.  Капитан  положил  перед  ним  справку,  полученную  из  картотеки,  и  сказал: - «Ознакомьтесь»  Сергей  прочитал  справку  и,  наконец,  узнал  чьи  у  него  руки.  Тут  ему  захотелось  рассказать  милиционерам  всю  историю  с  его  руками  и  ногами,  но  он  не  стал  этого  делать,  помня  настойчивую  просьбу  хирурга.  А  капитан  стал  перечислять  «заслуги»  владельца  его  ног и рук  перед  советским  государством  и  его  гражданами.  – Вы,  -  говорил  капитан,  чётко  выговаривая  каждое  слово, -  гражданин  Морозов,  перед  войной  совершили  два  умышленных  убийства: убийство  гражданки  Тимофеевой  Людмилы  Прохоровны  сопряжённое  с  её  изнасилованием,  и  убийство  гражданина  Кудрина  Игоря  Гавриловича  с  целью  ограбления.  Находясь  в  ходе  расследования  дела,  как  подозреваемый  в совершении этих  преступлений,   под  арестом,  вы  бежали  из  тюрьмы,  а  когда  пришли  немцы,  пошли  к  ним на  службу  и  служили  до  мая  1944-го  года  у  них  полицаем,  участвуя  в  массовых  убийствах  советских  граждан. В  том  же  году,  Вы, как  изменник  Родины,  были  осуждены  трибуналом  к  25  годам  лишения  свободы  и  для  отбывания  наказания  направлены  в  Магаданскую  область,  откуда  направлены  на спец объект  для  дальнейшего  отбывания  наказания.  В  пути  следования  по  морю  от  Магадана  до  Владивостока  вы   ограбили  и  убили  осуждённого  Севера  Морковкина, завладев  имеющимся у  него  золотым  самородком.  Следуя  на  поезде  к  месту  назначения,  воспользовавшись  прохождением  вагона  по  мосту,  бежали.   Следуя  далее на  попутном  поезде  к  Москве,  вы  совершили  умышленное  убийство  сопровождавшего  поезд  стрелка  военизированной  охраны  Храпунова,  а  затем  командированного  из  Москвы  в Хабаровск  Зятина.  Находясь  в  Москве,  вы   в  подъезде  дома  №37  на  Арбате  ударили  ножом   граждан Смирнова  и  Носова,  один  из  которых,  Смирнов,  скончался  на  месте,  а  второй – Носов  в  результате  нанесенного  вами   удара,  получил  тяжкие  телесные  повреждения.  Находясь  там  же,  в  Москве,  вы,  с  целью  ограбления,     совершили  умышленное  убийство  гражданки  Загряжской    и  её  девятилетней  внучки.  Слушая  капитана, он  со  всё  большим  и  большим  ужасом  смотрел  на  свои  руки,   чувствуя,  как  к  горлу   подступает  тошнота.  - Вы  признаёте   себя  виновным  в  совершении   перечисленных  преступлений? -  спросил  капитан  и  Сергей,  выйдя  из  оцепенения,  которое  на  него  нашло,   резко  ответил:  – Нет.  -  Отпечатки  ваших  пальцев  обнаружены  в  квартире  Загряжской,   а  Носов  опознал  вас  по  фотографии.
 -  Он  не  мог  опознать  меня  по  фотографии,  произошло  недоразумение.  И  Сергей   решил,  наконец,  рассказать всё,  что  с  ним  произошло.  Но  тут  капитан  встал,  подошёл  к  нему,  взял  за  волосы и,  посмотрев  в  глаза,  зло  сказал: -  Значит,  русских  слов  не  понимаешь,  гад,  ну  тогда  мы  с  тобой  на твоём  языке   поговорим.  После  этих  слов  Сергей  почувствовал  сильный  удар  сзади.  Его  схватили  за  шиворот,  оттащили  от  стола  и  стали  бить.  В  кабинет  вошли  ещё  два  милиционера.  Впятером  они  стали  играть  им,  как  мячиком,  ногами  и  руками  нанося  удары,  так  что  он  нарывался  то  на  кулаки,  то  на  сапоги  то  одного,  то  другого.  – «Пятый  угол» - мелькнуло  у  него    голове,  -  я  ещё  до  войны  слышал  об  этом  «методе»
Когда,  наконец,  он  потерял  сознание,  его  облили  водой  и  отнесли в камеру,  бросив на пол.  Утром,  когда  проснулся,  у  него  всё  болело,  а  в  голове  стоял  гул,  как-будто  где-то  работал  самолётный   двигатель.  – Если  так  пойдёт  дальше, - подумал  он, -  то  мне  отсюда  живым  не  выбраться.  Сергей  огляделся  и  заметил  в  камере  нового человека.  Это  был  молодой  парень,  на вид  рабочий,  или  строитель.  Того же  мужика,  что  был  раньше,  в  камере  не  было.  Новенький  вскоре  стал  с  ним  делиться  своими  проблемами,  прося  совета. Он  рассказал,  как  в  общежитии  играл  в  карты  с двумя  соседями  по  комнате,  как  двое  его  соседей  поссорились  и  один  убил  другого  ножом,  а  убив,  стал  просить  его,  чтобы  он  взял  вину  на  себя,  как  несудимый,  или  хотя бы  выгородил  его,  показав,  что  убитый  напал  на  него  с  ножом  первый.  Он  это  делать  отказался,  сказав,  что  ты,  мол,  убил  моего  товарища,  а  я  должен  тебя  выручать,  не  много ли  хочешь?  Тот  ответил: - Шкура  ты,   твоему  товарищу  теперь  ничего  не  поможет,  а  мне  вышка  светит,  меня  выручай.  В  ответ  он  сказал  убийце:  - Тебе  о  вышке  надо  было  думать  раньше,  когда ты нож  в  руку  взял,  а  теперь  ты, чтобы  спасти  свою  шкуру,  меня,  своего  товарища,   шкурой  называешь  и  под  статью  подводишь.  Тот  же  взял  нож и  говорит: -  Ну,  мне, что  за  одного,  что  за  двоих  отвечать – всё  едино.  И  на  меня.  Я  тоже достал  нож, ну  и,  короче,  мне  повезло  больше.  Теперь  эти  гниды  на меня  два  трупа вешают,   и  не  того  гада,  а  меня  к  стенке   прислонят.  -  И  что  же  ты  надумал? – спросил  Сергей.  -  А  что  тут  думать,  бежать  надо.  И  они  стали  обсуждать  побег. 
На  следующее  утро  Кузнецова  опять  повели  на  допрос.   На  этот  раз  его  не  били, его  должны  были  предъявить  на  опознание  Носову.   Кроме  Носова  начальник  угро  приготовил  для  него  другой  сюрприз:  через  Гулаг  отыскал  вернувшегося  из  Магадана в  Москву  Кочетова.      Тот,  услышав  о  задержании  негодяя,   убившего его  тёщу  и  внучку, завладевшего  его  самородком,    решил   прикончить  его,  чего  бы  ему  это не  стоило.  -  Вот  тебе  и  обеспеченная  старость,  вот  тебе и домик  в  Крыму  из-за  какой-то  гниды,   выродка….  Войдя  в  кабинет  капитана,  Кочетов  опустил  руку  в  карман,  где  лежал  пистолет.  Спиной  к  нему,  на  стуле  у  стола,   сидел  тот,  кто  разрушил  его  жизнь:   лишил  внучки,  жены,  бросившей  его и  обвинившей в  том,  что  это он всё подстроил, чтобы  избавиться  от её  матери. стрелять  он  не  стал  и  не  потому,  что  передумал  или  побоялся,  а  потому,  что  захотел  взглянуть  в  лицо  убийце,  произнести  ему   свой  приговор.  Он  обошёл  его,  заглянул  в лицо  и  разинул  рот:   перед  ним  сидел  человек  совсем  не  похожий  на  Дмитрия  Морозова.  – Это  не  он, -  сказал  он  капитану. – Приглядитесь, - посоветовал  тот. -  Да  что  там   приглядываться, и  так  видно.  Когда  Кузнецова  среди  троих  не опознал  и  Носов,  настроение  начальника  угро  заметно  испортилось.    Строго  говоря,  после  того,  как  его  никто  не  признал,  а  какие-либо  другие  доказательства  отсутствовали, Кузнецова  надо  было  выпускать.  Но  отпечатки,  что  делать  с  ними,  кто  поймёт  его,  если  он  отпустит  этого  Кузнецова-Морозова?  Ведь  Носков  мог  просто  забыть  его  внешность,  мог  побояться  опознать  его,  мог,  наконец,  из-за сочувствия  к  коллеге  по  цеху,  так  сказать,  покрыть  его.  Кочетов  мог  сделать  вид,  что  не  узнал  его.  У  него  в  кармане  был  пистолет,  это  было  заметно.  Он, возможно,  собирался  убить  мерзавца,  но  не  в  отделении  милиции,  а  тогда,  когда  его  отпустят.  В  такой  ситуации  необходимо  было  найти  фотографию Кузнецова  и  капитан  по  ВЧ  связался  с  тамошним  угро.  Ему  сообщили,  что  Кузнецов  Сергей  Иванович  1920-го  года  рождения  находясь  в  Доме  инвалидов  №17,  совершил  умы-шленное  убийство,  а  во  время  доставления  его  на  судебно-психиатрическую  экспертизу, бежал  и  находится  в  розыске.  Отпечатками  пальцев  Кузнецова  они  не располагают   за  отсутствием у  него  верхних  конечностей равно,  как   и  его  фотографией.  -  Чертовщина  какая-то  без   рук и без  ног,  а  бежал, - подумал  капитан.  Его,  честно  говоря,  смущала  не  только  вся  эта  неразбериха  с  руками  и  лицами,  его  смущала  манера  поведения  и  выражение   глаз  задержанного.  Не  вязались  они  с  его  татуировками  и  биографией.  Он  искал  ответ  на  этот  вопрос,  но  не  находил  и  это  его  угнетало.

Вернувшись  в  камеру,  Кузнецов  сразу  заговорил  с  сокамерником  о  побеге.  Он  чувствовал,  что  долго  не  продержится:  ноги  и  руки у  него  ныли  и  переставали  слушаться.  Решили действовать  по  составленному  им  плану. 
Спустя  пол  часа   после  того,  как  Кузнецова  ввели  в   камеру,  раздался  его  крик: - Помогите!    Дежурный  по  КПЗ открыл  дверь  и  увидел, как  он  держит  за  ноги  парня,  а   тот,  с  петлёй  на  шее (петлю  эту  нарисовал Сергей,  собрав на палец  пыль, которой в помещении  было предостаточно) висит  под  потолком,  у  лампы,  свесив  голову  на бок  и  высунув  язык.  Дежурный  подскочил  к  повешенному,  пытаясь схватить  его  за  ноги,  чтобы  поддержать  и  тем  самым  ослабить  стягивание  петли.  В  этот  момент  самоубийца  оказался  на  полу  и  вместе  с Кузнецовым  схватил дежурного,  засунул  ему  в  рот  свои  подштанники  и связал  ему  руки его  собственным  ремнём.  Затем  «самоубийца»  одел  его  китель, а Кузнецов - фуражку   и  оба  чинно  проследовали  по  коридору  к  выходу  через  дежурную  часть.  Когда  они  вышли  за  дверь,  на  улицу, то до  милиционеров,  находящихся  в  дежурной  части,  наконец,  дошло,  что  продефилировавшие  мимо  них  с  таким  гордым  видом  личности  не  стражи  порядка,  а  арестанты.  Они  кинулись  в  погоню.  Беглецы  же,  выйдя  на  улицу,  побежали  в  разные  стороны.  Кузнецов  перебежал  на Пушкинскую  и,  пробежав  несколько  шагов  по  Столешникову  переулку,  упал  в  траншею,  выкопанную  для  прокладки  то ли газа, то ли  водопровода,  а  парня  на  улице  Горького  схватили  граждане.  Два  милиционера,  присев  на  корточки  у  траншеи,  предложили  Кузнецову  вылезти  и  протянули  ему  руки.  Кузнецов  протянул  им  свои  и  вдруг  почувствовал  сильную  боль  в  плечах.  Не  прошло  и  минуты,  как  толпа  зевак,  собравшихся  у  траншеи,  ахнула,  увидев  сидевших  на  земле  милиционеров,  у  каждого  из  которых  в  руках  было  по  руке  Кузнецова.  Придя  в  себя,  милиционеры  спустились в траншею  и  стали  тащить  из  неё  Кузнецова  за  ноги.  Какой  же  ужас  охватил  окружающих,  когда  те  увидели,  что  милиционеры  оторвали  человеку  и  ноги!  Подошедший  в  это  момент  начальник  угро,  пытаясь  успокоить  собравшихся  граждан,  стал  убеждать  их,  что  это не  ноги и руки,  а  искусно  сделанные  протезы.  Народ  не  хотел  этому  верить  и  кричал  «А  откуда  кровь?!»,  «А  разве  на  протезах  татуировки  бывают?!» и пр. Капитан  пообещал во  всём  разобраться  и  принять  меры.  После  того,  как  толпа  немного  успокоилась,    процессия  отправилась  в  отделение  милиции,  завязав узлом  брюки  и  рукава  одежды  задержанного.  Впереди  шёл  капитан,  за  ним  милиционер  с  ногами  и  руками Кузнецова.  Замыкал шествие  милиционер  со всем остальным,  что  осталось  от  Кузнецова  после  задержания.
Теперь  в  личности Кузнецова можно  было  не  сомневаться.  Надо  было  только  решить,  что  с  ним  делать.  Пока  что  его  отнесли в  КПЗ,  а  ноги и руки  начальник  угро  велел  сложить  у  себя в кабинете.
Вскоре  в  отделении  появились  две  дамы.  Сначала  одна,  светловолосая  и  очень  милая  со скрипкой.  Она  просила  разрешить  ей  свидание  с  Кузнецовым.  Войдя  в   кабинет  начальника  угро  и  увидев  лежавшие  у  стены    ноги  и руки,  она  упала  в  обморок.   Придя   в себя,  спросила: - Вы  его  убили,  или  он  попал  под  трамвай?   Пока  милиционеры  пытались  объяснить  ей  ситуацию,  в  кабинет  ворвалась  рыжая  дама  и,  увидев  руки  и  ноги,  стала  кричать  милиционерам,  что  они  убийцы,  что  они  лишили  его  необходимого  лекарства  и  он  из-за  этого   снова  стал  беспомощным  инвалидом.  Потом,  узнав,  что  женщина  со  скрипкой  тоже  пришла  к  Кузнецову,  набросилась  на  неё  и,  если  бы   не  милиционеры,  разорвала  бы  в  клочья.  Наконец,  когда  дамы  успокоились,  капитан,  начальник  угро,  сказал  им, что  после  оказания  Кузнецову  медицинской   помощи,  он  будет  поставлен  в  известность   об  их  желании  встретиться с ним  и  в  зависимости  от  принятого  им  решения,  им  будет  разрешено  свидание,  или в  этом  свидании  им будет  отказано.  Дамы  же,  наперебой,  стали  говорить,  что  готовы  взять  его  себе  хоть  на  поруки, хоть  как.
Кузнецов,  узнав  об  этом  от  капитана,  задумался.  Стать  обузой  для  Клавы  он  не  хотел,  а  игрушкой  для   Рыжей – тем  более.  Его  потянуло обратно, в  скит,  к  своим  ребятам,  и  он  сказал   капитану: - Скажите  им,  что  я  возвращаюсь  домой. 

Лето  в  монастыре  было  благословенной  порой.  «Самовары»  весь  день  висели  на  старой  большой  яблоне  и,  если б не   деревенские  мальчишки,  которые  иногда  бросали  в  них  шишки и камушки,  всё  было  бы  прекрасно.  Кузнецова  привезли  в  скит  поздно  вечером,  когда  все  спали,  и  тихо  подвесили  на   свободное   место.  Гуськов,  который проснулся  первым,  продрал  глаза,  зевнул  и  уставился  на  Сергея.  – Серёга!  -  нерешительно  сказал  он,  - откуда  ты?  И  тут  же  крикнул: - Мужики,  Серёга  вернулся!   Когда  все  проснулись,  удивлению  и  расспросам  не  было  конца и Сергей  рассказывал,  и рассказывал.  Они  же   ему поведали  о  том,  что  Мария Ивановна  теперь  стала  их  общей  женой,  что  Ляжкина   родила  от  Мити  чёрта с рогами,  а  самого  Митю  убили  деревенские,  что  Иван  Иванович  умер,  а  Лёху  повысили  и  он  стал  старшим  говночистом, что  Михаила  Ефимовича  отпустили, что  Слава  написал  книжку,  а Люба  умерла  с  тоски,  наверное, что  «Слепого»  нашли  и  водворили  на  старое  место,  и  от  него   просочились  сведения  о  том,  что  его  папаша  скоро  умрёт. 
Сергей  слушал   рассказы  скитников,  вспоминал  о  днях,  проведённых  в  Москве,  о  Клаве.  Ему всё  чаще  стали  слышаться  какие-то  голоса,  которые  приказывали  ему то  бежать, то  убивать,  но  внимания  на  них   он  не  обращал.



06.02.12 – 29.03.12. Москва


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